कोरोनावायरस: डराने वाली चिट्ठी

लौकडाउन के दौरान चिट्ठी ने मुझे बहुत डराया. आप शायद मुझे पागल समझ रहे होंगे, लेकिन मेरा फलसफा समझने की कोशिश करेंगे तो आप को लगेगा कि मैं गलत नहीं कह रहा. इस चिट्ठी को पढ़ते हुए मैं जिस भय से गुजर रहा हूं, आप शायद न समझें.

‘आदरणीय अंकल जी,

‘प्रणाम.

‘पिछले 5 दिनों से पुणे के अपने फ्लैट में अकेले पड़ेपड़े मैं ने काफी कुछ सोचा है. सोचा, आप को बता दूं. उम्मीद है पत्र पूरा पढ़ने के बाद आप मुझे पागल नहीं समझेंगे. लौकडाउन के चलते कंपनी में कामकाज ठप  पड़ा है. मैं घर से ही प्रोजैक्ट पूरा कर रहा हूं, लेकिन माहौल देखते काम में मन नहीं लग रहा है.

‘न जाने क्यों मुझे लग रहा है कि सबकुछ खत्म होने वाला है. अपनी 28 साल की छोटी सी जिंदगी में मैं ने ऐसी दहशत कभी नहीं देखी. हमारे अपार्टमैंट के सभी दरवाजे बंद हैं. लोग सन्नाटे में हैं. अधिकतर फैमिली वाले हैं लेकिन कोई गाने नहीं सुन रहा, फिल्में नहीं देख रहा. कभीकभी सामने वाले मालेगांवकर अंकल के फ्लैट से टीवी की आवाज कानों में पड़ जाती है. मुझे एक ही शब्द समझ आता है वह है कोरोना.

‘मैं मानता हूं कि पूरी दुनिया एक अजीब से संकट से घिर गई है जिस से उबरने की तमाम कोशिशें मुझे बेकार लगती हैं. यहां नौकरी जौइन करने के बाद मैं ने आप से और दूसरे रिश्तेदारों से कोई वास्ता नहीं रखा लेकिन जाने क्यों आज आप लोगों की याद बहुत आ रही है. मम्मीपापा भी खूब याद आ रहे हैं. मैं यह मानने में कतई नहीं हिचकिचा रहा कि मैं अव्वल दरजे का खुदगर्ज आदमी हूं. मम्मीपापा की रोड ऐक्सिडैंट में मौत होने के बाद से ही मुझे लगने लगा था कि अब मुझे अकेले ही जीना है.

‘जी तो लिया लेकिन अब सोच रहा हूं कि क्या इसी दिन के लिए जिया था. मेरे कोई खास दोस्त भी नहीं हैं. हकीकत में मेरा इस शब्द पर कभी भरोसा ही नहीं रहा. अब जब मेरे चारों तरफ तनहाई है तब मुझे लग रहा है कि मुझे मर जाना चाहिए.

इन डरेसहमे हुए लोगों के बीच जिंदा

रहने से तो बेहतर है शांति से मर

जाया जाए.

‘थोड़ीथोड़ी देर बाद मुझे महसूस होता है कि कोरोना ने मुझे और मेरे फ्लैट को घेर लिया है. करोड़ों की तादाद में ये वायरस मेरी तरफ बढ़ रहे हैं. कई तो वाशबेसिन पर रखा सैनिटाइजर पीते जोरजोर से हंस रहे हैं. मेरा मास्क उन्होंने कुतर डाला है और बहुत से पिंडली से रेंगते हुए मेरे मुंह की तरफ बढ़ रहे हैं.

‘मैं उन्हें झटकता हूं, फिर घबराहट में अपार्टमैंट के मेन गेट पर आ कर केबिन में सिक्योरिटी गार्ड के पास जा कर बैठ जाता हूं. उस का असली नामपता नहीं मालूम. लेकिन सभी उसे पांडूपांडू कहते हैं. वह भी डरा हुआ है, मेरी तरफ देखता है, फिर हथेली पर तंबाकू रगड़ने लगता है. मुझे लगता है इसे भी इन्फैक्शन है, इसलिए वह मुझ से दूर भागता है. मुझे उस पर दया आती है कि इस बेचारे को इलाज नहीं मिला, तो यह भी मर जाएगा और एकएक कर सारे लोग मर जाएंगे.

‘मैं फिर फ्लैट पर आ जाता हूं लेकिन लिफ्ट से नहीं बल्कि सीढि़यों से क्योंकि लिफ्ट में वायरस मुझे गिरफ्त में ले सकते हैं. 8वें माले पर हांफते हुए चढ़ता हूं, तो लगता है वायरस मेरा पीछा कर रहे हैं. वे कभी भी मुझे जकड़ सकते हैं.

‘आप को याद है पापा एक गाना अकसर गाते थे – ‘जीवन में तू डरना नहीं, सिर नीचा कभी करना नहीं, हिम्मत वाले हो मरना नहीं…

‘लेकिन मुझे लगता है डर से ज्यादा यह अकेलापन मुझे मार रहा है. इसी डर के चलते मैं लैपटौप और टीवी भी नहीं चला रहा क्योंकि उन में से कोरोना निकल कर घर में फैल जाएंगे. खानेपीने का बहुत सा सामान रखा है जो बाजू वाली सिंह आंटी दे गई थीं, लेकिन दूर से मानो मैं संक्रमित होऊं. वे, हालांकि, अच्छी महिला हैं लेकिन सनकी सी भी हैं. पड़ोसी होने के नाते उन का फर्ज बनता है कि वे मेरी खबर लेती रहें पर वे भी स्वार्थी हैं, सब स्वार्थी हैं और आप भी स्वार्थी हैं.

कोरोना ने मुझे सिखाया है कि इस दुनिया में कोई किसी का सगा नहीं है. सारे रिश्तेनाते, यारीदोस्ती खुदगर्जी पर टिकी है जिस का इम्तिहान अब हो रहा है और नतीजे भी सामने आ रहे हैं. सब के सब सभी के होते हुए अकेले हैं, जो कोरोना और डर दोनों से मरेंगे, मैं भी.

‘चारों तरफ सन्नाटा है, कोई हलचल नहीं है. सब बुजदिलों की तरह घरों में दुबके आहिस्ताआहिस्ता आती मौत का इंतजार कर रहे हैं. वे कितने भी हाथ धो लें, बचेंगे नहीं. मैं तो नहा भी नहीं रहा क्या पता शौवर से ही कोरोना बरसने लगें.

‘आप मेरी इन बातों को पागलपन समझ रहे होंगे लेकिन मेरा फलसफा समझने की कोशिश करें तो आप को लगेगा कि मैं गलत नहीं कह रहा था. मैं भगवानवगवान को नहीं मानता, मैं राजनीति के पचड़े में भी नहीं पड़ता. बीटैक और एमबीए करने के बाद से मैं नौकरी कर रहा हूं. औफिस जाता हूं. 12 घंटे मन लगा कर काम करता हूं, खाना खाता हूं, फिर सो जाता हूं.

‘फैमिली सिस्टम में रहने वाले भी इसी तरह रहते हैं लेकिन दिखावा ज्यादा करते हैं वे. बहुत शातिर और धूर्त होते हैं. जिंदगीभर एकदूसरे का शोषण करते हैं, एकदूसरे का इस्तेमाल करते हैं और इसी की कीमत का भी लेनदेन करते हैं. कोरोना इस की पोल खोल रहा है. अगर आज घर में वह किसी को लग जाए तो सभी संक्रमित से दूर भागेंगे जैसे कोढ़ के मरीज से भागते हैं.

‘आइसोलेशन के नाम पर उसे अलग पटक देंगे, छूना तो दूर की बात है, उस की तरफ देखने से भी सहमेंगे. मेरी भी हालत ऐसी ही है. मैं अपने इस फ्लैट में पड़ापड़ा यों ही मर भी जाऊं तो मेरी लाश से उठती दुर्गंध से लोगों को पता चलेगा.

फिर लोग डरेंगे, अपार्टमैंट छोड़ कर भागेंगे. सरकारी अमला पूरी बिल्ंिडग सैनिटाइज करेगा, टीवी वाले आएंगे सनसनी फैलाएंगे. मेरी जन्मपत्री खंगालेंगे. जब कुछ खास जानकारी हाथ नहीं लगेगी तो मुझे लावारिस घोषित कर किसी नई खबर की तरफ दौड़ पड़ेंगे. आप देखना, ये भी मरेंगे जो नाम और पेशे के लिए जान हथेली पर लिए घूम रहे हैं, बल्कि कहना चाहिए कि भटक रहे हैं.

‘खैर मुद्दे की बात यह कि मैं गंभीरतापूर्वक खुदकुशी करने की सोच रहा हूं. मुझ से पलपल की यह मौत सहन नहीं हो रही है. मुझे मालूम है आप मेरा मरा मुंह देखने या मिट्टी ठिकाने लगाने नहीं आएंगे. सही भी है, कोई क्यों यह सिरदर्दी मुफ्त में मोल ले.

‘हां, मैं अगर यह वसीयत कर जाऊं कि मेरे मरने के बाद एक करोड़ का यह फ्लैट और 20-25 लाख रुपए की सेविंग आप की होगी तो यकीन मानें आप सिर के बल दौड़ कर आएंगे. पुणे तक आने का कर्फ्यू पास हाथोंहाथ बनवा लेंगे, सरकारी अफसरों और पुलिस वालों के सामने घडि़याली आंसू बहाएंगे कि भतीजा मर गया है, आखिरी बार देखने और क्रियाकर्म करने जाने दीजिए.

‘आप सोच रहे होंगे, बल्कि तय ही कर चुके होंगे, कि मैं वाकई डिप्रैशन बरदाश्त न कर पाने के कारण पागल हो गया हूं, तो आप गलत सोच रहे हैं. दरअसल, मेरी चिंता असहाय मानव जीवन है. आदमी खुद को ताकतवर कहते गर्व से फूला नहीं समाता लेकिन आज एक मामूली से वायरस के सामने कितना असहाय नजर आ रहा है. सारी साइंस और टैक्नोलौजी महत्त्वहीन हो गई है. कहा यह जा रहा कि सब्र रखो, सब ठीक हो जाएगा. रिसर्च चल रही है.

‘मैं कहता हूं कुछ नहीं हो रहा. आदमी न दिखने वाले इन कीड़ेमकोड़ों की ताकत के सामने कुछ नहीं है. वह प्रकृति की सब से कमजोर कृति है. एक कोरोना नाम के वायरस ने हजारों मार दिए और भी मरेंगे, फिर जब कोरोना का प्रकोप खत्म हो जाएगा तो लैब से कोई दाढ़ी वाला वैज्ञानिक बाहर आएगा, उस के हाथ में कोरोना की एक दवा होगी. लेकिन यह अंत नहीं होगा, जल्द ही कोई नया वायरस पैदा होगा, फिर हाहाकार मचेगा, लौकडाउन होगा और मैं फिर कैद हो कर रह जाऊंगा.

‘जबकि मैं काम करना चाहता हूं, जिंदा रहना चाहता हूं, खिलते हुए फूल देखना चाहता हूं, चहकतेखेलते हुए बच्चे देखना चाहता हूं, खूबसूरत युवतियों का अल्हड़पन देखना चाहता हूं, खूब सी बियर पीना चाहता हूं, सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाना चाहता हूं, व्हाइट सौस के साथ पिज्जा खाना चाहता हूं, हिल स्टेशन जा कर छुट्टियां मनाना चाहता हूं, नएनए ब्रैंड के आफ्टर शेव ट्राई करना चाहता हूं, और तो और, मैं रेल की पटरियों के किनारे शौच करते हुए लोगों को भी देखना चाहता हूं.

‘मैं और भी बहुतकुछ करना चाहता हूं लेकिन यों कैद नहीं रहना चाहता, इसलिए मर जाने का यह बहादुरीभरा फैसला ले रहा हूं जिसे शातिर लोग बुजदिली कहते हैं. कोरोना मेरे दिमाग में आ गया है. मैं मजबूर हूं क्योंकि आधुनिकता की हकीकत मुझे समझ आ गई है.

‘इन क्षणों में मुझे उपदेशकों और आशावादियों पर तरस आ रहा है. ये लोग बहुत चालाक हैं जो चाहते हैं कि लोग जिंदा रहें, दुनिया चलती रहे और ये अपना भोंथरा ज्ञान बघारते रहें. ये खुद मरने से डरते हैं, इसलिए दूसरों को जिंदा रखना चाहते हैं. मेरी खुदकुशी इन के मुंह पर थप्पड़ मारेगी. यह जरूर आप दुनिया को बताएं, बाकी जिसे जो सोचना हो, सोचे. मुझे लग रहा है कोरोना दरवाजे के नीचे से दाखिल हो गया है और इस बार यह मन का वहम नहीं है.

‘चाची को प्रणाम और बच्चों को प्यार,

‘आप का भतीजा.’

मजाक: जो न समझो सो वायरस

 लेखिका- दीपान्विता राय बनर्जी

‘‘अरे साधना, अब गुस्सा थूक भी दो, बहूबेटी में भेद क्या, दोनों ही हमारे भले के लिए कहती हैं. देख नहीं रही हो क्या, इस कोरोनामरोना के चक्कर में हमारी खानदानी जमींदारी तोंद मरियल होती जा रही है, तुम भी थोड़ा सब्र कर लो.’’

‘‘कैसे सब्र कर लूंगी, जिंदगीभर हम ने घीदूध में अपने बच्चों को पाला, अब कल की आई बहू हमें सिखाती है कि हमें क्या और कैसे खाना है. चलो जी, हम अपने घर चलते हैं, यहां बेकार आए थे. अब देखो, कैसे इस वायरस

के चक्कर में फंस गए. कहती है, सामान खर्च करने में काफी सोचविचार करना होगा.

पहले दोपहर के खाने में 2 सब्जियां, दाल, चावल, रोटी, दही, रायता या दहीबडे़ के साथ पापड़, सलाद सबकुछ होता था. दोनों बेटों और तुम्हें हमेशा नौनवेज भी बना कर दिया. रात को फिर अलग सब्जी बनाई, घी में चुपड़ी रोटी के साथ कोई एक हलवा भी होता था या फिर मखाने की खीर. यहां आने के बाद कुछ दिन ठीक बीते, लेकिन अब हम इन पर भारी पड़ गए. कोरोना वायरस के नाम पर खानापीना सब बंद करने पर तुली है यह.’’

‘‘अरे क्या कहा, यही न, कि अब दाल, चावल, सब्जी, दही में ही दोपहर का खाना खत्म करना होगा, तो चलो, यही सही. महीनाभर ही तो हैं यहां.’’

‘‘नहींनहीं, महीनाभर कहां. बेटा तो कह रहा था कि इस चौपट दुनिया में अब मांबाबूजी अकेले क्या रहेंगे. अब हमें इन के साथ ही रहना होगा और इस कलमुंही का और्डर मानना पड़ेगा. देखना, रात को घी वाली रोटी की जगह सूखी रोटी ही मिलेगी. फरमान सुना दिया है महारानी ने.’’

बहू अंजना से रहा नहीं जा रहा था. अभी यह उस की मां होती तो हाथ में बेलनकलछी पकड़े ही वह रसोई से दौड़ी आती और मां पर बरस पड़ती. लेकिन ठहरी सास, सांस ऊपरनीचे हो कर रह गई लेकिन जबान को काबू करते हुए इतना ही कहा, ‘‘मांजी, घर का राशन हमें ज्यादा दिनों तक चलाने लायक खर्चना है, तभी हम ज्यादा से ज्यादा घर में रह पाएंगे

और कम लोगों के संपर्क में आएंगे. घी बनाने लायक मलाईदार दूध नहीं है, तो संकटकाल में इतना सब्र तो कर सकते हैं.’’

‘‘आई बड़ी सब्र सिखाने वाली.’’

‘‘अरे मांजी, सारा देश लौकडाउन है, कर्फ्यू लगा है, कोई निकले तो संक्रमित हो सकता है, समझो न.’’

‘‘फिर झूठ, कोरोना का नाम लेले कर हमारा खानापीना बंद करने पर तुले हैं. क्यों हमारा बेटा नहीं जा रहा है औफिस?’’

‘‘वे रेलवे में हैं न, यहां मेल ट्रेन बंद हैं, सिर्फ गुड्स ट्रेनें चल रही हैं. जरूरत के सामानों की आवाजाही चलाने के लिए यह काम घर से नहीं हो सकता, मां.

‘‘लेकिन आगे आने वाले दिनों में सामानों और खानेपीने की वस्तुओं की भारी किल्लतों का सामना करना पड़ सकता है, इसलिए बचत और कम में गुजारा हमें अभी से सीखना होगा.’’

ये भी पढ़ें- चाहत: क्या शोभा के सपने पूरे हुए?

‘‘हां, अब हमारा खानापीना बंद कर सब का पेट भरेगा. सुबह कहा था, ससुरजी के पसंद की मछली बना लो. बहाना निकल आया, अब रात को कहूंगी कस्टर्ड, तो वह भी नहीं बनेगा.’’

‘‘अरे मांजी, आप को कैसे समझाएं, अब पसंदनापसंद का समय गया. लाखों दिहाड़ी मजदूर अपने घर जाने को तरस गए, सड़कों पर लोगों का रोना लगा है, एक वक्त के लिए दो सूखी रोटी भी नसीब नहीं उन्हें.

‘‘अब घर में रखे सामानों को कटौती से ही खर्चना है. बाहर निकलने की मनाही है, सब को थोड़ाथोड़ा सुधरना ही होगा.’’

‘‘अच्छा हम बिगड़े हैं, जो सुधरेंगे?’’

अंजना को लगा हाथ का बेलन वह अपने ही सिर पर दे मारे, लेकिन तुरंत ‘‘मरजी है आप की,’’ जुमला याद आने से उस ने खुद को जज्ब कर लिया.

अंजना के वहां से जाते ही साधनाजी ने अपनी पुरानी सहेली और कालेज के रिटायर्ड लैक्चचर नन्दाजी को फोन लगाया.

‘‘नन्दा, यहां बेटे के घर कैद हो गई हूं, तुम्हारे घर आ कर कुछ दिन रहना चाहती हूं. यहां न अपनी मरजी से खापी सकती हूं, न आसपास किसी से मिल सकती हूं.

‘‘अरे कोरोना है तो है, हमारे आसपास थोड़े ही है. घर में न पैसे की कमी है, न बाजार दूर है, फिर भी बहू ने बचत के नाम पर हमारी नकेल कसी हुई है. पता नहीं क्यों रातदिन कोरोना का रोना ले कर बैठी है. एक तो घर में कैद, ऊपर से पसंद का खाना भी नहीं. जो भी कहती हूं बनाने को, कहती है कोरोना है.’’

‘‘ठीक ही तो कहती है तुम्हारी बहू्. पढ़ीलिखी सास हो कर भी तुम बहू का नजरिया नहीं समझ रही हो. देश जब भयंकर महामारी की चपेट में है, रोज हजारों मजदूर भूखे बिलख रहे हैं, छोटेछोटे बच्चे भूख से बेहाल सड़क पर आ गए हैं, न ठौर न ठिकाना. ऐसे में कुछ कम में चलेंगे, बचत करेंगे तो आगे यह काम आएंगे. बचत ही तो कमाई है. इस आड़े वक्त में खबरों पर नजर रखो और बहू पर भरोसा.’’

डांवांडोल मन से साधनाजी ने अभी फोन रखा ही था कि बेंगलुरु से उन के बड़े बेटे के लड़के यानी उन के बड़े पोते का फोन आ गया.

पोते से पता चला कि हफ्तेभर से वह अपने किराए के फ्लैट में कैद है.

घर से औफिस का काम तो कर रहा है, लेकिन खानेपीने के सामानों की और घर के सारे काम खुद करने की दिक्कतें बहुत हैं. औनलाइन सारे सामान नहीं पहुंच रहे हैं. काफी कटौती में गुजारा हो रहा है.

पोते पर गहरी आस्था की वजह से दादी के दिमाग का एंटिना अब कुछ सीधा हो चुका था.

ये भी पढ़ें- नई रोशनी की एक किरण

फोन रख कर वह चुपचाप मुंह फुला कर बैठ गईं.

दादा ने कहा, ‘‘तसल्ली हुई? अब मुंह फुला कर बैठे अपना गाल न बजाओ. कमरे से बाहर जा कर बहू

की काम में मदद करो, घर

के बाहर कर्फ्यू है, घर के अंदर नहीं.’’

साधनाजी जराजरा सी रोष वाली नजर पति पर डाल बहू के पास चली आईं.

कमरे में ससुरजी को सुनाई पड़ा, ‘‘लाओ दो, जो भी बना रही हो उस में हाथ बंटा दूं, तुम्हारे ससुरजी की यही इच्छा है.’’

ससुरजी को इस साधना वायरस पर हंसी आ गई, सुधरेगी नहीं. द्य

जीवन की मुसकान

मैंवाईडब्लूसीए से बिजनैस मैनेजमैंट का डिप्लोमा कर रही थी. साल समाप्त होने जा रहा था. अंत में हमें अपनी प्रोजैक्ट रिपोर्ट जमा करानी थी. आखिरी दिन हमारी एक साथी बहुत परेशान थी. किसी व्यक्तिगत समस्या के कारण उस का प्रोजैक्ट तैयार नहीं हो पाया था. वह सब से उन की प्रोजैक्ट रिपोर्ट मांग रही थी कि अगर वे उसे दे दें, तो वह भी उसी तरीके से उसे प्रिंटिंग प्रैस में ले जा कर अपनी भी रिपोर्ट तैयार कर ले. लेकिन कोई भी लड़की उसे देना तो दूर, ठीक से दिखा भी नहीं रही थी.

रोंआसी सी वह मेरे पास आ कर गिड़गिड़ाने लगी. मैं ने अपनी सालभर की मेहनत उस के हाथों में दे दी. वह भागती हुई चली गई. सारी लड़कियों ने मुझे डांटना शुरू कर दिया.

क्लास खत्म हो गई. मैं गेट पर जा कर खड़ी हो गई. धीरेधीरे पूरा कालेज खाली हो गया. आधा घंटा मेरी एक सहेली साथ में खड़ी रही, फिर बाद में मुझे नसीहतें देते हुए वह भी चली गई. अब रोंआसी होने की बारी मेरी थी. करीब और

20-25 मिनट बाद एक औटो तेजी से आ कर मेरे पास रुका. वह लड़की नीचे उतरी और मुझे प्रोजैक्ट रिपोर्ट वापस की. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट तैयार हो रही है और वह वापस वहीं पर जा रही है.

अब मेरी मुसकराहट वापस लौट आई थी. अच्छाई पर अतिविश्वास और अधिक गहरा हो गया था.

मैंऔर मेरे पति हनीमून पर कुल्लू गए. शाम को घूमने निकल गए. ऊंची पहाड़ी पर एक स्मारक बना था, उसे देखने के लिए दोनों पैदल चल पड़े.

मैं ने साड़ी पहनी थी. पहाड़ी पर चलना मुश्किल हो रहा था. तभी एक जीप आ रही थी. उस में बैठे सज्जन ने हमें स्मारक तक लिफ्ट दे दी. वापसी पर भी उन्होंने हमें वापस बाजार तक छोड़ दिया.

जीप से उतरते हुए हमारा कैमरा उसी जीप में छूट गया. जीप वालों का कोई पता नहीं मालूम था. फिर भी उम्मीद में बाजार में वहां वापस गए जहां उन्होंने हमें जीप से उतारा था. अभी हमें वहां पहुंचे 5 मिनट ही हुए थे कि हमें दूर से जीप आती दिखाई दी. जीप हमारे पास रुकी और वे सज्जन बोले, ‘‘बेटे की नजर आप के कैमरे पर पड़ गई थी. आप ने अपने होटल का नाम बताया था, वहीं जा रहे थे.’’

हम ने तहे दिल से उन्हें धन्यवाद दिया.

मजाक: मिलावटी खाओ, एंटीबॉडी बढ़ाओ

लेखक- अशोक गौतम

इधर अखबार में जब से आईसीएमआर की स्टडी की यह रिपोर्ट हिलोरें मार रही है कि कोवैक्सीन और कोविशिल्ड को अगर एकसाथ मिला दिया जाए, तो इस का असर ज्यादा हो जाता है, तब से अपने शहर के नामीगिरामी मिलावट करने वालों की मूंछों की बिना तेल लगाए ही चमक देखने लायक है. भले की कानून के साथ मिलबैठ कर वे मिलावट का धंधा करते रहे हों, पर जनता की नजरों से छिपे रहते थे.

कल वही मिलावटी लाल सरजी मूंछों पर ताव देते सीना चौड़ा कर मेरे सामने पहाड़ से तन कर खड़े हो गए और मेरा रास्ता रोक दिया. उन्होंने सारे बदन पर गजब का इत्र लगाया हुआ था. उन का पूरा बदन उस समय किस्मकिस्म के असलीनकली मिलावटी इत्रों से महक रहा था.

मिलावटी लाल सरजी बोले, “देखो बबुआ, मिक्सिंग का कमाल. तुम लोग नाहक ही हमें तीसरे दर्जे का व्यापारी समझते हो तो समझते रहो, पर आज तो आईसीएमआर की स्टडी में ने भी मिक्सिंग पर अपनी मुहर लगा दी.

“बबुआ, जो सच है, वह सच है. जो सच था, वह सच था. जो सच है, वह सच ही रहेगा. उसे न तुम बदल सकते, न मैं, न कानून. कानून का डर दिखा कर झूठ को सच तो बनाया जा सकता है, पर सच को झूठ नहीं बनाया जा सकता. और सच यही है कि मिलावट के बिना जिंदगी जिंदगी नहीं, मिलावट के बिना इम्यूनिटी इम्यूनिटी नहीं.

Raksha Bandhan Special: सत्य असत्य- भाग 1: क्या निशा ने कर्ण को माफ किया?

 

“हम मानें या न मानें, पर सच तो यही है कि है कि हम लोगों को बिना कौकटेल के कुछ भी पच नहीं सकता. शुद्ध खाने से हम सदियों से बीमार पड़ते रहे हैं. आज भी हम अपनी वही गलती दोहराने की वजह से बीमार पड़ रहे हैं और भविष्य में भी हम ने जो शुद्ध खाने की अपनी गलती नहीं सुधारी तो बीमार पड़ते रहेंगे. हमारी सारी इम्यूनिटी खत्म हो जाएगी, इसीलिए हमें न चाहते हुए भी जनहित में अपनी जान दिखाने को जोखिम में डाल आंखें मूंद जनता की जान बचाने के लिए, जनता की इम्यूनिटी का ग्राफ ऊपर की ओर बढ़ाए रखने के लिए शुद्ध देशी गाय के घी में चरबी मिलानी पड़ती है, असली दूध में नकली दूध मिलाना पड़ता है, चावल में जनता के हित के लिए कंकड़ मिलाने पड़ते हैं, इंगलिश शराब में देशी दारू मिलानी पड़ती है. दक्षिणपंथियों में वामपंथी मिलाने पड़ते हैं.

“किसलिए? इसलिए कि देश की इम्यूनिटी बढ़े, सरकार की इम्यूनिटी बढ़े. हम यह सब इसलिए नहीं करते कि ऐसा करने से हमारा मुनाफा बढ़ता है, बल्कि यह तो हम देश की रोग गतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए करते हैं. और हमारी कोशिशों के नतीजे तुम्हारे सामने हैं.

“कोई हमें चाहे कितना ही देशद्रोही क्यों न कहे, पर हमारे लिए जनता की इम्यूनिटी पहले है, अपना मुनाफा बाद में. पर तुम घटिया सोच वाले हमेशा सोचते उलटा ही हो.

“देशभक्तों को आज देश की चिंता भले ही न हो, पर हमें अपने मुनाफे से ज्यादा जनता की इम्यूनिटी की चिंता है. और ऊपर से एक तुम हो कि रोज सुबह उठ कर सब से पहले मिलावटी दूध की चाय की स्वाद लगा चुसकियां लेते हुए हम मिक्सिंग करने वालों को ही कोसते हो.

“भाई साहब, जो हम दूध में पानी न मिलाते, मसालों में लीद न मिलाते, हलदी में पीला रंग न मिलाते, सच में झूठ न मिलाते, धर्म में लूट न मिलाते, आटे में फाइबर के नाम पर लकड़ी का बुरादा न मिलाते, राग मल्हार में राग गंवार न मिलाते तो बुरा मत मानना भाई साहब, देश में एक भी केवल थाली बजाता, दिन में दीए जलाता कोरोना से कतई भी लड़ नहीं पाता. यह तो हमारी उस मिक्सिंग का ही चमत्कार है, जिस की वजह से इस समय भी देश की इम्यूनिटी सातवें आसमान पर है.

ये भी पढ़ें- धमाका: क्यों शेफाली की जिंदगी बदल गई?

“वैसे गलती से लाख ढूंढ़ने के बाद भी एक तो हमें आज शुद्ध मिलता ही नहीं, पर गलती से जो हम धोखे से शुद्ध खा ही जाते तो इस समय स्वर्ग की हवा खाते होते, क्योंकि शुद्ध खाने वालों में एंटीबौडीज उतने नहीं होते जितने मिक्सिंग किया खानेपीने वालों में होते हैं. यह बात हम बरसों से कह रहे थे, यह बात हम बरसों से जानते थे, पर कोई हमारी बात मानने को तैयार ही न था, घर का एमडी नीम हकीम जो ठहरा. अब आईसीएमआर कह रहा है तो मानना ही पड़ेगा.

“भाई साहब, गए वे दिन जब लापरवाही बढ़ती थी तो दुर्घटना के चांस बढ़ते थे. अब तो लापरवाही में ही सुरक्षा है.”

Short Story: कोरोना का खौफ

मैं पिछले 2 साल से दिल्ली में अपनी चाची के यहां रह कर पढ़ाई कर रही हूं. चाची का घर इसलिए कहा क्योंकि घर में चाचू की नहीं बल्कि चाची की चलती है.

मेरे अलावा घर में 7 साल का गोलू, 14 साल का मोनू और 47 साल के चाचू हैं. गोलू और मोनू चाचू के बेटे यानी मेरे चचेरे भाई हैं.

मार्च 2020 की शुरुआत में जब कोरोना का खौफ समाचारों की हेडलाइन बनने लगा तो हमारी चाचीजी के भी कान खड़े हो गए. वे ध्यान से समाचार पड़तीं और सुनतीं थीं. कोरोना नाम का वायरस जल्दी ही उन का जानी दुश्मन बन गया जो कभी भी चुपके से उन के हंसतेखेलते घर की चहारदीवारी पार कर हमला बोल सकता था. इस अदृश्य मगर खौफनाक दुश्मन से जंग के लिए चाची धीरेधीरे तैयार होने लगी थीं.

“दुश्मन को कभी भी कमजोर मत समझो. पूरी तैयारी से उस का सामना करो.” अखबार पढ़ती चाची ने अपना ज्ञान बघाड़ना शुरू किया तो चाचू ने टोका, “कौन दुश्मन? कैसा दुश्मन?”

“अजी अदृश्य दुश्मन जो पूरी फौज ले कर भारत में प्रवेश कर चुका है. हमले की तैयारी में है. चौकन्ने हो जाओ. हमें डट कर सामना करना है. उसे एक भी मौका नहीं देना है. कुछ समझे.”

नहीं श्रीमतीजी. मैं कुछ नहीं समझा. स्पष्ट शब्दों में समझाओगी.”

“चाचू कोरोना. कोरोना हमारा दुश्मन है. चाची उसी के साथ युद्ध की बात कर रही हैं.” मुस्कुराते हुए मैं ने कहा तो चाची ने हामी भरी, “देखो जी सब से पहला काम, रसद की आपूर्ति करनी जरूरी है. मैं लिस्ट बना:कर दे रही हूं. सारी चीजें ले आओ.”

“तुम्हारे कहने का मतलब राशन है?”

“हां राशन भी है और उस के अलावा भी कुछ जरूरी चीजें ताकि हम खुद को लंबे समय तक मजबूत और सुरक्षित रख सकें.”

इस के कुछ दिन बाद ही अचानक लौकडाउन हो गया. अब तक कोरोना वायरस का खौफ चाची से दिमाग तक चढ़ चुका था. अखबार, पत्रिकाएं, न्यूज़ चैनल और दूसरे स्रोतों से जानकारियां इकट्ठी कर चाची एक बड़े युद्ध की तैयारी में लग गई थीं.

वे दुश्मन को घुसपैठ का एक भी मौका देना नहीं चाहती थीं. इस के लिए उन्होंने बहुत से रास्ते अपनाए थे. आइए आप को भी बताते हैं कि कितनी तैयारी के साथ वे किसी सदस्य को घर से बाहर भेजती और कितनी आफतों के बाद किसी सदस्य को या बाहरी सामान को घर में प्रवेश करने की इजाजत देती थीं.

सुबहसुबह चाचू को टहलने की आदत थी जिस पर चाची ने बहुत पहले ही कर्फ्यू लगा दिया था. मगर चाचू को सुबह में मदर डेयरी से गोलू के लिए गाय का खुला दूध लेने जरूर जाना पड़ता है.

चाचू दूध दूध लाने के लिए सुबह में निकलते तो चाची उन्हें कुछ ऐसे तैयार होने की ताकीद करती,” पजामे के ऊपर एक और पाजामा पहनो. टीशर्ट के ऊपर कुरता डालो. पैरों में मौजा और चेहरे पर चश्मा लगाना मत भूलना. नाक पर मास्क और बालों को सफेद दुपट्टे से ढको. इस दुपट्टे के दूसरे छोर को मास्क के ऊपर कवर करते हुए ले जाओ.”

ये भी पढ़ें- बदला: सुगंधा ने कैसे लिया रमेश से बदला

चाची को डर था कि कहीं मास्क के बाद भी चेहरे का जो हिस्सा खुला रह गया है वहां से कोरोना नाम का दुश्मन न घुस जाए. इसलिए डाकू की तरह पूरा चेहरा ढक कर उन्हें बाहर भेजती.

जब चाचू लौटते तो उन्हें सीधा घर में घुसने की अनुमति कतई नहीं थी. पहले चाचू का चीरहरण चाची के हाथों होता. ऊपर पहनाए गए कुरते पजामे और दुपट्टे को उतार कर बरामदे की धरती पर एक कोने में फेंक दिया जाता. अब मोजे को भी उतरवा कर कोने में रखवाए जाते. फिर सर्फ का झाग वाला पानी ले कर उन के पैरों को 20 सेकंड तक धोया जाता. फिर चप्पल उतरवा कर अंदर बुलाया जाता.

इस बीच अगर उन्होंने गलती से परदा टच भी कर दिया तो चाची तुरंत परदा उतार कर उसी कोने में पटक देतीं. अब चाचू के हाथ धुलाए जाते. पहले 20 सेकंड साबुन से रगड़रगड़ कर. फिर 20 सेकंड डिटॉल हैंडवॉश से ताकि कहीं किसी भी कोने में वायरस के छिपे रह जाने की गुंजाइश भी न रह जाए. इस के बाद उन्हें सीधे गुसलखाने में नहाने के लिए भेज दिया जाता.

अगर चाचू बिना पूछे कुछ ला कर कमरे या फ्रिज में रख देते तो वह हल्ला करकर के पूरा घर सिर पर उठा लेतीं.

चाचू जब दुकान से दूध और दही के पैकेट खरीद कर लाते तो चाची उन्हें भी कम से कम दोदो बार 20 -20 सेकंड तक साबुन से रगड़रगड़ कर धोतीं.

ये भी पढ़ें- मजाक: प्यार का एहसास

एक बात और बता दूं, घर के सभी सदस्यों के लिए बाहर जाने के चप्पल अलग और घर के अंदर घूमने के लिए अलग चप्पल रखवा दी गई थी. मजाल है कि कोई इस बात को नजरअंदाज कर दे.

सब्जी वाले भैया हमारी गली के छोर पर आ कर सब्जियां दे जाते थे. सब्जी खरीदने का काम चाची ने खुद संभाला था. इस के लिए पूरी तैयारी कर के वह खुद को दुपट्टे से ढक कर निकलतीं.

कुछ समय पहले ही उन्होंने प्लास्टिक के थैलों के 2-3 पैकेट खरीद लिए थे. एक पैकेट में 40- 50 तक प्लास्टिक के थैले होते थे. आजकल यही थैले चाची सब्जियां लाने के काम में ला रही थी.

सब्जी खरीदने जाते वक्त वह प्लास्टिक का एक बड़ा थैला लेती और एक छोटा थैला रखतीं. छोटे थैले में रुपएपैसे होते थे जिन्हें वह टच भी नहीं करती थीं. सब्जी वाले के आगे थैला बढ़ा कर कहतीं कि रुपए निकाल लो और चेंज रख दो.

अब बात करते हैं बड़े थैले की. दरअसल चाची सब्जियों को खुद टच नहीं करती थीं. पहले जहां वह एकएक टमाटर देख कर खरीदा करती थीं अब कोरोना के डर से सब्जी वाले को ही चुन कर देने को कहती और खुद दूर खड़ी रहतीं. सब्जीवाला अपनी प्लास्टिक की पन्नी में भर कर सब्जी पकड़ाता तो वह उस के आगे अपना अपना बड़ा थैला कर देती थीं जिस में सब्जी वाले को बिना छुए सब्जी डालनी होती थी.

सब्जी घर ला कर चाची उसे बरामदे में एक कोने में अछूतों की तरह पटक देतीं. 12 घंटे बाद उसे अंदर लातीं और वाशबेसिन में एक चलनी में डाल कर बारबार धोतीं. यहां तक कि सर्फ का झाग वाला पानी 20 सेकंड से ज्यादा समय तक उन पर उड़ेलतीं रहतीं. काफी मशक्कत के बाद जब उन्हें लगता कि अब कोरोना इन में सटा हुआ नहीं रह गया और ये सब्जियां फ्रिज में रखी जा सकती हैं तो धोना बंद करतीं. सब्जी बनाने से पहले भी हल्के गर्म पानी में नमक डाल कर उन्हें भिगोतीं.

दिन में कम से कम 50 बार वह अपना हाथ धोतीं. अखबार छुआ तो हाथ धोतीं सब्जी छू ली तो हाथ धोतीं. दरवाजे का कुंडा या फ्रिज का हैंडल छुआ तो भी हाथ धोतीं. हाथ धोने के बाद भी कोई वायरस रह न जाए इस के लिए सैनिटाइजर भी लगातीं.

नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों में उन के हाथों की त्वचा ड्राई और सफेद जैसी हो गई. उन्हें चर्म रोग हो गया था. इधर पूरे दिन कपड़ों और बर्तनों की बरात धोतेधोते उन्हें सर्दी लग गई. नाक बहने लगी छींकें भी आ गईं.

ये भी पढ़ें- Short Story: जवाब ब्लैकमेल का

अब तो चाची ने घर सर पर उठा लिया. कोरोना के खौफ से वह एक कमरे में बंद हो गईं और खुद को ही क्वॉरेंटाइन कर लिया. डर इतना बढ़ गया कि बैठीबैठी रोने लगतीं. 2 दिन वह इसी तरह कमरे में बंद रहीं.

तब मैं ने समझाया कि हर सर्दी-जुकाम कोरोना नहीं होता. मैं ने उन्हें कुछ दवाइयां दीं और चौथे दिन वह बिल्कुल स्वस्थ हो गईं. मगर कोरोना के खौफ की बीमारी से अभी भी वह आजाद नहीं हो पाईं हैं.

मजाक: अच्छन मियां की अकड़

लेखक-  मौहम्मद आसिफ

अच्छन मियां कठोर दिल के मालिक थे. लंबाचौड़ा कद, आवाज में कड़कपन, रोबदार चेहरा, बड़ीबड़ी मूंछें और सांवला रंग. अपने फायदे के लिए दुनिया के नियमों को ताक पर रखना और दूसरों को रोब दिखा कर अपने बनाए नियमों पर चलाना उन की फितरत थी.

आज अच्छन मियां सवेरे साढ़े 4 बजे नहाधो कर, 5 बजे वाली एकलौती ट्रेन पकड़ने के लिए निकले थे. सफेदी की चमकार लिए पैंटशर्ट, चमड़े के चमचमाते काले जूते पहन कर, लाल और हरी धारियों वाला सफेद अंगोछा अकड़ के साथ कंधे पर डाल कर, मूंछों को ताव देते हुए रिकशा की तलाश करने लगे.

रेलवे स्टेशन 2 किलोमीटर दूर था. स्टेशन के रास्ते की सड़क के गड्ढे सरकार की बदहाली की पोल खोल रहे थे. अच्छन मियां को ट्रेन से ढाई घंटे का सफर तय कर के दूसरे शहर भतीजे की शादी में जाना था.

अच्छन मियां ने छांट कर सब से अच्छे कपड़े सूटकेस में रखे हुए थे. कसबे की बिजली गुल थी. अंधेरे के चलते थोड़ी दूर का रास्ता भी दिखाई नही दे रहा था.

खैर, अच्छन मियां को रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए एक रिकशा दिखाई दिया. उन्होंने आवाज लगाई, ‘‘ओ रिकशा वाले, स्टेशन चलोगे क्या?’’

रिकशा वाला बोला, ‘‘जी बाबूजी…’’

‘‘कितने पैसे लोगे?’’ अच्छन मियां ने पूछा.

‘‘बाबूजी, 20 रुपए…’’ रिकशा वाले ने जवाब दिया.

‘‘अबे, 20 रुपए का काम नहीं है, मगर हम तु झे 20 रुपए देंगे. सही से चलाना. जल्दी से गाड़ी पकड़वा दे.  15 मिनट बचे हैं बस.

अगर गाड़ी छूट गई तो और कोई गाड़ी नहीं है और बस वालों की भी हड़ताल है आज.’’

‘‘जी बाबूजी,’’ रिकशा वाले का जवाब आया.

‘‘जी बाबूजी के बच्चे… जल्दी दौड़ा रिकशा…’’ अच्छन मियां रिकशा में बैठते हुए गुर्राए.

रिकशा स्टेशन की तरफ चल दिया. अंधेरे के चलते स्पीड ब्रेकर और गड्ढे साफ नजर नहीं आ रहे थे. अच्छन मियां ने अपनी जेब में रखी टौर्च निकाली और सोचा कि जला लें… गड्ढे, स्पीड ब्रेकर दिख जाएंगे.

ये भी पढ़ें- खुशी: पायल खुद को छला हुआ क्यों महसूस करती थी?

मगर नाम के उलट अच्छन मियां का कठोर स्वभाव आड़े आ गया. अचानक वे सोचने लगे, ‘हम क्यों जलाएं अपनी टौर्च, यह तो रिकशा वाले का काम है, उस को टौर्च रखनी चाहिए. हमें कौन से गड्ढे देखने हैं, जिसे देखने चाहिए वह खुद देखेगा और गड्ढे नहीं दिखाई दे रहे तो न दें.

‘जैसे भी करेगा, अपनेआप चलाएगा रिकशा, सही से. उस का काम है सहीसलामत हमें स्टेशन तक पहुंचाना. आखिर 20 रुपए किस बात के लेगा…’ यह सोच कर अच्छन मियां ने टौर्च वापस जेब में रख ली.

अभी अच्छन मियां के अशांत मन में विचारों की उधेड़बुन चल ही रही थी कि एक बड़े से गड्ढे में रिकशा का पहिया गया और वह पलट गया.

अच्छन मियां अपनी अकड़ के साथ मुंह के बल जमीन पर आ गिरे. सूटकेस गिर कर खुल गया और कपड़े बिखर गए. वहां पानी भी जमा था. अच्छन मियां समेत सबकुछ नीचे जमीन पर गीली मिट्टी में पड़ा था. अगर कुछ ऊपर था तो वह था अच्छन मियां का एक चमकदार जूता, जो रिकशा के पायदान में अटका रह गया था और रिकशा पलटने के चलते सब से ऊपर जा टंगा था. अब बस यह जूता ही शादी में जाने लायक रह गया था.

ये भी पढ़ें- Short Story: नेहा और साइबर कैफे

मजाक: आज ‘चड्डी दिवस’, कल ‘बनियान दिवस’

लेखक- रामविलास जांगिड़

एक दिन का ‘फादर डे’ भी निबट गया और एक दिन का ‘योगा डे’ भी. फादर नाम के जीव को फिर से वृद्ध आश्रम में जमा करा दें और योगा को भोगा में बदलने का रोगा पाल लें. दोनों का इस्तेमाल कर लिया, फेसबुक पर डाल दिया, ह्वाट्सएप पर सरका दिया, सैल्फीफैल्फी भी ले ली, अब आगे और भी दिन आने वाले हैं, उन की तैयारी में लगना है.

तत्काल इन ‘डेजों’ को लात मार कर ऐसे ही भगाते रहना है. कब तक इन के पीछे पड़े रहेंगे. हमें और भी तो कई दिन मनाने हैं. ‘फादर डे’ पर सैल्फी ले ली है, अब कोई प्राण थोड़े ही देने हैं?

एक दिन का ‘योगा डे’ भी मना लिया बस. रोज योगा करते रहेंगे तो फेसबुक ह्वाट्सएप कौन चलाएगा? सब से ज्यादा जरूरी फेसबुक, ह्वाट्सएप ही हैं. इन के साथ ही हर दिन मनाने के अलगअलग रंगढंग. इन के अलावा संसार में कुछ भी नहीं है. सामने दीवार पर टंगी फादर की तसवीर से नजरें हरगिज न मिलाएं. इन की नसीहतें कौन झेलेगा?

सुबह जल्दी से 10 बजे उठ जाएं. अब बिस्तर के सामने दिखाई देने वाले शौचालय तक पैदल ही जाएं. पैदल चलने के बड़े फायदे होते हैं. नंगे पैर जाएं. इस से आप को उत्तम लाभ होगा.

ये भी पढ़ें- Romantic Story: सच्चा प्रेम

शौचालय में अपना मोबाइल फोन ले जाएं. वहीं पर जरूरी चैटिंग साधना पूरी करें. जरूरी ज्ञानबाजी मोबाइल पर फौरवर्ड करें. इस के बाद धीरेधीरे कमरे से बाहर निकलें और उत्तम स्वास्थ्य के लिए पोहा, फाफड़ा, जलेबी वगैरह के साथ बड़ा वाला कप चायकौफी का नाश्ता डकारें.

इस के बाद पेट वाली डकार हरगिज न लें. कचौरी, समोसा वगैरह ले लें. इतना कर लेंगे तो थकना लाजिमी होगा. इसी समय तुरंत ही पलंग पकड़ लें और दोनों हाथों में अपना वही मोबाइल कस लें.

मोबाइल में योग और ध्यान करने के बहुत सारे मैसेजों को इधरउधर फेंकना शुरू करें. ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी में ज्ञान की बातों को समूहों में सप्लाई कर दें. ऐसा करते हुए आप बुरी तरह थक जाएंगे. अब फादर की तसवीर अपने पीछे रखते हुए सीधे लंच पर टूट पड़ें. दाल, चावल, रोटी, दही, सलाद, रायता, पपड़ी, चटनी, अचार, गुलाब जामुन, रसगुल्ला जोजो भी याद आए, वह सब अपने शरीर में जमा कर लें.

शास्त्रों में कहा गया है कि खायापिया ही अंग लगता है, बिना खाए जंग लगता है, इसलिए खाइए उठिए, उठिए खाइए. उठउठ कर खा जाइए, खा कर फिर खाने के लिए उठ जाइए. अभी पोस्ट लंच, प्री डिनर, डिनर और पोस्ट डिनर में आइसक्रीम, लस्सी, कौफी, दाल मखानी, कड़ाही पनीर, परांठा, पनीर टिक्का वगैरह से मन बहलाएं.

ये भी पढ़ें- Short Story: भटका हुआ आदमी

अब समय रात हो गई है और रात में टहलना बहुत जरूरी होता है. बिस्तर से सोफा और सोफे से टीवी तक चल पड़िए. टीवी से किचन तक टहल लीजिए. रात में नंगे पैर न घूमें. चप्पल पहन लें. हाथों में मोबाइल कस कर पकड़े रहिए. कानों पर हैडफोन चढ़ा लीजिए. चैट, सैट, मैट का आखेट कीजिए.

आज ‘बरमूडा दिवस’ है, उस की सैल्फी खींचखांच कर फेसबुक पर टांगते रहिए. दिन, महीने, साल ऐसे ही गुजारते रहिए. आज ‘चड्डी दिवस’, कल ‘बनियान दिवस’. सैल्फियाते रहिए. जब चादर ओढ़ कर सो जाएं तो मोबाइल को फिर कस कर पकड़ लीजिए. ऐसे ही धरती पर बोझ बनते हुए देर रात स्पैशल चैटिंगें करते रहिए. आज रात 2 बजे जल्दी सो गए? अच्छी आदत है.

Short Story: कोरोना के तांत्रिक बाबा

लेखक- रंगनाथ द्विवेदी

कोरोना के तांत्रिक बाबा मंगरू के 2 चेले भी थे, जिन का नाम खुर्शीद और संजय था. वे दोनों अपने काम में इतने माहिर थे कि कभीकभी तो तांत्रिक गुरु मंगरू की भी खाट खड़ी कर देते थे और इस समय तो कोरोना वायरस जैसी महामारी के चलते इन के तंत्रमंत्र के खेत की फसल खूब लहलहा रही है.

तांत्रिक बाबा के दोनों चेलों ने कोरोना वायरस के तंत्रमंत्र से इलाज से पहले अपने पास रखी पुरानी इनसानी खोपड़ी और हाथ की हड्डी को फेंक कर कब्रिस्तान से एक मजबूत व नई हड्डी और खोपड़ी को ला कर धोयापोंछा और उस का बढि़या सा मेकअप कर दिया.

उसी गांव की ही एक औरत थी, जो तांत्रिक बाबा मंगरू की पुरानी और काफी खेलीखाई हुई कमीशन पर काम करने वाली एजेंट थी. वह दूसरी औरतों को  झाड़फूंक के नाम पर फुसलाने में माहिर थी.

तांत्रिक मंगरू के दोनों चेलों ने उस औरत से मिल कर पूरी योजना सम झाई और कहा कि वह शाम तक 10-12 औरतों का इंतजाम कर के उन्हें मंगरू से मिलवाए और यह बताए कि वे बहुत पहुंचे हुए तांत्रिक हैं, जिन्होंने बड़ेबड़े भूतप्रेत के अलावा कोरोना की भी शैतानी बाधा पर अपनी घोर शैतानी तपस्या से जीत पा ली है. उन्होंने तमाम घरगांव से न जाने कितने लोगों को कोरोना की शैतानी ताकत से नजात दिलाई है और वहां से हमेशा के लिए कोरोना को खत्म कर दिया है.

उन्होंने यह भी बताने को कहा कि कोरोना के तांत्रिक बाबा बंगाल, असम की तंत्र साधना जानने के अलावा लाल किताब के भी बड़े पहुंचे हुए जानकार हैं. वे एक हफ्ते तक ही इस गांव में रुकेंगे, फिर एक अनजानी अंधेरी गुफा में कोरोना के शैतान को मंत्र से बांधने के लिए चले जाएंगे.

रात को तकरीबन 9 बजे वह औरत 20 औरतों के साथ बाबा मंगरू के आश्रम में आई. उस आश्रम में घुसते ही जैसे सभी औरतों की बुद्धि 50 फीसदी कोरोना के तांत्रिक बाबा मंगरू के वश में हो गई. इस की वजह थी अंदर का फैला वह धुआं, जो औरतें सम झ रही थीं कि जादू था.

कोरोना के तांत्रिक बाबा मंगरू भी अपनी तंत्रमंत्र के उस ड्रैस में थे, जो अकसर किसी सुपरहिट भुतहा फिल्म के तांत्रिकों की होती है. इतना ही नहीं, उन्होंने अपने पास तंत्रमंत्र साधना के वे सभी अस्त्रशस्त्र भी रखे हुए थे, जिन्हें देख कर कोई साधारण आदमी बुरी तरह से डर जाए.

ये भी पढ़ें- मां-बाप ने 10,000 रुपए में बेचा बच्चा

कोरोना के तांत्रिक बाबा मंगरू ने अपने घनघोर नाटकीय अंदाज में  कोरोना वायरस की ऐसीतैसी कर देने के लिए सिंदूर से एक लाल सुर्ख आड़ीतिरछी रेखा खींची, जो देखने से ही बहुत डरावनी लग रही थी. उस में से ऐसी चमक निकल रही थी, मानो वहां कोई रोशनी हो गई हो.

फिर मुरदे की हड्डी से उस सिंदूरी रेखा के चारों तरफ अपने हाथों को घुमाना, चीखना, खोपड़ी को छूना, 3 नीबू, एक कागज में रखी लौंग, कपूर, अगरबत्ती… यह कोरोना वायरस को तंत्रमंत्र और इस देश से भगाने की उठापटक का एक अजीब सा सीन था.

तभी बाबा की चेली वह औरत अपने फिक्स तांत्रिक व नाटकीय तरीके से बाल खोले गाली देती हुई सिंदूर वाले घेरे के पास पहुंची और जोरजोर से अजीबअजीब आवाजें निकालने लगी. सारी औरतें एकटक डरीसहमी सी उस को देखने लगीं.

तभी वह औरत उठी और कोरोना के तांत्रिक बाबा मंगरू से उल झ गई. तांत्रिक जैसे हवा में कोरोना वायरस रूपी शैतान और उस के आसपास की चुड़ैलों को कहने लगा, ‘‘जा… मेरे तंत्रमंत्र को चैलेंज मत कर, नहीं तो तुम्हें नष्ट कर दूंगा…’’

इतना कहते ही कोरोना के तांत्रिक बाबा मंगरू ने पास में रखी हुई राख उस औरत पर फेंकी और हाथ से श्मशान वाली हड्डी से उसे पीटा. वह औरत गुर्राते हुए बेहोश हो गई.

उस औरत के बेहोश होते ही कोरोना के तांत्रिक बाबा मंगरू ने अपने तांत्रिक चेलों से चाकू मांगा, फिर उस चाकू से तीनों नीबू में से एक नीबू को काटा तो लाल खून बहने लगा.

इस से वहां मौजूद तमाम औरतों को लगा जैसे उस औरत के अंदर बैठे कोरोना के शैतान व उस के साथ की चुड़ैल को बाबा ने अपने चाकू से काट दिया हो.

उस खून को उन्होंने सिंदूर में मिलाया, फिर दूसरे नीबू को उस औरत के ऊपर काट कर निचोड़ा तो वह औरत अचानक सकपका कर उठी, फिर इस के बाद उस ने कहा, ‘‘मैं कहां हूं? मु झे  क्या हुआ?’’

उस औरत के इतना पूछते ही कोरोना के तांत्रिक बाबा मंगरू ने  झट से तीसरा नीबू काट कर उस खोपड़ी के ऊपर निचोड़ दिया. इतना करते ही वह खोपड़ी और भी खतरनाक और डरावनी दिखने लगी.

ये भी पढ़ें- क्यों होती है ऐसी बेरहमी

फिर बाबा मंगरू के दोनों चेले पैसे ऐंठने के अपने हुनर का इस्तेमाल करने लगे. जब वे इस काम को निबटा कर फारिग हुए, उस के तुरंत बाद ही वह औरत भी अपना हिस्सा लेने आ गई.

ज्यों ही उसे अपने हिस्से का पैसा मिला, वह खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘ये औरतें भी कितनी बेवकूफ होती हैं. अगर ये न हों तो इस तरह कमाने का मौका ही न मिले,’’ इतना कह कर वह अपने घर चली आई.

इस के बाद उस गांव से कोरोना वायरस के शैतान को तंत्रमंत्र से भगाने  के नाम पर बाबा मंगरू ने अपने दोनों चेलों और उस औरत की मिलीभगत से 80,000 रुपए ऐंठ लिए, जबकि वे जानते थे कि कोरोना का इलाज डाक्टर ही कर सकते हैं.

मजाक- लॉकडाउन: शटर डाउन  

सुरेश सौरभ अपनी परचून की दुकान के बाहर दुकानदार बैठा है. उस की दुकान का शटर डाउन है. जैसे ही कोई ग्राहक सामने से दिखता है, उसे रोक कर वह फौरन दुकान की साइड वाली खिड़की से अंदर जा कर, उसी खिड़की से धीरेधीरे सामान सरकाते  हुए अपने ग्राहक को फौरन ही निबटा  देता है. ज्वैलरी वाला अपनी दुकान के खाली पड़े प्लाट में बैठा है.

वह अपने 1-1 परमानैंट कस्टमर को फोन करकर के बुला रहा है. अपने बैग में रखे जेवर दिखादिखा कर ग्राहकों को धीरेधीरे निबटा रहा है. उस की दुकान का शटर डाउन है. दूध डेरी खुली है, सरकारी आदेश पर. उस के पास में मिठाई वाले की दुकान बंद है. मिठाई वाले ने डेरी वाले को कमीशन बेस पर अपनी मिठाइयां सौंप दी हैं.  डेरी वाले ने कपड़े से उस की सारी मिठाइयां ढक दी हैं. अब अपने दूध के साथ उस की मिठाइयों को भी ग्राहकों तक पहुंचाने का सुफल हासिल कर रहा है.

मोटर साइकिल का पंचर बनाने वाला भला आदमी अपनी दुकान के पास ही सुलभ शौचालय के नजदीक कुरसी डाले मजे से बैठा है. वहां से अपनी दुकान के आसपास जब किसी पंचर गाड़ी वाले को ठिठकते देखता है, तो वह वैसे ही उस कस्टमर को सीटी बजा कर इशारे से बुलाता है और उस की सारी टैंशन का समाधान करने के लिए पास ही की एक पतली गली के अंदर उसे ले कर समा जाता है.

ये भी पढ़ें- Father’s Day Special: लाडो का पीला झबला

सरकारी छूट पर ही फलों की रेहड़ी जहांतहां लगी है. उस रेहड़ी वाले से गोलगप्पे वाले ने तय शर्तों पर अपने कुछ भगौने उस की रेहड़ी पर रख दिए हैं, जिन में ताजा गोलगप्पे और गोलगप्पों में भरने के लिए मसाला, पानी, मटर, आलू आदि रखा है.  जो कस्टमर फल लेने आता, उन में से कुछ ग्राहकों को गोलगप्पे वाला पकड़ कर निबटा देता है. दूर से पता यही चल रहा है कि फल का ठेला लगा है. होटल वालों ने तो अपना शटर डाउन कर के नाश्तेखाने की होम डिलीवरी शुरू कर दी है. चाट, डोसे के ठेलेस्टाल  वालों ने अपने घर पर ही धंधा शुरू कर दिया है.

अपनेअपने महल्ले में घरघर जा कर कह दिया है, अगर ताजा चाट और डोसा खाना है, तो धीरेधीरे सरकते हुए हमारे घर तक आने की जहमत करें. उन के यहां सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते हुए धीरेधीरे कस्टमर आ रहे हैं. इसी तरह मीट और चिकन वालों ने भी अपनीअपनी दुकानों का शटर डाउन कर के अपने घरों पर ही धंधा शुरू कर दिया है, सारे कस्टमर फोन से बुलाए जा रहे हैं और धड़ाधड़ माल की सप्लाई हो रही है. कपड़े की दुकान का शटर डाउन है.

बंद शटर की रखवाली में बाहर गार्ड बैठा है. अगर भूलाबिसरा कस्टमर कोई आ जाए, तो वह गार्ड उसे पीछे के दरवाजे से अंदर दुकान में भेज देता है, जहां  कपड़ों की खरीदारी चल रही है. ‘‘पैंट की चैन बनवा लो, बैग की चैन लगवा लो…’’ यह चिल्लाते हुए एक आदमी मेरी कालोनी में अपने गले में बैग डाले घूम रहा था.  मैं ने उस से पूछा, ‘‘लौकडाउन का नियम तोड़ कर दुकानदारी क्यों कर रहे हो मेरे भाई?’’ वह बोला, ‘‘धंधे के टाइम में डिस्टर्ब न करो बड़े भाई.

ये भी पढ़ें- सावित्री और सत्य: त्याग और समर्पण की गाथा

मेरे लिए जब सरकार की कोई गाइडलाइन ही नहीं है, तो मेरे लिए काहे का लौकडाउन…’’ शौपिंग माल वालों की मेन रोड पर दुकानें धुआंधार चल रही थीं. लौकडाउन के बाद उन का शटर डाउन है. अब वे पतलीपतली संकरी गलियों में परचून दुकान की तरह अपनी छोटीछोटी ब्रांचें डाल रहे हैं, जहां खिड़कियों से सामान सप्लाई हो रहा है, क्योंकि सयाने कहते हैं कि खिड़कियों से सामान आसानी से निकाला यानी बेचा जा सकता है और इस से पुलिस से सौ फीसदी तक बचा जा सकता है.

Father’s Day Special- दूसरा पिता: क्या कल्पना को पिता का प्यार मिला?

वह यादों के भंवर में डूबती चली जा रही थी. ‘नहीं, न वह देवदास की पारो है, न चंद्रमुखी. वह तो सिर्फ पद्मा है.’ कितने प्यार से वे उसे पद्म कहते थे. पहली रात उन्होंने पद्म शब्द का मतलब पूछा था. वह झेंपती हुई बोली थी, ‘कमल’.

‘सचमुच, कमल जैसी ही कोमल और वैसे ही रूपरंग की हो,’ उन्होंने कहा था. पर फिर पता नहीं क्या हुआ, कमल से वह पंकज रह गई, पंकजा. क्यों हुआ ऐसा उस के साथ? दूसरी औरत जब पराए मर्द पर डोरे डालती है तो वह यह सब क्यों नहीं सोचा करती कि पहली औरत का क्या होगा? उस के बच्चों का क्या होगा? ऐसी औरतें परपीड़ा में क्यों सुख तलाशती हैं?

हजरतगंज के मेफेयर टाकीज में ‘देवदास’ फिल्म लगी थी. बेटी ने जिद कर के उसे भेजा था, ‘क्या मां, आप हर वक्त घर में पड़ी कुछ न कुछ सोचती रहती हैं, घर से बाहर सिर्फ स्कूल की नौकरी पर जाती हैं, बाकी हर वक्त घर में. ऐसे कैसे चलेगा? इस तरह कसेकसे और टूटेटूटे मन से कहीं जिया जा सकता है?’ लेकिन वह तो जैसे जीना ही भूल गई थी, ‘काहे री कमलिनी, क्यों कुम्हलानी, तेरी नाल सरोवर पानी.’ औरत का सरोवर तो आदमी होता है. आदमी गया, कमल सूखा. औरत पुरुषरूपी पानी के साथ बढ़ती जाती है, ऊपर और ऊपर. और जैसे ही पानी घटा, पीछे हटा, वैसे ही बेसहारा हो कर सूखने लगती है, कमलिनी. यही तो हुआ पद्मा के साथ भी. प्रभाकर एक दिन उसे इस तरह बेसहारा छोड़ कर चले जाएंगे, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. पर ऐसा हुआ.

उस दिन प्रभाकर ने एकदम कह दिया, ‘पद्म, मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता. अगर झगड़ाझंझट करोगी तो ज्यादा घाटे में रहोगी, हार हमेशा औरत की होती है. मुझ से जीतोगी नहीं. इसलिए जो कह रहा हूं, राजीखुशी मान लो. मैं अब मधु के साथ रहना चाहता हूं.’ पति का फैसला सुन कर वह ठगी सी रह गई थी. यह वही मधु थी, जो अकसर उस के घर आयाजाया करती थी. लेकिन उसे क्या पता था, एक दिन वही उस के पति को मोह लेगी. वह भौचक देर तक प्रभाकर की तरफ ताकती रही थी, जैसे उन के कहे वाक्यों पर विश्वास न कर पा रही हो. किसी तरह उस के कंठ से फूटा था, ‘और हमारी बेटी, हमारी कल्पना का क्या होगा?’

ये भी पढ़ें- स्वयंसिद्धा: दादी ने कैसे चुनी नई राह

‘मेरी नहीं, वह तुम्हारी बेटी है, तुम जानो,’ प्रभाकर जैसे रस्सी तुड़ा कर छूट जाना चाहते थे, ‘स्कूल में नौकरी करती हो, पाल लोगी अपनी बेटी को. इसलिए मुझे उस की बहुत फिक्र नहीं है.’

पद्मा हाथ मलती रह गईर् थी. प्रभाकर उसे छोड़ कर चले गए थे. अगर चाहती तो झगड़ाझंझट करती, घर वालों, रिश्तेदारों को बीच में डालती, पर वह जानती थी, सिवा लोगों की झूठी सहानुभूति के उस के हाथ कुछ नहीं लगेगा. समझदार होने पर कल्पना ने एक दिन कहा था, ‘मां, आप ने गलती की, इस तरह अपने अधिकार को चुपचाप छोड़ देना कहां की बुद्धिमत्ता है?’

‘बेटी, अधिकार देने वाला कौन होता है?’ उस ने पूछा था, ‘पति ही न, पुरुष ही न? जब वही अधिकार देने से मुकर जाए, तब कैसा अधिकार?’ पद्मा ने बहुत मुश्किल से कल्पना को पढ़ायालिखाया. मैडिकल की तैयारी के लिए लखनऊ में महंगी कोचिंग जौइन कराई. जब वह चुन ली गई और लखनऊ के ही मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया तो पद्मा बहुत खुश हुई. उस का मन हुआ, उन्नाव जा कर प्रभाकर को यह सब बताए, मधु को जलाए, क्योंकि उस के बच्चे तो अभी तक किसी लायक नहीं हुए थे. वह प्रभाकर से कहना चाहती थी कि वह हारी नहीं. उन्नाव जाने की तैयारी भी की, पर कल्पना ने मना कर दिया, ‘इस से क्या लाभ होगा, मां? जब अब तक आप ने संतोष किया, तो अब तो मैं जल्दी ही बहुतकुछ करने लायक हो जाऊंगी. जाने दीजिए, हम ऐसे ही ठीक हैं.’

पद्मा अकेली हजरतगंज के फुटपाथ पर सोचती चली जा रही थी. जया वहीं से डौलीगंज के लिए तिपहिए पर बैठ कर चली गई थी. उसे मुख्य डाकघर से तिपहिया पकड़ना था. जया और वह एक ही स्कूल में पढ़ाती थीं. पद्मा अकेली फिल्म देखने नहीं जाना चाहती थी. लड़की की जिद बताई तो जया हंस दी, ‘चलो, मैं चलती हूं तुम्हारे साथ. अपने जमाने की प्रसिद्ध फिल्म है.’

पति के छिनते ही पद्मा की जैसे दुनिया ही छिन गई थी. कछुए की तरह अपने भीतर सिमट कर रह गई थी, अपने घर में, अपने कमरे में. कल्पना अकसर कहा करती, ‘मां, आप का जी नहीं घबराता इस तरह गुमसुम रहतेरहते?’

ये भी पढ़ें- Short Story: तुम ही चाहिए ममू

वह हंसने का निष्फल प्रयास करती, ‘कहां हूं गुमसुम, खुश तो हूं.’ पर कहां थी, वह खुश? खाली हाथ, रीता जीवन, एक सतत प्यास लिए सूखा रेगिस्तान मन, उड़ती हुई रेत और सुनसान दिशाएं. औरत, पुरुष के बिना अधूरी क्यों रह जाती है? अपने जीवन से हट कर पद्मा देखी हुई फिल्म के बारे में सोचने लगी…उसे लगा, वह खुद देवदास के किरदार में है, ‘अब तो सिर्फ यही अच्छा लगता है कि कुछ भी अच्छा न लगे,’ ‘यह प्यास बुझती क्यों नहीं’, ‘क्यों पारो की याद सताती है?’, ‘कौन कमबख्त पीता है होश में रहने के लिए? मैं तो पीता हूं जीने के लिए कि कुछ सांसें ले सकूं’, ‘मैं नहीं कर सकता. क्या सभी लोग सभीकुछ करते हैं?’ फिल्म के ऐसे कितने ही वाक्य थे, जो उस के दिलोदिमाग में ज्यों के त्यों खुद से गए थे. क्या हर दुख झेलने वाला व्यक्ति देवदास है? क्या देवदास आज की भी कड़वी सचाई नहीं है?

‘चंद्रमुखी, तुम्हारा यह बाहर का कमरा तो बिलकुल बदल गया.’ क्या जवाब दिया चंद्रमुखी ने, ‘बाहर का ही नहीं, अंदर का भी सब बदल गया है.’

क्या सचमुच वह भी बाहरभीतर से बदल नहीं गई पूरी तरह? चंद्रमुखी ने वेश्या का पेशा छोड़ दिया है. देवदास कहता है, ‘छोड़ तो दिया है, पर औरतों का मन बहुत कमजोर होता है, चंद्रमुखी.’ पद्मा सोचती है, ‘क्या सचमुच औरतों का मन बहुत कमजोर होता है? क्या आदमी का मोह, आदमी की चाह, उसे कभी भी डिगा सकती है? वह कभी भी उस के मोहपाश में बंध कर अपना आगापीछा भुला सकती है?’

अचानक पद्मा हड़बड़ा गई क्योंकि आगे चलता एक व्यक्ति अचानक चकरा कर उस के पास ही फुटपाथ पर गिर पड़ा था. वह कुछ समझ नहीं पाई. बगल के पान वाले की दुकान से पद्मा ने पानी लिया और उस के चेहरे पर छींटे मारे. लोगों की भीड़ जुट गई, ‘कौन है? कहां का है? क्या हुआ?’ जैसे तमाम सवाल थे, जिन के उत्तर उस के पास नहीं थे. लोगों की सहायता से पद्मा ने उस व्यक्ति को एक तिपहिए पर लदवाया, खुद साथ बैठी और मैडिकल कालेज के आपात विभाग पहुंची.

पद्मा ने तिपहिया चालक की सहायता से उस व्यक्ति को उतारा और आपात विभाग में ले जा कर एक बिस्तर पर लिटा दिया. कल्पना को तलाश करवाया तो वह दौड़ी आई, ‘‘क्या हुआ, मां, कौन है यह?’’ पद्मा क्या जवाब देती, हौले से सारी घटना बता दी.

‘‘तुम भी गजब करती हो, मां. ऐसे ही कोई आदमी गिर पड़ा और तुम ले कर यहां चली आईं. मरने देतीं वहीं.’’ उस ने बेटी को अजीब सी नजरों से देखा कि यह क्या कह रही है? मरने देती? सहायता न करती? यह भी कोई बात हुई? अनजान आदमी है तो क्या हुआ, है तो आदमी ही.

‘‘दूसरे लोग उठाते और किसी अस्पताल ले जाते. या फिर पुलिस उठाती. आप क्यों लफड़े में पड़ीं, मरमरा गया तो जवाब कौन देगा?’’ भुनभुनाती कल्पना डाक्टरों के पास दौड़ी.

डाक्टरों ने कल्पना के कारण उस की अच्छी देखभाल की. 2 घंटे बाद उसे होश आया. दाएं हिस्से में जुंबिश खत्म हो गई थी, लकवे का असर था. जब उसे ठीक से होश आ गया तो पद्मा को खुशी हुई, एक अच्छा काम करने का आत्मसंतोष. उस ने उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहीं नहीं और शायद सब कहीं,’’ वह अजीब तरह से मुसकराया. ‘‘हम लोग आप के घर वालों को खबर करना चाहते थे, पर आप की जेब से कोई अतापता नहीं मिला. सिर्फ रुपए थे पर्स में, ये रहे, गिन लीजिए,’’ पद्मा ने पर्स उस की तरफ बढ़ाया.

कल्पना भी निकट आ कर बैठ गई थी. ‘‘मैडम, जो लोग सड़क पर गिरे आदमी को अस्पताल पहुंचाते हैं, वे उस का पर्स नहीं मारते,’’ वह उसी तरह मुसकराता रहा, ‘‘समझ नहीं पा रहा, आप को धन्यवाद दूं या खुद को कोसूं.’’

ये भी पढ़ें- सौतेला बरताव: जिस्म बेचने को मजबूर एक बेटी

‘‘क्यों भला?’’ कल्पना ने पूछा, ‘‘आप के बीवीबच्चे आप की कुशलता सुन कर कितने प्रसन्न होंगे, यह एहसास है आप को?’’ ‘‘कोई नहीं है अब हमारा,’’ वह आदमी उदास हो गया, ‘‘2 साल हुए, हत्यारों ने घर में घुस कर मेरी बेटी और पत्नी के साथ बलात्कार किया था. लड़के ने बदमाशों का मुकाबला किया तो उन लोगों ने तीनों की हत्या कर दी.’’

‘‘यह सुन कर वे दोनों सन्न रह गईं. काफी देर तक खामोशी छाई रही, फिर पद्मा ने पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहां बताऊं? शायद कहीं नहीं. जिस घर में रहता था, वहां हर वक्त लगता है जैसे मेरी बेटी, पत्नी और बेटा लहूलुहान लाशों के रूप में पड़े हैं. इसलिए उस घर से हर वक्त भागा रहता हूं.’’ ‘‘यहां लखनऊ में आप कैसे आए थे?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘इलाहाबाद में किताबों का प्रकाशक हूं. स्कूल, कालेजों की पुस्तकें प्रकाशित करता हूं-पाठ्यपुस्तकों से ले कर कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि तक,’’ वह बोला, ‘‘यहां इसी सिलसिले में आया था. हजरतगंज के एक होटल में ठहरा हूं. एक सिनेमाहौल में पुरानी फिल्म ‘देवदास’ लगी है, उसे देखने गया था कि रास्ते में गश खा कर गिर पड़ा.’’

डाक्टरों से बात कर के कल्पना उस व्यक्ति को मां के साथ घर लिवा लाई, ‘‘चलिए, आप यहीं रहिए कुछ दिन,’’ उस ने कहा, ‘‘हम आप का सामान होटल से ले आते हैं. कमरे की चाबी दीजिए और होटल की कोई रसीद हो, तो वह…’’

‘‘रसीद तो कमरे में ही है, चाबी यह रही,’’ उस ने जेब से निकाल कर चाबी दी. कल्पना ने मां को बताया, ‘‘इन्हें कोई ठंडी चीज मत देना. गरम चाय या कौफी देना.’’

फिर एक पड़ोसी को साथ ले कर कल्पना चली गई. पद्मा कौफी बना लाई. उस व्यक्ति ने किसी तरह बैठने का प्रयास किया, ‘‘बिलकुल इतनी ही उम्र थी मेरी बेटी की,’’ उस का गला भर्रा गया, आंखों में नमी तिर आई.

‘‘भूल जाइए वह सब, जो हुआ,’’ पद्मा बोली, ‘‘आप अकेले नहीं हैं इस धरती पर जिन्हें दुख झेलना पड़ा, ऐसे तमाम लोग हैं.’’ वह कुछ बोला नहीं, भरीभरी आंखों से पद्मा की तरफ देखता रहा और कौफी के घूंट भरता रहा.

‘‘सच पूछिए तो अब जीने की इच्छा ही नहीं रह गई,’’ वह बोला, ‘‘कोई मतलब नहीं रह गया जीने का. बिना मकसद जिंदगी जीना शायद सब से मुश्किल काम है.’’ ‘‘शायद आप ठीक कहते हैं,’’ पद्मा के मुंह से निकल गया, ‘‘मैं ने भी ऐसा ही कुछ अनुभव किया जब कल्पना के पिता ने अचानक एक दिन मुझे छोड़ दिया.’’

‘‘आप जैसी नेक औरत को भी कोई आदमी छोड़ सकता है क्या?’’ उसे विश्वास नहीं हुआ. ‘‘मधु नामक एक लड़की पड़ोस में रहती थी. हमारे घर आतीजाती थी. वे उसी के मोह में फंस गए. कल्पना तब छोटी थी. वे चले गए मुझे छोड़ कर,’’ पता नहीं वह यह सब उस से क्यों कह बैठी.

3-4 दिनों में वह व्यक्ति चलनेफिरने लगा था. एक सुबह पद्मा ने पूछा, ‘‘अभी तक आप ने अपना नाम नहीं बताया?’’

जवाब कल्पना ने दिया, ‘‘कमलकांत,’’ और होटल की रसीद मां की तरफ बढ़ाई, ‘‘रसीद पर इन का यही नाम लिखा है,’’ वह मुसकरा रही थी.

थोड़ी देर बाद जब वह सूटकेस में अपने कपड़े रखने लगा तो पद्मा ने पूछा, ‘‘कहां जाएंगे अब?’’ ‘‘क्या बताऊं?’’ कमलकांत बोला, ‘‘इलाहाबाद ही जाऊंगा. वहां मेरा कुछ काम तो है ही, लोग परेशान हो रहे होंगे.’’

कल्पना ने उस के हाथ से सूटकेस ले लिया, ‘‘आप अभी कहीं नहीं जाएंगे. इतने ठीक नहीं हुए हैं कि कहीं भी जा सकें. दोबारा अटैक हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे. यहीं रहिए कुछ दिन और, अपने दफ्तर में फोन कर दीजिए.’’ पद्मा कुछ बोली नहीं. कहना तो वह भी यही सब चाहती थी, पर अच्छा लगा, बेटी ने ही कह दिया. शायद वह समझ गई, पर क्या समझ गई होगी? देर तक चुप बैठी पद्मा सोचती रही. कहां पढ़ा था उस ने यह वाक्य- ‘प्यार जानने, समझने की चीज नहीं होती, उसे तो सिर्फ महसूस किया जाता है.’

‘क्या कमलकांत उसे अच्छे लगने लगे हैं?’ पद्मा ने अपनेआप से पूछा. एक क्षण को वह सकुचाई. फिर झेंप सी महसूस की, ‘नहीं, अब इस उम्र में फिर से कोई नई शुरुआत करना बहुत मुश्किल है. न मन में उत्साह रहा, न इच्छा. प्रभाकर के साथ जुड़ कर देख लिया. क्या मिला उसे? क्या दोबारा वही सब दोहराए? आदमी का क्या भरोसा? क्यों सोच रही है वह यह सब इस आदमी को ले कर? क्या लगता है यह उस का? कोई भी तो नहीं…क्या सचमुच कोई भी नहीं?’ अचानक उस के भीतर से किसी ने पूछा. और वह अपनेआप को भी कोई सचसच जवाब नहीं दे पाई थी. व्यक्ति दूसरे से झूठ बोल सकता है, अपनेआप से कैसे झूठ बोले?

कल्पना कालेज जाती हुई बोली, ‘‘मां, आप अभी एक सप्ताह की और छुट्टी ले लीजिए, इन की देखरेख कीजिए.’’ पद्मा बुत बनी बैठी रही, न हां बोली, न इनकार किया.

उस के जाने के बाद पद्मा ने छुट्टी की अर्जी लिखी और पड़ोस के लड़के को किसी तरह स्कूल जाने को राजी किया. उस के हाथों अर्जी भिजवाई. शाम को जया आई, ‘‘क्या हुआ, पद्मा?’’ एक अजनबी को घर में देख कर वह भी चकराई.

जवाब देने में वह लड़खड़ा गई, ‘‘क्या बताऊं?’’ जया उसे एकांत में ले गई, ‘‘ये महाशय?’’

सवाल सुन कर पद्मा का चेहरा अपनेआप ही लाल पड़ गया, पलकें झुक गईं. जया मुसकरा दी, ‘‘तो यह बात है… कल्पना के नए पिता?’’

पद्मा अचकचा गई, ‘‘नहीं रे, पर… शायद…’’ बाद में देर तक पद्मा और जया बातें करती रहीं. अंत में जया ने पूछा, ‘‘कल्पना मान जाएगी?’’

‘‘कह नहीं सकती. मेरी हिम्मत नहीं है, जवान बेटी से यह सब कहने की. अगर तू मदद कर सके तो बता.’’ ‘‘कल्पना से कल बात करूंगी,’’ जया बोली, ‘‘और प्रभाकर ने टांग अड़ाई तो…?’’

‘‘इतने सालों से उन्होंने हमारी खबर नहीं ली. मैं नहीं समझती उन्हें कोई एतराज होगा.’’ ‘‘सवाल एतराज का नहीं, कानून का है. आदमी अपना अधिकार कभी भी जता सकता है. तुम स्कूल में अध्यापिका हो, बदनामी होगी.’’

‘‘तब से यही सब सोच रही हूं,’’ पद्मा बोली, ‘‘इसीलिए डरती भी हूं. कुछ तय नहीं कर पा रही कि कदम सही होगा या गलत. एक मन कहता है, कदम उठा लूं, जो होगा, देखा जाएगा. दूसरा मन कहता है, मत उठा. लोग क्या कहेंगे. दुनिया क्या कहेगी. समाज में क्या मुंह दिखाऊंगी. यह उम्र बेटी के ब्याह की है और मैं खुद…’’ पद्मा संकोच में चुप रह गई. ‘‘ठीक है, पहले कल्पना का मन जानने दे, तब तुम से बात करती हूं और कमलकांत से भी कहती हूं,’’ जया चली गई.

पद्मा पास की दुकान से घर की जरूरत की चीजें ले कर आई तो देखा, कमलकांत के पास कल्पना बैठी गपशप कर रही है और दोनों बेहद खुश हैं. ‘‘मां, जया मौसी रास्ते में मिली थीं.’’

सुन कर पद्मा घबरा गई. हड़बड़ाई हुई सामान के साथ सीधे घर में भीतर चली गई कि बेटी का सामना कैसे करे? ?

अचानक कल्पना पीछे से आ कर उस से लिपट गई, ‘‘मां, आप से कितनी बार कहा है, हर वक्त यों मन को कसेकसे मत रहा करिए. कभीकभी मन को ढीला भी छोड़ा जाता है पतंग की डोर की तरह, जिस से पतंग आकाश में और ऊंची उठती जाए.’’ वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए चुप बैठी रही. कल्पना हंसी, ‘‘मैं बहुत खुश हूं. अच्छा लग रहा है कि आप अपने खोल से बाहर आएंगी, जीवन को फिर से जिएंगी, एक रिश्ते के खत्म हो जाने से जिंदगी खत्म नहीं हो जाती…

‘‘मुझे ये दूसरे पिता बहुत पसंद हैं. सचमुच बहुत भले और सज्जन व्यक्ति हैं. हादसे के शिकार हैं, इसलिए थोड़े अस्तव्यस्त हैं. मुझे विश्वास है, हमारा प्यार मिलेगा तो ये भी फिर से खिल उठेंगे.’’ पता नहीं पद्मा को क्या हुआ, उस ने बेटी को बांहों में भर कर कई बार चूम लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी और कल्पना मां का यह नया रूप देख कर चकित थी.

नेहरू पैदा कर गए ऑक्सीजन की समस्या

लेखक- सुरेश सौरभ   

हमारे मोदीजी नाली की गैस से खाना बनाने वाली, चाय बनाने वाली गैस तो बना सकते हैं, पर औक्सीजन नहीं बना सकते, क्योंकि औक्सीजन की उन्हें कभी जरूरत ही नहीं पड़ी, न ही बनाने के लिए उन से किसी ने कभी कहा. पर इतना बड़का राम मंदिर बना रहे हैं, जिस के सहारे हमारे मोदीजी सत्ता में आए और बड़काबड़का सब लोगों के लिए काम कर रहे हैं.

दुनिया में सब से बड़ी पटेल की करोड़ों रुपए लगा कर मूर्ति लगवाई. अपने नाम से करोड़ों रुपए का स्टेडियम बनवाया है. नई संसद बनाने का करोड़ों का बजट पास कर दिया है. करोड़ों रुपए की लागत से अपनी पार्टी के दफ्तर बनवा दिए हैं. ये सब क्या कम महान काम हैं.

अब लोग कोरोना मारामारी में, औक्सीजन की कमी से, डाक्टरों की कमी से, दवाओं की कमी से, अस्पतालों की कमी से मर रहे हैं, तो इस में हमारे मोदीजी का क्या कुसूर है. इस में जरूर पाकिस्तान की साजिश है. यह कोरोना बम जमातियों के बाद पाकिस्तानियों ने ही फोड़ा है.

हमारे मोदीजी के तो कुंभ में नहाने वाले भक्त, उन की रैली में आने वाले हजारों समर्थक कोरोना घटाने का लगातार काम किए हैं. वैसे भी अस्पताल हमारे मोदीजी से किसी ने मांगा नहीं था. उन की पार्टी का एजेंडा भी नहीं था, फिर काहे मोदीजी बनवा देते. मोदीजी क्या हमारे फेंकू हैं, जो कहते मंदिर और बनवाते अस्पताल.

ये भी पढ़ें- संजोग: मां-बाप के वैचारिक मतभेद के कारण विवेक ने क्या लिया फैसला?

अब पाकिस्तानी लोग कह रहे हैं  कि इमरान खान ने एक साल में अपने अस्पतालों, डाक्टरों की तादाद बढ़ा कर महामारी पर बिना लौकडाउन लगाए काफी हद तक कोरोना पर काबू पा लिया, पर हमारे मोदीजी नाकाम रहे. यह सब पाकिस्तानी व खालिस्तानी सोच वाले बकवास करते हैं. वे यह नहीं देखते कि पाकिस्तान ने अपनी माली तंगी के चलते गधे तक बेच डाले, हमारे मोदीजी ने  कुछ बेचा?

अरे, विनिवेश किए हैं देश की दशा सुधारने के लिए. उस पर भी देशद्रोही लोग कह रहे हैं कि मोदीजी ने देश बेच दिया, बेकारी बढ़ा दी. अब जनता ने औक्सीजन मांगी है, अस्पताल मांगे हैं, तो वह भी मिलेगा, पर पहले चुनाव निबट जाने दो. तब तक रामचरित मानस पढ़ें, कोरोना भगाएं, राजनाथ सिंह के मन की यह बात मानें.

ये भी पढ़ें- वह लड़का: जाने-अनजाने जब सपने देख बैठा जतिन

वेदों का श्रवण कर के हमारे ऋषिमुनि हजारों बरस तक बिना हवापानी के जीते थे, तीरथ की यह नेक सलाह मानें. और जो लोग पीएम केयर फंड का हिसाब मांग रहे हैं, वे यह क्यों भूल जाते हैं कि देशहित में क्या रैली मुफ्त में हो जाती है?

हमारे मोदीजी जब रैली में पैसा लगा कर चुनाव जीतेंगे, तभी तो वे सब की केयर और सब का साथ सब का विकास कर सकेंगे. फिर भी ये पीएम केयर फंड का हिसाब मांगने वाले पता नहीं क्यों हमारे मोदीजी को फालतू में चोर कहने की नाजायज कोशिश कर रहे हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें