
भारतीय सैन्य अकादमी में आज ‘पासिंग आउट परेड’ थी. सभी कैडेट्स के चेहरों पर खुशी झलक रही थी. 2 वर्ष के कठिन परिश्रम का प्रतिफल आज उन्हें मिलने वाला था. लेफ्टिनेंट जनरल जेरथ खुद परेड के निरीक्षण के लिए आए थे. अधिकांश कैडेट्स के मातापिता, भाईबहन भी अपने बच्चों की खुशी में सम्मिलित होने के लिए देहरादून आए हुए थे. चारों ओर खुशी का माहौल था.
नमिता आज बहुत गर्व महसूस कर रही थी. उस की खुशी का पारावार न था. वर्षों पूर्व संजोया उस का सपना आज साकार होने जा रहा था. वह ‘बैस्ट कैडेट’ चुनी गई थी. जैसे ही उसे ‘सोवार्ड औफ औनर’ प्रदान किया गया, तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा ग्राउंड गूंज उठा.
परेड की समाप्ति के बाद टोपियां उछालउछाल कर नए अफसर खुशी जाहिर कर रहे थे. महिला अफसरों की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था. उन्होंने दिखा दिया था कि वे भी किसी से कम नहीं हैं. नमिता की नजरें भी अपनों को तलाश रही थीं. परिवारजनों की भीड़ में उस की नजरें अपने प्यारे अब्दुल मामा और अपनी दोनों छोटी बहनों नव्या व शमा को खोजने लगीं. जैसे ही उस की नजर दूर खड़े अब्दुल मामा व अपनी बहनों पर पड़ी वह बेतहाशा उन की ओर दौड़ पड़ी.
अब्दुल मामा ने नमिता के सिर पर हाथ रखा और फिर उसे गले लगा लिया. आशीर्वाद के शब्द रुंधे गले से बाहर न निकल पाए. खुशी के आंसुओं से ही उन की भावनाएं व्यक्त हो गई थीं. नमिता भी अब्दुल मामा की ऊष्णता पा कर फफक पड़ी थी.
‘अब्दुल मामा, यह सब आप ही की तो बदौलत हुआ है, आप न होते तो हम तीनों बहनें न तो पढ़लिख पातीं और न ही इस योग्य बन पातीं. आप ही हमारे मातापिता, दादादादी और भैया सबकुछ हैं. सचमुच महान हैं आप,’ कहतेकहते नमिता की आंखों से एक बार फिर अश्रुधारा बह निकली. उस की पलकें कुछ देर के लिए मुंद गईं और वह अतीत में डूबनेउतराने लगी.
मास्टर रामलगन दुबे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. नमिता, नव्या व शमा उन की 3 प्यारीप्यारी बेटियां थीं. पढ़ने में एक से बढ़ कर एक. मास्टरजी को उन पर बहुत गर्व था. मास्टरजी की पत्नी रामदुलारी पढ़ीलिखी तो न थी, पर बेटियों को पढ़ने के लिए अकसर प्रेरित करती रहती. बेटियों की परवरिश में वह कभी कमी न छोड़ती. मास्टरजी का यहांवहां तबादला होता रहता, पर रामदुलारी मास्टरजी के पुश्तैनी कसबाई मकान में ही बेटियों के साथ रहती. मास्टरजी बस, छुट्टियों में ही घर आते थे.
पासपड़ोस के सभी लोग मास्टरजी और उन के परिवार की बहुत इज्जत करते थे. पूरा परिवार एक आदर्श परिवार के रूप में जाना जाता था. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. मास्टरजी की तीनों बेटियां मनोयोग से अपनीअपनी पढ़ाई कर रही थीं.
एक दिन मास्टरजी को अपनी पत्नी के साथ किसी रिश्तेदार की शादी में जाना पड़ा. पढ़ाई के कारण तीनोें बेटियां घर पर ही रहीं. शादी से लौटते समय जिस बस में मास्टरजी आ रहे थे, वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई. नहर के पुल पर ड्राइवर नियंत्रण खो बैठा. बस रेलिंग तोड़ती हुई नहर में जा गिरी. मास्टरजी, उन की पत्नी व कई अन्य लोगों की दुर्घटनास्थल पर ही मौत हो गई.
जैसे ही दुर्घटना की खबर मास्टरजी के घर पहुंची, तीनों बेटियां तो मानो जड़वत हो गईं. उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. जैसे ही उन की तंद्रा लौटी तो तीनों के सब्र का बांध टूट गया. रोरो कर उन का बुरा हाल हो गया.
जब नमिता ने अपने मातापिता की चिता को मुखाग्नि दी तो वहां मौजूद लोगों की आंखें भी नम हो गईं. सभी सोच रहे थे कि कैसे ये तीनों लड़कियां इस भारी मुश्किल से पार पाएंगी. सभी की जबान पर एक ही बात थी कि इतने भले परिवार को पता नहीं किस की नजर लग गई. सभी लोग तीनों बहनों को दिलासा दे रहे थे.
नमिता ने जैसेतैसे खुद पर नियंत्रण किया. वह सब से बड़ी जो थी. दोनों छोटी बहनों को ढाढ़स बंधाया. तीनों ने मुसीबत का बहादुरी से सामना करने की ठान ली.
तेरहवीं की रस्मक्रिया के बाद तीनों बहनें दोगुने उत्साह से पढ़ाई करने में जुट गईं. उन्होंने अपने मातापिता के सपने को साकार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था. उन्हें आर्थिक चिंता तो नहीं थी, पर मातापिता का अभाव उन्हेें सालता रहता.
अगले वर्ष नमिता ने कालेज में प्रवेश ले लिया था. अपनी प्रतिभा के बल पर वह जल्दी ही सभी शिक्षकों की चहेती बन गई. पढ़ाई के साथसाथ वह अन्य कार्यक्रमों में भी भाग लेती थी. उस की हार्दिक इच्छा सेना में अफसर बनने की थी. इसी के वशीभूत नमिता ने एनसीसी ले ली. अपने समर्पण के बल पर उस ने शीघ्र ही अपनेआप को श्रेष्ठ कैडेट के रूप में स्थापित कर लिया.
परेड के बाद अकसर नमिता को घर पहुंचने में देर हो जाती. उस दिन भी परेड समाप्त होते ही वह चलने की तैयारी करने लगी. शाम हो गई थी. कालेज के गेट के बाहर वह देर तक खड़ी रही, पर कोई रिकशा नहीं दिखाई दिया. आकाश में बादल घिर आए थे. बूंदाबांदी के आसार बढ़ गए थे. वह चिंतित हो गई थी, तभी एक रिकशा उस के पास आ कर रुका. चेकदार लुंगी पहने, सफेद कुरता, सिर पर टोपी लगाए रिकशा चालक ने अपनी रस घोलती आवाज में पूछा, ‘बिटिया, कहां जाना है?’
‘भैया, घंटाघर के पीछे मोतियों वाली गली तक जाना है, कितने पैसे लेंगे?’ नमिता ने पूछा.
‘बिटिया पहले बैठो तो, घर पहुंच जाएं, फिर पैसे भी ले लेंगे.’
नमिता चुपचाप रिकशे में बैठ गई.
बूंदाबांदी शुरू हो गई. हवा भी तेज गति से बहने लगी थी. अंधेरा घिरने लगा था.
‘भैया, तेजी से चलो,’ नमिता ने चिंतित स्वर में कहा.
‘भैया कहा न बिटिया, तनिक धीरज रखो और विश्वास भी. जल्दी ही आप को घर पहुंचा देंगे,’ रिकशे वाले भैया ने नमिता को आश्वस्त करते हुए कहा.
कुछ ही देर बाद बारिश तेज हो गई. नमिता तो रिकशे की छत की वजह से थोड़ाबहुत भीगने से बच रही थी, लेकिन रिकशे वाला भैया पूरी तरह भीग गया था. जल्दी ही नमिता का घर आ गया था. नव्या और शमा दरवाजे पर खड़ी उस का इंतजार कर रही थीं. रिकशे से उतरते ही भावावेश में दोनों बहनें नमिता से लिपट गईं. रिकशे वाला भैया भावविभोर हो कर उस दृश्य को देख रहा था.
‘भैया, कितने पैसे हुए… आज आप देवदूत बन कर आए. हां, आप भीग गए हो न, चाय पी कर जाइएगा,’ नमिता एक ही सांस में कह गई.
‘बिटवा, आज हम आप से किसी भी कीमत पर पैसे नहीं लेंगे. भाई कहती हो तो फिर आज हमारी बात भी रख लो. रही बात चाय की तो कभी मौका मिला तो जरूरी पीएंगे,’ कहते हुए रिकशे वाले भैया ने अपने कुरते से आंखें पोंछते हुए तीनों बहनों से विदा ली. तीनों बहनें आंखों से ओझल होने तक उस भले आदमी को जाते हुए देखती रहीं. वे सोच रही थीं कि आज के इस निष्ठुर समाज में क्या ऐसे व्यक्ति भी मौजूद हैं.
जब भी एनसीसी की परेड होती और नमिता को देर हो जाती तो उस की आंखें उसी रिकशे वाले भैया को तलाशतीं. एक बार अचानक फिर वह मिल गया. बस, उस के बाद तो नमिता को फिर कभी परेड वाले दिन किसी रिकशे का इंतजार ही नहीं करना पड़ा. वह नियमित रूप से नमिता को लेने कालेज पहुंच जाता.
नमिता को उस का नाम भी पता चल गया था, अब्दुल. हां, यही नाम था उस के रिकशे वाले भैया का. वह निसंतान था. पत्नी भी कई वर्ष पूर्व चल बसी थी. जब अब्दुल को नमिता के मातापिता के बारे में पता चला तो तीनों बहनों के प्रति उस का स्नेहबंधन और प्रगाढ़ हो गया था.
नमिता को तो मानो अब्दुल रूपी परिवार का सहारा मिल गया था. एक दिन अब्दुल के रिकशे से घर लौटते नमिता ने कहा, ‘अब्दुल भैया, अगर आप को मैं अब्दुल मामा कहूं तो आप को बुरा तो नहीं लगेगा?’
‘अरे पगली, मेरी लल्ली, तुम मुझे भैया, मामा, चाचा कुछ भी कह कर पुकारो, मुझे अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा लगेगा,’ भावविह्वल हो कर अब्दुल बोला.
अब्दुल मामा नमिता, नव्या व शमा के परिवार के चौथे सदस्य बन गए थे. तीनों बहनों को कोई कठिनाई होती, कहीं भी जाना होता, अब्दुल मामा तैयार रहते. पैसे की बात वे हमेशा टाल दिया करते. एकदूसरे के धार्मिक उत्सवों व त्योहारों का वे खूब ध्यान रखते.
रक्षाबंधन का त्योहार नजदीक था. तीनों बहनें कुछ उदास थीं. अब्दुल मामा ने उन के मन की बात पढ़ ली थी. रक्षाबंधन वाले दिन नहाधो कर नमाज पढ़ी और फिर अब्दुल मामा जा पहुंचे सीधे नमिता के घर. रास्ते से थोड़ी सी मिठाई भी लेते गए.
‘नमिता थाली लाओ, तिलक की सामग्री भी लगाओ,’ अब्दुल मामा ने घर पहुंचते ही नमिता से आग्रह किया. नमिता आश्चर्यचकित मामा को देखती रही. वह झटपट थाली ले आई. अब्दुल मामा ने कुरते की जेब से 3 राखियां निकाल कर थाली में डाल दीं और साथ लाई मिठाई भी.
‘नमिता, नव्या, शमा तीनों बहनें बारीबारी से मुझे राखी बांधो,’ अब्दुल मामा ने तीनों बहनों को माधुर्यपूर्ण आदेश दिया.
‘मामा… लेकिन…’ नमिता कुछ सकुचाते हुए कहना चाहती थी, पर कह न पाई.
‘सोच क्या रही हो लल्ली, तुम्हीं ने तो एक दिन कहा था आप हमारे मामा, भैया, चाचा, मातापिता सभी कुछ हो. फिर आज राखी बांधने में सकुचाहट क्यों,’ अब्दुल मामा ने नमिता को याद दिलाया.
नमिता ने झट से अब्दुल मामा की कलाई पर राखी बांध उन्हें तिलक कर उन का मुंह मीठा कराया व आशीर्वाद लिया. नव्या व शमा ने भी नमिता का अनुसरण किया. तीनों बहनों ने मातापिता के चित्र को नमन किया और उन का अब्दुल मामा को भेजने के लिए धन्यवाद किया.
उस दिन ‘ईद-उल-फितर’ के त्योहार पर अब्दुल मामा बड़ा कटोरा भर मीठी सेंवइयां ले आए थे. तीनों बहनों ने उन्हें ईद की मुबारकबाद दी और ईदी भी मांगी, फिर भरपेट सेंवइयां खाईं.
अब्दुल मामा तीनों बहनों की जीवन नैया के खेवनहार बन गए थे. जब भी जरूरत पड़ती वे हाजिर हो जाते. तीनों बहनों की मदद करना उन्होंने अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था. तीनों बहनों को अब्दुल मामा ने भी मातापिता की कमी का एहसास नहीं होने दिया. किसी की क्या मजाल जो तीनों बहनों के प्रति जरा भी गलत शब्द बोल दे.
अब्दुल मामा जातिधर्म की दीवारों से परे तीनों बहनों के लिए एक संबल बन गए थे. उन की जिंदगी के मुरझाए पुष्प एक बार फिर खिल उठे. तीनों बहनें अपनेअपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समर्पण भाव से पढ़ती रहीं व आगे बढ़ती रहीं.
नमिता ने बीएससी अंतिम वर्ष की परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण कर भारतीय सैन्य अकादमी की परीक्षा दी. अपनी प्रतिभा, एनसीसी के प्रति समर्पण और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर उस का चयन भारतीय सेना के लिए हो गया. नव्या और शमा भी अब कालेज में आ गई थीं.
आज नमिता को देहरादून के लिए रवाना होना था. अब्दुल मामा के साथ नव्या और शमा भी स्टेशन पर नमिता को विदा करने आए थे. सभी की आंखें नम थीं. अव्यक्त पीड़ा चेहरों पर परिलक्षित हो रही थी.
‘अब्दुल मामा, नव्या और शमा का ध्यान रखना. दोनों आप ही के भरोसे हैं और हां, मैं भी तो आप के आशीर्वाद से ही ट्रेनिंग पर जा रही हूं,’ सजल नेत्रों से नमिता ने मामा से कहा.
‘तुम घबराना नहीं मेरी बच्ची, 2 वर्ष पलक झपकते ही बीत जाएंगे. आप को सद्बुद्धि प्राप्त हो और आगे बढ़ने की शक्ति मिले. छुटकी बहनों की चिंता मत करना. मैं जीतेजी इन्हें कष्ट नहीं होने दूंगा,’ नमिता को ढाढ़स बंधाते हुए अब्दुल मामा ने दोनों बहनों को गले लगा लिया.
गाड़ी धीरेधीरे आगे बढ़ रही थी. नमिता धीरेधीरे आंखों से ओझल हो गई. अब्दुल मामा ने जीजान से दोनों बहनों की देखभाल का मन ही मन संकल्प ले लिया था. 2 वर्ष तक वे उस संकल्प को मूर्त्तरूप देते रहे.
अचानक नमिता की तंद्रा टूटी तो उस ने पाया, अब्दुल मामा के आंसुओं से उस की फौजी वरदी भीग चुकी थी. मामा गर्व से नमिता को निहार रहे थे.
‘‘तुम ने अपने दिवंगत मातापिता और हम सभी का नाम रोशन कर दिया है नमिता. तुम बहुत तरक्की करोगी. मैं तुम्हारी उन्नति की कामना करता हूं. तुम्हारी छोटी बहनें भी एक दिन तुम्हारी ही तरह अफसर बनेंगी, मुझे पूरा यकीन है,’’ अब्दुल मामा रुंधे कंठ से बोले.
‘‘मामा… हम धन्य हैं, जो हमें आप जैसा मामा मिला,’’ तीनों बहनें एकसाथ बोल उठीं.
‘‘एक मामा के लिए या एक भाई के लिए इस से बढि़या सौगात क्या हो सकती है जो तुम जैसी होनहार बच्चियां मिलीं. तुम कहा करती थी न नमिता कि मुझ पर तुम्हारा उधार बाकी है. हां, बाकी है और उस दिन उतरेगा जब तुम तीनों अपनेअपने घरबार में चली जाओगी. मैं इन्हीं बूढ़े हाथों से तुम्हें डोली में बिठाऊंगा,’’ अब्दुल मामा कह कर एकाएक चुप हो गए.
तीनों बहनें एकटक मामा को देखे जा रही थीं और मन ही मन प्रार्थना कर रही थीं कि उन्हें अब्दुल मामा जैसा सज्जन पुरुष मिला. तीनों बहनें और अब्दुल मामा मौन थे. उन का मौन, मौन से कहीं अधिक मुखरित था. उन सभी के आंसू जमीन पर गिर कर एकाकार हो रहे थे. जातिधर्म की दीवारें भरभरा कर गिरती हुई प्रतीत हो रही थीं.
लेखक- डा. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’
बौहरे ने जब ठाकुर लाल सिंह को कार्ज का कुल खर्च 4 लाख रुपए बताया (इस कर्ज में पंडित, पुरबिया और बौहरे ने अपने मेहनताने के कम से कम 20-20 हजार रुपए जरूर बना लिए थे) तो ठाकुर के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई और वे हक्केबक्के रह गए.
ठाकुर लाल सिंह की सारी रात करवटें लेले कर बीती. कर्ज की रकम एक भयानक चिंता की तरह उन के सामने रातभर मंडराती रही. उन्हें बारबार यही खयाल आते रहे कि इतनी भारी रकम कैसे अदा हो सकेगी?
घर में नकदी का नामोनिशान नहीं है. इधर केवल खेती का आसरा है, पर वह भी तो अच्छी बारिश और नौकरों के ऊपर है. नौकर तो आज तक कभी भी खेती की उपज आधी से ज्यादा हाथ नहीं लगने देते.
बौहरे ने 4 लाख रुपए 2 रुपए सैकड़ा प्रति माह के सूद पर ठाकुर के नाम अपने बहीखाते में लिखा (वह तो बौहरे ने 50 पैसे सैकड़ा ठाकुर प्यारेलाल के कार्ज के नाम पर लिहाज कर के छोड़ दिया, वरना उन के सूद की दर ढाई रुपया सैकड़ा थी) और साथ ही लगे हाथ ठाकुर लाल सिंह से पक्का रुक्का भी लिखवा लिया. जमीन का पट्टा भी लिखा लिया गया.
पहले हमेशा बौहरे ठाकुर लाल सिंह को देखते ही ‘कुंवर साहब’ कह कर रामराम करते, मगर समय का फेर कि आज सुबह ठाकुर को बौहरे के घर पर जा कर बड़े अदब के साथ रामराम करनी पड़ी. बाद में दोनों बैठक में बैठे घंटों बतियाते रहे.
ठाकुर लाल सिंह ने बौहरे से एक बात 2-3 बार दोहराई, ‘‘यह मेरी इज्जत का सवाल है. इस कर्ज की किसी को भी भनक तक न पड़े.’’
जब बौहरे ने ठाकुर लाल सिंह के सिर पर हाथ रखा और गंगा मैया की कसम खाई, तब कहीं जा कर ठाकुर की सांस में सांस आई.
अब ठाकुर लाल सिंह ने यह निश्चय किया कि इस तरह जिंदगी काटी जाए कि बाहरी कवर भी बना रहे और धीरेधीरे यह कर्ज भी अदा होता रहे.
पर इनसान की सोची हुई बातें कम ही पूरी होती हैं. ठाकुर लाल सिंह की घरगृहस्थी में हर साल या दूसरे साल कोई न कोई जरूरी खर्च आ ही टपकता. एक साल पूरा होते ही बाबा की बरसी भी करनी पड़ी. हाथ खींचने पर भी बाबा के भारी कार्ज का ध्यान कर के उस में 25,000 रुपए उठ गए. फिर 2 साल बाद ठाकुर को अपनी एकमात्र बहन चंद्रकला का ब्याह करना पड़ा, जिस में चारों ओर से बड़ी भारी कटौती करतेकराते भी 2-3 लाख रुपए लग ही गए.
5वें साल में जा कर उन्हें अपने पिता की लकवा की बीमारी में तकरीबन 2 लाख रुपए फूंकने पड़े. फिर भी लकवा ने उन का पिंड नहीं छोड़ा और 6 महीने तक चारपाई पर पड़े रहने के बाद उन का देहांत हो गया. पिता के कार्ज में भी 40-50 हजार रुपए उड़ गए.
तब तक ठाकुर लाल सिंह की अपनी गृहस्थी भी खूब फलफूल गई. उन के 2 बच्चे, एक लड़का और एक लड़की हो गए. बच्चों को पढ़ानालिखाना जरूरी हो गया, इसलिए अब ठाकुर पर बच्चों की पढ़ाईलिखाई का भी हर महीने काफी भार आ गया. इंगलिश मीडियम स्कूलों में भेजना जरूरी हो गया. वैसे भी इतनी बड़ी गृहस्थी में कपड़ालत्ता, हारीबीमारी वगैरह के बीसियों खर्च आएदिन लगे ही रहते हैं.
इधर ठाकुर लाल सिंह का बड़ा लड़का ब्रजमोहन ब्याह लायक हो गया. उस का भी ब्याह करना पड़ा, जिस में ठाकुर को 2-3 लाख रुपए बहू के लिए जेवर, कपड़े और गांव वालों को दावत वगैरह देने में 4 लाख रुपए खर्च करने पड़े.
इस तरह ठाकुर लाल सिंह के बाबा के मरने से ले कर अब तक खेती की उपज घरगृहस्थी के खर्चों में ही लगती रही और एक पाई की भी बचत नहीं हो सकी. लिहाजा, लाचार हो कर ठाकुर को बाबा के नाम पर बन रहे मंदिर के भूमिपूजन के कर्ज का ब्याज अदा करने के लिए हर दूसरे साल 14-15 बीघे खेत चुपके से बेचने पड़ जाते.
इस तरह 20-22 साल में धीरेधीरे कर के उन के पूरे 150 बीघे के खेत बिक गए. फिर भी बेचारे ठाकुर लाल सिंह बाबा के कार्ज में ली गई रकम का ब्याज ही चुका सके.
मंदिर के बनने का काम भी आधाअधूरा था. उन पर दबाव पड़ रहा था कि मंदिर बनवाएं, जबकि चंदा देने को कोई तैयार नहीं था. विधायकजी ने कई बार पूछा था कि मंदिर पूरा हो जाए, तो वे आ कर उद्घाटन कर दें.
जब ठाकुर लाल सिंह के पास बिकतेबिकते केवल 75 बीघे खेत रह गए, तब जा कर उन की आंखें खुलीं और उन्हें यह बात साफ हो गईर् कि अगर इस कर्ज से एकसाथ पिंड नहीं छुड़ाया गया, तो इस का ब्याज इन बचेखुचे खेतों को भी बिकवा कर रहेगा. फिर उन के सामने गांव को छोड़ कर भाग जाने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा.
लिहाजा, ठाकुर लाल सिंह ने बड़ी सम झदारी और हौसले से काम लिया और पिछले साल उन्होंने एकसाथ
30 बीघा खेत बेच कर (जमीन की कीमत एकसाथ दोगुनीतिगुनी हो जाने के चलते ठाकुर को इस खेत की बिक्री से 30 लाख रुपए हाथ लग गए) बाबा के मंदिर के भूमिपूजन के भंडारे के कर्ज से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया.
35-36 साल के ठाकुर लाल सिंह अब पूरे 60 साल के हो चले हैं. इस समय उन के यहां एक बूढ़ी भैंस और 2 पुराने ट्रैक्टर हैं. समय के साथ ठाकुर को भी बदलना पड़ा है. पिछले 7-8 साल से वे खुद ट्रैक्टर चलाने लगे हैं. अब नौकरों से काम कराने का न उन में दम है और न इतनी खेती ही.
इस समय उन की गिनती गांव के गिनेचुने लोगों में से न रह कर आम किसानों से भी गएगुजरे उन मजदूर किसानों में होती है, जो घरगृहस्थी के रोजमर्रा के खर्चों को उठाने के लिए हमेशा ही कर्जदार बने रहते हैं.
अपनी नासम झी और बेवकूफी पर आमतौर पर सभी को पछतावा होता है. ठाकुर लाल सिंह अपने बाबा प्यारेलाल के रुतबे के दिनों को जब याद करते हैं, तो उन की आंखों में आंसू डबडबा आते हैं और उन के मुंह से बारबार ये शब्द फूट पड़ते हैं, ‘‘मैं ने बड़ी बेवकूफी की. मु झे 20-22 साल तक मंदिर के लिए कर्ज की चक्की में पिसना पड़ा और आज उसी के चलते सारा ठाटबाट चौपट कर के फकीर बना बैठा हूं.
‘‘अगर मैं उस फालतू की वाहवाही के चक्कर में न पड़ता, तो आज मेरे पास गांव से ऊपर जमीनजायदाद होती.
‘‘बाबा के नाम पर मंदिर मु झे हमेशा के लिए ले बैठे हैं और उन्होंने मु झे किसी भी लायक नहीं छोड़ा है. अब मैं किस बूते पर इतनी बड़ी गृहस्थी के भार को ढो पाऊंगा?’’
कामिनी पर मानो वज्रपात हुआ. दिल की धड़कन बंद होती जान पड़ी. इतनी औरतों और आदमियों के सामने उसे दलन उठाए ले जा रहा था. कुछ न सु झाई दिया. पहले तो छूटने के लिए हाथपैर फेंके. परंतु उसे पिशाच की पकड़ से वह कोमलांगी ही क्या, खासा पट्ठा भी नहीं निकल सकता था. असहाय युवती की आंखों में अश्रु झलक आए. साहस और चेतना ने जवाब दे दिया. उस के रुंधे कंठ से केवल इतना निकला, ‘‘छोड़ दो. दया करो. तुम्हारी भी मांबहनें होगी. हे ईश्वर…’’ अर्द्धमूर्छित हो उस के हाथों में झूल गई. सब निस्सहाय और आवाक थे.
कोईर् बचाने वाला न था. ऐसे में ईश्वर का भी चुप रहना भगवती चाची को बहुत खला. अन्य डाकू किंकर्त्तव्यविमूढ़ बने किसी दुर्घटना की आशंका से अचेत से खड़े थे. दलन ने एक झटके में कामिनी को कंधे पर लाद लिया और अन्य गैंगस्टरों को उतरने के लिए इशारा दिया. वह स्वयं भी छत के पिछवाड़े की ओर बढ़ा. श्यामू पांडे का सब कुछ गया. धन गया. मान गया. बेटी गई. औरतें फफक उठीं. ‘‘खबरदार.’’ कड़क कर कहता हुआ राजू एकाएक जीने से छत पर जा कूदा. वह क्षण भर में सब सम झ गया था. औरतों को लगा, मानो भगवान स्वयं आ गए. कुछ न सू झा. रोने का स्वर और भी ऊंचा कर दिया. निर्बल की दुहाई आंसुओं और रोने के स्वर में ही होती है.
राजू फायर की बात भूल गया. दलन की ओर लपका. डाकू इस बेबुलाए मेहमान को देख कर सकपका गए. चिम्मन कुलबुलाया. दलन सिंह ने उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखा और मन ही मन बाहर पहरा न बैठाने की गलती स्वीकार की. कामिनी को भी होश आ गया था. उस ने जोर लगाया. घबराए हुए दलन के हाथ से वह छूट गई. राजू अकड़ता हुआ दलन और कामिनी के पास बिछी दरी पर जा खड़ा हुआ. हांफता हुआ गुर्राया, ‘‘औरतों पर हाथ उठाते शरम…’’ बात पूरी होने से पहले वह मुंह के बल जा गिरा. बंदूक भी हाथ से किसी ने झटक ली. बगल के डाकू ने धीरे से उस के पैरों के नीचे से दरी खींच ली थी. राजू जब तक संभले, एक बंदूकधारी सिर पर आ डटा. उसे विवश हो वहीं बैठ जाना पड़ा. यह सब मिनट भर में हो गया. अभी रामबली और जग्गू के दल यथास्थान पर न आए थे कि राजू भी कैद हो गया. जेवरों को दो डाकुओं ने संभाला. दलन ने कामिनी को अपनी ओर खींचा.
कामिनी ने असफल विरोध किया. चीखी. सब चुपचाप. राजू की मुट्ठियां कस गईं. दांत भिंच गए. आवेश में मस्तिष्क भन्ना उठा. दलन ने कामिनी को कमर पर लादने की चेष्टा की. कामिनी की सब का बांध टूट गया. वह जोर से रो पड़ी. राजू को लगा मानो कान में किसी ने गरम सीसा पिघला कर डाल दिया है, पर वह जड़ सा बैठा रहा. दलन सिंह ने साथियों को आज्ञा दी, ‘‘माल के साथ दो और जाओ. मैं भी परी के साथ घोंसले में पहुंचता हूं. टहलते हुए जाओ. बिना जरूरत बंदूक न चले. होथियार, खबरदार.’’ कह कर कामिनी को फिर लादने का प्रयत्प किया. कामिनी फफक कर रो उठी. उस ने करुणा भरी दृष्टि डाकुओं, औरततों, चिम्मन और राजू सब पर दौड़ाई. कितनी विवशता और पीड़ा थी उस की आंखों में. आतंकित हिरणी सी. सरदार की आज्ञा सुन कर राजू पर बंदूक टिकाने वाला डाकू भी कुछ बेखबर हुआ. दलन दहाड़ा, ‘‘सीधी तरह चलती है या…’’ वेग से राजू हिला, दानव की भांति अपनी जगह से उछल कर दलन से जा चिपटा. दोनों खाली हाथ थे. उस ने दलन की गरदन पकड़ी.
राजू का पहरेदार डाकू हक्काबक्का सा रह गया. दलन इस वज्रपात से धराशायी हो गया. गले से केवल गों गों का स्वर फूटा. कामिनी उस के हाथ से दूर जा गिरी. राजू आवेश में गरजा, ‘‘डाकू. राक्षस.’’ गैंगस्टर्स का बनाबनाया खेल बिगड़ता दीखा. राजू के इस पैतरे से वे बहुत चकराए. एक ने जोर दे कर राजू को अलग करना चाहा. दलन ने भी छुटकारे के लिए जीजान से जोर लगाया. राजू अलग तो नहीं हुआ, परंतु कलाबाजियां खाता हुआ दलन के नीचे आ गया. डाकू घबराए. राजू अलग न होता था. गोली चलाने में दलन के मारे जाने का भी खटका था. दलन और राजू छत पर लुढ़कियां खा रहे थे.
कभी दलन ऊपर, कभी राजू. सब धड़कते दिल से चुपचाप इस मल्ल युद्ध को देख रहे थे. यह तमाशा बढ़ता देख पहरे वाले डाकू को विवश हो कर बंदूक संभालनी पड़ी. वह चिल्लाया, ‘‘छोड़ दे, पागल, नहीं तो भून कर रख दूंगा.’’ कामिनी भी इस घोषणा से कांप गई. सब भूल कर चीखी, ‘‘छोड़ दे, राजू? गोली मार देगा जालिम. छोड़ दे, मेरे अच्छे, राजू.’’ परंतु दोनों बुरी तरह भिड़े हुए थे. डाकू ने राजू के सिर पर निशाना बांधा. कामिनी ने बंदूक खींच कर निशाना बिगाड़ दिया. दूसरे ने तुरंत उसे पकड़ लिया. निशाना फिर बांधा गया. अगले ही क्षण राजू लुढ़का, पर कामिनी में न जाने कहां से बल आ गया. शेरनी की भांति तड़प उठी. घिसट कर बंदूक में कोहनी मार ही दी. बंदूक की धांय हुई. गांव भर कांप गया. गोली राजू की बांह पार करती हुई दलन के सीने में जा घुसी. दलन जोर से तड़पा और फिर ठंडा हो गया. गैंगस्टर्स के हाथों के तोते उड़ गए. फायर की आवाज सुनते ही जग्गू का दल अटारी पर चढ़ आया. ‘पकड़ोपकड़ो’ का घोष किया. गैंगस्टर्स पर चोट पर चोट हुई. वे बौखला गए.
वे बंदूकें संभाल कर उन पर लपके. कई बंदूकें एक साथ दागीं, परंतु निशाना एक का भी ठीक न था. क्योंकि सब घबराए हुए थे. चिम्मन में भी जोर आया. लुढ़कपुढ़क कर किसी प्रकार मुंह में ठुंसा कपड़ा निकाल कर फेंका और अस्फुट स्वर में वहीं से तड़पा, ‘‘कोई खोल दो मु झे. मैं अकेले ही चबा जाऊंगा इन उच्चकों को. मेरी मुंहतोड़ कहां है?’’ पीछे रसोईघर की छत से रामबली के लठैतों ने ‘जय हिंदुस्तानी.’ की पुकार लगाई. गैंग मैंबर्स दोनों ओर से घिर गए. गोली चलाना बेकार था. ऐसी भगदड़ में निशाना बैठना कठिन था और बंदूकें भी खाली हो जाती. लीडर मारा ही गया. इस आकस्मिक विपदा ने तो उनके पैर उखाड़ दिए. जब तक संभले, सिर पर बल्लमधारी और लठैत आ कूदे. बाजी बिलकुल उलट गई. गैंगस्टर्सकम्मो, जेवर और दलन सिंह के शव को भूल कर सिर पर पैर रख पिछवाड़े की ओर दौड़े. उधर से ही बचाव का रास्ता रह गया था. छत पर खासा संग्राम मच गया. जैसेतैसे कूद कर बाग की ओर भागे. नीचे भीड़ जमा थी. उस ने बहती गंगा में हाथ धोए. बंदूक से लैस डाकुओं के दल को डंडों और लाठियों से ही धमकाया. रामबली और जग्गू के दलों ने कूद कर उन्हें बाग तक पछिया कर छोड़ दिया. घायल राजू को भी देखना था. गैंगस्टर्स को यह सौदा बड़ा महंगा पड़ा.
गांव वाले लौटे चिम्मन भी हाथपैर खुलवा कर उन में आ मिला. तड़पते हुए राजू का सिर कामिनी की गोद में था. उस की भौंहें अब भी चढ़ी हुई थीं. बांह से खून की धार बह रही थी. कराहा और कष्ट से हिला. अचेत बुदबुदा रहा था, ‘‘तुम्हें न बचा सका…तुम्हें न बचा सका… उफ…कामिनी…कम्मो… पर अब न कहना…न कहना…राजू न आया…’’ वह जोर से तड़पा. किंतु मुखमंडल शांत था. चांदनी के प्रकाश में मानो मुसकरा रहा था. कामिनी उस पर झुक गई. दांतों से होंठ भींच कर रुलाई रोकी, परंतु आंसुओं की धार राजू के माथे पर टपक ही गईर्. चिम्मन ने देखा, घायल राजू को, लफंगे राजू को, जो एक दिन खड़ा कामिनी को घूर रहा था. आंखों में आंसू आ गए. पैर पकड़ कर सिसका, ‘‘क्षमा करना, राजू. तुम रक्षक हो. न अपने यह जाति का भूत कब सिर से उतरेगा कि आदमी की पहचान ही नहीं हो पाती. सब ने राजू को देखा. श्रद्धा और ममता से.
वह झोंपड़पट्टी का इलाका था. उस इलाके में बेतरतीब कच्चेपक्के मकान बने हुए थे. किसी तरह गुजरबसर कर जीने वाले लोग वहां रहते थे. नुक्कड़ पर एक छोटी सी चाय की दुकान थी. वह चाय की दुकान रन्बी की थी. वह इसी झोंपड़पट्टी की रहने वाली थी. रन्बी बेहद खूबसूरत थी. रूपरंग की गोरी थी. आंखें बड़ी और कजरारी थीं. वह सलवारसमीज पहनती थी, जिस से उस की खूबसूरती में चार चांद लग जाते थे, जिसे देख कर किसी का भी दिल मचल जाता था.
इस इलाके का माहौल अच्छा नहीं था. शराब पी कर लोग गालीगलौज करते थे. आपस में मारपीट हो जाती थी. बावजूद इस के रन्बी बिना डरेसहमे चाय की दुकान चलाती थी. रन्बी चाय बनाने में मशगूल थी. इक्कादुक्का लोग चाय पी कर चले गए थे, तभी सोहन उस की दुकान पर आया. सोहन झोंपड़पट्टी में ही रहता था. वह पाकेटमारी व झपटमारी करता था. रेलवे स्टेशन के आसपास के भीड़भाड़ वाले इलाके में वह शिकार करता था. वह शिकारी की तरह अपने शिकार पर टूट पड़ता था.
सोहन रन्बी का प्रेमी था. रन्बी और सोहन एकदूसरे को प्यार करते थे. ‘‘कैसी हो रन्बी? अच्छी चाय पिलाना,’’ सोहन ने कहा. रन्बी ने चाय का गिलास उस की तरफ बढ़ा दिया. सोहन के बाल लंबे थे. वह नीली जींस और लाल चैक की शर्ट में जंच रहा था.
‘‘क्यों सोहन, आज ज्यादा माल मिल गया क्या? किस की जेब काटी है?’’ रन्बी ने हंस कर कहा. ‘‘प्लेटफार्म पर एक बाबू की जेब काटी थी. 2,000 रुपए मिले थे. मैं ने उसी रुपए के यह पैंटशर्ट खरीदा है,’’ सोहन ने कहा. ‘‘तभी तो तू आज हीरो लग रहा है,’’ रन्बी ने आंख मारी. अभी चाय की दुकान पर कोई ग्राहक नहीं था. रन्बी उस के नजदीक जा कर बैठ गई.
सोहन चाय की चुसकी लेते हुए रन्बी को देखे जा रहा था. ‘‘रन्बी, जब तक तुझे नहीं देखता हूं, तो मुझे चैन नहीं मिलता है,’’ सोहन ने रन्बी को बांहों में भर कर चूम लिया. ‘‘कोई देख लेगा तो…’’ रन्बी तड़प कर बोली. ‘‘रन्बी, हम दोनों के सिवा यहां कोई नहीं है,’’ सोहन ने कहा. रन्बी और सोहन दुकान के पीछे बनी झोंपड़ी में चले गए, जहां पहले से ही खाट बिछी हुई थी. दोनों उस खाट पर लेट गए. सोहन रन्बी के बदन से खेलने लगा. वह उस के उभारों को सहलाने लगा. रन्बी उस का साथ देने लगी. जब मर्दऔरत एकसाथ हो, तो आग लगने में कितनी देर लगती है. यह हाल यहां भी हुआ.
भरी दोपहरी में दोनों ने सैक्स का खेल शुरू कर दिया. लेकिन साथ ही चाय की दुकान पर ग्राहक के आने का डर भी उन्हें सता रहा था, इसलिए सोहन ने गाड़ी तेज कर दी थी. दोनों को मंजिल तक पहुंचने की जल्दबाजी थी. आखिर कुछ देर बाद दोनों मंजिल तक पहुंच गए. रन्बी और सोहन के चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे. जिस्म की आग जब बुझ गई, तब रन्बी सोहन को समझाने लगी, ‘‘सोहन, तुझे पाकेटमारी के धंधे मैं देखना नहीं चाहती. तू पाकेटमारी छोड़ दे. कोई दूसरा काम कर ले. कुछ नहीं तो मेरी दुकान में ही मदद कर दिया कर. मैं बहुत खुश होऊंगी.’’
सोहन रन्बी की बातें सुन रहा था, लेकिन इस का असर उस पर नहीं हो रहा था. ‘‘शाम को आऊंगा,’’ कह कर सोहन झोंपड़पट्टी की पतली गलियों के रास्ते निकल गया. यह रेलवे स्टेशन के पास का इलाका था. लोगों की भीड़ थी. वहीं रोड किनारे सोहन खड़ा था. वह अपना शिकार खोज रहा था, तभी एक औरत, जिस ने गले में सोने की मोटी चेन पहन रखी थी, अकेले कहीं जा रही थी. सोहन चौकन्ना हो गया. वह उस के पीछेपीछे चलने लगा. पलक झपकते ही सोहन उस औरत के गले की चेन झपट कर भाग गया. वह औरत चीखनेचिल्लाने लगी, ‘‘पकड़ोपकड़ो, चोरचोर. मेरी चेन लूट कर भाग रहा है.’’
सोहन स्टेशन के भीड़भाड़ वाले इलाके में चेन झपट कर भाग गया था. 2-3 दिन बाद सोहन सुनार की दुकान पर गया. लूटी हुईर् चेन के बदले एक नईर् सोने की चेन बनवा ली. यह नई सोने की चेन वह रन्बी को देना चाहता था. ‘इस चेन को मैं रन्बी को दूंगा. इसे पहन कर वह बहुत खुश होगी,’ सोहन मन ही मन सोच रहा था. सोहन रन्बी की चाय की दुकान पर गया. ‘‘यह ले नई सोने की चेन. तेरे लिए बनवाई है. पहन कर देख. तुझे पसंद आएगी,’’
सोहन ने कहा. रन्बी ने चाय की केतली टेबल पर रख दी. वह चेन को उलटपुलट कर देखने लगी. वाकई बहुत खूबसूरत थी वह सोने की चेन. ‘‘सोहन, क्या तुम मेरे लिए यह चेन लाए हो? मेरे लिए सोने की चेन मजाक जैसा है. इसे पहन कर मैं इतरा नहीं सकती,’’ रन्बी ने कहा. ‘‘लेकिन, क्यों?’’ सोहन ने पूछा.
‘‘मैं तुम्हें समझाना चाहती हूं कि अब पाकेटमारी, छीनाझपटी छोड़ दो, तभी यह तोहफा मुझे मंजूर होगा,’’ रन्बी ने कहा. ‘‘बकवास बंद कर. मौजमस्ती के लिए यह धंधा करता हूं. जब छोड़ना होगा, छोड़ दूंगा,’’ सोहन ने झल्ला कर कहा. रन्बी की बातों से सोहन रूठ गया. वह बिलकुल खामोश हो गया. ‘‘अरे सोहन, तू तो नाराज हो गया,’’ रन्बी उस के गले में बांहें डाल कर मनाने लगी. सोहन का दिल रखने के लिए उस ने सोने की वह चेन पहन ली. ‘‘अब तो खुश हो न? बोल, खुश हो न?’’ रन्बी ने कहा. ‘‘कभीकभी तेरी ऐसी नौटंकी हो जाती है,’’ सोहन ठहाका लगा कर हंसने लगा. रन्बी भी हंसने लगी.
रन्बी ने हंसतेहंसते सोहन के कान में कहा, ‘‘आज रात मेरा इंतजार करना. मैं तेरी झोंपड़ी में आऊंगी.’’ तभी थाने का हवलदार रन्बी की चाय की दुकान पर आया. सोहन हवलदार से नजरें बचा कर चाय की दुकान से बाहर निकल गया. ‘‘रन्बी, चाय देना,’’ आते ही हवलदार ने चाय की फरमाइश की. उस ने एक गरमागरम चाय की प्याली हवलदार को दी. चाय पीतेपीते हवलदार की नजर रन्बी के गले में लटकी चमचमाती सोने की चेन पर पड़ी.
‘‘अरे रन्बी, यह चेन कहां से लाई हो?’’ हवलदार ने शक जताते हुए कहा. ‘‘खरीदी है, हुजूर,’’ रन्बी ने मुसकरा कर कहा. ‘‘लगता है, चाय की दुकान में तेरी अच्छी आमदनी हो जाती है,’’ हवलदार की निगाह रन्बी के चेहरे पर टिकी थी.
रन्बी कुछ न बोली. वह चुप ही रही. हवलदार अकसर चाय पीने उस की दुकान पर आता था. यह रन्बी के लिए तो मामूली बात थी. आधी रात को चांदनी छिटकी हुई थी. झोंपड़पट्टी में सन्नाटा था. लोग सो रहे थे, लेकिन सोहन अपनी झोंपड़ी में जाग रहा था. वह रन्बी का इंतजार कर रहा था. थोड़ी ही देर में रन्बी आ गई थी. वह चांदनी रात में किसी परी की तरह लग रही थी. ‘‘किसी ने देखा तो नहीं?’’ सोहन ने पूछा. ‘‘नहीं, बस दबे पैर चली आई हूं,’’
रन्बी ने कहा. सोहन रन्बी को बांहों में भर कर चूमने लगा. उस ने रन्बी के कपड़े उतार दिए. रन्बी अंधेरे में चमकतीदमकती संगमरमर की मूरत दिख रही थी. उस के दोनों उभार सोहन पर कहर बरपा रहे थे. सोहन रन्बी पर झपट पड़ा. रन्बी ने भी सोहन को अपनी बांहों में जोर से जकड़ लिया. फिर दोनों ने जिस्म की प्यास ऐसे बुझाई, जैसे सालों के प्यासे हों. जब प्यास बुझ गई तब रन्बी घर चली गई. सोहन गहरी नींद में सो गया.
सोहन प्लेटफार्म पर शिकार की तलाश में खड़ा था, तभी एक ट्रेन धड़धड़ाती हुई प्लेटफार्म पर आ कर रुकी. लोग बोगियों से उतरने लगे थे. एकाएक प्लेटफार्म पर भीड़ बढ़ गई थी. सोहन चौकन्ना हो गया, तभी उस की नजर एक नौजवान पर पड़ी, जो अटैची हाथ में लिए मोबाइल से बातें कर रहा था. सोहन का शिकार सामने था.
वह नौजवान की अटैची झपट कर भागने लगा. नौजवान सोहन के पीछे ‘चोरचोर’ कह कर पकड़ने के लिए दौड़ने लगा. सोहन प्लेटफार्म से नीचे कूद कर पटरियों पर दौड़ने लगा. उस के हाथ में अटैची थी. ‘पकड़ोपकड़ो, चोरचोर’ की आवाजें आ रही थीं. लोगों की भीड़ उस के पीछे थी.
सोहन पटरी पर लड़खड़ा कर गिर गया. बस, फिर क्या था. उस नौजवान ने सोहन को पकड़ लिया. भीड़ ने भी सोहन को घेर लिया. ‘‘यही मेरी अटैची ले कर भाग रहा था. मारो इसे,’’ वह नौजवान चीख कर बोला. वह नौजवान सोहन पर ताबड़तोड़ मुक्के बरसाने लगा. भीड़ उस नौजवान का साथ देने लगी. सोहन चीखताचिल्लाता रहा, ‘‘मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो.’’ लेकिन किसी को उस पर दया नहीं आ रही थी.
लोग लातघूंसों से उस पर चोट कर रहे थे. ‘‘मर गया, अब मत मारो,’’ वह पिटाई से चिल्ला रहा था. जिस नौजवान की अटैची थी, उस ने एक बड़ा सा पत्थर उठा कर सोहन के सिर पर दे मारा. उस की चीख निकल गई. सिर से खून का फव्वारा फूट पड़ा. वह बेहोश हो कर पटरी पर गिर गया. थोड़ी देर में पुलिस आ गई.
पुलिस सोहन को उठा कर थाने ले गई. दूसरे दिन झोंपड़पट्टी में पुलिस आई थी, पूछताछ कर चली गई. रन्बी को यह खबर मिली कि सोहन को रेलवे स्टेशन पर लोगों ने बहुत मारा है. वह किसी मुसाफिर की अटैची छीन कर भाग रहा था. वह लोगों की मार से अधमरा हो गया है. पुलिस ने उसे अस्पताल में भरती करा दिया है. इस खबर से रन्बी बेहद उदास हो गई. अपनी चाय की दुकान बंद कर वह जल्द अस्पताल पहुंच गई.
अस्पताल में सोहन की हालत अच्छी नहीं थी. वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था. ‘‘सोहन, आंखें खोलो. देखो, तुम्हारी रन्बी आई है,’’ रन्बी ने कहा. सोहन ने किसी तरह आंखें खोलीं, ‘‘रन्बी, मुझे यहां से ले चलो. लोग मुझे मार डालेंगे,’’ सोहन बेहोशी की हालत में छटपटाते हुए बोला.
रन्बी उस का हाथ अपने हाथ में ले कर बोली, ‘‘सोहन, तुम ठीक हो जाओगे, तब मेरे साथ चलना.’’ लेकिन सोहन की आंखें पथरा गईं. वह मर चुका था. रन्बी रोने लगी, ‘‘सोहन, मैं ने तुझे बहुत समझाया था. तू पाकेटमारी छोड़ दे, लेकिन तू नहीं समझा.
‘‘हम लोग जगह बदल लेंगे, ताकि लोगों को तेरे मांबाप का पता ही नहीं रहे. कभी किसी ने पता कर लिया, तो तब की तब देखेंगे. दोनों चायनाश्ते की दुकान चलाएंगे…’’ वह बड़बड़ाती जा रही थी.
पुरबिया ने भूमिपूजन के दिन भोज रखा, तो बौहरे ने सारे लोगों को बसों भरभर कर लाने के खर्च के हिसाबकिताब को लिखने का भार अपने ऊपर लिया. ऐसे कामों में विधायकजी ने भी आने का न्योता मान लिया था. मंदिर के नाम पर तो ही उन की पार्टी जीती थी.
भूमिपूजन के एक दिन पहले से ही ठाकुर लाल सिंह की बारहद्वारी और उस के आसपास का नजारा देखने लायक था. 3 बीघे का खेत पंगत बैठाने के लिए साफ कराया गया.
ठाकुर के उस खेत में अरहर खड़ी हुईर् थी, पर पुरबियों ने उस खेत को पंगत के लिए एकदम सही सम झा. बारहद्वारी के नीचे 5 हलवाइयों ने अपनीअपनी इच्छा के अनुसार 2-2 भट्ठियां खुदवाईं. बारहद्वारी के अंदर सारी चीजें मालपुआ, खीर, मोतीचूर के लड्डू, सकोरे, पत्तलें वगैरह भी आने लगीं. दलितों को भी बुलाया गया, पर उन का तंबू अलग था.
वैसे तो उन दिनों रिफाइंड औयल का इस्तेमाल देहातों में भी चल पड़ा था और भोजन सामग्री को बनाने में उसे उपयोग में लाया जा सकता था, पर पंडित राम सिंह की बुद्धि का कायल होना पड़ेगा, क्योंकि उन्होंने गांव में बैठेबैठे ही 15 मन खर्च कर देशी घी जुटा दिया. लिहाजा, रिफाइंड औयल को इस्तेमाल करना तो दूर उसे छूने तक की भी जरूरत नहीं पड़ी.
हलवाइयों ने अपनी सुविधा का विचार कर के कार्ज के एक दिन पहले ही 15-20 मन मोतीचूर के लड्डू तैयार कर लिए थे. फिर रात के ठीक 12 बजे उन्होंने अपनेअपने कड़ाहों में देशी घी के टिन उड़ेल दिए. घी की लपट सारे गांव के साथसाथ आसपास के नगलाओं (नगला का अर्थ छोटा गांव है) तक में समा गई.
एक ओर पांचों हलवाई मालपुए बनाने में लगे रहे और दूसरी ओर खीर, सब्जियां, रायता वगैरह तैयार हुआ.
इस तरह बड़ी भारी दौड़धूप और रात को जाग कर दिन के 11 बजे तक पंगत बैठाने लायक सामान बन सका था. गाजर का हलवा और गुलाब जामुन बनाने का क्रम तो शाम के 5 बजे तक जारी रहा, पर दूसरी चीजों को तो पहली पंगत बैठाने से पहले ही तैयार करने में सुविधा व शोभा रहती है.
पंगत का सामान तैयार करने में ठाकुर लाल सिंह को गांव वालों ने बड़ा भारी सहयोग दिया. पंडित राम सिंह की साधना तो धन्य है. उन्होंने हलवाइयों के बीच में अपने लिए आरामकुरसी डलवा ली और वहीं से बैठेबैठे हरेक चीज की निगरानी करते रहे. उन्होंने कुरसी से उठ कर किसी भी काम में हाथ नहीं लगाया, पर बैठेबैठे सारे काम करवा डाले.
भूमिपूजन, यज्ञ, हवन आदि के पूरा होते ही दोपहर के 12 बजे से पंगतें बैठना शुरू हो गईं. इस समय नगलाबेल में मर्दऔरत, बच्चे और बड़ेबूढ़ों का जमघट देखने लायक था. ऐसा लगता था गांव में कार्ज नहीं, जैसे कोई मेलादशहरा लगा हुआ है. आखिर आसपास के बीसियों गांवों के आबालवृद्ध (इस समय अकेले ठाकुर लाल सिंह के नहीं, बल्कि सारे गांव वालों के मेहमान आए थे) और सारे गांव के हितू व नातेदार कम नहीं होते.
पुरबिया ने इस समय एक और यश लूटने की बात यह की कि नगलाबेल के चारों ओर 4 डगरे (मार्ग) हैं, जिन पर रोजाना काफी तादाद में लोग आतेजाते हैं. उस दिन सुबह से ही उन चारों रास्ते पर 4 आदमी बैठा दिए, जो आतेजाते राहगीरों को भंडारे का निमंत्रण देते रहे.
इन राहगीरों में से 75 फीसदी बढि़या खाने की दावत खाने के लिए आ ही गए. भिखमंगे और कंगले भी इस मौके पर न जाने कहांकहां से आ टपके. इस तरह इस भंडारे में आने वाले लोगों की तादाद हजारों तक पहुंच गई थी.
दिन के 12 बजे से ले कर शाम तक पंगतें चलती रहीं. शुरूशुरू की पंगतें तो दोदो हजार आदमियों की एकसाथ हुईं, पर बाद में आदमी घटते चले गए. खाना परोसने का काम गांव वालों के साथसाथ हितूनातेदारों ने भी करवाया.
ठाकुर के भंडारे में किसी भी चीज की कमी नहीं पड़ी, बल्कि निमंत्रित और गैरनिमंत्रित सभी के खापी कर जाने के बाद काफी सामान बचा रहा, इसलिए रात को सभी हितूनातेदारी के साथसाथ सारे गांव वालों ने दोबारा खीरमालपुए और लड्डुओं की दावत उड़ाई.
दूसरे दिन सुबह होने पर नातेरिश्तेदारों को कलेवा भी मालपुओं का ही कराया गया और उन के जाने के बाद प्रसाद के रूप में उन के साथ ढाईढाई सेर मालपुए और लड्डू बांधे गए सो अलग.
बचे हुए सामान को गांव के दलितों को भी ले जाने दिया. मौसम जाड़े का था, इसलिए भोजन की कोई सामग्री नहीं बिगड़ी. ऐदला मेहतर ने तो जूठन के मालपुए सुखा लिए थे, जिन का स्वाद उस का परिवार कम से कम ढाई महीने तक लेता रहा.
ठाकुर प्यारेलाल के भंडारे में ठाकुर लाल सिंह ने बड़ा भारी यश लूटा. चारों ओर यह चर्चा फैल गई कि ठाकुर लाल सिंह ने अपने बाबा की याद में मंदिर बनाने और भूमिपूजन के भंडारे में बीसी के ऊपर कर के दिखला दिया.
इस समय नगलाबेल और आसपास के गांवों में 10-12 दिन तक ठाकुर लाल सिंह का गुणगान चलता रहा. कोई उन की उदारता और नम्रता का बखान कर रहा था, तो कोई हलवाइयों की तारीफ कर रहा था, जिन्होंने सारा सामान बहुत ही बढि़या बनाया, तो कोई पंडित, पुरबिया और बौहरे की बुद्धि की तारीफ कर रहा था, जिन्होंने केवल चंद दिनों में ही इतना भारी भंडारे का इंतजाम कर के दिखला दिया.
कार्ज के बाद के 2-3 दिन बड़ी भारी भागदौड़ वाले होते हैं. कड़ाह, पानी की टंकियां, नांदें, पल्ले, डलियां, डोल, बालटियां, बिछौने, दरियां, पट्टियां वगैरह बीसियों चीजें किराए पर या मंगनई की आती हैं और उन्हें 1-2 दिन में ही वापस करना ठीक होता है, नहीं तो उन के खो जाने, टूटनेफूटने वगैरह के झं झट उठाने पड़ते हैं, इसीलिए बौहरे ने ठाकुर के कार्ज के खर्च का हिसाब ठाकुर लाल सिंह के सामने पूरे एक हफ्ते बाद रखा.
उन्होंने ठाकुर लाल सिंह को अपनी बैठक पर ही बुलवा लिया था. कार्ज के हिसाबकिताब को पूरा करने में ठाकुर और बौहरे को पूरे 2 दिन लगाने पड़े, क्योंकि किसी मद पर मौखिक तौर पर किया गया खर्चा बारबार ध्यान कर के सोचने पर याद आ सका. इस तरह एकएक चीज का और एकएक पाई का हिसाब करने में तीसरे दिन के रात के 10-11 बज गए.
महीनेभर बाग के बाहर तक न निकल सका था. उस का अपराध तो यही था कि उस ने कामिनी को अपनी बाइक पर लिफ्ट दे दी थी. वह सितार भी बजाती थी और सितार क्लास से देर से आ रही थी. पर देखो उस चिम्मन को, कैसा लतियाया. श्यामू को भी दया न आई. बना फिरता है पंडित. दया काहे को आती. सूद पर रुपया उठाता है. गरीबों को खून चूसचूस कर हवेली खड़ी की है. जेवर बनवाए हैं. कम्मो ने भी बहुत रोका, पर गालियां देने से बाज न आया. अच्छा है, आज हो जाएगा इंसाफ. उस ने कहा भी कामिनी को सिर्फ लिफ्ट दी थी, ताकि कोई छेड़े न, पर श्यामू पंडित ने एक न सुनी. एक दलित की मोटरसाइकिल पर बैठे, यह कैसे हो सकता हैं. उस को सितार सुने, यह मंजूर न था.
राजू सिर झुकाए अपनी झोंपड़ी में लौट आया. टोपी खूंटी पर लटकाने को हाथ बढ़ाया, तभी खूंटी से अटके इश्तिहार पर नजर गई. उसे कहीं मेले में मिला था. एक नौजवान अकेला ही 2 बदमाशों को लाठी लिए पछिया रहा है, पास ही सड़क पर ट्रौली में बैठी औरतें रोपीट रही हैं. ट्रैक्टर वाला पास धरती पर पड़ा है. वह जवान बहादुर जान पड़ता था. आंखों में गुस्सा, पैरों में अकड़ और लाठी पकड़े हाथों में मजबूती. राजू ने सबकुछ देखा. कैप वाला हाथ बढ़ा का बढ़ा रह गया. एकाएक हवेली की बेसहारा औरतों का करुण चित्र आंखों के सामने नाच उठा. गैंगस्टर डपट रहे होंगे. औरतें रोरो उठेंगी. मन में कहेंगी, ‘कैसे हैं गांव वाले. आड़े वक्त पर भी पास न आए.’ ‘कम्मो क्या सोचेगी? राजू वैसे तो राह चलते लड़कियों को घूरता है. शाम को नदी किनारे कन्हैया बना वंशी की तानें उड़ाता है. पर डाकुओं से अपमानित होती औरतों की बात भी पूछने न आया. मुंह दुबकाए पड़ा होगा कहीं पेड़ की खुलार में. कहेगी, गांव वाले आए, पर राजू न आया. राजू के दिल में कांटा सा छिदा मुट्ठियां कस गई. उस ने इश्तहार पर दृष्टि डाली. लाठी देखी, बाहर की पगडंडी देखी. मन में कोई बोला, ‘राजू न आया.’ दोबारा कोई चिल्लाया ‘राजू न आया.’ एक साथ सैकड़ों स्वर गूंज उठे ‘राजू न आया. राजू न आया.’ उस का रकत तेजी से दौड़ने लगा. झोंपड़ी मानो चक्कर काटने लगी. सिर पर कैप रखे और लाठी साधे बाहर को दौड़ा. एक ही सांस में बाग की मेंड, ताल और गली फांदता हुआ हवेली के सामने खड़े जमघट में जा मिला.
लगभग पचास आदमियों का मजमा था. रामबली, जग्गू और नोखे आदि नेतृत्व कर रहे थे. राजू को भी आया देख लोगों को आश्चर्य हुआ. उस के अपमान की बात सब को मालूम थी. सोचा, आया होगा तमाशा देखने. क्या किया जाए, इसी विषय पर बहस चल रही थी. नोखे ने सम झाया, ‘दलन का डाका है. कुछ पार न बसाएगी. गोली से उड़ा देंगे जालिम.’ अपने को क्या पड़ी है जो आग में हाथ दें. अब कहां चला गया ससुर चिम्मन? मुंहतोड़ लिए फिरता था. पाला पड़ा है कमरतोड़ से.’’ जग्गू ने हृदय का गुबार निकाला. उस की बात सुन कर और लोग भी मुसकराए. ‘‘ठीक तो है, भैया अपनेआप निबटेंगे. यह श्यामू कौन भला है. सूद के मारे हलाल कर दिया है खबीस ने, डाकू है, पूरा. यह श्यामू डाकू, वह दलना. बीच में अपना क्या काम.’’ सोनी पासी बोला. पहलवान रामबली उन की ओर झुका बोला, ‘‘मरने दो ससुरों को. धरती सिर पर उठा रखी है. कौन हमें इनाम में मकान बख्श देंगे. श्यामू ने अखाड़े के लिए दो बित्ते जमीन का लगान भी न छोड़ा.’’ और राजू की सम्मति लेने के लिए उस की ओर देखा. राजू को यह बातें भली न लगीं.
उस ने कहा, ‘‘पहलवान, गांव में सब का एक दिन काम पड़ता है. आपस में ही भेद रखोगे, तो डाकुओं से कैसे पार बसाएगी? आज श्यामू के, कल जग्गू चौधरी के, परसों नोखे सेठ के…’’ नोखे सेठ ने अपना नाम सुना. घबरा कर बोला, ‘‘भाई, मैं रोकता थोड़े ही हूं. जबर डाकुओं का मुकाबला है, इस से कहा. गांव में एकदूसरे से काम पड़ता ही है.’’ जग्गू चौधरी को अपने डंडे और पांच लड़कों का भरोसा था. उस ने फटकार बताई, ‘‘हमारे यहां कोई आएगा तो श्यामू पांडे रोक नहीं लेगा. वह तो जलाएगा घी के दीए.’’ सोनी भी कुढ़ कर बोला, ‘‘बड़ा आया पक्ष लेने वाला. उस दिन की गालियां और धक्के बाग में दबा आया क्या?’’ राजू इस चोट से तिलमिला गया. वापस लौट जाने की इच्छा ने फिर से जोर मारा. दूसरे की क्षण बड़े से मकान पर दृष्टि गई. रोती कामिनी की आंखें दीखीं. इश्तहार का नौजवान याद आया. तथा मस्तिष्क और हृदय पर छा गया. ग्लानि, उमंग, उद्वेग और साहस ने करवटें लीं. तय किया, लौटेगा नहीं, भले ही अकेला जाना पड़े. खिसिया कर बोला, ‘‘यहीं खड़े गाल बजा रहे हो.
अंदर औरतों पर जुल्म हो रहा है. यही है मर्दानगी. पुराना झगड़ा इस समय याद करते लाज नहीं आती. मैं अकेला ही बहुत हूं.’’ पहलवान रामबली की बात लग गई. उसे अपनी कसरती देह पर घमंड था. बांहों पर हाथ फेरते हुए बिगड़ा, ‘‘यहां कौन कम हैं? अखाड़े को कुछ की कृपा से अच्छेअच्छों को पछाड़ा है. आज दलना से ही दोदो हाथ हो जाएं.’’ नोखे ने देखा कि अवसर अच्छा है. डाकू इसी तरह दबेंगे. अपनी बंदूक रामबली को सौंप स्वयं भीड़ में जा लगा. कहता गया, ‘‘रुपएपैसे से मदद मेरी. मुकदमे में, घायल की सेवा में नोखे सेठ पहले रहेगा.’’ जग्गू चौधरी ही क्यों पीछे रहता. उस ने जोर दिखाया, ‘‘खड़े क्या देख रहे हो? चलो, पीछे की छत पर हैं डाकू.’’ सोनी पासी ने भी लाठी फटकारी. पौर में से हो कर छत पर सब एक साथ लपके. राजू ने रोका और सम झाया, ‘‘क्या पागलपन कर रहे हो.
डाकू हथियार बंद हैं. सब को भून कर रख देंगे.’’ भीड़ सिमट कर उस के इर्दगिर्द इकट्ठा हो गई. रामबली को जैसे कुछ याद आया.‘‘कहां गए, नोखे सेठ? संभालो अपनी बंदूक, मैं तो लाठी चलाऊंगा. इस का घोड़ा भी तो दबाना नहीं आता.’’ नोखे भला ऐसे झगड़े में क्यों पड़ता. भीड़ में से ही बोला, ‘‘धड़ाके का काम तुम्हीं करो, भैया. रुपएपैसे से मदद मेरी.’’ राजू ने हंस कर बंदूक स्वयं ले ली. उस ने ट्रेनिंग में बंदूक चलाना सीखा था. मोर्चा तीन भागों में बांटा. बाईं और से रामबली पंदरह लठैतों के साथ रसोईघर पर चढ़े. दाईं और से कुएं की जगत पर सीढी लगा कर जग्गू बीस बल्लम वाले ले कर आए, इस तरह घेर डाला जाए. बंदूक वाला केवल एक था राजू. उस ने स्वयं पौर से होते हुए जीने से छत पर पहुंचने का निश्चय किया. वहां जा कर वह स्थिति को परखने के बाद हवाई फायर करेगा. उस के फायर की आवाज सुनते ही रामबली और जग्गू के दल अटारियों पर चढ़ जाएं और डाकुओं पर टूट पड़े. बाकी लोग गांव के परले सिरे पर जा कर जगार करें. सब अपनेअपने मोर्चों की ओर पांव दबा कर चले. राजू ने हंस कर कहा, ‘‘मजा तो तभी है, दोस्तों, जब दलन पकड़ा जाए.’’ साघनहीन देहाती उत्साह से गोलियों का मुकाबला करने रवाना हुई. दस मिनट में ही दलन के सामने दरी पर गहनों का ढेर लग गया. डाकू अपनेअपने मोर्चे छोड़ दरी के पास सिमट आए. कामिनी के अलावा अन्य स्त्रियों के पास ढेरों जेवर निकला. खिसिया कर दलन सिंह ने कामिनी को ध्यान से देखा. उस की ओर बढ़ा छिटकी हुई चांदनी में सामने उसे देवबाला सी दीखी. छरहरे शरीर की इतनी सुंदर स्त्रियां उस ने बहुत कम देखी थीं.
पुलिस की आंखें बचा कर कोठों पर न जाने कितनी बार हो आया था. परंतु कभी भी ऐसे निर्दोष, मादक और दैवी सौंदर्य के दर्शन न हुए थे. नीली साड़ी में लिपटी उस आकर्षक मूर्ति ने उसे क्षण भर में मोह लिया. उस की दुराचारी और पाशविक वृत्ति ने जोर मारा. दलन ने अपने पेशे के नियम को पहली बार तोड़ा. उस ने कामिनी की बांहें कस कर पकड़ लीं और अपने कर्कश स्वर में यथाशक्ति मिठास लाता हुआ बोला, ‘‘तुम्हें हमारे साथ चलना होगा. आराम से रहोगी.’’ दूसरे ही क्षण उस के मुख पर पाशविकता नाच उठी. ‘‘खबरदार, जरा भी गुलगपाड़ा किया तो गरदन घोट दूंगा,’’ कह कर उस ने अपनी पकड़ और भी कठोर की. एकाएक कामिनी की सम झ में कुछ न आया. बंधा पड़ा चिम्मन जोर से तड़पा. औरतों के होशहवास समाप्त हो चुके थे. कोई न बोली. किसी के रोने का स्वर भी न सुनाई दिया.
दहेज की कोई भी खबर पढ़ कर लोगों खासतौर से औरतों को तमाम मर्द मारपीट करने वाले नजर आने लगते हैं. आम राय यह बनती है कि मर्द समुदाय पैसों के लिए पत्नियों को परेशान करता है.
दहेज कानून की बनावट चाहे ऐसी हो कि अगर एक बार कोई पत्नी अपने पति के जुल्म की शिकायत कर दे, तो पति वाकई कुसूरवार है या नहीं, यह देखनेसम झने के पहले ही उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है, पर इस से औरतों को कुछ नहीं मिलता, क्योंकि वे न तो ससुराल की रहती हैं, न ही मायके की.
मगर भोपाल के नजदीक सीहोर जिले के परिवार परामर्श केंद्र के अफसर और सदस्य इस बात को ले कर हैरानपरेशान हैं कि पिछले 5 सालों से औरतों के मुकाबले मर्र्द ज्यादा तादाद में अपना रोना रोते आ रहे हैं. औरतों की लड़ाई के खिलाफ इतनी सख्ती बरतने को कोई कानून ऐसा नहीं है, जो उन्हें सबक सिखा सके. परिवार परामर्श केंद्रों का अहम मकसद घरेलू झगड़ों को निबटाना है.
पति कुसूरवार होता है या उस के खिलाफ शिकायत आती है, तो तुरंत उसे दहेज और प्रताड़ना कानूनों का हौआ दिखा कर यह सम झाया जाता है कि सम झौता कर लो, नहीं तो पहले हवालात और फिर जेल जाना तय है. आरोप कितना सच्चा है और कितना झूठा, इस की जांच की जहमत आमतौर पर नहीं उठाई जाती. आम मर्द अपने को जेल से बचाने के लिए राजीनामा कर लेता है, पर घोड़े को पानी तक ले जाया जा सकता है, उसे पानी नहीं पिलाया जा सकता. घर में रह कर वह बीवी की धौंस सहता है, पर प्यार नहीं करता.
मध्य प्रदेश सीहोर के हालात पत्नियों की हैवानियत की दास्तां कहते नजर आते हैं. आंकड़ों पर गौर करें, तो एक साल में सीहोर परिवार परामर्श केंद्र में 90 अर्जी आई थीं, जिन में से 62 पतियों की थीं. इस के एक साल पहले कुल 99 अर्जियों में से 46 पतियों की थीं. ज्यादातर मामलों में मर्दों की शिकायत यह थी कि बीवियां उन्हें परेशान करती हैं, डांटतीडपटती हैं और मायके चली जाती हैं.
गौरतलब है कि परिवार परामर्श केंद्र पुलिस महकमे द्वारा चलाए जाते हैं. सीहोर परिवार परामर्श केंद्र के अध्यक्ष के मुताबिक, ज्यादातर मामलों में पतियों ने हिफाजत की गुहार लगाई है.
पतिपत्नी में विवाद होना आम बात है, मगर पत्नी जब शिकायत करती है, तो उसे जरूरत से ज्यादा हमदर्दी औरत होने की वजह से मिलती है. पति शिकायत दर्ज करा रहे हैं तो इस पर एक वकील का कहना है, ‘‘मुमकिन है कि पत्नियों पर जोरजुल्म करने से पहले ही वे बचाव का रास्ता अख्तियार कर रहे हों, मगर इतने मामले देख कर ऐसा लगता नहीं कि सभी ऐसा करते होंगे.’’
न परेशान शौहरों की खास मदद परिवार परामर्श केंद्र नहीं कर पा रहा है. वजह, पत्नियों को बुलाने के लिए सख्त कानून नहीं है. वे आ भी जाएं, तो बजाय अपनी गलती मानने के पति की ही शिकायत करने लगती हैं. इस से मामला बजाय सुल झने के और उल झता है.
लेकिन अच्छी बात यह है कि पति अपनी बात कहने में हिचक नहीं रहे. एक समाजसेविका मानती हैं कि पत्नियां भी पति को परेशान करती हैं, मगर इज्जत बचाने की खातिर पति खामोश रह जाते हैं.
एक पीडि़त पति दयाराम (बदला हुआ नाम) का कहना है कि पत्नी जबतब बेवजह कलह करने लगती है. सम झाता हूं, तो वह मायके चली जाती है. वह तलाक नहीं चाहता, बल्कि घर की सुखशांति बनाए रखने में पत्नी का सहयोग चाहता है. उस के पास इतने पैसे भी नहीं कि वह कोई नौकरानी रख सके या बाहर का खाना ला कर खा सके. इस हालत के लिए उन टैलीविजन खबरों को कुसूरवार ठहराया जाता है, जिन में उन्हें थप्पड़ मारते दिखाया जाता है, जिन्हें आप पसंद नहीं करते.
आजकल समाज में धर्म और जाति के नाम पर हर कोई लट्ठ ले कर खड़ा होने लगा है. सच कुछ भी हो, मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पति का सुखचैन बीवी जरा सी कलह से छीन सकती है.
कलह और तानों से परेशान पति या तो शराब पीने लगता है या दूसरी औरतों के चक्कर में फंस जाता है. दरअसल, अब बुलडोजर संस्कृति चलने लगी है कि जरा सी बात पर पूरा घर ढहा दो, जो सरकार कर रही है वही बीवियां अपने मर्दों के साथ कर रही हैं.
एक लंबे अरसे से गांवभर में 3 जनों का बड़ा भारी नाम रहा है. बौहरे चंद्रपाल भड़सार गल्ले की भराई और लेनदेन के लिए मशहूर रहे हैं. पुरबिया गांव में नौकरीपेशा और पढ़ाईलिखाई के लिए पहले नंबर के गिने जाते रहे हैं, तो ठाकुर जाति के प्यारेलाल अपनी जमीनजायदाद के लिए गांव में सब से ऊपर हैं. उन के बराबर जमीन गांवभर में किसी के पास भी नहीं है. गांव के सिवाने से ले कर बंबा (छोटी नहर) तक उन की खेती फैली हुई है. आखिर 225 बीघा जमीन कोई कम नहीं होती.
ठाकुर प्यारेलाल की खेती हमेशा से नौकरों के बलबूते पर होती आई है. घर पर 3 ट्रैक्टर और 8 दुधारू भैंसें उन्होंने हमेशा अपने पास रखी हैं. अच्छे पशु को खरीदने का चाव उन में इतना जबरदस्त रहा है कि जिस भैंस को ज्यादा कीमत के चलते मेले में कोई भी खरीदने को तैयार न होता हो, उसे वे जरूर ही खरीद कर लाते.
ठाकुर प्यारेलाल का काम दोपहरी में पंडित भूरी सिंह से कथावार्ता सुनते रहना और सुबहशाम खेतों का चक्कर लगाना रहा है. जब से राम मंदिर की बात चली है, उन का हिंदूधर्म का प्रेम और बढ़ गया है. पिछले 40 साल से वे ही घर के सोलह आना मालिक रहे हैं. उन्होंने अपने बेटे रामलाल को मालिकी के लिए हमेशा नाकाबिल सम झ कर इधर 4-6 साल से अपने लाड़ले नाती को घरगृहस्थी की थोड़ीबहुत जिम्मेदारियां सौंपनी शुरू कर दी हैं.
ठाकुर प्यारेलाल बड़े दिलेर आदमी रहे हैं. कोई शादी या कर्ज होने पर उन्होंने कभी भी हाथ सिकोड़ना नहीं जाना. जब उन्होंने अपनी छोटी लड़की की शादी की, तो उन के समधी ने वैसे ही उन से पूछा, ‘‘आप में कितनी बरात बुलाने की हैसियत है?’’
‘हैसियत’ शब्द ठाकुर प्यारेलाल को बहुत अखर गया और इस पर उन्होंने समधी को तपाक से जवाब दिया, ‘‘समधीजी, आप उतनी बरात लाएं, जितनी बरात लाने की आप में हैसियत है.’’
फिर क्या था, उस बरात में पूरे 600 आदमी आए. साथ ही, एक किराए की ओपन कार, 4 बसें, 20 गाडि़यां आईं सो अलग.
आज भी गांव में चंपा की शादी की जिक्र करकर के नई पीढ़ी के लड़के उसी तरह की लड़की को ढूंढ़ने में लगे रहते हैं.
अपनी जिंदगी को पूरी तरह से जी कर (80 साल की उम्र भोग कर) ठाकुर प्यारेलाल 10 रोज के कोरोना बुखार में ही इस दुनियाको हमेशा के लिए छोड़ गए. शव यात्रा निकाली ही नहीं जा सकी. रातोंरात लाश को 2 लोगों के सामने जला दिया गया. लेकिन कोरोना खत्म होने पर रस्में पूरी की गईं, नकली लाश बना कर अर्थी बनाई गई.
कसबे से बैंडबाजे वाले लाए गए. विमान का शंख झालर, खड़तालमंजीरे और बैंडबाजों के साथ आसपास के 5 गांवों में जुलूस निकला. घी, चंदन की भरमार के साथ नकली ठाकुर प्यारेलाल की अंत्येष्टि की गई. देखादेखी उस समय श्मशान घाट पर बहुत सारे लोग मौजूद थे. बाद में मृत्युभोज में 16 तरह का खाना भी तो था न.
पंडित राम सिंह, एक सत्ता पक्ष का खास भगवाधारी नेता चंद्रपाल और गंगा प्रसाद बैठेबिठाए नेता बन बैठे.
उन सब ने कहा कि ठाकुर प्यारेलाल की याद में एक बड़ा सा मंदिर उन की जमीन पर बनना चाहिए. लोगों ने लाल सिंह के पूछे बिना जमीन भी तय कर ली. शहर से एक पंडित बुलवा कर जमीन शुद्ध करवा ली.
ठाकुर आदमी नहीं, देवता थे. सारी बीसी (आसपास के 20 गांव) में ऐसा नेक आदमी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिल सकता. अब बात तो तब रहे, जब मंदिर में सफेद पत्थर लगे, ताजमहल सी कारीगरी हो.
ठाकुर लाल सिंह लोगों की बातें सुन कर बड़ी गुदगुदी और खी झ का अनुभव करते. आज उन के पास 10-20 लाख की नकदी होती, तो वह गांव वालों की आरजू को जरूर पूरा कर देते. वे बड़े लाचार थे, क्योंकि उन का घर नामीगिरामी लोगों में तो जरूर गिना जाता रहा है, पर हकीकत वे ही अच्छी तरह से जानते थे.
50 साल की बाबा की मालिकी में इस समय घर में नकदी के नाम पर ज्यादा नहीं था. हां, बाहरी कवर जरूर बना हुआ था और मौका पड़ने पर बिना किसी को पता चले 10-20 हजार रुपए इधरउधर से जमा कर खर्च कर डालने की उन में हैसियत थी.वह रुपया बैशाख में फसल आते ही निकाल दिया जाता.
छठे दिन ये शुभचिंतक (बौहरे वगैरह) उन की बैठक पर आए और उन्होंने ठाकुर को अंदर घर से बुलवा लिया. तब बैठक में बिछे गलीचे पर सभी बैठे.
पहले तो बौहरे, पंडित और पुरबिया घंटों तक बाबा के गुणों का बखान करते रहे, फिर बैनई के शंकरदयाल के मंदिर बनाने की बातें बड़ी रस लेले कर चलीं. इस के बाद कार्ज संबंधी ठाकुर द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी को बहुत झं झटबाजी का काम जतलाते हुए उन महानुभावों ने कार्ज का सारा मामला ठाकुर लाल सिंह पर ही छोड़ दिया.
हालांकि मंदिर बनाने का फैसला पहले से ही हो चुका था. पूरा गांव सोच रहा था कि तब ठाकुर लाल सिंह ने बड़े धर्मसंकट में पड़ कर अपनी पैसे की लाचारी प्रकट की. इस पर पंडित राम सिंह ने उन्हें सहलाते हुए निवेदन किया, ‘‘ठाकुर साहब, आप क्या खेती की 2 साल की बचत भी मंदिर के नाम पर नहीं लगा सकते? आप के लिए यह कौन सी बड़ी बात है.’’
पुरबिया ने पंडित की बात का पूरी तरह समर्थन किया. फिर बौहरे ने रुपयों के इंतजाम की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए कहा, ‘‘ठाकुर साहब, आप अगर हुक्म दें, तो बाबा के नाम पर आज ही अकेले बरहन में से ही 5 लाख रुपए ला कर आप के हाथ पर रख दूं.’’
वैसे तो लाल सिंह मंदिर के ज्यादा वजन को बिलकुल भी ओटना नहीं चाहते थे और न उन में इतनी औकात ही थी, पर उन जानेमाने लोगों की बात का खंडन करने की हिम्मत भी उन में नहीं थी, इसलिए उन्होंने चुप्पी साध ली.
ऐसे मौकों पर चुप्पी का मतलब खामोशी मान लिया जाता है. उन्हें लग रहा था कि उपजाऊ जमीन में कटौती होगी, पर मंदिर के चढ़ावे की बात भी मन में थी.
उसी दिन सारे गांव में ठाकुर प्यारेलाल के नाम पर मंदिर बनने का हल्ला मच गया.
अगर कहीं एकता और भाईचारा देखना है, तो वह गांव की जिंदगी में और खासकर धर्म के मौके पर देखने को मिलेगी. इस समय सारे गांव में बौहरे, पंडित और पुरबिया की तूती बोल रही है. पंडितजी ने मंदिर से संबंधित सभी तरह की खरीदारी की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी. ठेकेदार तय कर लिया था, जो 30 फीसदी पंडित को देता था.