लेखिका- दीपान्विता राय बनर्जी

‘‘अरे साधना, अब गुस्सा थूक भी दो, बहूबेटी में भेद क्या, दोनों ही हमारे भले के लिए कहती हैं. देख नहीं रही हो क्या, इस कोरोनामरोना के चक्कर में हमारी खानदानी जमींदारी तोंद मरियल होती जा रही है, तुम भी थोड़ा सब्र कर लो.’’

‘‘कैसे सब्र कर लूंगी, जिंदगीभर हम ने घीदूध में अपने बच्चों को पाला, अब कल की आई बहू हमें सिखाती है कि हमें क्या और कैसे खाना है. चलो जी, हम अपने घर चलते हैं, यहां बेकार आए थे. अब देखो, कैसे इस वायरस

के चक्कर में फंस गए. कहती है, सामान खर्च करने में काफी सोचविचार करना होगा.

पहले दोपहर के खाने में 2 सब्जियां, दाल, चावल, रोटी, दही, रायता या दहीबडे़ के साथ पापड़, सलाद सबकुछ होता था. दोनों बेटों और तुम्हें हमेशा नौनवेज भी बना कर दिया. रात को फिर अलग सब्जी बनाई, घी में चुपड़ी रोटी के साथ कोई एक हलवा भी होता था या फिर मखाने की खीर. यहां आने के बाद कुछ दिन ठीक बीते, लेकिन अब हम इन पर भारी पड़ गए. कोरोना वायरस के नाम पर खानापीना सब बंद करने पर तुली है यह.’’

‘‘अरे क्या कहा, यही न, कि अब दाल, चावल, सब्जी, दही में ही दोपहर का खाना खत्म करना होगा, तो चलो, यही सही. महीनाभर ही तो हैं यहां.’’

‘‘नहींनहीं, महीनाभर कहां. बेटा तो कह रहा था कि इस चौपट दुनिया में अब मांबाबूजी अकेले क्या रहेंगे. अब हमें इन के साथ ही रहना होगा और इस कलमुंही का और्डर मानना पड़ेगा. देखना, रात को घी वाली रोटी की जगह सूखी रोटी ही मिलेगी. फरमान सुना दिया है महारानी ने.’’

बहू अंजना से रहा नहीं जा रहा था. अभी यह उस की मां होती तो हाथ में बेलनकलछी पकड़े ही वह रसोई से दौड़ी आती और मां पर बरस पड़ती. लेकिन ठहरी सास, सांस ऊपरनीचे हो कर रह गई लेकिन जबान को काबू करते हुए इतना ही कहा, ‘‘मांजी, घर का राशन हमें ज्यादा दिनों तक चलाने लायक खर्चना है, तभी हम ज्यादा से ज्यादा घर में रह पाएंगे

और कम लोगों के संपर्क में आएंगे. घी बनाने लायक मलाईदार दूध नहीं है, तो संकटकाल में इतना सब्र तो कर सकते हैं.’’

‘‘आई बड़ी सब्र सिखाने वाली.’’

‘‘अरे मांजी, सारा देश लौकडाउन है, कर्फ्यू लगा है, कोई निकले तो संक्रमित हो सकता है, समझो न.’’

‘‘फिर झूठ, कोरोना का नाम लेले कर हमारा खानापीना बंद करने पर तुले हैं. क्यों हमारा बेटा नहीं जा रहा है औफिस?’’

‘‘वे रेलवे में हैं न, यहां मेल ट्रेन बंद हैं, सिर्फ गुड्स ट्रेनें चल रही हैं. जरूरत के सामानों की आवाजाही चलाने के लिए यह काम घर से नहीं हो सकता, मां.

‘‘लेकिन आगे आने वाले दिनों में सामानों और खानेपीने की वस्तुओं की भारी किल्लतों का सामना करना पड़ सकता है, इसलिए बचत और कम में गुजारा हमें अभी से सीखना होगा.’’

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‘‘हां, अब हमारा खानापीना बंद कर सब का पेट भरेगा. सुबह कहा था, ससुरजी के पसंद की मछली बना लो. बहाना निकल आया, अब रात को कहूंगी कस्टर्ड, तो वह भी नहीं बनेगा.’’

‘‘अरे मांजी, आप को कैसे समझाएं, अब पसंदनापसंद का समय गया. लाखों दिहाड़ी मजदूर अपने घर जाने को तरस गए, सड़कों पर लोगों का रोना लगा है, एक वक्त के लिए दो सूखी रोटी भी नसीब नहीं उन्हें.

‘‘अब घर में रखे सामानों को कटौती से ही खर्चना है. बाहर निकलने की मनाही है, सब को थोड़ाथोड़ा सुधरना ही होगा.’’

‘‘अच्छा हम बिगड़े हैं, जो सुधरेंगे?’’

अंजना को लगा हाथ का बेलन वह अपने ही सिर पर दे मारे, लेकिन तुरंत ‘‘मरजी है आप की,’’ जुमला याद आने से उस ने खुद को जज्ब कर लिया.

अंजना के वहां से जाते ही साधनाजी ने अपनी पुरानी सहेली और कालेज के रिटायर्ड लैक्चचर नन्दाजी को फोन लगाया.

‘‘नन्दा, यहां बेटे के घर कैद हो गई हूं, तुम्हारे घर आ कर कुछ दिन रहना चाहती हूं. यहां न अपनी मरजी से खापी सकती हूं, न आसपास किसी से मिल सकती हूं.

‘‘अरे कोरोना है तो है, हमारे आसपास थोड़े ही है. घर में न पैसे की कमी है, न बाजार दूर है, फिर भी बहू ने बचत के नाम पर हमारी नकेल कसी हुई है. पता नहीं क्यों रातदिन कोरोना का रोना ले कर बैठी है. एक तो घर में कैद, ऊपर से पसंद का खाना भी नहीं. जो भी कहती हूं बनाने को, कहती है कोरोना है.’’

‘‘ठीक ही तो कहती है तुम्हारी बहू्. पढ़ीलिखी सास हो कर भी तुम बहू का नजरिया नहीं समझ रही हो. देश जब भयंकर महामारी की चपेट में है, रोज हजारों मजदूर भूखे बिलख रहे हैं, छोटेछोटे बच्चे भूख से बेहाल सड़क पर आ गए हैं, न ठौर न ठिकाना. ऐसे में कुछ कम में चलेंगे, बचत करेंगे तो आगे यह काम आएंगे. बचत ही तो कमाई है. इस आड़े वक्त में खबरों पर नजर रखो और बहू पर भरोसा.’’

डांवांडोल मन से साधनाजी ने अभी फोन रखा ही था कि बेंगलुरु से उन के बड़े बेटे के लड़के यानी उन के बड़े पोते का फोन आ गया.

पोते से पता चला कि हफ्तेभर से वह अपने किराए के फ्लैट में कैद है.

घर से औफिस का काम तो कर रहा है, लेकिन खानेपीने के सामानों की और घर के सारे काम खुद करने की दिक्कतें बहुत हैं. औनलाइन सारे सामान नहीं पहुंच रहे हैं. काफी कटौती में गुजारा हो रहा है.

पोते पर गहरी आस्था की वजह से दादी के दिमाग का एंटिना अब कुछ सीधा हो चुका था.

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फोन रख कर वह चुपचाप मुंह फुला कर बैठ गईं.

दादा ने कहा, ‘‘तसल्ली हुई? अब मुंह फुला कर बैठे अपना गाल न बजाओ. कमरे से बाहर जा कर बहू

की काम में मदद करो, घर

के बाहर कर्फ्यू है, घर के अंदर नहीं.’’

साधनाजी जराजरा सी रोष वाली नजर पति पर डाल बहू के पास चली आईं.

कमरे में ससुरजी को सुनाई पड़ा, ‘‘लाओ दो, जो भी बना रही हो उस में हाथ बंटा दूं, तुम्हारे ससुरजी की यही इच्छा है.’’

ससुरजी को इस साधना वायरस पर हंसी आ गई, सुधरेगी नहीं. द्य

जीवन की मुसकान

मैंवाईडब्लूसीए से बिजनैस मैनेजमैंट का डिप्लोमा कर रही थी. साल समाप्त होने जा रहा था. अंत में हमें अपनी प्रोजैक्ट रिपोर्ट जमा करानी थी. आखिरी दिन हमारी एक साथी बहुत परेशान थी. किसी व्यक्तिगत समस्या के कारण उस का प्रोजैक्ट तैयार नहीं हो पाया था. वह सब से उन की प्रोजैक्ट रिपोर्ट मांग रही थी कि अगर वे उसे दे दें, तो वह भी उसी तरीके से उसे प्रिंटिंग प्रैस में ले जा कर अपनी भी रिपोर्ट तैयार कर ले. लेकिन कोई भी लड़की उसे देना तो दूर, ठीक से दिखा भी नहीं रही थी.

रोंआसी सी वह मेरे पास आ कर गिड़गिड़ाने लगी. मैं ने अपनी सालभर की मेहनत उस के हाथों में दे दी. वह भागती हुई चली गई. सारी लड़कियों ने मुझे डांटना शुरू कर दिया.

क्लास खत्म हो गई. मैं गेट पर जा कर खड़ी हो गई. धीरेधीरे पूरा कालेज खाली हो गया. आधा घंटा मेरी एक सहेली साथ में खड़ी रही, फिर बाद में मुझे नसीहतें देते हुए वह भी चली गई. अब रोंआसी होने की बारी मेरी थी. करीब और

20-25 मिनट बाद एक औटो तेजी से आ कर मेरे पास रुका. वह लड़की नीचे उतरी और मुझे प्रोजैक्ट रिपोर्ट वापस की. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट तैयार हो रही है और वह वापस वहीं पर जा रही है.

अब मेरी मुसकराहट वापस लौट आई थी. अच्छाई पर अतिविश्वास और अधिक गहरा हो गया था.

मैंऔर मेरे पति हनीमून पर कुल्लू गए. शाम को घूमने निकल गए. ऊंची पहाड़ी पर एक स्मारक बना था, उसे देखने के लिए दोनों पैदल चल पड़े.

मैं ने साड़ी पहनी थी. पहाड़ी पर चलना मुश्किल हो रहा था. तभी एक जीप आ रही थी. उस में बैठे सज्जन ने हमें स्मारक तक लिफ्ट दे दी. वापसी पर भी उन्होंने हमें वापस बाजार तक छोड़ दिया.

जीप से उतरते हुए हमारा कैमरा उसी जीप में छूट गया. जीप वालों का कोई पता नहीं मालूम था. फिर भी उम्मीद में बाजार में वहां वापस गए जहां उन्होंने हमें जीप से उतारा था. अभी हमें वहां पहुंचे 5 मिनट ही हुए थे कि हमें दूर से जीप आती दिखाई दी. जीप हमारे पास रुकी और वे सज्जन बोले, ‘‘बेटे की नजर आप के कैमरे पर पड़ गई थी. आप ने अपने होटल का नाम बताया था, वहीं जा रहे थे.’’

हम ने तहे दिल से उन्हें धन्यवाद दिया.

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