
उस बड़ी सी कालोनी के 10 घरों में पार्टटाइम काम कर रही थी. कब से, यह बात कम ही लोग जानते थे. कितने ही घरों में नए मालिक आ चुके थे, पर हर नए मालिक ने पुष्पा को अपना लिया था. 240 सी वाली यादव मेम साहब ने नई बहू को बताया था, ‘‘जब मैं ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था, तब पुष्पा ने ही सब से पहले मेरे लंबे घूंघट में अपना मुंह घुसा कर मेरी सास को कहा था, ‘अरे अम्मां, तुम बहू लाई हो या चांद का टुकड़ा… मैं वारी जाऊं, हाथ लगाते ही मैली हो जाएगी.’ 240 सी वाली मेम साहब एक बडे़ दफ्तर में काम करती थीं और उसी दिन से पुष्पा की चहेती बन गई थीं. पुष्पा यादव मेम साहब की सास को ‘अम्मां’ कह कर ही बुलाती थी. अम्मां ने उसे मां की तरह ही पाला था और उसे अपने बच्चों सा ही प्यार दिया था. किसी भी नए घर में रखने से पहले पूरी जानकारी अम्मां लेती थीं और फिर यह काम 240 सी वाली यादव मेम साहब ने करना शुरू कर दिया था. 20 सालों में पुष्पा 19 साल से 39 की हो गई,
पर अभी भी उस में फुरती भरी थी. पुष्पा का बाप अम्मां के ही गांव का चौकीदार था. पुष्पा के जन्म के फौरन बाद उस की मां चल बसी थी. लेकिन बाद में बाप ने कभी उसे मां की कमी महसूस नहीं होने दी थी. दिन बीतते देर नहीं लगती. एक के बाद एक 14 साल पार कर के बरसाती नदी सी अल्हड़ पुष्पा बचपन को पीछे छोड़ जवानी की चौखट पर आ पहुंची थी. उन्हीं दिनों बाप ने पढ़ाई छुड़वा कर 17 साल की उम्र में ब्याह करा दिया, लेकिन जिस शान से वह ससुराल पहुंची, उसी शान से 10 दिन में वापस भी आ गई. पति ने एक सौत जो बिठा रखी थी पड़ोस में. बाप के पास रह कर मजूरी करना पुष्पा को मंजूर था, लेकिन सौत की चाकरी करना उस के स्वभाव में नहीं था. उस घर में दूसरे दर्जे की पत्नी बन कर रहना उसे कतई पसंद न आया. चौकीदार बाप ने उसे इस कालोनी में नौकरी दिला दी थी.
पुष्पा ने भी खुशीखुशी सारे घरों को संभाल लिया था. सर्वैंट क्वार्टर में उस का पक्का ठिकाना हो गया था. दुख की हलकी सी छाया भी उस के चेहरे पर दिखाई न दी थी. 2 साल बाद पुष्पा का बाप भी चल बसा. फिर धीरेधीरे वह इस कालोनी के लोगों में ही शामिल होती चली गई. किसी ने भी उसे कभी कुछ कहा हो, याद नहीं. पुष्पा ने हर घर का काम मुस्तैदी से किया और शिकायत का सवाल ही नहीं था. 5-6 घरों की चाबियां उसी के पास रहती थीं. बच्चे कब स्कूल से आएंगे, कौन सी बस से आएंगे, खाने में क्या खाएंगे, उसे मालूम था. ऐसा लगता था कि वह कालोनी की कामकाजी औरतों की जान है. घर के भंडारे से ले कर बाहर तक के सारे कामकाज का जिम्मा पुष्पा के ही सिर पर था. शादीब्याह के मौकों पर रिश्ते की औरतें आतीं और कमरों का एकएक कोना थाम कर अपनाअपना सामान सजा कर बैठ जातीं. लेकिन सब को समय पर चाय मिलती और समय पर खाना. ऐसे में पुष्पा को जरा भी फुरसत नहीं मिलती थी.
हर मेमसाहब और मेहमानों के काम में हाथ बंटाती वह चकरघिन्नी की तरह घूमती हुई सारा घर संभालती थी. पुष्पा को इस कालोनी से न जाने कैसा मोह सा हो गया था कि वह कहीं और जाने को तैयार न होती. सब बच्चे उसी की गोद में पले थे. अकसर सभी की छोटीमोटी जरूरतें पुष्पा ही पूरी करती थी. न जाने कितनी बार उस ने बच्चों को अपनीअपनी मांओं से पिटने से भी बचाया था. यादव मेम साहब अकसर कहतीं, ‘‘तुम इन सब को सिर पर चढ़ा कर बिगाड़ ही दोगी पुष्पा.’’ ‘‘अरे नहीं मेम साहब, मैं क्या इन का भलाबुरा नहीं समझती,’’ कहते हुए वह बच्चों को अपनी बांहों में समेट लेती.
धीरेधीरे बच्चों के ब्याह होने लगे. घरों में नए लोग आने लगे. ऐसे में एक दिन 242 सी वाली मेम साहब ने पूछ ही लिया, ‘‘अरे पुष्पा, सब का ब्याह हुआ जा रहा है, तू कब ब्याह करेगी?’’ ‘‘मैं तो ब्याही हूं मेम साहब,’’ वह लजा गई. ‘‘अरे, वह भी कोई ब्याह था तेरा, न जाते देर, न आते देर. अब तक तो तुझे दूसरा ब्याह कर लेना चाहिए था,’’ 250 सी वाली ने भी उसे समझाते हुए कहा ही था कि पुष्पा अपने कान पकड़ते हुए बोली, ‘‘यह क्या कहती हो मेम साहब, एक मरद के रहते दूसरा कैसे कर लूं? अरे, उस ने तो मुझे भगाया नहीं, मैं खुद ही चली आई थी.’’ लेकिन एक दिन न जाने कहां से पता पूछतेपूछते पुष्पा का मर्द आ ही टपका. पुष्पा सोसाइटी की सीढि़यां धो रही थी. दरवाजा खुलने के साथ ही उस ने घूम कर देखा. दूसरे ही पल साफ पहचान गई अपने मर्द को. इतने सालों बाद भी उस में ज्यादा फर्क नहीं आया था. बालों में हलकी सफेदी जरूर आ गई थी, पर शरीर वैसा ही दुबलापतला था.
लेकिन वह पुष्पा को नहीं पहचान पाया. उस को एकटक अपनी ओर देखता पा कर उस ने थोड़ी हिम्मत से कहा, ‘‘मैं… दिनेश हूं. पुष्पा क्या यहीं…?’’ लेकिन दूसरे ही पल उसे लगा कि शायद यही तो पुष्पा है, ‘‘कहीं तुम ही तो…?’’ पुष्पा ने धीरे से सिर झुका लिया. उस की चुप्पी से उस का साहस बढ़ा, ‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं पुष्पा.’’ पुष्पा सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही. ‘‘मैं बिलकुल अकेला रह गया हूं. तुम्हारी बहुत याद आती?है. देखो, इनकार मत करना.’’ पुष्पा हैरानी से अपने मर्द को देखती रह गई. इतने सालों बाद आज किस हक से वह उसे लेने आया है. पुष्पा के चेहरे पर कई रंग आए और गए. उस ने कुछ सख्त लहजे में कहा, ‘‘क्यों…? तुम्हारी ‘वह’ कहां गई?’’ ‘‘कौन… लक्ष्मी…? वह तो बहुत समय पहले ही मुझे छोड़ कर चली गई थी. लालची थी न…
जब तक मेरे पास पैसे रहे, वह भी रही. पैसे खत्म हो गए, तो वह भी चली गई.’’ कुछ ठहर कर दिनेश ने फिर गिड़गिड़ा कर कहा, ‘‘मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. जो चाहे सजा दे लो, लेकिन तुम्हें मेरे साथ चलना ही होगा. देखो, इनकार मत करना,’’ उस की आंखों से आंसू बह चले थे. पुष्पा का दिल भर आया. औरत का दिल जो ठहरा. जरा सा किसी के आंसू देखे, झट पिघल गया. उस ने गौर से उसे देखा, ‘कैसा तो हो आया है इस का चेहरा. ब्याह के समय कैसी मजबूत और सुंदर देह थी इस की. बहुत कमजोर भी लग रहा है,’ आंसुओं को आंचल के कोर से पोंछ कर उस ने अपने पति दिनेश को बरामदे में रखे स्टूल पर बैठाया और खुद एक फ्लैट में चली गई. मेम साहब के पास जा कर वह धीरे से बोली, ‘‘मेम साहब, मेरा मर्द आया है.’’ ‘‘क्या…?’’ सुन कर वे चौंक गईं. पुष्पा पागल तो नहीं हो गई.
उन्होंने एक बार फिर पूछा, ‘‘कौन आया है?’’ ‘‘वह बाहर बैठा है. कह रहा है, मुझे लेने आया है,’’ पुष्पा धीरे से बाहर की ओर मुड़ गई. अब तो आगेआगे पुष्पा और पीछे से एकएक कर के सब फ्लैटों की मेम साहबें अपने सब काम छोड़ कर एक लाइन से बरामदे में आ कर खड़ी हो गईं. सब को देखते ही वह घबरा कर खड़ा हो गया. सब की घूरती निगाहों का सामना करने की हिम्मत शायद उस में नहीं थी. सिर झुका कर वह धीरे से बोला, ‘‘मैं दिनेश हूं. पुष्पा को लेने आया हूं.’’ ‘‘क्यों…?’’ अपने गुस्से को दबाते हुए एक मेम साहब बोलीं, ‘‘इतने बरस कहां था, जब पुष्पा…’’ तब तक पुष्पा ने आगे आ कर भरे गले से उन्हें वहीं रोक दिया, ‘‘कुछ न कहो मेम साहब इसे. यह अकेला है. इसे मेरी जरूरत है. देर से ही सही, मेरी सुध तो आई इसे.’’ अब इस के आगे कोई क्या बोलता. पुष्पा अंदर जा कर अपना सामान समेटने लगी. अचानक उस के हाथ रुक गए. इस कालोनी को छोड़ते हुए उसे जाने कैसा लग रहा था.
वह सोचने लगी, ‘कितनी मतलबी हूं मैं. अपने सुख के लिए आज इन लोगों का सारा स्नेह, सारा प्रेम मैं कैसे भूल गई. कितनी आसानी से मैं इन लोगों को छोड़ कर जाने को तैयार हो रही हूं,’ उस की आंखों से टपटप गिरते आंसू उस का आंचल भिगोने लगे. अभी वह कुछ सोच ही रही थी कि कई मालकिनें एकसाथ उस के कमरे में जा पहुंचीं. पुष्पा एक मेम साहब के गले लग कर जोर से रो पड़ी, ‘‘मुझे माफ करना, आज मैं सबकुछ भूल गई.’’ ‘‘नहीं पुष्पा, तुम ने उस के साथ जाने का इरादा कर के बहुत अच्छा किया है. अपना मर्द अपना ही होता है. चाहे कितना भी वह भटकता रहे, एक दिन उसे वापस लौटना ही होता?है. जब जागो तभी सवेरा समझो,’’ यादव मेम साहब ने पुष्पा की पीठ थपथपाते हुए कहा.
उस का सामान बाहर पहुंचा दिया गया था. आगे बढ़ कर उस कालोनी के सब लोगों को एकएक कर के नमस्ते करते हुए पुष्पा बोली, ‘‘आप सब खुश रहो.’’ अब तक 240 सी वाली अम्मां भी बाहर आ गई थीं, जो सब से ज्यादा बुजुर्ग थीं. पुष्पा ने सिर झुकाए आंसू भरी आंखों से उन्हें देखा, ‘‘अम्मां,’’ भरे गले से आगे कुछ न बोल सकी. उन्होंने उसे समझाया, ‘‘इतना दुखी क्यों हो रही हो पुष्पा…? तुम खुशीखुशी उस के साथ घर बसाओ, यही हम सब चाहते हैं. अरे, औरत का जीवन ही यही है. औरत मर्द के बिना और मर्द औरत के बिना अधूरा होता है. ‘‘तुम्हारे जाने का दुख हम सब को है, किंतु तुम्हारे इस फैसले से हमें बहुत खुशी हो रही है. हंसतीखेलती जाओ, मगर हमें भूल मत जाना.’’
इतने में सब ने उन दोनों को रुकने के लिए कहा. 15 मिनट में सारी मालकिनें अपनेअपने हाथों में थैले पकड़े आ गईं. हर कोई बढ़चढ़ कर पुष्पा के लिए अच्छी से अच्छी चीज लाया था. 240 सी वाली यादव मेम साहब ने अपने ड्राइवर को कहा, ‘‘गाड़ी की डिग्गी खोलो और सब सामान रखो. यह इन के साथ जाएगा.’’ 242 सी वाली मेम साहब ने 10,000 रुपए पकड़ाए और कहा, ‘‘मेरा नौकर तुम दोनों को ट्रेन में भी बैठा आएगा.’’ दिनेश ने आगे बढ़ कर पुष्पा का हाथ पकड़ा. धीरेधीरे वे दोनों सब की नजरों से दूर होते चले गए. पुष्पा का कमरा आज भी उस कालोनी में खाली है. सब ने वादा लिया?है बच्चों से कि पुष्पा कभी भी आए, कैसी भी हो, उसे कोई रहने से नहीं रोकेगा.
मैं तकरीबन 20 साल की थी, जब पहली बार कालेज पहुंची. मुझे एक बहुत बड़े कमरे में ले जाया गया, जहां तेज रोशनी थी और बीच में था पलंगनुमा तख्त. वहीं मुझे बैठना था, एकदम न्यूड. नीचे की देह पर बित्तेभर कपड़े के साथ. कई जोड़ा आंखें मुझे देख रही थीं. देह के एकएक उभार, एकएक कटाव पर सब की नजरें थीं. ‘‘मैं बिना हिले घंटों बैठी रहती. सांस लेती, तब छाती ऊपरनीचे होती या पलकें झपकतीं. मुझ में और पत्थर की मूरत में इतना ही फर्क रहा,’’
एक कमरे के उदास और सीलन भरे मकान में कृष्णा किसी टेपरिकौर्डर की तरह बोल रही थीं. कृष्णा न्यूड मौडल रह चुकी हैं. मैं ने मिलने की बात की, तो कुछ उदास सी आवाज में बोलीं, ‘‘आ जाओ, लेकिन मेरा घर बहुत छोटा है. मैं अब पहले जैसी खूबसूरत भी नहीं रही.’’ दिल्ली के मदनपुर खादर के तंग रास्ते से होते हुए मैं कृष्णा की गली तक पहुंचा. वे मुझे लेने आई थीं. ऊंचा कद, दुबलापतला शरीर और लंबीलंबी उंगलियां. बीच की मांग के साथ कस कर बंधे हुए बाल और आंखों में हलका सा काजल. सिर पर दुपट्टा. यह देख कर कोई भी अंदाजा नहीं लगा सकता कि लोअर मिडिल क्लास घरेलू औरत जैसी लगती कृष्णा ने 25 साल दिल्ली व एनसीआर के आर्ट स्टूडैंट्स के लिए न्यूड मौडलिंग की होगी.
सालों तक कृष्णा का एक ही रूटीन रहा. सुबह अंधेरा टूटने से पहले जाग कर घर के काम निबटाना, फिर नहाधो कर कालेज के लिए निकल जाना. कृष्णा मौडलिंग के शुरुआती दिनों को याद करती हैं, जब शर्म उन से ऐसे चिपकी थी, जैसे गरीबी से बीमारियां. ‘‘उत्तर प्रदेश से कमानेखाने के लिए पति दिल्ली आए, तो संगसंग मैं भी चल पड़ी. सोचा था, दिल्ली चकमक होगी, पैसे होंगे और घी से चुपड़ी रोटी खाने को मिलेगी, लेकिन हुआ एकदम अलग. यहां सरिता विहार के एक तंग कमरे को पति ने घर बता दिया. सटी हुई रसोई, जहां खिड़की खोलो तो गली वाले गुस्सा करें. ‘‘धुआंती रसोई में पटिए पर बैठ कर खाना पकाती, अकसर एक वक्त का. घी चुपड़ी रोटी के नाम पर घी का खाली कनस्तर भी नहीं जुट सका. पति की तनख्वाह इतनी कम कि पैर सिकोड़ कर भी खाने को न मिले.
तभी किसी जानने वाली ने कालेज जाने को कहा. ‘‘मैं लंबी थी. खूबसूरत थी. गांव में पलाबढ़ा मजबूत शरीर और खिलता हुआ उजला रंग. बताने वाली ने कहा कि तुम्हारी तसवीर बनाने के पैसे मिलेंगे. ‘‘कालेज पहुंची तो उन्होंने कपड़े उतारने को कह दिया. मैं भड़क गई. कपड़ेलत्ते नहीं उतारूंगी, बनाना हो ऐसे ही बनाओ. ‘‘तसवीर बनी, लेकिन पैसे बहुत थोड़े मिले. फिर बताया गया कि कपड़े उतारोगी तो 5 घंटे के 220 रुपए मिलेंगे. ये बहुत बड़ी रकम थी, लेकिन शर्म से बड़ी नहीं. कपड़ों समेत भी मौडलिंग करती तो शर्म आती कि अनजान लड़के मेरा बदन देख रहे हैं. ‘‘पहले हफ्ते कपड़े उतारने की कोशिश की, लेकिन हाथ जम गए. समझ ही नहीं पा रही थी कि इतने मर्दों के सामने कपड़े खोलूंगी कैसे? खोल भी लिया तो बैठूंगी कैसे?’’ कृष्णा की आवाज ठोस है, मानो वह वक्त उन की आवाज में भी जम गया हो.
‘‘2 हफ्ते बाद कमीज उतरी. इस के बाद कपड़े खुलते ही चले गए. बस आंखें बंद रहती थीं. बच्चे डांटते कि आंखें खोलिए तो खोलती, फिर मींच लेती. ‘‘किस्मकिस्म के पोज करने होते. कभी हाथों को एक तरफ मोड़ कर, कभी एक घुटने को ऊपर को उठा कर, तो कभी सीने पर एक हाथ रख कर मैं बैठी रहती.’’ लंबी बातचीत के बाद कृष्णा कुछ थक जाती हैं. वे बताती हैं, ‘‘बीते 5 सालों से डायबिटीज ने जकड़ रखा है. वक्त पर रोटी खानी होगी,’’ वे रसोई में खाना पकाते हुए मुझ से बातें कर रही हैं. ‘‘शुरू में मैं बहुत दुबली थी. लड़के तसवीर बनाते तो मर्द जैसी दिखती. धीरेधीरे शरीर भरा. न्यूड बैठती तो सब देखते रह जाते. कहते कि मौडल बहुत खूबसूरत है. इस की तसवीर अच्छी बनती है.
सब की आंखों में तारीफ रहती, अच्छा लगता था,’’ कृष्णा बताते हुए हंस रही थीं, आंखों में पुराने दिनों की चमक के साथ. मैं ने पूछा, ‘‘फिगर बनाए रखने के लिए कुछ करती भी थीं क्या?’’ उन्होंने बताया, ‘‘नहीं. मेहनत वाला शरीर है, आप ही आप बना हुआ. हां, बीच में तनिक मोटी हो गई थी, तो रोज पार्क में जाती और दौड़ लगाती, फिर पहले जैसे ‘शेप’ में आ गई.’’ कृष्णा जब रोटी बना रही थीं, तब मैं उन का रसोईघर देख रहा था. मुश्किल से दसेक बरतन. टेढ़ीपिचकी थाली और कटोरियां. महंगी चीजों के नाम पर एक थर्मस, जो उन्होंने ‘अमीरी’ के दिनों में खरीदा था. दीवारें इतनी नीची कि सिर टकराए. वे खुद झुक कर अंदर आतीजाती हैं. रसोईघर से जुड़ा हुआ ही ड्राइंगरूम है, यही बैडरूम भी है. 2 तख्त पड़े हैं, जिन पर उन समेत घर आए मेहमान भी सोते हैं. रोटी पक चुकी थीं. अब वे बात करने के लिए तैयार थीं. धीरेधीरे कहने लगीं, ‘‘पहली बार 2,200 रुपए कमा कर घर लाई, तो पति भड़क गए.
वे 1,500 रुपए कमाते थे. शक करने लगे कि मैं कुछ गलत करती हूं. मेरा कालेज जाना बंद हो गया. ‘‘फिर पूछतेपुछाते कालेज से एक सर आए. तब मोबाइल का जमाना नहीं था. वे बड़ी सी कार ले कर आए थे, जो गली के बाहर खड़ी थी. ‘‘सर मेरे पति को कालेज ले गए और मेरी पोट्रेट दिखाई. कहा कि फोटो बनवाने के पैसे मिलते हैं तुम्हारी पत्नी को. वह इतनी खूबसूरत जो है. ‘‘पति खुश हो गए. लौटते हुए छतरी ले कर आए. तब बारिश का मौसम था. हाथ में दे कर कहा था, ‘अब से रोज कालेज जाया कर.’ ‘‘सर ने पति को न्यूड के बारे में नहीं बताया था. सारी कपड़ों वाली तसवीरें ही दिखाई थीं.’’ ‘‘काम पर लौट तो गई, लेकिन यह सब आसान नहीं था. नंगे बदन होना. उस पर बुत की तरह बैठना. नस खिंच जाती. कभी मच्छर काटते तो कभी खुजली मचती, लेकिन हिलना मना था. छींक आए,
चाहे खांसी, सांस रोक कर चुप रहो. ‘‘महीना आने पर परेशानी बढ़ जाती. पेट में ऐंठन होती. एक जगह बैठने से दाग लगने का डर रहता, लेकिन कोई रास्ता नहीं था. ‘‘ठंड के दिनों में और भी बुरा हाल होता. मैं बगैर कपड़ों के बैठी रहती और चारों ओर सिर से पैर तक मोटे कपड़े पहने बच्चे मेरी तसवीर बनाते होते. बीचबीच में चायकौफी सुड़कते. मेरी कंपकंपी भी छूट जाए तो गुस्सा करते. पसली दर्द करती थी. एक दिन मैं रो पड़ी, तब जा कर कमरे में हीटर लगा. ‘‘एक फोटो के लिए 10 दिनों तक एक ही पोज में बैठना होता. हाथपैर सख्त हो जाते,’’ कृष्णा हाथों को छूते हुए याद करने लगीं, ‘‘नीले निशान बन जाते. कहींकहीं गांठ हो जाती. ब्रेक में बाथरूम जा कर शरीर को जोरजोर से हिलाती, जैसे बुत बने रहने की सारी कसर यहीं पूरी हो जाएगी. ‘‘5 साल पहले डायबिटीज निकली, लेकिन काम करती रही.
*शरीर सुन्न हो जाता. घर लौटती तो बाम लगाती और पूरीपूरी रात रोती. सुबह नहाधो कर फिर निकल +जाती… गरीबी हम से क्याक्या करवा गई.’’ ‘‘इतने साल इस पेशे में रहीं, कभी कुछ गलत नहीं हुआ?’’ मैं ने तकरीबन सहमते हुए ही पूछा, लेकिन मजबूत कलेजे वाली कृष्णा के लिए यह सवाल बड़ा नहीं था. ‘‘हुआ न. एक बार मुझे किसी सर ने फोन किया कि क्लास में आना है. मैं ने हां कर दी. शक हुआ ही नहीं. तय की हुई जगह पहुंची तो सर का फोन आया. तहकीकात करने लगे और पूछा कि तुम मौडलिंग के अलावा कुछ और भी करती हो क्या? मैं ने कहा कि हां, घर पर सीतीपिरोती हूं. ‘‘सर ने दोबारा पूछा कि नहीं, और कुछ जैसे सैक्स करती हो?’’ मैं शांत ही रही और कहा कि सर, मैं यह सब नहीं जानती. ‘‘फोन पर सर की आवाज आई कि जैसे दोस्ती. तुम दोस्ती करती हो? मैं ने कहा कि मैं दोस्ती नहीं, मौडलिंग करने आई हूं सर. करवाना हो तो करवाओ, वरना मैं जा रही हूं. ‘‘फिर मैं लौट आई.
पति को इस बारे में नहीं बताया. वो शक करते, जबकि मेरा ईमान सच्चा है. ‘‘कहीं से फोन आता तो भरोसे पर ही चली जाती. खतरा तो था, लेकिन उस से ज्यादा इज्जत मिली,’’ लंबीलंबी उंगलियों से बनेबनाए बालों को दोबारा संवारते हुए कृष्णा याद करते हुए बोलीं, ‘‘पहलेपहल जब कपड़े उतारने के बाद रोती तो कालेज के बच्चे समझाते थे कि तुम रोओ मत. सोचो कि तुम हमारी किताब हो. तुम्हें देख कर हम सीख रहे हैं. ‘‘मेरी उम्र के या मुझ से भी बड़े बच्चे मेरे पांव छूते थे. अच्छा लगता था. फिर सोचने लगी कि बदन ही तो है. एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा. अभी बच्चों के काम तो आ रहा है. ‘‘भले ही कम पढ़ीलिखी हूं, लेकिन मैं खुद को विद्या समझने लगी. इसी बदन ने कालेज जाने का मौका दिया, जो मुझ जैसी के लिए आसान नहीं था.’’ पूरी बातचीत के दौरान कृष्णा स्टूडैंट्स को बच्चे कहती रहीं.
उन के ड्राइंगरूम में 2 पोट्रेट भी हैं, जो इन्हीं बच्चों ने गिफ्ट किए थे. वे हर आनेजाने वाले को गर्व से अपनी तसवीरें दिखातीं और बतातीं कि वे यही काम करती हैं. ‘‘क्या लोग जानते हैं कि आप न्यूड मौडलिंग करती रहीं?’’ ‘‘नहीं. वैसे घर पर तो अब सब जानते हैं कि कालेज में कपड़े खोल कर बैठना पड़ता था, लेकिन गांव में कोई नहीं जानता. अगर पता लग जाए तो सोचेंगे कि मैं ‘ब्लू फिल्म’ में काम करती हूं. थूथू करेंगे. बिरादरी से निकाल देंगे, सो अलग. हम ने उन्हें नहीं बताया.’’ बीते एकाध साल से कृष्णा कालेज नहीं जा रहीं. डायबिटीज के बाद पत्थर बन कर बैठना मुश्किल हो चुका है. मौडलिंग के दिनों का उन का काला पर्स धूल खा रहा है. सिंगार की एक छोटी सी पिटारी है, जिस में ऐक्सपायरी डेट पार कर चुकी रैड लिपस्टिक है, काजल है और बिंदी की पत्तियां हैं. बीते दिनों की हूक उठने पर कृष्णा प्लास्टिक की इस पिटारी को खोलती और आईने में देखते हुए सिंगार करती हैं.
संदूक पर रखा यह बौक्स वे मुझे भी दिखाती हैं. लौटते हुए वे कहती हैं, ‘‘फोन तो बहुतेरे आते हैं, लेकिन मैं जाऊं कैसे… डायबिटीज है तो बिना हिले बैठ नहीं सकती. तिस पर गले के आपरेशन ने चेहरा बिगाड़ दिया. बदन पर अब मांस भी नहीं. न्यूड बैठती तो बच्चे मुझे सब से खूबसूरत मौडल पुकारते. अब मैं वह कृष्णा नहीं रही. बस, तसवीरें ही बाकी हैं.’’
बेइमानी के काम करने वाले अक्सर इतने ज्यादा अपराधी आदतों के शिकार हो जाते हैं कि हत्या करने तक चूकते नहीं है और उन में से कुछ तो कानून के हत्थे चढ़ ही जाते है. फाइनैंस कंपनियों का काम इस देश में पूरी तरह बेइमानी का काम है. जो पैसा लगा कर मोटा ब्याज देने का वादा करते हैं वे आमतौर पर गुंडे किस्म के लोग होते हैं और जमा पैसे को हड़पना आम है. देश भर में लाखों लोग ऐसी कंपनियों में खरबों खो चुके हैं और नईनई कंपनियां खुल रही हैं, नएनए बेवकूफ मेहनत की या बेइमानी की कमाई उन में लगा रहे हैं.
इन को चलाने वाले चूंकि धोखा देना जानते हैं, ये अपनी बीवियों या प्रेमिकाओं से भी बेइमानी करते हुए हिचकते नहीं है. बेइमानी इन के खून का हिस्सा बन जाती हैं. दिल्ली के एक घने इलाके में ङ्क्षसह एंड ब्रादर्स फाइनेंशियल कंपनी के मालिक अनुज को गिरफ्तार किया गया क्योंकि उस ने अपनी प्रेमिका की हत्या कराई जो शादी के लिए दबाव डाल रही थी जबकि अनुज पहले से शादीशुदा था.
इन का मतलब है लोगों से फाइनैंस कंपनी के नाम पर पैसा जमा करने वाला अपनी बीबी से भी बेईमानी कर रहा था और प्रेमिका से भी. प्रेमिका चूंकि उसी दफ्तर में काम करती थी उसे यह मालूम होगा ही कि अनुज शादीशुदा है पर वह पत्नी से पति छीन लेना चाहती थी, बेइमानी से.
जो धंधे टिके ही बेइमानी पर होते हैं उन में सभी बेइमान होते हैं और ‘शोले’ के गब्बर ङ्क्षसह की तरह कब बौस का निशाना बन जाएं कहां नहीं जा सकता. ये फाइनैंस कंपनियां वालें सुंदर सौम्य मीठी बातें करने वाले लड़कियां रखने है ताकि ग्राहकों को फंसाया जा सके. अब ये लड़कियां बौस को फंसा लें. या बौस इन्हें फंसा ले तो कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि इन की पूरी ट्रेङ्क्षनग ग्राहक को फंसा कर पैसा जमा करने की होती है. जो किसी से पैसा लेना जानता या जानती है उसे किसी का जीवन साथी या किसी का दिल लूटना भी आता है.
बहुत से अपराध इसी तरह से होते हैं. कई सैक्सुअल हैरेसमैंट केसों के पीछे यही लूटन की खून में भरी आदत हो जाती है.भारतीय जनता पार्टी की एक संस्थान स्पोक्सपर्सन सोनाली फोगाट की हत्या का शक भी इसी गिनती में आ सकता है. वह अपने बौयफ्रैंड्स के साथ गोल के किसी पब में गई थी जहां शायद उसे ड्रिंक में कुछ पिलाया गया जिस से उस की मृत्यु हो गई. राजनीति में लगे लोगों के पास इतने पैसे, इतना समय आखिर आता कैसे है कि वे गोवा में सैरसपाटे कर सकें. राजनीति और वह भी भारतीय जनता पार्टी की तो साफसुथरी है. वहां तो कंदमूल खा कर जीने का उपदेश दिया जाता है.
सोनाली फोगाट की हत्या भी उसी वजह से होना मुमकिन है क्योंकि जो उस के साथ गए थे कोई सगेसंबंधी नहीं थे. अब वे सब गिरफ्तार कर लिए गए हैं.
शराफत कोई खास गुण नहीं है. यह अपने बचाव का कवच है. दूसरों को न लूटने का मतलब है खुद के लूटे न जाने देना. यह हर शरीफ समझ जाता है कि मजबूत होने के बाद भी कैसे शरीफ बना रहा जाए.
बड़े दिनों के बाद मेरा लुधियाना जाना हुआ था. कोई बीस बरस बाद. लुधियाना मेरा मायका है. माता-पिता तो कब के गुजर गये, बस छोटे भाई का परिवार ही रहता है हमारे पुश्तैनी घर में. सन् बहत्तर में जब मेरी शादी हुई थी, तब के लुधियाना और अब के लुधियाना में बहुत फर्क आ गया है. शहर से लगे जहां खेत-खलिहान और कच्चे मकान हुआ करते थे, वहां भी अब कंक्रीट के जंगल उग आये हैं. शहर पहले से ज्यादा चमक-दमक वाला मगर शोर-शराबे से भर गया है.
जब तक मेरे बच्चे छोेटे थे, कहीं आना-जाना ही मुश्किल था. शादी के कुछ सालों बाद तक तो काफी आती-जाती रही, फिर मां-पिता जी के गुजरने के बाद जाना करीब-करीब बंद ही हो गया. बच्चों की परवरिश और उनके स्कूल-कॉलेज के चक्कर में कभी फुर्सत ही नहीं मिली. फिर बच्चे जवान हुए तो उनके शादी-ब्याह और नौकरी की चिंता में लगी रही. अब बच्चे सेटेल हो गये हैं. पति भी रिटायर हो चुके हैं, तो अब फुर्सत ही फुर्सत है. भरा-पूरा घर है. काम-काज के लिए तीन-तीन नौकर हैं. बेटे की शादी हो गयी है. प्यारी सी बहू पूरे दिन घर में चहकती रहती है.
बहुत दिन से सोच रही थी कि जीवन ने अब जो थोड़ी फुर्सत दी है तो क्यों न भाई के घर कुछ रोज रह आऊं. कितना लंबा वक्त गुजर गया अपने मायके गये हुए. मैंने अपने मायके का जिक्र बहू से किया तो वह भी साथ चलने को मचल उठी. अपनी बहू के साथ मेरी बड़ी पटती है. हम सास-बहू कम, दोस्त ज्यादा हैं. हंसमुख, बातूनी और हर तरह से ख्याल रखने वाली लड़की है मेरी बहू निक्की. सच तो यह है कि जिस दिन से निक्की हमारी बहू बन कर इस घर में आयी है, मुझे लगता है मेरी बेटी लाडो ही वापस आ गयी है. लाडो की शादी कनाडा के एक व्यवसायी के साथ हुई है, इसलिए उसका आना भी बहुत कम हो गया है. लेकिन उसकी कमी निक्की ने पूरी कर दी है. बहुत भाग्यशाली हूं मैं कि मुझे ऐसी बहू मिली. सच तो यह है कि मैं उसे कभी बहू के रूप में देखती ही नहीं, वह तो मेरी बेटी है, बेटी.
मैंने अपने बेटे और पति से लुधियाना जाने की बात कही तो उन्होंने खुशी-खुशी रजामंदी दे दी. फोन करके भाई को बताया तो वह उछल ही पड़ा. बोला, ‘मैं लेने आ जाऊं?’ मैं हंसी, बोली, ‘अरे, अभी तेरी बहन इतनी बूढ़ी नहीं हुई कि दिल्ली से लुधियाना न आ पाए. तू चिन्ता न कर. निक्की साथ आ रही है. हम आराम से पहुंच जाएंगे.’
कितना अच्छा लग रहा था इतने सालों बाद अपने मायके आकर. यहां मेरा बचपन गुजरा. इस घर के आंगन में जवान हुई, ब्याही गयी. सबकुछ चलचित्र सा आंखों के सामने से गुजरने लगा. निक्की के ससुरजी इसी आंगन में आये थे मुझे ब्याहने के लिए. दरवाजे पर घोड़ी से उतरने को तैयार नहीं थे, तब छोटा ही अपने कंघे पर उठाकर भीतर लाया था. इसी घर के दरवाजे से मां ने रोते-कलपते भारी मन से मुझे उनके साथ विदा किया था.
शाम को मैंने सोचा कि चलो कुछ पड़ोसियों की खबर ले आऊं. पता नहीं अब कौन बचा है, कौन नहीं. चार गली छोड़ कर मेरी बचपन की सहेगी कुलवंत कौर का घर भी है. उसे भी देख आऊं. मैंने निक्की को ढूंढा तो देखा कि वह रसोई में अपनी ममिया सास के साथ कोई पंजाबी डिश बनाने में जुटी है. मैं अकेले ही निकल पड़ी.
कुलवंत कौर सुंदर और तेज-तर्रार पंजाबन थी. शादी के बाद वह कभी ससुराल नहीं गयी, उलटा उसका पति ही घर जमाई बन कर आ गया था. दो बेटे हुए. बड़ा तो जवान होते ही लंदन चला गया और फिर वहीं किसी अंग्रेजन से शादी करके बस गया था. छोटा बेटा कुलवंत के साथ रहता था, पर भाई से सुना कि वह भी पांच साल पहले गुजर गया. पति पहले ही गुज़र चुके थे. अब उसके घर में बस दो प्राणी ही बचे हैं एक कुलवंत और दूसरी उसकी जवान विधवा बहू.
कुलवंत शुरू से ही बड़े अक्खड़ और तेज स्वभाव की थी. सब पर हावी रहती थी. लड़ने में उस्ताद. पता नहीं बहू के साथ उसका कैसा व्यवहार होगा. उसकी पटरी बस मेरे साथ ही खाती थी, वह भी इसलिए कि मैं उससे थोड़ा दबती थी. वह बोलती थी और मैं सुनती थी. यह तमाम बातें सोचते-सोचते मैं उसके घर पहुंच गयी. उसकी बहू ने दरवाजा खोला. आंगन में पलंग पर बैठी कुलवंत पर नजर पड़ी तो मैं हैरान ही रह गयी. मेरी ही उम्र की कुलवंत कितनी ज्यादा बूढ़ी दिखने लगी है. बातचीत शुरू हुई. पता चला कि ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, अर्थराइटिस, अपच और न जाने क्या क्या बीमारियां उसे घेरे हुए हैं. मोटा थुलथुल शरीर ऐसा कि खाट से उठना मुश्किल. उसके पति को गुजरे बीस साल हो गये, पांच साल पहले छोटा बेटा एक्सीडेंट में चल बसा. उसके बाद से कुलवंत अपनी बहू के साथ ही रह रही है. नाते-रिश्तेदार अब झाँकने भी नहीं आते. कुलवंत की तेज़-तर्रारी को देखते हुए पहले भी कौन आता था?
सफेद कुरते-शलवार में उसकी बहू का चेहरा देखकर मेरा दिल तड़प उठा. चाय की ट्रे हमारे सामने रखकर वह अंदर गयी तो फिर नहीं लौटी. मैं कुलवंत से काफी देर तक बातें करती रही. ज्यादातर तो वह अपनी बीमारियों का रोना ही रोती रही. फिर बोली, ‘तुम आयी तो अच्छा लगा. यहां तो अब कोई मुझसे बात करने वाला भी नहीं है. खामोश घर काटने को दौड़ता है. मौत भी नहीं आ रही.’
मैं हंस कर बोली, ‘क्यों, इतनी प्यारी बहू तो है, उससे बोला-बतियाया करो.’ कुलवंत एक फीकी सी मुस्कान देकर चुप्प लगा गयी. मैं इंतजार करती रही कि उसकी बहू बाहर आये तो उससे भी कुछ बातें कर लूं. बेचारी, जवानी में सुहाग उजड़ गया. कैसा दुख लिख दिया भगवान ने इसके भाग्य में. लेकिन काफी इंतजार के बाद भी जब वह न आयी तो मैं ही उठ कर अंदर रसोई में गयी. देखा पीढ़े पर बैठी चुपचाप सब्जी काट रही थी. मैं वहीं बैठ गयी दूसरे पीढ़े पर. वह मुस्कुरायी. मैंने हंस कर कहा, ‘सास के साथ बैठा करो, उनका अकेले दिल घबराता है.’
वह भी फीकी सी हंसी हंसी, फिर धीरे से बोली, ‘उन्होंने जब कभी अपने पास बिठाया ही नहीं, तो अब क्या बैठूं आंटीजी. मैं अपनी मां का घर छोड़ कर आयी थी, सोचा था यहां इनसे मां का प्यार मिलेगा, मगर इनसे तो बस दुत्कार ही मिली. हमेशा नफरत ही करती रहीं मुझसे. कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले. मेरे हर काम में नुक्स निकालती रहीं. जब तक ये जिन्दा रहे मेरी शिकायतें ही करती रहीं उनसे. न मेरे ससुर को चैन से जीने दिया और न मेरे पति को. मैं जब से इस घर में आयी इनके ताने ही सुने. उनके गुजरने के बाद उलाहना देती रहीं कि मैंने इनका बेटा छीन लिया. अरे, मेरा भी तो सुहाग उजड़ गया. आंटी जी, आपसे क्या छुपाना, ये मेरे पति का दिमाग खाती थीं हमेशा. तभी एक दिन गुस्से में घर से निकला और उसका एक्सीडेंट हो गया. यही जिम्मेदार हैं उसकी मौत की. इन्होंने कभी दूसरे की पीड़ा-परेशानी न समझी, दूसरे की खामोशी न समझी. अब अगर शिकायत करें कि आज कोई उनसे बोलता नहीं, तो उन्हें भी अच्छी तरह पता है कि इसमें गलती किसकी है.’
कुलवंत कौर की बहू की बातें सुनकर मेरे मुंह पर ताला पड़ गया. इसके बाद मैं उसे कोई नसीहत न दे सकी. सच ही तो कहा था उसने. कुलवंत कौर आज अगर यह शिकायत करे कि वह अकेली है और कोई उससे बोलता नहीं, तो इसकी जिम्मेदार वह खुद है. उसने जीवन भर जैसा बोया है, अब बुढ़ापे में वही तो काटेगी…
नेहा पहली बार लखनऊ के भूतनाथ मंदिर गई थी. उस की एक रिश्तेदार भी साथ थी. जब वह मंदिर से वापस आई, तो देखा कि उस की नई चप्पलें गायब थीं. नेहा भी जैसे को तैसा के जवाब में वहां रखी किसी और की चप्पलें पहन कर घर चली आई. घर आ कर नेहा ने यह घटना अपने परिवार वालों को बताई, तो उन्होंने उस से कहा कि जब तुम भी वही गलती कर आई, तो तुम में और दूसरे में क्या फर्क रह गया?
यह सुन कर नेहा को बहुत बुरा लगा. वह वापस मंदिर गई और वहां से लाई चप्पलें वापस रख दीं, पर उसे अपनी चप्पलें नहीं मिलीं.
दीपाली वाराणसी के मशहूर काशी विश्वनाथ मंदिर गई थी. उस के साथ 4 साल की बेटी और कुछ रिश्तेदार भी थे. उस ने एक दुकान से प्रसाद लिया और वहीं दुकान के पास ही अपनी चप्पलें उतार दीं. दीपाली का एक रिश्तेदार वहीं रुक गया.
जब दीपाली अपने परिवार के साथ वापस आई, तो उस की बेटी की नई चप्पलें गायब थीं. न तो दीपाली के रिश्तेदार को और न ही दुकानदार को चप्पलें चोरी होने की भनक लग सकी.
दीपाली की बेटी का रोरो कर बुरा हाल था. जब तक उसे नई चप्पलें नहीं दिलाई गईं, तब तक वह चुप नहीं हुई.
सुनीता लखनऊ के मनकामेश्वर मंदिर गई. मंदिर में जाने के पहले उस ने एक जगह पर चप्पलें उतार कर रख दीं. चप्पलें चोरी न हों, इस के लिए सुनीता ने पूरी सावधानी बरती थी. उस ने सब से किनारे अपनी चप्पलें रखी थीं.
जब सुनीता लौट कर आई, तो देखा कि एक औरत उस के जैसी चप्पलें पहन कर जा रही थी. उस ने सोचा कि एकजैसी कई चप्पलें होती हैं.
जब सुनीता अपनी चप्पलों के पास गई और वहां उस को गायब पाया, तो वह समझ गई कि उस की आंख के नीचे से ही चप्पलें गायब हो गई हैं. सुनीता के मन में यह खयाल आया कि भगवान के दर्शन करने आए थे, पर चप्पलें गुम हो गईं.
माया दिल्ली के एक दुर्गा मंदिर में दर्शन करने गई. नवरात्र का समय था. मंदिर में काफी भीड़ थी. दर्शन के लिए अंदर जाने से पहले उस ने अपनी चप्पलें एक जगह पर रख दीं. मंदिर वालों ने चप्पल रखने के लिए एक जगह बना रखी थी.
जब माया दर्शन कर के वापस आई, तो उस की चप्पलें गायब थीं. माया को बहुत बुरा लगा. वह नंगे पैर ही घर वापस आई.
जिया और उस की एक सहेली गीता शादी के पहले मंदिर दर्शन करने के लिए जाती थीं. एक दिन गीता की चप्पलें चोरी हो गईं. वह रोने लगी. रोतेरोते वह घर आई, तो उस के परिवार वालों ने कहा कि कोई बात नहीं. जिस की चप्पलें मंदिर में चोरी हो जाती हैं, भगवान उस के हर दुख को दूर करते हैं. पर यह बात गीता के पल्ले नहीं पड़ी.
योगिता कहती है कि वह कई बार मातारानी के मंदिर जाती थी. एक बार
5 मिनट के अंदर ही उस की चप्पलें गायब हो गईं. वे उस की मनपसंद चप्पलें थीं.
चेतना बताती है कि वह शिरड़ी के मंदिर गई थी. वहां उस की चप्पलें चोरी हो गई थीं.
रेनू कहती है कि वह एक बार गुरुद्वारे में लंगर खाने गई थी. बच्चे भी साथ में थे. बच्चों की नई चप्पलें निकाल कर बाहर रख दी थीं.
लंगर खा कर जब वे बाहर निकले, तो चप्पलें गायब थीं. तब से अब किसी मंदिर में जाओ,तो चप्पलों की हिफाजत में ही ध्यान लगा रहता है.
ये घटनाएं मनगढ़ंत नहीं हैं. इन में एक सामान्य सी बात यह देखने में आई कि मंदिर छोटा हो या बड़ा, चप्पल चोरी की घटनाएं हर मंदिर में होती हैं.
यही वजह है कि लोग जब मंदिर जाते हैं, तो पुरानी चप्पलें पहन कर जाते हैं. अगर चप्पलजूते नए होते हैं, तो सब से ज्यादा उन की हिफाजत की चिंता रहती है. कई बार तो लोग उन्हें कार या किसी सुरक्षित जगह रख कर जाते हैं.
यह बात केवल मंदिरों की ही नहीं है, बल्कि शोकसभाओं, गुरुद्वारों में भी चप्पलें चोरी होती हैं. जहां लोग सुख के लालच में जाते हैं, वहां दरवाजे पर ही दुख मिलता है. धर्म के समर्थक इस बात को ऐसे देखते हैं कि चप्पलजूते चोरी होने से उन के दुखदर्द दूर हो जाते हैं. वैसे, इस तरह की चोरी से एक बात साफ हो गई कि नैतिकता पूजापाठ से नहीं आती है.
मंदिरों में केवल जूतेचप्पल ही चोरी होते हों, ऐसी बात नहीं है. वहां पर पौकेटमारी और चेन स्नैचिंग जैसी घटनाएं भी खूब होती हैं.
तमाम मंदिरों में यह लिखा होता है कि यहां चोरउचक्कों से सावधान रहें. पौकेटमारी से बचने के लिए लोग मंदिरों में पर्स ले कर नहीं आते. वे चढ़ावे के लिए पैसा अलग जेब में रख कर आते हैं.
कई मंदिरों में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए यह नियम बना दिया गया कि चमडे़ से बना सामान जैसे पर्स, बैल्ट वगैरह को ले कर मंदिर न आएं. मंदिर वालों को लगता है कि पर्स चोरी की घटनाओं को रोकने का यह सब से अच्छा तरीका है.
समझने वाली बात यह है कि मंदिरों में लोग शांति और अपनी मुरादें पाने के लिए जाते हैं. जब मंदिर में ही ऐसी घटनाएं घटने लगेंगी, तो वहां जाने का क्या फायदा? केवल वे लोग ही मंदिर नहीं जाते, जिन के जूतेचप्पल चोरी होते हैं. वे लोग भी मंदिर जाते हैं, जो चोरी करते हैं.
मंदिरों में केवल बडे़ लोगों के जूतेचप्पल ही चोरी नहीं होते, बल्कि बच्चों के भी जूतेचप्पल चोरी होते हैं. कुछ गिरोह इसी काम के लिए सक्रिय रहते हैं.
ऐसे में मंदिरों में अपराध की घटनाएं बताती हैं कि लोग जिस सुखशांति की तलाश में मंदिरों में जाते हैं, वह उन को वहां भी नहीं मिलती. पूजा से ज्यादा उन का ध्यान बाहर रखे जूतेचप्पलों में लगा रहता है. दूसरी तरफ चोरों का भी ध्यान इस में लगा रहता है कि वे कब अपने हाथ का कमाल दिखाएं.
गांव हालांकि छोटा था, लेकिन थोड़ीबहुत तरक्की कर रहा था. पहले 70-100 मकान थे, पर अब गांव के बाहर भी घर बनने लगे थे. सरकारी जमीन पर भी, जहां ढोरमवेशी चराए जाने के लिए जगह छोड़ी गई थी, निचली जाति के लोगों ने उस पर कब्जे कर लिए थे.
झोंपड़ों के मकड़जाल की यह खबर हवेली तक भी पहुंच गई. हवेली में सैयद फैयाज मियां हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे और उन के पैरों को हज्जाम घासी मियां सहला रहे थे. उन्होंने ही धीमी रफ्तार से पूरे गांव की सब खबरें सुनानी शुरू कर दी थीं.
गांव में मुसलिमों के एक दर्जन से कम घर थे, लेकिन बड़ी हवेली सैयद साहब की ही थी. सब से ज्यादा जमीन, नौकरचाकर भी उन्हीं की हवेली में थे. 1-2 भिश्ती और पिंजारों के परिवार के लोग भी उन की खिदमत के लिए आ कर बस गए थे.
पूरे गांव में उन की मालगुजारी होने से दबदबा भी बहुत था, लेकिन कोई उन के गांव में आ कर बस जाए और उन्हें खबर भी न करे या बस जाने की इजाजत लेने की जहमत भी न उठाए, यह कैसे हो सकता था.
जब इतनी जमीन, इतनी बड़ी हवेली और इतने लोग थे, तो कुछ पहलवान भी थे, जो पहलवान कम गुंडे ज्यादा थे. उन का पलनारहना भी लाजिमी था. जैसे कोई भी बस्ती कहीं भी बस जाए बिना चाहे, बिना बुलाए दोचार कुत्ते आ ही जाते हैं, उसी तरह ये गुंडे भी हवेली के टुकड़ों पर पल रहे थे. कोई आता तो लट्ठ ले कर उसे अंदर लाते थे और कभीकभी कुटाई भी कर देते थे. थाने से ले कर साहब लोगों तक सैयद साहब की खूब पकड़ थी.
सैयद साहब का एक बाड़ा था, जहां उन के जन्नतनशीं हो चुके रिश्तेदार कयामत के इंतजार में कब्र में पड़े थे. उसी बाड़े से लगा एक और कब्रिस्तान था, जो 7-10 घरों के भिश्ती मेहतरों के लिए था.
जब हज्जाम मियां ने गांव में बस रहे झोंपड़ों की जानकारी दी, तो सैयद साहब के माथे पर बल पड़ गए थे. वे जानते थे कि ये छोटी जाति के लोग आने वाले वक्त में गांव के बाशिंदे बन कर वोट बैंक को बिगाड़ देंगे.
आज की तारीख में तो सरपंच से ले कर विधायक तक हवेली में सलाम करने आते हैं, उस के बाद जीतहार तय होती है. तकरीबन 200-250 वोट एकतरफा पड़ते हैं, फिर आसपास के गांवों में उन के पाले हुए गुंडे सब संभाल लेते हैं.
पूरा गांव ही नहीं, आसपास के गांव वाले भी जानते थे कि सैयद साहब से दुश्मनी लेना यानी हुक्कापानी बंद. फिर किसी दूसरे गांव में किसी ने पनाह दे भी दी, तो समझो कि उस बंदे की खैर नहीं.
सैयद साहब की थोड़ी उम्र भी हो चली थी. दाढ़ी के बाल पकने लगे थे, लेकिन उमंगें आज भी जवान थीं. उन की 2 बेटियां, एक बेटा भी था, जो धीरेधीरे जवानी में कदम रख रहे थे.
बेटे में भी सारे गुण अपने अब्बा के ही थे. नौकरों से बदतमीजी से बात करना, स्कूल न जाना, दिनभर आवारागर्दी करना और तालाब पर मछली मारने के लिए घंटों बैठे रहना.
पूरे गांव के लोग उसे सलाम करते थे. वह भी अपने साथ 3-4 लड़कों को रखता था, लेकिन उस ने कभी भी गांव की किसी लड़की की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा.
इस का मतलब यह नहीं था कि उस की उमंगें कम थीं. जोकुछ वह सोचता, खानदान की इज्जत की खातिर सपने में पूरी कर लेता था.
इसी छोटी बस्ती में हसन कुम्हार ने आ कर झोंपड़ा तान लिया था. एक तो मुसलिम, ऊपर से बड़ी हवेली सैयद की. बस, इसी वजह से उस के आसपास के लोग उस से डर कर रहते थे. वह भी न जाने कौन सी जगह से आ कर बस गया था, लेकिन सलाम करने वह हवेली नहीं पहुंचा था.
हज्जाम मियां ने उस की शिकायत भी कर दी थी. सैयद साहब ने सोचा, ‘अपनी जाति वाले से शुरू करें, तो यकीनन दूसरे हिंदू तो डर ही जाएंगे.’
उन का पहलवान हसन मियां को बुला लाया. हसन मियां दुबलापतला चुंगी दाढ़ी वाला था, लेकिन साथ में जो उस का बेटा आया था, वह गबरू जवान था. सलाम कर के हसन मियां वहां बड़े ही अदब से खड़े हो गए. सैयद साहब दीवान पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. 1-2 पहलवान लट्ठ लिए खड़े थे. हसन मियां इंतजार कर रहा था कि सैयद साहब कुछ सवाल करें, लेकिन सैयद साहब तो अपने में मगन हो कर कुछ गुनगुना रहे थे.
थोड़ी देर बाद हसन मियां ने कहा, ‘‘हुजूर, इजाजत हो, तो मैं चला जाऊं?’’
सैयद साहब चौंके, फिर कह उठे, ‘‘अरे हां… क्यों रे, क्या नाम है तेरा?’’
‘‘हसन.’’
‘‘और… यह कौन है?’’
‘‘हुजूर, मेरा बेटा है.’’
‘‘काम क्या करते हो?’’
‘‘हुजूर, मिट्टी का काम है.’’
‘‘मतलब.’’
‘‘हुजूर, पहले जिस गांव में था, वहां कब्रें खोदता था, लेकिन कुछ कमाई कम थी, इस वजह से काम बदल लिया.’’
‘‘अब क्या करते हो’’
‘‘हुजूर, अब मिट्टी के बरतन बनाने का काम करता हूं.’’
‘‘और यह तेरा बेटा क्या करता है?’’
‘‘हुजूर, मदद करता है.’’
‘‘गूंगा है?’’
‘‘नहीं हुजूर… सैयद साहब के हाथ चूम कर आओ बेटा.’’
हसन मियां का बेटा आगे बढ़ा और बड़े अदब से हाथ को सिरमाथे लगा कर हाथ चूम कर खड़ा हो गया.
‘‘यहां बसने से पहले तुम इजाजत लेने क्यों नहीं आए?’’
‘‘हुजूर, सोचा था कि झोंपड़ा तन जाए, तब पूरे खानदान के साथ सलाम करने आते, लेकिन आप का बुलावा तो पहले ही आ गया,’’ बहुत ही नरमी से हसन मियां जवाब दे रहा था. वह जानता था कि एक बात भी जबान से कुछ फिसली तो सैयद साहब और उन के पले कुत्ते उन्हें छोड़ेंगे नहीं, फिर इस गांव को छोड़ कर कहीं और जगह ढूंढ़नी होगी.
‘‘क्यों रे, यहां कुछ काम करेगा?’’
‘‘कैसा काम?’’
‘‘यहां भी मुसलिम रहते हैं… कोई गमी हो गई, तो कब्र खोद देगा?’’
‘‘क्यों नहीं हुजूर.’’
‘‘कितने रुपए लेता है?’’
‘‘हुजूर, महंगाई है… सोचसमझ कर दिलवा देना.’’
‘‘चल, ठीक है, 2 सौ रुपए मिलेंगे… मंजूर है?’’
‘‘आप का दिया सिरआंखों पर.’’
‘‘तो खयाल रखना कि आज के बाद गांव में किसी के यहां गमी हुई, तो तुझे खबर मिल जाएगी. तू और तेरा यह लड़का कब्र खोदने का काम करेगा. कोई दिक्कत तो नहीं है?’’
‘‘बिलकुल नहीं,’’ हसन मियां ने खुश होने का ढोंग किया.
दरअसल, हसन की बीवी और उस के इस बेटे को कब्र खोदने का काम बिलकुल पसंद नहीं था. बीवी चाहती थी कि उन का बेटा आदिल पढ़लिख कर इस गंदे काम से पार हो जाए. आदिल भी जानता था कि उन के घर का दानापानी मरने वालों से ही चलता है. एकदो मर गए, तो 3-4 सौ रुपए मिल जाते थे, वरना एकएक हफ्ता निकल जाता था. बड़ी अजीब सी दलदली, गंदी जिंदगी हो गई थी. उधर कब्र खोदने के काम को छोड़ने का मन बना कर इस गांव में आए और यहां भी सैयद साहब यह काम करवाने पर तुले हैं, लेकिन डर के मारे उस ने कुछ कहा नहीं. सैयद साहब ने जाने का इशारा किया, तो वे सलाम कर के लौट गए.
अगले कुछ दिनों में हवेली में छोटी जाति के तमाम लोगों का बुलावा हो गया. सब अपनी दुम टांगों में दबा कर आए और ‘जो आने वाले वक्त में मालिक कहेंगे’. इस बात पर सहमत हो गए. किसी की हिम्मत नहीं थी कि इतनी बड़ी हवेली के खिलाफ कुछ कहें या दिल में सोचें.
अभी हसन मियां सो कर भी नहीं उठे थे कि हवेली से खबर आ गई कि कब्र खोदने के लिए बुलाया है.
हसन मियां की तबीयत ठीक नहीं थी. उस ने आदिल से कहा, ‘‘इस काम को निबटा कर आ जाए.’’
आदिल बगैर इच्छा के कंधे पर गमछा रख कर चला गया. हवेली का पूरा माहौल गमगीन था. सैयद साहब की बेटी कमरे में रो रही थी. बेटा बहुत उदास बैठा था.
सैयद साहब कमरे से बाहर आए और पहलवान को इशारा किया. वह आदिल को बाड़े से लगे कब्रिस्तान में ले गया, जहां दूसरी मुसलमान जाति के लोगों को दफन किया जाता था.
एक जगह देख कर पहलवान ने कहा, ‘‘यहीं कब्र खोद लो. कम से कम 2 फुट चौड़ी और 5 फुट गहरी.’’
‘‘जनाब, कोई बच्चा खत्म हो गया क्या?’’ आदिल ने बहुत अदब से पूछा.
‘‘जितना कहा है, उतना सुन लो.’’
आदिल कब्र खोदने लगा. पूरी कब्र खोद कर उस ने माथे का पसीना पोंछा ही था कि तभी हज्जाम मियां आए और उसे बुला कर हवेली में ले गए और एक ओर पड़ी कुत्ते की लाश को बता कर कहा, ‘‘इसे उठा कर दफन कर आओ.’’
‘‘इस कुत्ते की लाश को?’’ हैरत से आदिल ने पूछा.
उस को जवाब मिलता, उस के पहले ही एक पहलवान ने आदिल की कमर पर एक लात रसीद कर दी.
‘‘सैयद साहब की औलाद थी वह और तू उसे जानवर कहता है.’’
आदिल झुका, उस जानवर तक हाथ बढ़ाया, फिर उस ने कहा, ‘‘लेकिन, यह काम हमारा नहीं है…’’
उस की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि एक लात उस के पुट्ठे पर पड़ी और आदिल कुत्ते पर जा गिरा.
‘वह कुत्ता था. जानवर था, मर गया था. उसे कोई भी एहसास नहीं था, इसलिए वह धूप में पड़ा था. लेकिन मैं तो जिंदा हूं. मुझे तो लातों का दर्द, बेइज्जती का एहसास हो रहा है.
‘‘अगर मैं जिंदा हूं, तो मुझे जिंदा होने का सुबूत देना होगा,’ यह सोच कर आदिल बेदिली से उठा. उस ने देखा कि कमरे के बाहर दीवान पर सैयद साहब बैठ गए थे. उस ने बड़े दरवाजे पर नजर डाली. वह खुला हुआ था. उस ने हिम्मत बटोरी और एक पल में ही दौड़ कर बाहर भाग गया.
पहलवान और सैयद साहब भौंचक्के रह गए थे कि आखिर हो क्या गया?
आदिल अपने झोंपड़े में नहीं गया. वह जानता था कि उसे पकड़ लिया जाएगा. वह दूसरी दिशा में भाग खड़ा हुआ था.
पहलवान हसन मियां के घर पहुंचे. आदिल तो मिला नहीं. वे हसन मियां को पकड़ लाए. उसे भी 2-3 लातें मारीं और उस ने मरे जानवर को उठा कर कब्र में दफन किया. तबीयत भी ठीक नहीं थी. घर आ कर बिस्तर पर लेट गया.
आदिल जब घर लौटा, तो अब्बा की हालत उस से छिपी नहीं रही. आदिल ने मुट्ठी भींची और पुलिस थाने चला गया. थाना शहर के पास था. आदिल अपनी चोटों के साथ, धूल सने कपड़ों के साथ थाने में पहुंचा. वहां रिपोर्ट लिखने वाला कोई सिपाही बैठा था. उसी की बगल में कोई न्यूज रिपोर्टर भी बैठ कर चाय पी रहा था.
आदिल ने रोते हुए सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘मेरे अब्बा को मारा, उन से मरा जानवर उठवाया, दफन करवाया, एक रुपया भी मेहनताना नहीं दिया, बेइज्जती अलग से की.’’
न्यूज रिपोर्टर एक अच्छी स्टोरी के चक्कर में था. उस ने भी सैयद साहब की हवेली के बहुत से किस्से सुन रखे थे. उस ने रिपोर्ट लिखने वाले सिपाही से कहा, ‘‘यार, यह देश की नौजवान पीढ़ी है. इसे इंसाफ मिलना चाहिए.’’
‘‘यार, तुम संभाल लेना,’’ सिपाही झिझकते हुए बोला.
‘‘आप चिंता मत करो, लेकिन इस की रिपोर्ट लिख लो.’’
उस ने रजिस्टर उठाया, उस की बात को लिखा, फिर एफआईआर काटी और एक पुलिस वाले को भेज कर उस का मैडिकल करने भेज दिया.
देखते ही देखते लोकल चैनल पर सैयद साहब की हवेली, मारपीट, उन की हिंसा के जोरदार किस्से टुकड़ोंटुकड़ों में बयां होने लगे.
सैयद साहब को भी खबर लग गई. उन का पारा सातवें आसमान पर था. एक मजदूर की औलाद की इतनी हिम्मत? तुरंत हसन मियां को बुलाने पहलवान भेज दिए.
हसन मियां को 2 पहलवान पकड़ कर ले आए. उसे भी उड़तीउड़ती खबर लग गई थी कि आदिल ने मामला गड़बड़ कर दिया है. जब हवेली में वह हाजिर हुआ, रात हो गई थी. सुबह की बेइज्जती का दर्द दिल पर से अभी पूरी तरह से हटा नहीं था.
‘‘हसन, तू जानता है कि तुझे क्यों बुलाया है?’’
‘‘हुजूर,’’ घबराते हुए इतना ही मुंह से निकला.
‘‘तेरी औलाद ने हमारी इज्जत को मिट्टी में मिला दिया है.’’
‘‘हुजूर…’’
‘‘उसे अभी बुला और अपनी रिपोर्ट वापस लेने को कह. समझा कि नहीं?’’ सैयद साहब ने चीख कर कहा.
पूरी हवेली उन की आवाज से कांप गई थी. हसन मियां भी ठान कर आया था कि वह तो मजदूर है, कहीं भी कमाखा लेगा. उस ने कहा, ‘‘हुजूर, बेटा तो अभी तक लौटा नहीं है.’’
‘‘कहां है वह?’’
‘‘शहर में ही है.’’
‘‘जा कर ले आ, वरना इस गांव में रह नहीं पाएगा,’’ सैयद साहब ने गुस्से से कांपते हुए कहा.
हसन मियां ने कहा, ‘‘हुजूर, रातभर की बात है, सुबह हम गांव छोड़ देंगे.’’
‘‘मुंह चलाता है…’’ सैयद साहब चीखे. उसी के साथ 2-3 लातघूंसे हसन मियां के मुंह पर पड़ गए. वह गिर पड़ा. रोते हुए वह बाहर आया. वह अपने झोंपड़े की ओर बढ़ा, तो देखा कि सैयद साहब के गुंडे उस के झोंपड़े को आग लगा रहे थे. सैयद साहब एक ओर जीप में बैठे थे. आदिल की अम्मी झोंपड़े के बाहर खड़ी रो रही थी.
तभी एक मोटरसाइकिल पर आदिल उस रिपोर्टर के साथ आया. उस ने अपने कैमरे से सब शूट करना शुरू कर दिया. सैयद साहब भी उस शूट में दिखाई दे रहे थे. तुरंत वह न्यूज भी दिखाई जाने लगी.
सुबह पुलिस आदिल की अम्मी, अब्बू को ले गई. रिपोर्ट लिखवाई और दोपहर होतेहोते हवेली में पुलिस अंदर घुस गई.
पूरे गांव में हल्ला मच गया था. दोपहर में पुलिस पहलवानों और सैयद साहब को पकड़ कर ले गई. आदिल गांव में आया. अब्बा के साथ अपना झोंपड़ा दोबारा बनाया और मेहनतमजदूरी में जुट गया. बड़ेबड़े वकीलों ने सैयद साहब की जमानत कराई. पूरे एक महीने तक जेल में रह कर वे वापस लौटे.
सैयद साहब के चेहरे की रौनक चली गई थी. बापदादाओं की इज्जत पर पानी फिर गया था. हसन मियां को भी मालूम पड़ गया था कि सैयद साहब आ गए हैं. अब तो उन्हें बहुत होशियारी से रहना होगा.
सैयद साहब को बेइज्जती का ऐसा धक्का लगा कि उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया और पूरा एक महीना भी नहीं गुजरा कि इस दुनिया से चले गए.
जैसे ही हसन मियां को मालूम हुआ, वह आदिल के साथ ईमानदारी के साथ कब्र खोदने जा पहुंचा.
कब्र खोदतेखोदते आदिल ने अपने अब्बा को देखा, तो अब्बा ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’
‘‘अब्बा, जो कुछ हुआ, उस पर किसी का जोर नहीं है, लेकिन एक बात तो है…’’
‘‘क्या?’’
‘‘कोई कितना भी बड़ा आदमी मरे, कब्र तो मजदूर ही खोदता है. देखो न, हम ने सैयद साहब की कब्र खोद दी.’’
हसन मियां फटी आंखों से आदिल का चेहरा देख रहा था.
पूजा सुबह से गुमसुम बैठी थी. आज उस की छोटी बहन आरती दिल्ली से वापस लौट रही थी. उस को आरती के वापस आने की सूचना रात को ही मिल चुकी थी. साथ ही इस बात की भनक भी मिल गई थी कि लड़के ने आरती को पसंद कर लिया है और आरती ने भी अपने विवाह की स्वीकृति दे दी है. उस को लगा था कि इस स्वीकृति ने न केवल उस के साथ अन्याय ही किया?है, बल्कि उस के भविष्य को भी तहसनहस कर डाला है.
पूजा आरती से 4 वर्ष बड़ी?थी लेकिन आरती अपने स्वभाव, रूप एवं गुणों के कारण उस से कहीं बढ़ कर थी. वह एक स्कूल में अध्यापिका थी. विवाह में देरी होने के कारण पूजा का स्वभाव काफी चिड़चिड़ा हो गया था. हर किसी से लड़ाईझगड़ा करना उस की आदत बन चुकी थी. उन के पिता दोनों पुत्रियों के विवाह को ले कर अत्यंत चिंतित थे. इसलिए बड़े बेटों को भी उन्होंने विवाह की आज्ञा नहीं दी थी. उन्हें भय था कि पुत्र अपने विवाह के पश्चात युवा बहनों के विवाह में दिलचस्पी ही नहीं लेंगे.
पितापुत्र आएदिन अखबारों में पूजा के विवाह के लिए विज्ञापन देते रहते. कभी पूजा के मातापिता, कभी पूजा स्वयं लड़के को और कभी पूजा को लड़के वाले नापसंद कर जाते और बात वहीं की वहीं रह जाती. वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए, लेकिन पूजा का विवाह तय नहीं हो पाया. वह अब पड़ोस में जा कर आरती की बुराइयां करने लगी थी. एक दिन पूजा सामने वाली उषा दीदी के घर जा कर रोने लगी, ‘‘दीदी, मेरे लिए जितने भी अच्छे रिश्ते आते हैं वे सब मुझे ठुकरा कर आरती को पसंद कर लेते हैं. इसीलिए मुझे आरती की शक्ल से भी नफरत हो गई है. मैं ने भी पक्का फैसला कर रखा है कि जब तक मेरा विवाह नहीं होगा, मैं आरती का विवाह भी नहीं होने दूंगी.’’
उषा दीदी पूजा को समझाने लगीं, ‘‘यदि तुम्हारे विवाह से पहले आरती का विवाह हो भी जाए तो क्या हर्ज है? शायद आरती की ससुराल की रिश्तेदारी में तुम्हारे लिए भी कोई अच्छा वर मिल जाए. ऐसे जिद कर के आरती का जीवन बरबाद करना उचित नहीं.’’ लेकिन पूजा का एक ही तर्क था, ‘जब मैं बरबाद हो रही हूं तो दूसरों को क्यों आबाद होने दूं.’ 2 वर्ष तक लाख जतन करने के बाद भी जब पूजा का विवाह निश्चित नहीं हुआ तो वह काफी हद तक निराश हो गई थी.
आरती अध्यापन कार्य करने के पश्चात शाम को घर पर भी ट्यूशन पढ़ा कर अपनेआप को व्यस्त रखती. पूजा सुबह से शाम तक मां के साथ घरगृहस्थी के कार्यों में उलझी रहती. वह यह भी भूल गई थी कि अधिक पकवान, चाटपकौड़ी खाने से उस का शरीर बेडौल होता जा रहा?था. लोग पूजा को देख कर हंसते तो वह कुढ़ कर कहती, ‘‘बाप की कमाई खा रही हूं, जलते हो तो जलो लेकिन मेरी सेहत पर कुछ भी असर नहीं पड़ेगा.’’ पिता ने हार कर अपने दोनों बड़े पुत्रों की शादियां कर दी?थीं. बड़े बेटे का एक मित्र मनोज उन के परिवार का बड़ा ही हितैषी?था. उस ने आरती से शादी करने के लिए अपने एक अधीनस्थ सहयोगी को राजी कर लिया था.
मनोज ने आरती के पिता से कहा, ‘‘चाचाजी, आप चाहें तो आरती का रिश्ता आज ही तय कर देते हैं.’’ पिता ने उत्तर दिया, ‘‘बेटा, आरती तुम्हारी अपनी बहन है. मैं कल ही किसी बहाने आरती को तुम्हारे साथ अंबाला भेज दूंगा.’’ चूंकि मनोज का परिवार भी अंबाला में रहता था, इसलिए आरती के बड़े भाई तथा मनोज के परिवार के लोगों ने ज्यादा शोर किए बगैर आरती के शगुन की रस्म अदा कर दी. विवाह की तारीख भी निश्चित कर दी. चंडीगढ़ में पूजा को इस संबंध में कुछ नहीं बताया गया था. घर में सारे कार्य गुप्त रूप से किए जा रहे थे, ताकि पूजा किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर सके.
अचानक एक दिन पूजा को एक पत्र बरामदे में पड़ा हुआ मिला. वह उत्सुकतावश पत्र को एक सांस में ही पढ़ गई. पत्र के अंत में लिखा था, ‘आरती की गोदभराई की रस्म के लिए हम लोग रविवार को 4 बजे पहुंच रहे हैं.’ पढ़ते ही पूजा के मन में जैसे हजारों बिच्छू डंक मार गए. उस से झूठ बोला गया कि अंबाला में मनोज के बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होने की वजह से आरती को वहां भेजा गया था. उसे लगा कि इस घर के सब लोग बहुत ही स्वार्थी हैं. उस ने पत्र से अंबाला का पता डायरी में लिखा और पत्र को फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिया.
2 दिन के पश्चात लड़के के पिता के हाथ में एक चिट्ठी थी, जिस में लिखा था, ‘आरती मंगली लड़की है. यदि इस से आप ने पुत्र का विवाह किया तो लड़का शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होगा.’ पत्र पढ़ते ही उस परिवार में श्मशान जैसी खामोशी छा गई. वे लोग सीधे मनोज के घर पहुंच गए. लड़के के पिता गुस्से से बोले, ‘‘आप जानते थे कि लड़की मंगली है, फिर आप ने हमारे परिवार को ही बरबाद करने का क्यों निश्चय किया? मैं इस रिश्ते को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकता.’’
मनोज ने उन लोगों को समझाने का काफी प्रयत्न किया, लेकिन बिगड़ी बात संवर न सकी. चंडीगढ़ से पूजा के बड़े भाई को अंबाला बुला कर सारी स्थिति से अवगत कराया गया. पत्र देखने पर पता चला कि यह पूजा की लिखावट नहीं है. उस के पास तो अंबाला का पता ही नहीं था और न ही आरती के रिश्ते की बात की उसे कोई जानकारी थी. चंडीगढ़ आने पर बड़े भैया उदास एवं दुखी थे. पूजा से इस बात की चर्चा करना बेकार था. घर का वातावरण एक बार फिर खामोश हो चुका था.
उषा दीदी की बड़ी लड़की नीलू, पूजा से सिलाई सीखने आती थी. एक दिन कहने लगी, ‘‘पूजा दीदी, आप ने जो चिट्ठी किसी को बेवकूफ बनाने के लिए लिखवाई थी, उस का क्या हुआ?’’ आरती के कानों में इस बात की भनक पड़ गई और वह झटपट मां तथा?भाई को बताने भाग गई. 2 दिन पश्चात पूजा की मां ने उषा के घर जा कर नीलू से सारी बात उगलवा ली कि पूजा दीदी ने ही मनोज भाई साहब के रिश्तेदारों को तंग करने के लिए उस से चिट्ठी लिखवाई थी.
आरती और पूजा में बोलचाल बंद हो गई लेकिन फिर धीरेधीरे घर का वातावरण सामान्य हो गया. पूजा और आरती चुपचाप अपनेअपने कामों में लगी रहतीं. आरती स्कूल जाती और फिर शाम को ट्यूशन पढ़ाती. पूजा उसे अच्छ-अच्छे कपड़ोंजेवरों में देख कर कुढ़ती और फिर उस का गुस्सा उतरता अपनी भाभियों तथा बूढ़े पिता पर, ‘‘मैं पैदा ही तुम्हारी गुलामी करने के लिए हुई थी. क्यों नहीं रख लेते मेरे स्थान पर एक माई.’’ स्कूल की अध्यापिकाएं आरती को समझातीं, ‘‘अब भी समय है, यदि कोई लड़का तुम्हें पसंद कर ले तो तुम स्वयं ही कोशिश कर के विवाह कर लो.’’ आरती की एक सखी ने अपने ममेरे भाई के लिए उसे राजी कर लिया था और उस के साथ स्वयं दिल्ली जा कर उस का विवाह तय कर आई थी.
आरती की शादी की बात पूजा को बता दी गई थी. पूजा ने केवल एक ही शर्त रखी थी, ‘आरती की शादी में जितना खर्च होगा, उस से दोगुना धन मेरे नाम से बैंक में जमा कर दो ताकि मैं अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाऊं.’ विवाह का दिन नजदीक आता जा रहा था. बाहरी रूप से पूजा एकदम सामान्य दिखाई दे रही थी. पिता ने मोटी रकम पूजा के नाम बैंक में जमा करवा दी थी. आरती को उपहार देने के लिए पूजा ने अपने विवाह के लिए रखी हुई 2 बेहद सुंदर चादरें व गुड्डेगुडि़या का जोड़ा निकाल लिया था तथा छोटीमोटी अन्य कई कशीदाकारी की चीजें भी थीं. आरती के विवाह का दिन आ गया.
पूजा सुबह से ही भागदौड़ में लगी थी. घर मेहमानों से खचाखच भरा था, इसलिए दहेज के सामान का कमरा ऊपर की मंजिल पर निश्चित हुआ था और विदा से पूर्व दूल्हादुलहन उस में आराम भी कर सकते थे. उस कमरे की चाबी आरती की बड़ी भाभी को दे दी गई थी. पूजा ने सामान्य सा सूट पहन रखा था. उस की मां ने 2-3 बार गुस्से से उसे डांटा भी, ‘‘आज भी ढंग के कपड़े नहीं पहनने तो फिर 4 सूट बनवाने की जरूरत ही क्या थी?’’ पूजा ने पलट कर जवाब दिया, ‘‘अब सूट बदलने का क्या फायदा. मुझे कई काम निबटाने हैं.’’ मां बड़ी खुश हुईं कि इस के मन में कोई मलाल नहीं. बेचारी कितनी भागदौड़ कर रही?है.
पूजा अपने कमरे में बारबार आजा रही थी. भाभी समझ रही थीं कि शायद मां उसे ऊपर काम के लिए भेज रही हैं और आरती समझ रही थी कि शायद अधूरे काम पूरे कर रही है. दरअसल, पूजा अपने दहेज के लिए सहेज कर रखी हुई सब चीजों को छिपाछिपा कर बांध रही थी. यहां तक कि उस ने अपने जेवर भी डब्बों में बंद कर दिए थे. बरात आने में केवल 1 घंटा शेष रह गया था. आरती को मेकअप के लिए ब्यूटी पार्लर भेज दिया गया था और पूजा घर में ही अपनेआप को संवारने लगी थी. उस ने बढि़या सूट पहना और शृंगार इत्यादि कर के पंडाल में पहुंच गई. सब रिश्तेदारों से हंसहंस कर बतियाती रही. निश्चित समय पर बरात आई तो बड़े चाव से पूजा आरती को जयमाला के लिए मंच पर ले गई.
इस के पश्चात पूजा किसी बहाने से भाभी से चाबी ले कर पंडाल से खिसक गई. बरात ने खाना खा लिया तो घर के लोग भी खाना खाने में व्यस्त हो गए. अचानक बड़ी?भाभी को खयाल आया कि पूजा ने अभी खाना नहीं खाया. उसे बुलवाने किसी बच्चे को भेजा तो पता चला कि पूजा ऊपर वाला कमरा ठीक कर रही है. थोड़ी देर बाद आ जाएगी. काफी देर बाद भी पूजा नीचे नहीं उतरी तो मां स्वयं उसे बुलाने ऊपर पहुंच गईं. तब पूजा ने कहा, ‘‘मैं दूल्हा-दुल्हन का कमरा ठीक कर रही हूं. 5 मिनट का काम बाकी है.’’
मां और दूसरे लोग नीचे फेरों की तैयारी में व्यस्त हो गए. रात 1 बजे तक फेरे भी पूरे हो चुके थे, लेकिन पूजा नीचे नहीं आई थी. घर के लोग डर रहे थे कि बारबार बुलाने से शायद वह गुस्सा न कर बैठे और बात बाहर के लोगों में फैल जाए. इसलिए सभी अपनेआप को काबू में रखे हुए थे. दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए भेजा जाने लगा तो भाभी ने सोचा कि पहले वह जा कर कमरा देख ले. जैसे ही भाभी ने दरवाजा खोला तो सामने बिस्तर पर फूल इत्यादि बिखरे पड़े थे. साथ ही एक लिफाफा भी रखा हुआ था. पत्र आरती के नाम था,
‘प्रिय आरती, मैं ने अपनी सभी प्यारी चीजें तुम्हारे विवाह के लिए बांध दी हैं. अपने पास कुछ भी नहीं रखा. पैसा भी पिताजी को लौटा रही हूं. केवल मैं अकेली ही जा रही हूं. पूजा.’ भाभी ने पत्र पढ़ लिया, लेकिन उसे किसी को भी नहीं दिखाया और वापस आ कर दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए उस कमरे में ले गई. थोड़ी देर बाद अचानक ही आरती भाभी से पूछ बैठी, ‘‘भाभीजी, पूजा दिखाई नहीं दे रही. क्या सो गई है?’’ भाभी ने कहा, ‘‘हां, मैं ने ही सिरदर्द की गोली दे कर उसे अपने कमरे में भिजवा दिया है. थोड़ी देर बाद ऊपर आ जाएगी.’’
भाभी दौड़ कर पति के पास पहुंची और उन्हें छिपा कर पत्र दिखाया. पत्र पढ़ कर उन्हें पैरों तले की जमीन खिसकती नजर आने लगी. बड़े भैया सोचने लगे कि अगर मातापिता से बात की तो वे लोग घबरा कर कहीं शोर न मचा दें. अभी तो आरती की विदाई भी नहीं हुई. भैयाभाभी ने सलाह की कि विदा तक कोई बहाना बना कर इस बात को छिपाना ही होगा. विदाई की सभी रस्में पूरी की जा रही थीं कि मां ने 2-3 बार पूजा को आवाज लगाई, लेकिन भैया ने बात को संभाल लिया और मां चुप रह गईं. सुबह 8 बजे बरात विदा हो गई. आरती ने सब से गले मिलते हुए पूजा के बारे में पूछा तो भाभी ने कहा, ‘‘सो रही है. कल शाम को तेरे घर पार्टी में हम सब पहुंच ही रहे हैं. फिर मिल लेना.’’
बरात के विदा होने के बाद अधिकांश मेहमान भी जाने की तैयारी में व्यस्त हो गए. 10 बजे के लगभग बड़े भैया पिताजी को सही बात बताने का साहस जुटा ही रहे थे कि सामने वाली उषा दीदी का नौकर आया, ‘‘भाभीजी, मालकिन बुला रही हैं. जल्दी आइए.’’ भाभी तथा भैया दौड़ कर वहां पहुंचे. वहां उषा दीदी और उन के पति गुमसुम खड़े थे. पास ही जमीन पर कोई चीज ढकी पड़ी थी. उषा तो सदमे से बुत ही बनी खड़ी थी. उन के पति ने बताया कि नौकर छत पर कपड़े डालने आया तो पूजा को एक कोने में लेटा देख कर घबरा कर नीचे दौड़ा आया और उस ने बताया कि पूजा दीदी ऊपर सो रही?हैं लेकिन यहां आ कर कुछ और ही देखा.
बड़े भैया ने पूजा के ऊपर से चादर हटा दी. उस ने कोई जहरीली दवा खा कर आत्महत्या कर ली थी. समीप ही एक पत्र भी पड़ा हुआ था. लिखा था : ‘पिताजी जब तक आप के पास यह पत्र पहुंचेगा तब तक मैं बहुत दूर जा चुकी होंगी. आरती को तो आप ने केवल विदा ही किया है, लेकिन मैं आप को अलविदा कह रही हूं. मैं आरती के विवाह में सम्मिलित नहीं हुई, इसलिए मेरी विदाई में उसे न बुलाया जाए. आप की बेटी पूजा.’
मां-बाप और भाइयों को दुख था कि पूजा को पालने में उन से कहीं गलती हो गई थी, जिस से वह इतनी संवेदनशील और जिद्दी हो गई थी और अपनी छोटी बहन से ही जलने लगी थी. उन्हें लगा कि अगर वे कहीं सख्ती से पेश आते तो शायद बात इतनी न बिगड़ती. पूजा न केवल बहन से ही, बल्कि पूरे घर से ही कट गई थी. जिस लड़की ने जीते जी उन की शांति भंग कर रखी थी, उस ने मृत्यु के बाद भी कैसा अवसाद भर दिया था, उन सब के जीवन में.
‘सबरंगी’ समाज और धर्म के ठेकेदार बन कर अराजक व निठल्ले लोगों के समूह पंचायत कर के कई बार प्यार करने वालों को शर्मसार करने वाली मनमानी सजाएं देते हैं. न कानून, न कानून के पहरेदार, न अदालत और हो जाता है कबिलाई फैसला. इस से सामाजिक और मानसिक दर्द के साथ ही जिल्लत उठानी पड़ती है. बात ऊंचनीच की हो तो हालत और भी चिंताजनक हो जाती है. पंचायतों की शर्मनाक करतूतें सभ्य समाज को कलंकित करती हैं और कानून व न्याय व्यवस्था को चिढ़ाती नजर आती हैं. प्यार का पंछी बंदिशों से आजाद होता है,
लेकिन समाज के ठेकेदार न तो उस की उड़ान पसंद करते हैं और न ही उस की आजादी. अगर कोई यह चूक कर दे, तो उसे सजा दी जाती है. अराजक व निठल्ले लोगों की पंचायतें बैठ जाती हैं और वे ऐसा करने वालों के हक में तालीबानी सजाएं मुकर्रर करती हैं. मामला किसी दलित से जुड़ा हो, तो उस की मुसीबत में कई गुना इजाफा हो जाता है. घर, समाज, परिवार, जाति, धर्म, इज्जत, बेइज्जती के नाम पर वह सब घटित हो जाता है, जो सभ्य समाज को कलंकित करने वाला होता है. कभी खाप, तो कभी गांवकसबों की पंचायतों में मनमाने फैसले कर के सजाएं दी जाती हैं. कुछ इस अंदाज में कि न कानून, न कानून के पहरेदार, न कोर्ट, न कोई दलील,
सिर्फ चंद लोगों का समूह और उन का थोपा गया जिल्लत देने वाला फरमान. असभ्यता को आईना दिखाया जाता है. इतना ही नहीं, कानून का नकारापन भी लोगों को सामाजिक व मानसिक दर्द सहने को मजबूर करता है. 21वीं सदी में कानून का जिस तरह से मजाक बनाया जाता है, उस पर अमल करना पीडि़तों की मजबूरी हो जाता है, क्योंकि हर तरफ उन्हें मायूसी का घना बादल नजर आता है. इस बीच कुछ अराजक लोगों ने प्रेमी जोड़े का मुंह काला करने के लिए काला तेल फेंक दिया. बात यहीं खत्म नहीं हुई. दोनों को पीटा भी गया. इस के बाद तथाकथित पंचों ने फैसला सुनाया. उन्होंने प्रेमी जोड़े को 4 महीने के लिए गांव से निकाल दिया. इस के बाद ही वे पतिपत्नी की तरह रह सकते थे. गांव, समाज, बिरादरी की बदनामी के कलंक के दाग के साथ उन्हें अलगअलग भेज दिया गया.
पंचायत ने यह भी तय किया कि अगर कोई अब पुलिस के दरवाजे पर गया, तो उस का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाएगा. सभ्य समाज पर कालिख पोतने वाला फरमान प्रेमी जोड़े पर लागू हुआ. प्यार करने की कीमत उन्हें जिल्लत और मानसिक दर्द के साथ चुकानी पड़ी थी. न यहां कानून काम आया और न कानून के पहरेदार. सिरफिरे सामाजिक ठेकेदारों की करतूत को सामने लाने वाला यह कोई अकेला मामला नहीं था. उत्तर प्रदेश का ही मुजफ्फरनगर कसबा प्रेमी जोड़े को सजा देने के मामले में लंबे अरसे से बदनाम है. चारथावल क्षेत्र के एक गांव में एक जोड़े में प्यार हुआ, तो इन दोनों ने निकाह कर लिया. लड़की के घर वालों को यह बात अखर गई. उन के साथ गांव के लोग भी मिल गए और इसे पूरे गांव की इज्जत से जोड़ दिया गया. इस फरमान से डर कर प्रेमी जोड़ा घर से भाग गया. इस के बाद पंचायत हुई, जिस में लड़के के मातापिता को बुलाया गया.
पंचायत के फरमान के बाद सरेआम लड़के के पिता को 10 व मां को 5 जूते मारे गए. उन पर 25,000 रुपए का जुर्माना भी थोप दिया गया और गांव छोड़ने को कहा गया. साथ ही, यह भी ऐलान किया गया कि प्रेमी जोड़े को देखते ही कत्ल कर दिया जाए. बात ऊंचनीच और दलितों की हो, तो मुसीबत और भी बढ़ जाती है. दबंगों का पारा चढ़ जाता है और वे सबक सिखाने पर उतर आते हैं. यह उनकी वे कुंठाएं होती हैं, जो दिमाग के कोने में दलितों को देख कर कुलबुलाती रहती हैं. बागपत जिले का एक मामला कम चौंकाने वाला नहीं है. दरअसल, एक लड़के का जाट समुदाय की एक लड़की से प्यार हो गया. लड़का दलित था. लिहाजा, दबंगों का पारा चढ़ गया.
उन्होंने लड़की की जबरन शादी कर दी, लेकिन एक महीने बाद ही वह मायके आई और वह लड़के के साथ फरार हो गई. दोनों ने शादी कर ली. बाद में दोनों को बरामद कर लिया गया. पुलिस ने लड़के पर दूसरा केस बना कर जेल भेज दिया. इस के बाद दलित परिवार की जान पर बन आई. दबंगों के समूह ने फरमान जारी कर दिया कि ऊंची जाति की लड़की भगाने वाले लड़के की दोनों बहनों के साथ रेप कर के उन्हें गांव में नंगा घुमाया जाए. लड़के की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई. अफसरों को नोटिस जारी किए गए, तो हड़कंप मच गया. गांव के बिगड़े हालात को किसी तरह संभाला गया. जाति और समाज के ठेकेदारों की दबंगई लड़का और लड़की को शायद ही कभी एक होने दे. हरियाणा के यमुनानगर में एक लड़की ने दलित लड़के से प्यार किया और घर से भाग कर शादी कर ली.
इस के बाद पंचायत हुई और तुगलकी फरमान जारी हुआ कि दोनों जहां भी मिलें, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाए. ऐसे मामले भी होते हैं, जिन का बातचीत के जरीए हल निकाला जा सकता है. समस्या को सुल?ाया जा सकता है, लेकिन ऐसा करने में समाज के ठेकेदारों की हुकूमत और कुंठा दोनों प्रभावित होती हैं, इसलिए तरहतरह की बातें करने के साथ ही तुगलकी फैसले किए जाते हैं. मामले को धार्मिक, बदनामी, जातियों जैसे मोड़ देने में उन्हें हुनर हासिल होता है. बुलंदशहर जिले के बुगरासी इलाके के एक नेत्रहीन अब्दुल कदीर की भतीजी ने अपने शौहर को तलाक देने के बाद गैरधर्म के एक लड़के से शादी कर ली. इस से धर्म के ठेकेदार भड़क गए. उन के डर से वह जोड़ा गांव छोड़ कर भाग गया. दूसरों के घरों की इज्जत संभालने का ठेका लेने वालों को यह बात और भी बुरी लगी. सबक सिखाने के लिए उन्होंने पंचायत बुला ली. पंचायत ने अब्दुल कदीर को हाजिर करने का हुक्म दिया, तो कुछ लोग उसे खींच कर पंचायत में ले गए. पंचायत में शामिल लोगों ने भतीजी के दूसरे समुदाय के लड़के के साथ जाने पर उसे जम कर बेइज्जत किया और गालियों से नवाजा.
इतना ही नहीं, उस का सामाजिक बहिष्कार करने का फरमान सुना दिया गया. गांवों में ऐसे निठल्लों की जमात भी होती है, जिन का काम नजर रखना होता है कि किस का चक्कर कहां चल रहा है. उन की असल पीड़ा और कुंठा यह होती है कि लड़की उन्हें लिफ्ट नहीं देती. वे धीरेधीरे खिलाफत का माहौल बनाते हैं, अच्छे मौके की तलाश में रहते हैं और एक दिन वह सब बड़े बवाल की वजह बन जाता है. छोटीछोटी बातों पर होने वाले बैर के चलते भी चटकारे ले कर प्यार के किस्से बयां किए जाते हैं कि किस की लड़की गांव और समाज की नाक कटवा रही है. हापुड़ जनपद में एक लड़का और एक लड़की के बीच प्यार हुआ और दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली. इस की खबर लोगों को हुई, तो समाज के अराजक लोग तुरंत सक्रिय हो गए. बदनामी का वास्ता दे कर पंचायत बैठ गई. पंच बने लोगों ने उन दोनों को गोली से उड़ाने तक का फरमान जारी कर दिया. इस से जोड़ा दहशत में आ गया और थाने पहुंच कर सुरक्षा की गुहार लगाई.
वे दोनों बालिग थे, लेकिन समाज के डर से उन्हें अपने घर छोड़ने पड़ गए. पंचायतों में ही नहीं, यह गलत सोच घरों में भी पनपती रही है. हैदराबाद शहर में जहां पंचायतों की नहीं, कानून की चलनी चाहिए. 24 साल के नीरज कुमार पंवार को मई, 2022 में बेगम बाजार में अपनी दुकान के पास पत्नी के घर वालों द्वारा मार डाला गया. उस की पत्नी और 3 महीने के बच्चे का अब क्या होगा, यह भी पत्नी के घर वालों ने नहीं सोचा. ये लोग उत्तर भारत के गांवों से अपनी सोच ले कर हैदराबाद तक में कांड करने को तैयार हैं. ये ही खाप पंचायतों को असल में बल देते हैं. राजस्थान के बांसवाड़ा के अरथूना थाना क्षेत्र के डोबापाड़ा गांव में इनसानियत को शर्मसार करने वाला मामला सामने आया.
प्रेम प्रसंग में एक छात्रा अपने प्रेमी के साथ गांव से चली गई. लड़की के पिता गांव के सरपंच रह चुके थे. लिहाजा, इज्जत का वास्ता दे कर सभी का खून खौल गया. परिवार वाले उन की खोजबीन में लगे थे. उन के दूसरे प्रदेश गुजरात के अहमदाबाद में रहने की बात पता चली, तो वे दोनों को पकड़ कर ले आए. इस के बाद उन के साथ क्रूरता का बरताव शुरू हुआ. दोनों को सरेआम रस्सी के सहारे एक पेड़ से बांध दिया गया और उन के साथ मारपीट की गई. बाद में मौके पर पहुंची पुलिस ने दोनों को छुड़ाया. बिहार के गया जिले में तो समाज के ठेकेदार इनसानियत की हदों को लांघ गए. वजीरगंज थाना क्षेत्र के अमेठा गांव में एक प्रेमी जोड़ा गांव से भाग गया. बाद में दोनों पकड़े गए, तो पंचायत हो गई. पंचायत में पहले दोनों को लाठीडंडों से पीटा गया. जब दोनों बेसुध हो गए, तो उन्हें चिता पर रख कर आग के हवाले कर दिया गया. पुलिस ने इस मामले में 15 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर के कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया. सब से बड़ा सवाल यही था कि चंद लोगों को इस फैसले का अधिकार किस ने दिया?
उन्हें कानून का डर क्यों नहीं था? मेरठ के एक मामले में एक लड़के को प्रेमिका से दूर रहने की हिदायत दी गई. जब वह नहीं माना, तो पंचायत हुई. पंचायत में उस नौजवान को 6 महीने गंजा रहनेकी मनमानी सजा सुना दी. मुजफ्फरनगर की साधना और नूरसलीम ने प्रेम विवाह किया, लेकिन अब सुरक्षा के लिए पुलिस के चक्कर काट रहे हैं, क्योंकि पंचायत उन्हें मारने का फरमान सुना चुकी है. उदयपुर जिले में भरी पंचायत में प्रेमी जोड़े को मुरगा बना कर मनमानी सजा दी गई. इज्जत व सामाजिक व्यवस्था के नाम पर वह सब होता है, जिस की सभ्य समाज में इजाजत नहीं दी जा सकती. उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान,
बिहार व मध्य प्रदेश जैसे इलाकों में पंचायतें सभ्य समाज को कलंकित कर के तरहतरह की सजाएं देती हैं. जो सजा दी जाती है, उस पर अमल जरूरी होता है. अगर कोई नहीं करता, तो उसे डंडे के बलबूते कराया जाता है. पीडि़त कानून की चौखट पर जाने से कतराते हैं, क्योंकि उन्हें उसी समाज और लोगों के बीच रहना होता है. फिर इस बात की कोई गारंटी और सुरक्षा नहीं होती कि भविष्य में उस के साथ बुरा बरताव नहीं होगा. ज्यादातर मामलों में तो कानून के पहरेदार तमाशा ही देखते हैं. बात जब हद से बढ़ जाए, तो जरूरत भर की सक्रियता आती है और फैसले की वकालत पुरजोर ढंग से की जाती है. ऐसा नहीं है कि देश का संविधान इस तरह की हरकतों को नजरअंदाज करता हो.
साल 2017 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि शादी का फैसला करने का हक हर नागरिक का अपना है और अनुच्छेद 21 भी यह साफ करता है कि राज्य सरकार, पुलिस, खाप किसी लड़केलड़की की शादी के मामले में रोकटोक रखने पर आमतौर पर यह सब कांड तो पहले हो जाता है और मामला सुर्खियों में आए, उस से पहले ही सबकुछ हो चुका होता है. आजकल सरकार खापों पर मेहरबान है, क्योंकि ये खाप ही गांवों में वर्ग व्यवस्था को और मंदिरमसजिद की राजनीति को लागू करने में मदद कर रही हैं. द्य हरियाणा सरकार की ‘चिराग योजना’ सरकारी स्कूलों को खत्म करने की साजिश हरियाणा में एमबीबीएस की फीस पहले हर साल 53,000 रुपए हुआ करती थी,
जो साल 2020 में बढ़ा कर हर साल 10 लाख रुपए कर दी गई. 40-50 लाख रुपए में वे नौजवान डाक्टर बन सकते हैं, जिन्होंने नीट टौप किया हो और सरकारी मैडिकल कालेज मिला हो. जब यूक्रेन संकट शुरू हुआ, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवाल किया था कि इतने नौजवान बाहर पढ़ने क्यों जाते हैं? इस का सीधा सा जवाब मनोहर सरकार द्वारा बढ़ाई गई एमबीबीएस की फीस में है. जब 25 लाख रुपए में कुल खर्चे मिला कर बाहर से एमबीबीएस हो रही है, तो यहां ज्यादा फीस भरने से कौन खुश होगा? अब हरियाणा सरकार स्कूली शिक्षा के लिए नई नीति लाई है, जिस का नाम ‘चिराग योजना’ रखा है. सरकारी स्कूल में बच्चा दाखिला लेगा, तो 500 रुपए वसूल करेगी व प्राइवेट स्कूल में दाखिला लेगा, तो 1,100 रुपए तक फीस सरकार भरेगी. बाकी की फीस मांबाप को भरनी होगी. यह सरकारी स्कूलों को खत्म करने की साजिश है. जब सरकारी स्कूल बरबाद हो जाएंगे,
उस के बाद निजी स्कूलों का असली खेल शुरू होगा. जब तक जनता को यह गड़बड़झाला समझ में आएगा, तब तक ये सरकारी स्कूल बेच चुके होंगे. जिस तरह ऊंची शिक्षा के लिए अभी बच्चे विदेश जा रहे हैं, बाद में स्कूली शिक्षा के लिए भी भेजना पड़ेगा. अमीर लोग तो यहां की महंगी फीस भर लेंगे, जो थोड़े कम अमीर होंगे वे दूसरे रास्ते ढूंढ़ लेंगे, लेकिन बहुसंख्यक गरीब आबादी के बच्चों का क्या होगा, यह सोच कर ही भविष्य के भारत में फैलते जा रहे अंधेरे से डर लगने लगता है.
‘‘तुम्हारा नाम है क्या बेटा?’’ ‘‘श्रवण कुमार सिंह,’’ श्रवण ने छोटा सा जवाब दिया. ‘‘ओहो, श्रवण कुमारजी. वाह, आप तो अपने मातापिता को कंधों पर उठा कर भारत दर्शन कराएंगे. वैसे, कौन गांव से आए हो भैया श्रवण कुमार?’’ पास खड़ा दूसरा लड़का श्रवण का मजाक बनाता हुआ बोला. ‘‘उज्जैन से,’’ श्रवण ने उसी तरह से छोटा सा जवाब दिया. जवाब सुनते ही श्रवण के गालों पर सटाक कर के एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया गया. ‘‘यह एक प्रोफैशनल कालेज है,
तुम्हारे बाप का घर नहीं, जो तुम सपाट जवाब दिए जा रहे हो. हम तुम्हारे सीनियर हैं और सीनियर को जवाब देते समय ‘सर’ जरूर लगाया जाता है. समझे कि नहीं?’’ थप्पड़ मारने वाला एक सीनियर अमिताभ बच्चन के अंदाज में बोला. ‘‘जी सर, समझ गया,’’ श्रवण अपने गालों पर थप्पड़ की जलन महसूस करता हुआ बोला. उस की नजरें जमीन पर झुकी हुई थीं. नीची नजरों के बावजूद उस ने यह महसूस कर लिया था कि दूसरे सीनियर उस मारने वाले सीनियर को इशारे से ऐसा करने से मना कर रहे थे. श्रवण ने भी अखबारों में पढ़ा था कि कालेजों में रैगिंग पर पूरी तरह से बैन है और ऐसा करते हुए पाए जाने पर रैगिंग लेने वालों को कालेज से निकाला भी जा सकता है. थप्पड़ मारने वाला सीनियर भी शायद श्रवण को डराना ही चाहता था और वह अपने इस मिशन में कामयाब भी रहा, क्योंकि थप्पड़ खाने के बाद श्रवण मारे डर के कांपे जा रहा था. ‘
बेटा, इस थप्पड़ को रैगिंग का नाम मत देना. यह तो जस्ट इंट्रोडक्शन है. अगर रैगिंग लेने पर आ गए तो खड़ेखड़े कांपने लगोगे. और हां, हम सिर्फ तुम्हें डरानेधमकाने के लिए नहीं हैं, बल्कि जरूरत पड़ने पर नोट्स और बाकी गाइडलाइन भी हम ही तुम्हें समझाएंगे. समझे?’’ साथ खड़ा दूसरा सीनियर उस थप्पड़ को जस्टिफाई करते हुए बोला. ‘‘यस सर,’’ श्रवण दबी सी आवाज में बोला. ‘‘अच्छा यह बताओ कि हाल ही में कौन सी मूवी देखी है तुम ने?’’ एक और सीनियर माहौल बदलने के नजरिए से बोला. ‘‘सर, मैं ने अभी यूट्यूब पर फिल्म ‘मुझे जीने दो’ देखी है,’’ श्रवण ने जवाब दिया. ‘‘हाहाहा…’’ एक सीनियर जोर से ठहाका लगा कर बोला, ‘‘यह कौन सी मूवी है भाई? मैं तो जब से पैदा हुआ हूं, तब से ऐसी किसी मूवी का नाम सुना ही नहीं. ‘‘अरे, जब इंटरनैट पर ही मूवी देखनी है, तो कुछ ढंग की मूवी देखो, जो जवानी में जोश भर दे.’’ ‘‘अरे, बच्चा है बेचारा. मांबाप ने श्रवण कुमार नाम ऐसे ही तो थोड़े रखा है. उन्होंने बोला होगा कि ‘मुझे जीने दो’
पिक्चर देख लो, तो लाल ने देख ली. बेचारा…’’ किसी सीनियर ने पीछे से उलाहना दिया. ‘‘पोर्न मूवी देखते हो या नहीं?’’ लाल शर्ट वाले एक सीनियर ने पूछा. ‘‘नो सर. मैं ने अभी तक ऐसी कोई मूवी नहीं देखी,’’ श्रवण ने जवाब दिया. ‘‘अलेले मेले शोना ने अभी तक कोई पोर्न नहीं देखी. मुझे तो शक है कि यह शाणा बच्चा मर्द भी है या नहीं? अगर अभी पोर्न नहीं देखेगा तो आगे की जिंदगी में क्या करेगा? तेरी लुगाई तो किसी और के साथ ही भाग जाएगी,’’ वही सीनियर दांत निपोरते हुए बोला. ‘‘सच है भाई, तेरे चक्कर में हमारी नाक कट जाएगी. हमारे कालेज का नाम बदनाम हो जाएगा. लोग कल को कहेंगे कि इसी नामी कालेज से यह नामर्द इंजीनियर निकला है, जिस की बीवी उस के ड्राइवर के साथ भाग गई,’’ दूसरा सीनियर हां में हां मिलाते हुए बोला. ‘‘क्या तू अपने कालेज की इस तरह बदनामी सहन कर पाएगा?’’ एक सीनियर बोला. ‘‘बोल बेटा, बोल?’’
जिस सीनियर ने थप्पड़ मारा था, वह जोर दे कर बोला. सभी 7-8 सीनियर लड़के गोल घेरा बना कर खड़े हुए थे और श्रवण लल्लू बन कर बीच में खड़ा था. ‘‘जी नहीं सर,’’ श्रवण ऐसा कहने के लिए मजबूर था, वरना पता नहीं कब दूसरा थप्पड़ पड़ जाए. ‘‘शाबाश श्रवण बेटे. तुम से इसी जवाब की उम्मीद थी. आज से इस कालेज में हम तुम्हारे माईबाप हैं. जैसा हम कहें वैसा ही करोगे तो फायदे में रहोगे,’’ किसी सीनियर ने कहा. ‘‘जी सर,’’ श्रवण बोला. ‘‘आज से तुम ऐसा करना कि रोजाना कम से कम 10 पोर्न मूवी देखना. उन सब मूवी के नाम एक कागज पर लिख कर हम सब को कालेज में ढूंढ़ कर दिखाना और कागज पर हमारे साइन लेना. यह काम तुम को एक महीने तक तो करना ही है. ‘‘ध्यान रहे कि इन 30 दिनों में एक भी मूवी रिपीट नहीं होनी चाहिए. तुम ने मूवी देखी भी है या नहीं, इस की जांच हम तुम्हारे इंटरनैट के हिस्ट्री बौक्स में जा कर भी चैक कर सकते हैं. ‘‘अगर झूठ बोलने की या धोखा देने की कोशिश की, तो एक थप्पड़ के रूप में तुम ने ट्रेलर तो देख ही लिया है, आगे पूरी फिल्म दिखा दी जाएगी. समझे?’’ वह सीनियर श्रवण को धमकाता हुआ बोला.
‘‘कभी पोर्न साइट खोली है या नहीं?’’ भीड़ में से एक ने पूछा. ‘‘जी नहीं सर. कभी नहीं,’’ श्रवण ने जवाब दिया. ‘‘ला दे तेरा मोबाइल फोन. मैं सिखाता हूं,’’ कहते हुए उस सीनियर ने श्रवण का फोन ले लिया. कुछ ही देर में उस ने श्रवण के मोबाइल फोन पर एक पोर्न साइट खोल दी. ‘‘देख, इस अकेली साइट पर ही बहुत सारी पोर्न मूवी अपलोडेड हैं. इसी साइट से अगर 10-10 मूवी भी रोजाना देखेगा, तो महीनेभर में 300 मूवी ही हो जाएंगी. ऐसी 3 लाख से ज्यादा साइटें इंटरनैट पर हैं, इसलिए तुझे दिया गया काम कोई मुश्किल नहीं है. ‘‘चल, अब निकल यहां से और कल फिर मिल पूरी रिपोर्ट के साथ,’’ वह सीनियर श्रवण को आदेश देता हुआ बोला.
श्रवण ने अपने रूम में पहुंच कर सीनियर लड़कों द्वारा दिया गया लिंक खोला. जब उस ने पहली पोर्न मूवी देखी, तो उसे काफी अटपटा लगा, मगर 10 मूवी तो रोज देखनी ही थीं. दूसरी मूवी देखतेदेखते उस में जोश आने लगा और न चाहते हुए भी उस का हाथ अपने निजी अंग तक चला गया. यह मूवी उसे कुछ अच्छी लगी. जब ज्यादा जोश आया, तो वह बाथरूम में जा कर हलका हो गया. 10 मूवी देखने के बाद भी श्रवण को संतोष नहीं हुआ और वह लगातार 5 घंटे तक मूवी देखता रहा. दूसरे दिन श्रवण द्वारा देखी गई 10 फिल्मों की लिस्ट बना कर ले गया, जिसे देखने या पढ़ने में किसी भी सीनियर ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. अलबत्ता, कुछ सीनियर लड़कों ने कहा कि जब समय मिलेगा, तब वे चैक कर लेंगे. अब तो जब भी समय मिलता, तब श्रवण पोर्न फिल्में देखा करता था.
नींद में भी सपनों में उसे यही फिल्में दिखाई पड़ती थीं. यही वजह थी कि 12वीं क्लास में अच्छे नंबरों के साथ इंजीनियरिंग के इस कालेज में दाखिला लेने वाला श्रवण अब साधारण अंकों के साथ इंजीनियर बन पाया था. कैंपस में इंटरव्यू के लिए आई एक छोटी और साधारण कंपनी ने श्रवण को नौकरी भी दे दी थी. श्रवण को पोर्न फिल्मों का चसका लग गया था, वह उस की नौकरी लगने के बाद भी बदस्तूर चालू था. वह अकसर खयालों में अपने संबंधों के बारे में उतना ही समय सोचता जितना कि फिल्मों में दिखाया जाता है. नौकरी लगने के बाद जैसा कि होता है घर वालों ने श्रवण की शादी सुलक्षणा नाम की एक लड़की से कर दी. सुलक्षणा अपने नाम के मुताबिक सुंदर और सुशील थी. सुहागरात वाले दिन श्रवण बहुत जोश से सुलक्षणा के पास गया. कमरे में घुसते समय वह कामुक विचारों से घिरा हुआ था. कुछ देर बातें करने के बाद जब सैक्स की बारी आई,
तो श्रवण के सारे सपने चूरचूर हो गए, क्योंकि लाख कोशिश करने के बाद भी वह ठहराव नहीं आ पाया, जिस की उम्मीद थी. यह देख कर श्रवण एकदम से सकते में आ गया कि कहां तो वह 4 से 5 बार लंबे समय तक चलने वाले सैक्स की कल्पना कर रहा था और कहां पहली बार में ही 2 मिनट से भी कम समय में ढेर हो गया. दोबारा कोशिश करने के लिए तो उस के अंग काम ही नहीं कर रहे थे. श्रवण अपनेआप में ही बेहद शर्मिंदगी महसूस कर रहा था. वह सोच रहा था कि कहां तो कालेज के सीनियर लड़के इन फिल्मों के जरीए असली मर्द बनाने की बातें करते थे और कहां आज वह जल्दी ही ढेर हो गया. उधर सुलक्षणा ने सोचा कि शायद यह पहली बार था और अनुभव की कमी के चलते ऐसा हुआ होगा. वह बेसब्री से अगली रात का इंतजार करने लगी.
श्रवण सुहागरात के बाद हुई घटना के बाद से यह चाहता ही नहीं था कि दूसरी रात आए भी. वह अपनेआप को इतना कमजोर पा रहा था कि सुलक्षणा के नाम से ही घबरा जाता था. मगर चाहने से क्या होता है. घड़ी की सूइयां तो अपनी रफ्तार से चल ही रही थीं. आखिरकार रात भी आ ही गई. श्रवण जिन चीजों को बिना थके घंटों मोबाइल फोन पर चाव से देखा करता था, आज उन्हीं चीजों का इस्तेमाल करने से बच रहा था. दूसरे दिन भी बिस्तर पर उसी घटना का दोहराव हुआ, जो सुहागरात के दिन घटी थी. सुलक्षणा समझ चुकी थी कि कहीं न कहीं कोई समस्या जरूर है, जो श्रवण उसे बता नहीं पा रहा है. तीसरे दिन हिम्मत कर के सुलक्षणा ने श्रवण से पूछ ही लिया, ‘‘श्रवण, मुझ में कोई कमी है क्या, जो तुम इस तरह से जल्दी मुझे छोड़ देते हो? अगर हां तो बताओ, ताकि मैं जल्दी से जल्दी अपनी कमी को दूर कर सकूं, क्योंकि जैसा मैं ने अपनी सहेलियों से सुना है कि वे रातभर नहीं सोईं, मगर मेरा अनुभव कुछ और ही है और वह तुम जानते हो.’’ श्रवण कुछ भी जवाब देने की हालत में नहीं था, इसलिए वह खामोश बैठा रहा. ‘‘बताओ न श्रवण, अभी तो हमारी शादी को सिर्फ 3 ही दिन हुए हैं. अगर ऐसा ही रहा, तो बाकी की जिंदगी कैसे गुजरेगी…’’ सुलक्षणा जोर दे कर बोली.
‘‘सुलक्षणा, मैं नहीं जानता कि समस्या कहां पर है. मैं वह सब करना चाहता हूं, जो तुम चाहती हो और जिस अंदाज में तुम चाहती हो. मगर जैसे ही मैं तुम्हारी तरफ का छोर पकड़ने की कोशिश करता हूं, पता नहीं कैसे मेरी तरफ का छोर छूट जाता है…’’ श्रवण निराश आवाज में बोला, ‘‘यह एक ऐसी समस्या है, जिस का जिक्र मैं अपने दोस्तोंरिश्तेदारों में भी नहीं कर सकता, क्योंकि मुझे डर है कि मेरी समस्या सुनने के बाद वे सब मेरी हंसी न उड़ाने लगें.’’ ‘‘श्रवण, मैं सामाजिक मर्यादाओं को अच्छी तरह से जानती हूं, इसलिए इस का सब से अच्छा उपाय यही है कि हम किसी अच्छे डाक्टर से मिलें,’’ सुलक्षणा बोली. ‘‘शादी के 3 दिनों के बाद ही अगर हम डाक्टर के पास जाते हैं, तो लोग क्या सोचेंगे. वे तुम्हारे ऊपर भी शक कर सकते हैं,’’ श्रवण बोला. ‘‘मुझे इस बात की परवाह नहीं है कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे. हम दोनों को जिंदगीभर साथ रहना है, इसलिए हम दोनों के बीच सबकुछ साफ होना चाहिए. और आप क्या सोचते हो कि ऐसी बात को कब तक छिपाओगे?
जिस भी दिन यह बात सामने आएगी, उस दिन लोग हमदर्दी नहीं जताएंगे, बल्कि हंसी ही उड़ाएंगे. और शायद उस समय हमें लोगों को समझाना ही मुश्किल पड़े,’’ सुलक्षणा बोली. ‘‘सुलक्षणा, तुम्हारी बात एकदम सही है. हम कल ही डाक्टर के पास चलेंगे,’’ श्रवण के शब्दों में राहत दिखाई पड़ रही थी. ‘‘बहुत ज्यादा पोर्न फिल्में देखने के चलते वे आप के दिलोदिमाग पर छा गई हैं. इस मामले में दवाएं इतना असर नहीं डालेंगी, जितना आप की अपनी साइकोलौजी डालेगी. और इन की साइकोलौजी को बदलने के लिए सुलक्षणाजी आप को इन की पूरी मदद करनी होगी. ‘‘आप लोगों को कम से कम 6 महीने तक एकदूसरे को समझना और समझाना पड़ेगा. इन की नसों में कमजोरी आ गई है. अंग की मजबूती के लिए कुछ दवाएं लिख देता हूं. ‘‘आप लोगों ने आपसी समझ से इतनी जल्दी समस्या के हल के लिए जो कदम उठाया है, उस की मैं तारीफ करता हूं,’’
डाक्टर श्रवण और सुलक्षणा से बात करते हुए बोला, ‘‘वैसे, मैं आप दोनों से एक गुजारिश जरूर करूंगा कि आप अपने साथ घटी इस घटना को लिखें जरूर और उसे छपवाएं भी, ताकि लोगों में सैक्स समस्याओं के प्रति जो भ्रांतियां फैली हैं, उन्हें दूर करने में मदद मिले. ‘‘पोर्न फिल्मों में जो लंबे समय तक चलने वाले सीन दिखाए जाते हैं, वह सब तकनीक का कमाल होता है. सचाई तो यह है कि कई फिल्मों की शूटिंग तो एक निश्चित दूरी बना कर की जाती है. मगर नासमझी के चलते लोग अपनी सैक्स लाइफ को बरबाद कर लेते हैं.’’ ‘‘शुक्रिया डाक्टर साहब,’’ श्रवण बोला. ‘‘श्रवणजी, सिर्फ शुक्रिया से काम नहीं चलेगा. इस कंसल्टेशन की फीस 10,000 रुपए है, जो आप के द्वारा देखी गई पोर्न फिल्मों से कहीं ज्यादा है,’’ डाक्टर मुसकराता हुआ बोला.
‘‘जी हां डाक्टर साहब, पोर्न फिल्में सिर्फ शारीरिक और मानसिक रूप से ही नहीं तोड़ती हैं, बल्कि पैसे के तौर पर भी बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं,’’ श्रवण फीस अदा करते हुए बोला. ‘‘रैगिंग लेने वालों को भी यह सोचना चाहिए कि सीनियर होने के नाते अपने जूनियर से ऐसा कोई भी काम न कराएं, जिस से उस की भावी जिंदगी ही दांव पर लग जाए,’’ सुलक्षणा बोली. ‘‘आप ने बिलकुल सही कहा सुलक्षणाजी,’’ डाक्टर रजामंदी जताते हुए बोला. ‘‘पोर्न फिल्मों से मेरी जिंदगी में एक पौज (ठहराव) आ गया था, जो सुलक्षणा की वजह से ठीक हो जाएगा,’’ श्रवण ने सुलक्षणा की तरफ देखते हुए कहा.