
जो छात्र पहचान परेड कराने के लिए तैयार थे वे जब डाकखाने पहुंचे तो डाकखाने का स्टाफ इस समूह को देख कर आशंकित हो गया. उन्होंने उस महिलाकर्मी को इस पहचान परेड के लिए मना कर दिया. वह महिलाकर्मी खुद भी बहुत डरीसहमी थी, उसे नहीं पता था कि मुद्दा क्या है. उस ने तो अपनी तरफ से साधारण सी बात समझ कर जानकारी दी थी.
काफी देर तक डाकखाने के कर्मियों और छात्रों में बहस होती रही. उन का तर्क था कि वे इस झगड़े में क्यों पड़ें. वह महिलाकर्मी यदि किसी की पहचान कर लेती है तो वह छात्र उसे नुकसान भी तो पहुंचा सकता है. छात्रों ने जब दबाव बनाया तो उस ने सहकर्मियों की सलाह मान कर सरसरी निगाह छात्रों पर डालते हुए सभी को क्लीन चिट दे दी. स्पष्ट था वह इस झगड़े में नहीं पड़ना चाहती थी. वह सच बोल रही है या झूठ इस का फैसला नहीं किया जा सकता था.
बात जहां से शुरू हुई थी फिर से वहीं पहुंच गई थी. अटकलों का बाजार पुन: गरम हो चुका था. यह मांग फिर उठने लगी थी कि इस मामले में कुलपति हस्तक्षेप करें और मामला पुलिस या सीबीआई को दे दिया जाए. सभी जानते थे कि हर अपराध के पीछे एक मोटिव होता है.
हिंदी विभाग से बाहर का कोई छात्र ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि एक तो इतने सारे छात्रछात्राओं को बदनाम करने के पीछे उस का कोई उद्देश्य नहीं हो सकता था. दूसरे जो जोड़े बनाए गए थे वे बहुत ही गोपनीय जानकारी पर आधारित थे और कइयों के बारे में ऊपरी सतह पर कुछ भी दिखाई नहीं देता था, लेकिन उन में से अधिकांश के तल में कुछ न कुछ सुगबुगाहट चल रही थी.
अब तो अन्य विभागों के छात्रछात्राएं भी इस में रुचि लेने लगे थे, लेकिन यह निश्चित था कि ‘मास्टर माइंड’ इन्हीं 50 छात्रछात्राओं में से कोई एक था. 6 प्रोफैसर्स में से भी कोई हो सकता था परंतु इस की संभावना कम ही थी क्योंकि सभी प्रोफैसर्स अपनीअपनी फेवरेट छात्राओं के साथ अपने गुरुशिष्या के संबंधों पर परम संतुष्ट थे.
अचानक एक तीसरा पत्र डाक्टर अमितोज के नाम साधारण डाक से प्राप्त हुआ. यह पत्र भी अंगरेजी में था और इस में सारे घटनाक्रम पर क्षमा मांगते हुए इस का पटाक्षेप करने की प्रार्थना की गई थी. पत्र कंप्यूटर पर टाइप किया हुआ था और उस में फौंट, स्याही और कागज वही इस्तेमाल हुए थे जो दूसरे पत्र के लिए हुए थे.
डाक्टर अमितोज ने ध्यान से वह पत्र कई बार पढ़ा. अचानक उन के मस्तिष्क में एक विचार तीव्रता से कौंधा. वे तेजी से हिंदी विभाग के कार्यालय में पहुंचे और सभी छात्रछात्राओं के आवेदनपत्र की फाइल लिपिक से कह कर अपने कार्यालय में मंगवा ली. तेजी से उन की निगाहें उन आवेदनपत्रों में पूर्व शैक्षणिक योग्यता के कौलम में कुछ खोज करती दौड़ने लगीं. अचानक उन्हें वह मिल गया जिस की उन्हें तलाश थी. उन्होंने पता देखा तो वह हौस्टल का था.
तीसरा पत्र उन के हाथ में था जब उन्होंने हौस्टल के उस कमरे का दरवाजा खटखटाया. दरवाजा खुलते ही उन की निगाह सामने रखे पीसी पर पड़ी. वे समझ गए कि उन की तलाश पूरी हो चुकी है. वह कमरा युवा तलाकशुदा छात्रा कांता का था जो पूर्व में अंगरेजी साहित्य में स्नातकोत्तर थी, उस की बदसूरती और गहरे काले रंग को ले कर सभी छात्रछात्राएं मजाक उड़ाया करते थे.
उन के सामने अब इस अपराध का मोटिव स्पष्ट था और इस पर किसी तर्क की गुंजाइश नहीं थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस अपराध के लिए वे उस पर नाराज हों या तरस खाएं.
‘‘मैं नहीं पूछूंगा कि दूसरे पत्र को पोस्ट करवाने में जिन तीन लड़कों का तुम ने सहयोग लिया वे कौन थे क्योंकि उन्हें पता भी नहीं होगा कि वे क्या करने जा रहे हैं. लेकिन तुम्हारा गुरु होने के नाते एक सीख तुम्हें जरूर दूंगा. जो कमी तुम्हें अपने में नजर आती है और जिस में तुम्हारा अपना कोई दोष नहीं है उस के लिए स्वयं पर शर्मिंदा हो कर दूसरों से उस का बदला लेना अपनेआप में एक अपराध है, जो तुम ने किया है.
तुम ने इस अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की है. एक शर्त पर मैं तुम्हें क्षमा कर सकता हूं यदि तुम यह वादा करो कि कभी अपने रंगरूप पर शर्मिंदगी महसूस नहीं करोगी. अपनेआप से प्यार करना सीखो, तभी दूसरे भी तुम्हें प्यार करेंगे.’’ उन्होंने वह पत्र फाड़ा और आंसू बहाती कांता के सिर को सहला कर चुपचाप वहां से बाहर निकल आए.
लेखिका- वीना टहिल्यानी
संकरी सी बंद गली का वह आखिरी मकान था. खूब खुला. खूब बड़ा. लाल पत्थर का बना. खूब सुविधाजनक. मकान का नाम था ‘जफर मंजिल’. आजादी के कुछ वर्षों बाद यहीं हमारा जन्म हुआ. ‘जफर मंजिल’ हमारा घर था. मां को घर का मुसलमानी नाम बिलकुल नापसंद था पर घर के मुख्यद्वार के ऊपर एक बडे़ से पत्थर पर खूब सजावट सहित उर्दू हर्फों में खुदा था, ‘जफर मंजिल-1907.’
डाक के पत्र भी ‘जफर मंजिल’ लिखे पते पर ही मिलते थे. वही नाम घर की पहचान थी.
मां का बस चलता तो वे उस पत्थर को उखड़वा देतीं. डाकखाने में नए बदले नाम की अरजी डलवा देतीं. उन्होंने तो नाम भी सोच रखा था, ‘कराची कुंज’. लेकिन तब आर्थिक हालात इतने खराब थे कि एक पत्थर उखड़वा कर नया लगवाना महल खड़ा करने के समान था. फिर भी मां को यह उम्मीद थी कि भविष्य में वे यह काम अवश्य करेंगी. जबतब वे इस बात की चर्चा करती रहती थीं.
मां को भले ही घर का मुसलमानी नाम पसंद न हो पर आज सोचती हूं तो लगता है कि कैसेकैसे तो अचरज थे उस घर में. छोटी मुंडेर वाली लंबी छत पर दादी द्वारा बिखेरे चुग्गे पर कैसे झुंड के झुंड पंछी उमड़ते थे.
ऊंची दीवारों वाली बड़ी चौकोर छत गरमियों की रातों में सोने के काम आती. चांदनी रातों में पूरी की पूरी छत धवल दूध का दरिया बन जाती. मां, दादी की कहानियों पर हुंकारे भरते हम नींद के सागर में गुम हो जाते. अमावस्या की यहां से वहां तक तारे ही तारे.
कहां गुम हो गए वे सारे के सारे सुग्गे और सितारे?
अपने नाम के अनुरूप ‘जफर मंजिल’ के पूर्व मालिक मुसलमान ही थे. असल में यह पूरा पाड़ा ही मुसलमानों का था. गली के सब घरों में मुसलमान रहते थे जो विभाजन के वक्त पाकिस्तान पलायन कर गए. गली के एक घर में अब भी एक बुजुर्ग मुसलमान दंपती रहते थे. बाकी खाली पड़े घर, सरकार द्वारा पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को दिए गए.
पिताजी को भी यह मकान क्लेम में मिला था. वे भी शरणार्थी थे. बचपन में बारबार सुने ‘क्लेम’ शब्द का अर्थ मैं बहुत बाद में कुछ बड़ी होने पर ही जान पाई. बंटवारे की भागमभाग में पीछे छूट गई धनसंपत्ति के बदले में शरणार्थियों ने मुआवजे की मांग की थी. आवश्यक औपचारिकताएं पूरी होने पर किसी को ‘क्लेम’ में मकान मिला तो किसी को दुकान और किसी को कुछ भी नहीं.
अब किस के पीछे क्या छूटा, इस का हिसाब भी कैसे रखा जाता? यहां तो पूरी की पूरी सभ्यता और संस्कृति ही छूट गई थी. बंटवारे की आग में कितना कुछ भस्म हो चुका था. मुआवजे का उचित अनुमान असंभव था.
माटी की गंध और आकाश के रंग तो अनमोल थे पर कराची की कोठियों, नवाब शाह की हवेलियों, लहलहाती फसलों के बदले एक घर तो मिला. सिर को छत और पैरों को जमीन मिली तो नई जगह पर नए सिरे से रचनेबसने का संघर्ष आरंभ हो गया.
विभाजन की बात पर पहले तो किसी को विश्वास ही न हुआ था. उसे एक अजब अनोखी अफवाह ही माना गया. ‘बंटवारा…? क्यों भला…? और…और… हम क्यों छोड़ें अपनी धरती, अपनी जमीन…अपने घर…कोई ठिठोली है क्या…’ इतिहास की इस करवट पर सब हतप्रभ, हैरान थे. भूगोल की नई सीमाएं बहुतों को स्वीकार न थीं. बात जब तक पूरी समझ में आती, काफी देर हो चुकी थी.
धर्मांधता की वीभत्सता ने उन्हें कहीं का न छोड़ा. विभाजित सिंधपंजाब, बंगाल के निवासी भागे भी तो जान हथेली पर रख कर.
रक्तपात के रेलों को लांघते, आग के दरिया को फलांगते, कहां से कहां चले और कहां आ निकले.
‘आजादी अहिंसा से पाई’ का कथन उन्हें हास्यास्पद लगता. इतनी मारकाट, खून- खराबा. वह क्या हिंसा न थी? इस से तो अच्छा था कि मिल कर अंगरेजों से भिड़ जाते, देश को टुकड़ाटुकड़ा होने से बचाते और मर भी जाते तो शहीद कहलाते.
शरणार्थी शिविरों के हालात बुरे थे. प्रत्येक परिवार अपने किसी न किसी सगेसंबंधी के लिए कलप रहा था. कहीं कोई लापता था तो कहीं किसी को मर कर भी अग्नि न मिली थी. हर हृदय में हाहाकार था. कोई आखिर कितना रोता, कितना मातम करता. रुदन और मातम के बीच भी जीवनसंघर्ष जारी रहा.
ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बीच मां की सब से छोटी बहन बीमार पड़ गईं और उचित उपचार के अभाव में चल बसीं. अफरातफरी और भगदड़ में उन की मां और छोटे इकलौते भाई ऐसे लापता हुए कि बरसों बाद ही उन का सुराग मिला. तब तक जीवन कितना आगे निकल गया था. सबकुछ कितना बदल गया था.
पीछे छूट गई धनसंपत्ति, वैभवविलास के लिए मां कभी न तड़पीं. सब आजादी के हवन में होम हो गया. स्वतंत्रता पाना सरल तो नहीं. स्वराज के लिए कोई क्या कुछ नहीं करता. हम ने भी किया. छोटा सा बलिदान ही तो दिया पर धर्म के नाम पर मिले मानसिक दुखदर्दों ने उन्हें विक्षिप्त सा कर दिया. मुसलमानों के प्रति उन के मन में घनघोर कटुता घर कर गई. ‘कैसा छल? कितना बड़ा धोखा? कैसे कर सके वे इतना सबकुछ…?’
चार सगेसंबंधी जहां जुड़ कर बैठते, बस, वतन को याद करते. पीछे छूट गई हवा, पानी और मिट्टी की बात करते. फिर उन सुमधुर स्मृतियों के साथ अनायास ही आ जुड़ते बंटवारे के अत्याचारों के कटुकठोर अनुभव और बतकही की बैठक सदा ही आंसुओं से भीग जाती.
विभाजन के समय की इन वारदातों को सुन कर हमारे मन भी मैले हो गए. दिलों में दहशत सी बैठ गई. राह चलते दूर से बुरके वाली दिख जाए तो दिल बैठ जाता. गली में आतेजाते अगर कोई मुसलमान दिख जाए तो छक्के छूट जाते.
घर से निकलने से पहले झांक कर सुनसान गली को भलीभांति निरखपरख लेती. छड़ी टेकते मियांजी दिख जाएं तो झट से द्वार के ओट में हो जाती. उन के घर के सामने से निकलती तो चाल में अतिरिक्त तेजी आ जाती. हर बार लगता, इस मुसलमानी घर से दो हाथ निकल कर मेरी गरदन धरदबोचेंगे, मुझे खींच कर घर के अंदर कर लेंगे.
हमारे घर से सटी एक बड़ी पुरानी मसजिद भी थी, जिस का फाटक मुख्य सड़क पर था. गली की तरफ का छोटा सा द्वार सदा ही बंद रहता था. ‘जफर मंजिल’ और मसजिद की साझा दीवार बहुत ऊंची तथा खूब मोटी और मजबूत थी, जिस से इधरउधर की गतिविधियों का तनिक भी आभास न होता था.
हां, गरमियों के दिनों में जब बाहर आंगन में अथवा छत पर सोना होता, तो सवेरे की पहली अजान पर दादी की आंख खुल जाती, जागते ही वे आदत के अनुसार ‘जप-जी साहिब’ जपने लगतीं. उन के जाप से पिताजी जाग जाते और पौधों में पानी डालने के लिए निकल पड़ते.
दशक बीत गए. वह घर, वह गली, वह नगर तो कब का कहीं छूट गया पर वे ध्वनियां मन में आज भी प्रतिध्वनित होती हैं. जब कभी सुबह जल्दी जाग जाऊं तो अंतस से उठती ‘ओमओंकार’ और ‘अल्लाह’ की आवाजों से चकित, रोमांचित हो पुराने माहौल में खो जाती हूं.
एक दिन सुबहसवेरे मुख्यद्वार पर लटकी लोहे की सांकल खूब जोर से खड़की. हम सब स्कूल जाने की तैयारी में थे. मां रसोईघर में व्यस्त थीं. आंगन में दादी मेरी चोटी बांध रही थीं. कोने में नल पर छोटा भाई नहा रहा था. द्वार पिताजी ने खोला. दूर से मियांजी दिखे. दादी चौंकीं. चोटी बनाते उन के हाथ रुक गए. मियांजी ने पिताजी से कुछ कहा और पिताजी ने गलियारे में रखी साइकिल उठाई और तुरंत गली में निकल गए.
पिताजी मां अथवा दादी को बिना कुछ बताए बाहर निकल जाएं, यह अनहोनी थी.
‘क्या हुआ…? क्या हुआ…’ कहते दादी दौड़ पड़ीं. पर वे जब तक दरवाजे तक पहुंचीं, पिताजी गली लांघ चुके थे.
मियांजी ने ही बताया कि उन की बेगम गुजर गई हैं. वे चूंकि घर में अकेले थे, इसलिए पिताजी, अगले महल्ले में उन के नातेरिश्तेदारों को खबर करने गए हैं. यह कह कर मियांजी तो लाठी टेकते चलते बने और दादी सकते में आ गईं. मां को भी जैसे काठ मार गया, बच्चे सहम गए. मैं अधबनी चोटी हाथ में पकड़े बैठी थी. कुछ वक्त तक सब खामोश, बेचैन…
देखते ही देखते सामने वाली गली से, रिश्ते की दादियां, चाचियां, ताइयां दौड़ी चली गईं, ‘मुसलमानी बस्ती में गया है… वह भी अकेला…मत मारी गई है रामचंद्र की…इतना सब देखसुन कर भी क्या सीखा…? ये आजकल के लड़के भी न…’ इस चिंता उत्तेजना ने सब को बेहाल बना दिया. आधा घंटा आधे युग से भी लंबा निकला. ज्यों ही गली में पिताजी की साइकिल मुड़ी सब की जान में जान लौटी.
पिताजी अपने साथ साइकिल पर ही किसी को लिवा लाए थे…और यह क्या? उस के साथ ही पिताजी भी मियांजी के मकान में चले गए. घर में फिर से हल्लाहड़कंप मच गया. मियांजी से मातमपुर्सी कर पिताजी आए तो सीधा गुसलखाने में घुस गए और घर वालों की बमबारी से बचने के लिए खूब देर तक नहाते रहे.
अगले कई दिनों तक गली में काले बुरके वाली औरतें और गोल टोपी वाले मर्दों का आनाजाना लगा रहा फिर धीरेधीरे सबकुछ पहले जैसा सुनसान हो गया.
उस दिन आंगन में शाम की बैठक थी. बीते दिनों की बातों के बीच वर्तमान के संघर्ष को सुना जा रहा था. आने वाले समय के सपनों को बुना जा रहा था.
इसी बातचीत के बीच बाहर की कुंडी खड़की. पिताजी ने द्वार खोला. बाहर मियांजी खड़े थे. औपचारिकता कहती थी कि उन्हें बाहर की बैठक में बिठाया जाए पर पिताजी अपने उदार स्वभाव के अनुसार उन्हें अंदर आंगन में ही लिवा लाए.
आदाबनमस्कार के बाद उन्हें बैठने के लिए पीढ़ा दिया गया. एक अनजान के अकस्मात प्रवेश से सभा में सन्नाटा छा गया. सब शांत और असहज हो उठे.
मौन मियांजी ने ही तोड़ा, ‘असल में मैं आप सब का शुक्रिया अदा करने आया हूं…आड़े वक्त में आप की बड़ी मदद मिली…’ अब इस का कोई क्या जवाब देता. पल भर की खामोशी के बाद मियांजी ने ही जोड़ा, ‘शुक्रिया के साथ अलविदा कहना भी जरूरी है… मेरा दानापानी भी उठ गया है यहां से…’
शिष्टाचार का तकाजा था कि उत्सुकता जताई जाए सो दादाजी ने पूछ ही लिया, ‘क्यों…क्यों…मियांजी, कहां जा रहे हैं आप…?’
‘अब और कहां जाऊंगा बिरादर… पाकिस्तान जो बना है मेरी खातिर…’ अब सन्नाटा और भी गाढ़ा हो गया.
मौन को फिर मियांजी ने ही तोड़ा, ‘मेरे चारों बेटेबहू, दोनों बेटीदामाद, एकएक कर पाकिस्तान चले गए. हर बार उन की जिद रही कि हम भी साथ जाएं पर वतन छोड़ने के नाम से ही मेरी रूह फना होती है. दिल बैठ जाता है. चाहेअनचाहे, एकएक कर गली के सारे संगीसाथी भी चले गए. फिर भी नसरीन साथ थी तो हम एकदूसरे के सहारे जिद पर जमे रहे…पर अब क्या करूं…उस ने तो अपनी मिट्टी पा ली पर मेरी मिट्टी देखिए…? इस उम्र में वतन छोड़ने की जिल्लत भी झेलनी थी…अपने जफर भाई भी खूब रोए थे यह घर, यह गली छोड़ते वक्त…यहीं इसी जगह उन्हें भी आखिरी सलाम कहा था…’ कहतेकहते मियांजी का गला रुंध गया.
यहां तो पहले से ही सब लोग व्याकुल थे. साझे दुख ने सीधा दिलों पर वार किया. दिलासा देना तो दूर किसी से कुछ भी बोलते न बना. सब एकदूसरे से आंखें चुराने लगे.
सिमरनी फेरती दादी का हाथ अचानक ही तीव्र हो गया. दादाजी यों ही खांसे. आंचल के छोर से आंखें पोंछती मां रसोई में चली गईं.
कुछ ही देर में मां, मटके के पानी में नीबू और चीनी घोल लाईं. गला गीला करने के बाद ही फिर बोलनेबतियाने की स्थिति बनी.
कुछ देर बाद छड़ी के सहारे मियांजी उठ खड़े हुए. जाने को पलटे तो उन के ठीक पीछे मैं बैठी थी, ‘अरे, तुम्हें तो अकसर देखता हूं गली में आतेजाते… स्कूल जाती हो…’
‘जी…’ मैं खड़ी हो गई. नमस्कार में हाथ जोड़ दिए.
‘खुश रहो… खुश रहो…’ उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया.
‘खूब पढ़ना…वतन का नाम करना…’ कह कर उन का हाथ थर्राया और आवाज भर्रा गई.
इस बात को बरस नहीं दशक बीत गए पर उस कमजोर जर्जर हाथ की वह थरथराहट आज भी ज्यों की त्यों मेरे दिल पर धरी है.
उस छोटी उमर में उस कंपन का अधिक अर्थअनुमान भी न लगा पाई पर बीतते बरसों के साथ थरथराहट तेज से तेज होती गई है.
वतन के मोह में वे व्याकुल थे और उन का वतन तो बस अब छूटा जा रहा था…कोई उपाय न था…उन की अपनी धरती, उन के सामने द्विखंडित लहूलुहान पड़ी थी…उन्हें तो अब जाना ही होगा…
वह धुंधली धूसर शाम हमारे जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुई.
मियांजी से उस मुलाकात के बाद मन के कितने ही भय, भ्रम मिट गए. सूनी गलियों और भीड़ भरी सड़कों का आतंक समाप्त हो गया. एक धर्म विशेष के प्रति दुराग्रह जाता रहा. मां ने भी फिर कभी ‘जफर मंजिल’ का नाम बदलने की बात न छेड़ी.
‘‘तो चलो, आज इस मेकओवर पर आइसक्रीम तो बनती है, डिनर के बाद सब ‘कूल कैंप’ चलेंगे.’’
‘‘वाह पापा, वैरी गुड.’’
चारों हंसीखुशी आइसक्रीम खा कर घर लौटे. नंदिनी हैरान थी. अपने मन के बदलाव
पर, पहले वह तीनों की हर बात पर चिढ़ती, झुंझलाती रहती थी. पर अब कल से उसे सब कुछ कितना अच्छा लग रहा था. यह क्या हो गया? उस के खुश रहते ही घर में भी एक अलग माहौल था. तो क्या सिर्फ उस के कुढ़ते रहने से, शिकायत करते रहने से माहौल में उदासीनता आती जा रही थी? अपने मन की उदासी, जीवन में आई नीरसता के लिए वह स्वयं दोषी थी?
अपने जीवन में फैली बोझिलता के लिए उस का मन उसे ही जिम्मेदार ठहरा रहा था. वह क्यों इन तीनों से शिकायतों में ही अपनी ऊर्जा नष्ट करती रहती? वह खुश रहने के लिए किसी पर निर्भर क्यों है? पता नहीं क्याक्या सोचते हुए घर आ गया.
अब नंदिनी का यही रूटीन रहने लगा. मौका मिलते ही वह दूरबीन उठा लेती. फूलों की मोहक खुशबू की आड़ में दूरबीन की आंखों से देखती. उस हीरोहीरोइन के नएनए मादक रोमांस की साक्षी थी वह. उन का नयानया प्यार उसे भी पुराने दिनों में ले गया था, जब उस ने विपिन के साथ नया जीवन शुरू किया था. वह उन के वर्तमान को देख कर अपना अतीत फिर जीने लगी थी.
वह अचानक अपने दिल में वही उत्साह, वही रोमांच, वही रोमांस महसूस करने लगी थी. विपिन के टूर पर जाने पर अब वह कलपती नहीं थी, विपिन के टूर पर जाने पर कभी सोनी के साथ मूवी देख आती, कभी दोनों बच्चों के साथ लंच पर चली जाती थी.
मांबेटी वाले फ्लैट में मांबेटी को खुश देख उसे बहुत अच्छा लगता. अंदाजा लगाती पता नहीं दोनों का कोई भी या नहीं. क्यों अकेली हैं दोनों? इन के साथ क्या हुआ होगा? उन के बारे में बहुत कुछ सोचती नंदिनी. अब उस का दिन कब बीत जाता था उसे पता ही नहीं चलता था.
अब सामने वाली बिल्डिंग में और लोग भी आ रहे थे. खाली फ्लैट्स धीरेधीरे भर रहे थे. दूरबीन आंखों पर लगाए अब टाइमपास करते नंदिनी को 4 महीने हो रहे थे. हीरोहीरोइन के रोमांस में तो उसे जीवन का सारा थ्रिल लगता, उन्हें देखदेख कर ही तो वह बदलती चली गई.
मगर एक दिन सुबह 11 बजे ही उसे बहुत बड़ा झटका लगा. वह जैसे अपने सपनों की दुनिया से यथार्थ के कठोर धरातल पर आ गिरी. दूरबीन पकड़े हाथ कांप से गए. हीरोहीरोइन फ्लैट खाली कर रहे थे. नीचे रोड पर खड़ा ट्रक भी उसे दिखाई दे गया. सामान पैक करने वालों की ड्राइंगरूम में बहुत हलचल थी, जो साफ दिख रही थी.
यह क्या? नंदिनी को अपनी आंखों की नमी दिल में उतरती महसूस हुई. वह कितना जुड़ गई थी उन से. वे दोनों तो कभी जान भी नहीं जाएंगे कि कोई उन्हें खुश देख कर खुश रहने लगा था. उफ अब ये जा रहे हैं. फिर वही उदासी, वही बोरिंग रूटीन. नंदिनी को पूरा दिन चैन नहीं आया. वह दूरबीन लिए अंदरबाहर बेचैन सी चक्कर काटती रही.
शाम होतेहोते ट्रक सामान भर कर चला गया. उस के हीरोहीरोइन भी कार से चले गए. नंदिनी दूरबीन अपनी गोद में रख कर सिर दीवार से टिका कर गुमसुम बैठी रह गई.
शाम को नंदिनी का उतरा चेहरा घर में सब ने नोट किया. वह खराब तबीयत का बहाना बन कर बिस्तर में जल्दी लेट गई. उस के 3-4 दिन बेहद उदास बीते. सामने वाली मांबेटी सुबह की गईं शाम को ही आती थीं. प्रणयलीला में डूबे हीरोहीरोइन याद आते. अब उस के जीवन में फिर वही नीरसता थी, फिर वही बोझिलता. 15 दिन उस ने दूरबीन को हाथ भी नहीं लगाया.
फिर एक दिन नंदिनी स्टूल पर बैठी सामने वाले फ्लैट्स पर अपनी दूरबीन दौड़ा रही थी. अधिकतर घरों के परदे खिंचे थे. अचानक उस का मन झूम उठा. हीरोहीरोइन वाला फ्लैट शायद 2-3 लड़कों ने शेयर कर के ले लिया था.
3 हैंडसम लड़के घर ठीक करने में व्यस्त थे. एक परदे टांग रहा था. एक के हाथ में शायद कोई कपड़ा था. वह शायद डस्टिंग कर रहा था. तीसरा सफेद टीशर्ट और ब्लैक शौर्ट्स पहने बालकनी में कपड़े सुखा रहा था और उस के बराबर वाले फ्लैट की बालकनी में एक युवा लड़की पौधों में पानी डाल रही थी. वह बारबार उस कपड़े सुखाते लड़के को देख रही थी.
नंदिनी मुसकरा उठी. उस ने लड़के को ध्यान से देखा. वह भी उस लड़की को देख कर मुसकरा उठा था. वाह, यहां तो एक लवस्टोरी भी शुरू हो गई. अब तो मजा आएगा, वाह, दोनों एकदूसरे को देख रहे हैं. मतलब शिफ्ट करते ही रोमांस शुरू.
तभी अचानक एक वृद्ध महिला ने बालकनी में आ कर लड़की से कुछ कहा. यह शायद उस की नानी, या दादी होंगी. लड़की ने फौरन लड़के की तरफ पीठ कर ली. लड़का भी फौरन अंदर चला गया. महिला कुछ देर पौधों को देखती रही, फिर वे भी अंदर चली गईं. काफी दिनों बाद दूरबीन अपनी अलमारी में रखते हुए नंदिनी फिर गुनगुना रही थी.
लेखिका- नलिनी शर्मा
शलभ ने अपने नए मकान के बरामदे में आरामकुरसी डाली और उस पर लेट गया. शरद ऋतु की सुहानी बयार ने थपकी दी तो उस की आंख लग गई. तभी बगल वाले घर से स्त्रीपुरुष के लड़ने की तेज आवाज आने लगी. जब काफी देर तक पड़ोस का महाभारत बंद नहीं हुआ तो उस ने पत्नी को आवाज लगाई.
‘‘रमा, जरा देखो तो यह कैसा हंगामा है…’’
पत्नी के लौटने की प्रतीक्षा करते हुए शलभ सोचने लगा कि अपनी ससुराल के रिश्तेदारों से त्रस्त हो कर शांति और सुकून के लिए वह यहां आया था. बड़ी दौड़धूप करने के बाद दिल्ली से वह मेरठ में ट्रांसफर करवा सका था. उसे दिल्ली में पल भर भी एकांत नहीं मिलता था. रोज ही दफ्तर जाने के पहले व शाम को दफ्तर से लौटने पर कोई न कोई रिश्तेदार उस के घर आ टपकता था.
तनाव के कारण 33 वर्ष की आयु में ही उस के बाल खिचड़ी हो गए थे. अपनी उम्र से 10 वर्ष बड़ा लगता था वह. नौकरी की टैंशन, राजधानी के ट्रैफिक की टैंशन, रोजरोज की भागमभाग, ऊपर से पत्नी के नातेरिश्तेदारों का दखल.
10 मिनट बाद रमा आते ही चहक कर बोली, ‘‘सरप्राइज है, तुम्हारे लिए. सुनोगे तो झूम उठोगे. बगल वाले घर में मेरी मुंहबोली बहन माला है. उस का 2 वर्ष पहले ही विवाह हुआ है.’’
शलभ का चेहरा मुरझा गया. उस के मुंह से अस्पष्ट सी आवाज निकली, ‘‘यहां भी… ’’
रमा आगे बोली, ‘‘नहीं समझे भई, मां की सहेली अनुभा मौसी की लड़की है यह. इस के विवाह में मैं नहीं जा पाई थी. अपना दीपू पैदा हुआ था न. मैं वहीं से अनुभा मौसी से फोन पर बात कर के आ रही हूं. कह दिया है मैं ने कि माला की जिम्मेदारी मेरी…’’
और सुनने की शक्ति नहीं थी शलभ में. पत्नी की बात काट कर उस ने विषैले स्वर में पूछा, ‘‘तो वही दोनों इतनी बेशर्मी से झगड़ रहे थे… ’’
आग्नेय नेत्रों से पति को घूरते हुए रमा बोली, ‘‘दोनों पैसे की तंगी से परेशान हैं. भलीचंगी नौकरी थी दोनों के पास. माला की कौलसैंटर में और महेश की एक प्राइवेट कंस्ट्रक्शन कंपनी में. माला देर से घर लौटती थी इसलिए महेश ने उस की नौकरी छुड़वा दी. माला के नौकरी छोड़ते ही महेश की कंपनी भी अचानक बंद हो गई. 2 माह से बेचारों को वेतन नहीं मिला है… मैं ने फिलहाल 10 हजार रुपए देने का वादा…’’
चीख पड़ा शलभ बीच में ही, ‘‘बिना मुझ से पूछे किसी भी ऐरेगैरे को…’’
‘‘ऐरीगैरी नहीं, मेरी मौसी की बेटी है वह…’’ रमा दहाड़ी.
‘‘तो तुम्हारी मौसी क्यों नहीं…’’ बोलतेबोलते रुक गया शलभ. सामने गेट के अंदर प्रवेश कर रहा था एक अत्यंत सुंदर, आकर्षक सजाधजा जवान जोड़ा. दोनों एकदूसरे के लिए बने दिख रहे थे. शलभ ठगा सा उन्हें देखने लगा.
तभी रमा ऊंचे सुर में चिल्लाई, ‘‘आओ, माला, महेश…’’
अपने शांत जीवन में अनाधिकार प्रवेश कर के खलल उत्पन्न करने वाले इस खूबसूरत जोड़े को नापसंद नहीं कर सका शलभ. सौंदर्य निहारना उस की कमजोरी थी. चायपानी के बाद माला धीरे से बोली, ‘‘दीदी… आप ने पैसे…’’
‘‘हांहां,’’ कहते हुए रमा ने रखे 10 हजार रुपए ला कर माला को दे दिए.
रुपए मिलते ही दोनों हंसते हुए गेट से बाहर हो गए और स्कूटर पर फौरन फुर्र हो गए. शाम को दोनों देर से लौटे और आते ही सीधे रमा के पास आ गए.
घर में प्रवेश करते ही माला सोफे पर पसर गई और बोली, ‘‘खाना हम दोनों यहीं खाएंगे. बिलकुल हिम्मत नहीं है कुछ करने की. बहुत थक गई हूं मैं…’’
‘‘कहां थे तुम दोनों अभी तक ’’ उत्सुकता से पूछा रमा ने.
‘‘पूरा समय ब्यूटीपार्लर में निकल गया,’’ चहक उठी माला, ‘‘पैडीक्योर, मैनीक्योर, फेशियल, हेयर कटिंग, सैटिंग व बौडी मसाज…’’
‘‘तुम तो वैसे ही इतनी सुंदर हो. तुम्हें इन सब की क्या जरूरत है बहुत पैसे खर्च हो गए होंगे…’’ मरी सी आवाज निकली रमा के मुख से.
‘‘कुछ ज्यादा नहीं, बस 15 सौ रुपए ही लगे हैं,’’ लापरवाही से अपने खूबसूरत केशों को झटका देते हुए बोली माला, ‘‘मैंटेन न करो तो अच्छाखासा रूप भी बिगड़ जाता है. अपनी ओर तो तनिक देखो दीदी, क्या हुलिया बना रखा है आप ने आप के रूप की मिसाल तो मां आज तक देती हैं. ऐसा लगता है कि आप ने कभी पार्लर में झांका तक नहीं है. या तो पैसा बचाओ या रूप… पैसा तो हाथ का मैल है. आज है कल नहीं…’’
शलभ की सहनशक्ति जवाब दे गई. उस ने कटाक्ष किया, ‘‘क्या महेश भी दिन भर ‘मैंस पार्लर’ में था ’’
‘‘नहींनहीं,’’ बोली माला, ‘‘उसे कहां फुरसत थी. तमाम बिल जो जमा करने थे. घर का किराया, बिजली का बिल, टैलीफोन का बिल…’’
घबरा गई रमा, ‘‘तब तो पूरे 10 हजार…’’
‘‘हां, पूरे खत्म हो गए. अभी दूध वाले का बिल बाकी है. साथ में रोज का जेब खर्च,’’ बेहिचक माला बोली.
शलभ क्रोध से मन ही मन बुदबुदाया, ‘हाथ में फूटी कौड़ी नहीं, अंदाज रईसों के…’
पति का क्रोधित रूप देख कर रमा घबरा कर बोली, ‘‘माला, तुम थकी हो दिन भर की. जा कर आराम करो. मैं आती हूं…’’
माला के जाते ही शलभ के अंदर दबा आक्रोश ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा, ‘‘कहीं नहीं जाओगी तुम. तुम्हारे रिश्तेदारों से बच कर मैं यहां आया था सुकून की जिंदगी की तलाश में. लेकिन आसमान से गिरा खजूर में अटका.’’
पति से नजरें बचा कर रमा चुपके से 1 हजार रुपए और दे आई माला को और साथ में शीघ्रातिशीघ्र नौकरी ढूंढ़ने की हिदायत भी. उसे पता चला कि माला और महेश ने आसपास के कई लोगों से उधार लिया हुआ था. पैसा हाथ में नहीं रहने पर आपस में झगड़ते थे और पैसा हाथ में आते ही दोनों में तुरंत मेल हो जाता और हंसतेखिलखिलाते वे मौजमस्ती करने निकल पड़ते. स्कूटर में ऐसे सट कर बैठते मानो इन के समान कोई प्रेमी जोड़ा नहीं है. ऐसा लगता था कि उस समय झगड़ने वाले ये दोनों नहीं, कोई दूसरे थे. इन दोनों के आपसी झगड़े के कारण पड़ोसी भी 2 खेमों में बंट गए थे. कुछ माला का दोष बताते थे तो कुछ महेश का. इन दोनों का प्रसंग छिड़ते ही दोनों खेमे बहस पर उतारू हो जाते.
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लौट कर स्नान आदि कर के कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. बहू चाय का कप तिपाई पर रख गई थी. अचानक उन्होंने बाईं ओर छाती को अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उन के चेहरे पर गहरी पीड़ा की लकीरें फैलती गईं और शरीर पसीने से तर हो गया.
उन के कराहने का स्वर सुन कर सभी दौड़े आए थे पर मृत्यु ने डाक्टर को बुलाने तक की मोहलत न दी. देखते ही देखते वह एकदम शांत हो गए थे. यों लगता था जैसे बैठेबैठे सो गए हों पर यह नींद फिर कभी न खुलने वाली नींद थी.
शवयात्रा की तैयारी हो चुकी थी. बाहर रह रहे दोनों बेटों का परिवार, बेटियां व दामाद सभी पहुंच गए थे. बेटियों और छोटी बहू ने रोरो कर बुरा हाल कर लिया था. पत्नी की तो जैसे दुनिया ही वीरान हो गई थी.
शवयात्रा के रवाना होतेहोते लोगों की काफी भीड़ जुट गई थी. बेटे यह देख कर हैरान थे कि इस अंतिम यात्रा में शामिल बहुत से चेहरे ऐसे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी न देखा था. पिता के कोई लंबेचौड़े संपर्क नहीं थे. तब न जाने यह अपरिचित लोग क्यों और कैसे इस शोक में न केवल शामिल होने आए थे बल्कि वे गहरे गम में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे.
क्रियाकर्म के बाद दोनों बड़े बेटेबहुएं और बेटियां विदा हो गए. अंतिम रस्मों का सारा व्यय छोटे बेटे ने ही उठाया था, क्योंकि बड़ों का कहना था कि पिता की कमाई तो वही खाता रहा है.
मेहमानों से फुरसत पा कर छोटे बहूबेटे का जीवन धीरेधीरे सामान्य होने लगा. बेटे के आफिस चले जाने के बाद घर में बहू व सास प्राय: उन की बातें ले बैठतीं और रोने लगतीं, फिर एकदूसरे को स्वयं ही सांत्वना देतीं.
कुछ ही दिन बीते थे. रविवार को सभी घर पर थे. किसी ने दरवाजा खटखटाया. बेटे ने द्वार खोला तो एक अधेड़ उम्र के सज्जन को सामने पाया. बेटे ने पहचाना कि पिताजी की शवयात्रा में वह अनजाना व्यक्ति आंसू बहाते हुए चल रहा था.
‘‘आइए, अंकल, अंदर आइए, बैठिए न,’’ बेटे ने विनम्रता से कहा.
‘‘तुम मुझे नहीं जानते बेटा, तुम मुझ जैसे अनेक लोगों को नहीं जानते, जिन के आंसुओं को तुम्हारे पिताजी ने हंसी में बदला, उन की गरीबी दूर की.’’
‘‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, अंकल…आप…’’ बेटा बोला.
‘‘मैं तुम्हें समझाता हूं बेटे. 10 साल पहले की बात है. तुम्हारे पिता दफ्तर जाते हुए कभीकभी मेरे खोखे पर एक कप चाय पीने के लिए रुक जाते थे. मैं एक टूटे खोखे में पुरानी सी केतली में चाय बनाता और वैसे ही कपों में ग्राहक को देता था. मैं खुद भी उतना ही फटेहाल था जितना मेरा खोखा. मेरे ग्राहक गरीब मजदूर होते थे क्योंकि मेरी चाय बाजार में सब से सस्ती थी.
‘‘तुम्हारे पिता जब भी चाय पीते तो कहते, ‘क्या गजब की चाय बनाते हो दोस्त, ऐसी चाय बड़ेबड़े होटलों में भी नहीं मिल सकती, अगर तुम जरा ढंग की दुकान बना लो, साफसुथरे बरतन और कप रखो, ग्राहकों के बैठने का प्रबंध हो तो अच्छेअच्छे लोग लाइन लगा कर तुम्हारे पास चाय पीने आएं.’
‘‘मैं कहता, ‘क्या कंरू बाबूजी, घरपरिवार का रोटीपानी मुश्किल से चलता है. दुकान बनाने की तो सोच ही नहीं सकता.’
‘‘और एक दिन तुम्हारे पिताजी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में आए और बोले, ‘लो दोस्त, तुम्हारे लिए एक दुकान मैं ने अगले चौक पर ठीक कर ली है. 3 माह का किराया पेशगी दे दिया है. उस में कुछ फर्नीचर भी लगवा दिया है और क्राकरी, बरतन भी रखवा दिए हैं. रविवार को सुबह 8 बजे मुहूर्त है.’
‘‘मैं उन की बातें सुन कर हक्काबक्का रह गया. उन की कोई बात मेरी समझ में नहीं आई थी तो उन्होंने सीधेसादे शब्दों में मुझे सबकुछ समझा दिया. शायद यह बात आप लोग भी नहीं जानते कि वह अपनी नौकरी के साथसाथ ओवरटाइम कर के कुछ अतिरिक्त धन कमाते थे.
‘‘उन्होंने मुझे बताया कि ओवरटाइम की रकम वह बैंक में जमा कराते रहते थे. मेरी दुर्दशा को देख कर उन्होंने योजना बनाई थी और वह कई दिनों तक मेरे खोखे के आसपास किसी उपयुक्त दुकान की तलाश करते रहे और आखिर उन की तलाश सफल हो गई. वह दुकान को पूरी तरह तैयार करवा कर मुझे बताने आए थे कि अगले रविवार मुझे अपना काम वहां शुरू करना है.
‘‘अगले रविवार को मेरी उस दुकान का मुहूर्त हुआ तो बरबस मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं उन के चरणों में झुक गया. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि किन शब्दों में मैं उन का धन्यवाद करूं. उन्होंने तो मेरे जीवन की काया ही पलट दी थी.
‘‘एक दिन मुझे एक बैंक पासबुक पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं ने यह सब तुम्हारे उपकार के लिए नहीं किया. इस में मेरा भी स्वार्थ है. नई दुकान पर तुम्हें जितना भी लाभ होगा, उस का 5 प्रतिशत तुम स्वयं ही मेरे इस खाते में जमा कर दिया करना.
‘‘उन के आशीर्वाद ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मेरी दुकान दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती गई और आज वह दुकान एक शानदार रेस्तरां का रूप ले चुकी है. मैं और मेरा बेटा तो अब उस का प्रबंध ही देखते हैं. आज तक नियमित रूप से मैं लाभ का 5 प्रतिशत इस पासबुक में जमा करा रहा हूं.
‘‘इसी तरह एक बूढ़ा सिर पर फल की टोकरी उठाए गलीगली भटक कर अपनी रोजीरोटी चलाता था. बढ़ती उम्र के साथ उस का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि टोकरी का वजन सिर पर उठाना उस के लिए कठिन होने लगा था. एक दिन इसी तरह केलों की टोकरी उठाए जब वह बूढ़ा चिलाचिलाती धूप में घूम रहा था तो संयोग से तुम्हारे पापा पास से गुजरे थे. सहसा बूढ़े को चक्कर आ गया और वह टोकरी समेत गिर गया.
‘‘तुम्हारे पापा उसे सहारा दे कर फौरन एक डाक्टर के पास ले गए और उस का उपचार कराया. उस के बाद उस बूढ़े ने उन्हें बताया कि वह 600 रुपए मासिक पर एक अमीर आदमी के लिए फल की फेरी लगाता है, जिस ने इस तरह के और भी 10-15 लाचार लोगों को इस काम के लिए रखा हुआ है जो गलीगली घूम कर उस का फल बेचते हैं.
‘‘तुम्हारे पिताजी उस बूढ़े की हालत देख कर द्रवित हो उठे और मुझ से बोले, ‘मैं इस बुजुर्ग के लिए कुछ करना चाहता हूं, जरा मेरी पासबुक देना.’
‘‘कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक ऐसी रेहड़ी तैयार करवाई जो चलने में बहुत हलकी थी. रेहड़ी उस बूढ़े के हवाले करते हुए उन्होंने कहा था, ‘इस रेहड़ी पर बढि़या और ताजा फल सजा कर निकला करना. आप की रोजीरोटी इस से आसानी से निकल आएगी. काम शुरू करने के लिए यह 10 हजार रुपए रख लो और हां, मैं आप के ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहा हूं. अपने काम में आप को जो लाभ हो उस का 5 प्रतिशत श्यामलाल को दे दिया करना, ताकि यह मेरे खाते में जमा करा दे.’
‘‘100 करोड़…? यह तो बहुत ज्यादा?है. फिर मुख्यमंत्रीजी को भी तो हिस्सा देना है,’’ कंपनी वाला बोला.
‘‘हां तो डेढ़ सौ करोड़ उन को दे देना,’’ नेताजी के हाथों में अब तक असली विदेशी ह्विस्की का जाम आ चुका था.
‘‘पर, इतना पैसा बांटने के बाद तो ब्रिज की क्वालिटी 80 फीसदी तक कम हो जाएगी. अगर वह गिर गया, तो सारी जवाबदारी हमारी कंपनी की आ जाएगी. कई लोग मर जाएंगे सो अलग,’’ कंपनी वाला बोला.
‘‘अरे मूर्ख, तुम्हें बिजनैस करना भी हमें सिखाना पड़ेगा? इस ब्रिज को 10 अलगअलग भागों में बांट दो और 10 छोटेछोटे ठेकेदारों को काम दे दो. जब कभी ब्रिज गिरे तो इन ठेकेदारों के करार दिखा देना, जिस में लिखा होगा क्वालिटी. मतलब, क्वालिटी की जवाबदारी ठेकेदार की होगी. इस तरह से बिना फंसे तुम साफसाफ बच जाओगे.
‘‘दूसरा, जिस दिन ब्रिज बन कर तैयार हो, उसी दिन इस कंपनी को बंद कर परिवार के किसी और सदस्य के नाम पर नई कंपनी खोल लेना. जब पुरानी कंपनी वजूद में ही नहीं रहेगी, तो ऐक्शन कैसा और किस पर? तुम्हारी कमाई दूसरी कंपनी से इसी तरह से होती रहेगी.
‘‘रही लोगों के मरने की बात, तो जमीन पर रेंगने वाले कीड़े तो कुचल कर मरते ही हैं न? अगर जीना है, तो हवाईजहाज, हैलीकौप्टर में बैठो. न ब्रिज की जरूरत पड़ेगी, न सड़क की.
100-50 लोग मरेंगे, तो सहायता राशि का कुछ पैसा हम को भी मिलेगा न? हमारी कमाई पर क्यों कुंडली मारते हो?’’ नेताजी अब तक पूरे तौर पर सुरूर में आ गए थे.
‘‘तब तो डील पक्की,’’ कंपनी वाला आदमी भी जाम उठा कर बोला.
अदृश्य कुत्ता हैरान था, ‘हमारी बिरादरी का कोई भी प्राणी अगर किसी के यहां की रोटी का एक टुकड़ा भी खाता है, तो जीवनभर उस का कर्जदार व एहसानमंद रहता है.
‘उस के प्रति अपनी वफादारी की जिम्मेदारी मरते दम तक नहीं छोड़ता है. और यहां नेताजी लाखों लोगों का भरोसा इस तरह तोड़ रहे हैं, जैसे उन का इनसानियत से कोई संबंध ही नहीं है. देश की तरक्की की तरफ उन का कोई फर्ज ही नहीं है…’ यह सोचता हुआ कुत्ता बंगले के बाहर आ गया.
अब तक रात हो चुकी थी. कुत्ते को भूख भी लग आई थी. उसी इलाके में एक मशहूर ढाबा भी था. शहर से बाहर होने के कारण दारू पार्टी वाले लोग ही यहां पर ज्यादा आया करते थे. कुत्ते को अकसर ग्राहकों के द्वारा छोड़ी गई रोटियां और बोटियां यहां मिल जाया करती थीं. आज कुछ ताजा खाने की इच्छा से वह यहां आया.
‘‘सेठजी, 8 लोगों की पार्टी आई?है. वह चिकन मांग रही है,’’ नौकर ने सेठ को बोला.
‘‘तो दे दो न. क्या तकलीफ है?’’ सेठ बोला.
‘‘अब स्टौक में चिकन नहीं है. रात साढ़े 11 बजे कहां से इंतजाम करें?’’ नौकर बोला.
‘‘क्या सभी शराब पीए हुए हैं?’’ सेठ ने पूछा.
‘‘जी, टुन्न हैं,’’ नौकर बोला.
‘‘ठीक है. उन से कहो कि चिकन का इंतजाम हो रहा है और कुक बाबू भाई को मेरे पास भेजो,’’ सेठ ने आदेश दिया.
‘‘जी सेठजी,’’ बाबू भाई ने आ
कर कहा.
‘‘देखो बाबू भाई, चिकन खत्म हो गया है. तुम जानते हो कि तुम्हें क्या करना है,’’ सेठ बोला.
‘‘हां, सेठजी जानता हूं. जो हम बरसों से करते आ रहे हैं. आज शाम को ही ढाबे के पीछे वाले बच्चों के कब्रिस्तान में डेढ़ महीने के बच्चे की लाश को दफनाया है. उसे निकाल कर पका देता हूं,’’ बाबू भाई बोला.
‘‘शाबाश. मैं तुम्हारे लिए देशी दारू का इंतजाम करता हूं. जाओ, किचन के पिछले दरवाजे से निकल जाओ. तब
तक मैं इस बेवड़ा पार्टी को नकली विदेशी शराब आधी कीमत में पिला कर इन
का नशा और बढ़ाता हूं,’’ ढाबे का
मालिक बोला.
वह आवारा कुत्ता इस से आगे रुक कर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. वैसे भी दिनभर इस तरह की घटनाएं देखने और घूमते रहने के चलते वह काफी थक गया था. समय भी रात के 12 बज चुके थे.
ऐसे में उसे दूर के एक घर में रोशनी दिखाई दी. उसे याद आया कि यह तो वही घर है, जिस में 3 औरतें रहती हैं. उन के पहनावे से तो लगता था कि तीनों शायद किसी बड़े पद पर काम करती हैं. बड़ी गाड़ी, ड्राइवर सब हैं. घर में 3 औरतों के अलावा वहां कोई और आताजाता भी नहीं है.
‘यहां पर कम से कम भरपूर आराम तो मिल ही जाएगा,’ यही सब सोच कर वह कुत्ता उस घर में घुस गया.
बड़े से ड्राइंगरूम के बाद अंदर के कमरे में से तीनों औरतों के खिलखिला कर हंसने की आवाजें आ रही थीं. शायद टैलीविजन चल रहा था.
वह अदृश्य कुत्ता अंदर चला गया. वह यह देख कर हैरान रह गया कि अंदर बड़ा सा टैलीविजन किसी मोबाइल से जुड़ा हुआ था और बहुत ही गंदी फिल्म चल रही थी.
‘‘अरे, मजा आ गया. उजली क्या शानदार शूट किया है. एकएक ऐक्टिविटी और दोनों का चेहरा साफ नजर आ रहा है,’’ तीनों में से एक खुश होते हुए बोली.
‘‘बहुत बड़ा मंत्री बना फिरता है. फंस गया बेचारा चक्कर में. अब तो वह लाखोंकरोड़ों दे कर जाएगा. क्यों चमकी दीदी?’’ उजली नाम की इस औरत ने चमकी से पूछा.
‘‘हां…’’ तीसरी वाली औरत चहकते हुए बोली, जिस का नाम प्रभा था, ‘‘इस साल का यह छठा केस है.’’
‘‘इसे शूट करना बड़ा मुश्किल था. चेहरा ही नहीं दिखा रहा था. बहुत स्मार्ट बन रहा था. 3 अलगअलग जगह कैमरे लगाने का जुगाड़ करना पड़ा.
‘‘लड़की को भी हीरोइन बनाने के नाम पर यह सब करने के लिए मजबूर कर दिया. अब जब भी उसे बुलाएंगे, बदनामी के डर से तुरंत आ जाएगी. इसे कहते हैं बिना इन्वैस्टमैंट का हाई रिटर्न वाला बिजनैस,’’ चमकी बोली.
‘‘हमें तो दोनों तरफ से फायदा है. अगर मर्द होहल्ला करे, तो उसे रेपिस्ट बना कर पेश कर दो. बेचारा बुरी तरह से फंस जाएगा. वरना तो यह हनीट्रैप
तो है ही,’’ उजली शराब का घूंट लेते हुए बोली.
‘‘हमारे लिए तो मनीट्रैप है,’’ प्रभा सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए बोली.
कुत्ता बंगले से बाहर निकल गया. एक हफ्ता तो क्या वह एक घंटा भी और नहीं देख सकता था. अब उसे कुत्ता होना गाली नहीं लग रहा था, बल्कि फख्र महसूस कर रहा था.
जब वह कुत्ता प्रोफैसर वैज्ञानिक के घर पहुंचा तो पता चला कि कुछ भगवा गुंडों ने उन पर आक्रमण कर के उन की प्रयोगशाला को तोड़ दिया था, क्योंकि वे पंडों की पोल खोलते थे.
प्रोफैसर वैज्ञानिक अस्पताल में भरती थे. अब कुत्ता न जाने कब तक अदृश्य भटकता रहेगा.
‘‘वह बूढ़ा तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उसी रेहड़ी की कमाई से अब उस का बेटा एक बड़ी फल की दुकान का मालिक बन चुका है. वह भी अब तक नियमित रूप से लाभ का 5 प्रतिशत मेरे पास जमा कराता है, जिसे मैं तुम्हारे पिताजी की पासबुक में जमा करता रहता हूं. उस बूढ़े के बाद उन्होंने 7-8 वैसे ही दूसरे फेरी वालों को रेहडि़यां बनवा कर दीं जो अब खुशहाली का जीवन बिता रहे हैं और उन के लाभ का भाग भी इसी पासबुक में जमा हो रहा है.
‘‘इतना ही नहीं, एक नौजवान की बात बताता हूं. एम.ए. पास करने के बाद जब उस को कोई नौकरी न मिली तो उस ने पटरी पर बैठ कर पुस्तकें बेचने का काम शुरू कर दिया. एक बार तुम्हारे पिताजी उस ओर से निकले तो उस पटरी वाली दुकान पर रुक कर पुस्तकों को देखने लगे. यह देख कर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उस युवक ने घटिया स्तर की अश्लील पुस्तकें बिक्री के लिए रखी हुई थीं.
‘‘लालाजी ने जब उस युवक से क्षोभ जाहिर किया तो वह लज्जित हो कर बोला, ‘क्या करूं, बाबूजी. साहित्य में एम.ए. कर के भी नौकरी न मिली. घर में मां बिस्तर पर पड़ी मौत से संघर्ष कर रही हैं. 2 बहनें शादी लायक हैं. ऐसे में कुछ न कुछ कमाई का साधन जुटाना जरूरी था. अच्छी पुस्तकें इतनी महंगी हैं कि बेचने के लिए खरीदने की मेरे पास पूंजी नहीं है. ये पुस्तकें काफी सस्ती मिल जाती हैं और लोग किराए पर ले भी जाते हैं. इस तरह कम पूंजी में गुजारे लायक आय हो रही है.’
‘‘‘यदि चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ आर्थिक सहायता कर सकता हूं. यदि तुम वादा करो कि इस पूंजी से केवल उच्च स्तर की पुस्तकें ही बेचने के लिए रखोगे, तो मैं 40 हजार रुपए तुम्हें उधार दे सकता हूं, जिसे तुम अपनी सुविधानुसार धीरेधीरे वापस कर सकते हो. मेरा तुम पर कोई एहसान न रहे, इस के लिए तुम मुझे अपने लाभ का 5 प्रतिशत अदा करोगे.’
‘‘शायद तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे पिताजी द्वारा लगाया गया वह पौधा आज फलफूल कर कैपिटल बुक डिपो के रूप में एक बड़ा वृक्ष बन चुका है और शहर में उच्च स्तर की पुस्तकों का एकमात्र केंद्र बना हुआ है.
‘‘एक बार मैं ने तुम्हारे पिताजी से पूछा था, ‘बाबूजी, बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं?’
‘‘वह हंस कर बोले थे, ‘तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगा. तुम तो मेरे छोटे भाई हो. कहो, क्या बात है?’
‘‘‘आप ने बीसियों लोगों की जिंदगी को अंधेरे से निकाल कर उजाला दिया है. उन की बेबसी और लाचारी को समाप्त कर के उन्हें स्वावलंबी बनाया है पर आप स्वयं सदा ही अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते रहे हैं. कभी एक भी पैसा आप ने अपनी सुविधा या सुख के लिए व्यय किया हो, मुझे नहीं लगता. आखिर बैंक में जमा यह सब रुपए…’
‘‘और बीच में ही मेरी बात काट दी थी उन्होंने. वह बोले थे, ‘यह सब मेरा नहीं है, श्यामलाल. इस पासबुक में जमा एकएक पैसा मेरे छोटे बेटे और बहू की अमानत है. तुम्हें छोटा भाई कहा है तभी तुम से कहता हूं, मेरे बड़े बेटे और बहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर मेरे बुढ़ापे का सारा बोझ छोटे बेटे पर छोड़ कर दूसरे शहरों में जा बसे हैं और ये मेरे छोटे बच्चे दिनरात मेरे सुख और आराम की चिंता में रहते हैं. बहू ने तो मेरी दोनों बेटियों की कमी पूरी कर दी है. मेरा उस से वादा है श्यामलाल कि मैं उसे एक दिन उस की सेवा का पुरस्कार दूंगा. मेरी बात गांठ बांध लो. जब मैं न रहूं, तब यह पासबुक जा कर मेरी बहू के हाथ में दे देना और उन्हें सारी बात समझा देना. मैं ने अपनी वसीयत भी इस लिफाफे में बंद कर दी है जिस के अनुसार यह सारी पूंजी मैं ने अपनी बहू के नाम कर दी है. यही उस का पुरस्कार है.’’’
बहू की आंखों से गंगाजमुना बह चली थीं. श्यामलाल ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक लिफाफा और पासबुक उस के हाथों में थमा दिए. बहू रोतेरोते उठ खड़ी हुई और धीरेधीरे चल कर पिता की तसवीर के सामने जा पहुंची और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे. उस के मुख से केवल इतना ही निकला, ‘‘पापा…’’
उन्हें एक निष्ठावान तथा समर्पित कर्मचारी बताया गया और उन के रिटायरमेंट जीवन की सुखमय कामना की गई थी. अंत में कार्यालय के मुख्य अधिकारी ने प्रशासन तथा साथी कर्मचारियों की ओर से एक सुंदर दीवार घड़ी, एक स्मृति चिह्न के साथ ही रामचरितमानस की एक प्रति भी भेंट की थी. 38 वर्ष का लंबा सेवाकाल पूरा कर के आज वह सरकारी अनुशासन से मुक्त हो गए थे.
वह 2 बेटियों और 3 बेटों के पिता थे. अपनी सीमित आय में उन्होंने न केवल बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया बल्कि रिटायर होने से पहले ही उन की शादियां भी कर दी थीं. इन सब जिम्मेदारियों को ढोतेढोते वह खुद भारी बोझ तले दब से गए थे. उन की भविष्यनिधि शून्य हो चुकी थी. विभागीय सहकारी सोसाइटी से बारबार कर्ज लेना पड़ा था. इसलिए उन्होंने अपनी निजी जरूरतों को बहुत सीमित कर लिया था, अकसर पैंटशर्ट की जगह वह मोटे खद्दर का कुरतापजामा पहना करते. आफिस तक 2 किलोमीटर का रास्ता आतेजाते पैदल तय करते. परिचितों में उन की छवि एक कंजूस व्यक्ति की बन गई थी.
बड़ा लड़का बैंक में काम करता था और उस का विवाह साथ में काम करने वाली एक लड़की के साथ हुआ था. मंझला बेटा एफ.सी.आई. में था और उस की भी शादी अच्छे परिवार में हो गई थी. विवाह के बाद ही इन दोनों बेटों को अपना पैतृक घर बहुत छोटा लगने लगा. फिर बारीबारी से दोनों अपनी बीवियों को ले कर न केवल अलग हो गए बल्कि उन्होंने अपना तबादला दूसरे शहरों में करवा लिया था.
शायद वे अपने पिता की गरीबी को अपने कंधों पर ढोने को तैयार न थे. उन्हें अपने पापा से शिकायत थी कि उन्होंने अपने बच्चों को अभावों तथा गरीबी की जिंदगी जीने पर विवश किया पर अब जबकि वह पैरों पर खड़े थे, क्यों न अपने श्रम के फल को स्वयं ही खाएं.
हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं. उन का तीसरा बेटा श्रवण कुमार साबित हुआ और उस की पत्नी ने भी बूढ़े मातापिता के प्रति पति के लगाव को पूरा सम्मान दिया और दोनों तनमन से उन की हर सुखसुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास करते रहते थे.
सब से छोटी बहू ने तो उन्हें बेटियों की कमी भी महसूस न होने दी थी. मम्मीपापा कहतेकहते दिन भर उस की जबान थकती न थी. सासससुर की जरा भी तबीयत खराब होती तो वह परेशान हो उठती. सुबह सो कर उठती तो दोनों की चरणधूलि माथे पर लगाती. सीमित साधनों में जहां तक संभव होता, उन्हें अच्छा व पौष्टिक भोजन देने का प्रयास करती.
सुबह जब वह दफ्तर के लिए तैयार होने कमरे में जाते तो उन का साफ- सुथरा कुरता- पजामा, रूमाल, पर्स, चश्मा, कलम ही नहीं बल्कि पालिश किए जूते भी करीने से रखे मिलते और वह गद्गद हो उठते. ढेर सारी दुआएं अपनी छोटी बहू के लिए उन के होंठों पर आ जातीं.
उस दिन को याद कर के तो वह हर बार रोमांचित हो उठते जब वह रोजाना की तरह शाम को दफ्तर से लौटे तो देखा बहूबेटा और पोतापोती सब इस तरह से तैयार थे जैसे किसी शादी में जाना हो. इसी बीच पत्नी किचन से निकली तो उसे देख कर वह और हैरान रह गए. पत्नी ने बहुत सुंदर सूट पहन रखा था और आयु अनुसार बड़े आकर्षक ढंग से बाल संवारे हुए थे. पहली बार उन्होंने पत्नी को हलकी सी लिपस्टिक लगाए भी देखा था.
‘यह टुकरटुकर क्या देख रहे हो? आप का ही घर है,’ पत्नी बोली.
‘पर…यह सब…बात क्या है? किसी शादी में जाना है?’
‘सब बता देंगे, पहले आप तैयार हो जाइए.’
‘पर आखिर जाना कहां है, यह अचानक किस का न्योता आ गया है.’
‘पापा, ज्यादा दूर नहीं जाना है,’ बड़ा मासूम अनुरोध था बहू का, ‘आप झट से मुंहहाथ धो कर यह कपड़े पहन लीजिए. हमें देर हो रही है.’
वह हड़बड़ाए से बाथरूम में घुस गए. बाहर आए तो पहले से तैयार रखे कपड़े पहन लिए. तभी पोतापोती आ गए और अपने बाबा को घसीटते हुए बोले, ‘चलो न दादा, बहुत देर हो रही है…’ और जब कमरे में पहुंचे तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रंगबिरंगी लडि़यों तथा फूलों से कमरे को सजाया गया था. मेज पर एक बड़ा सुंदर केक सजा हुआ था. दीवार पर चमकदार पेपर काट कर सुंदर ढंग से लिखा गया था, ‘पापा को स्वर्ण जयंती जन्मदिन मुबारक हो.’
वह तो जैसे गूंगे हो गए थे. हठपूर्वक उन से केक कटवाया गया था और सभी ने जोरजोर से तालियां बजाते हुए ‘हैपी बर्थ डे टू यू, हैपी बर्थ डे पापा’ कहा. तभी बहू और बेटा उन्हें एक पैकेट पकड़ाते हुए बोले, ‘जरा इसे खोलिए तो, पापा.’
पैकेट खोला तो बहुत प्यारा सिल्क का कुरता और पजामा उन के हाथों में था.
‘यह हम दोनों की ओर से आप के 50वें जन्मदिन पर छोटा सा उपहार है, पापा,’ उन का गला रुंध गया और आंखें नम हो गईं.
‘खुश रहो, मेरे बच्चो…अपने गरीब बाप से इतना प्यार करते हो. काश, वह दोनों भी…बहू, एक दिन…एक दिन मैं तुम्हें इस प्यार और सेवा के लिए पुरस्कार दूंगा.’
‘आप के आशीर्वाद से बढ़ कर कोई दूसरा पुरस्कार नहीं है, पापा. यह सबकुछ आप का दिया ही तो है…आप जो सारा विष स्वयं पी कर हम लोगों को अमृत पिलाते रहते हैं.’
सेवानिवृत्त हो कर जब वह घर पहुंचे तो पत्नी ने आरती उतार कर स्वागत किया. बहूबेटे, पोतेपोती ने फूलों के हार पहनाए और चरणस्पर्श किए. कुछ साथी घर तक छोड़ने आए थे. कुछ पड़ोसी भी मुबारक देने आ गए थे, उन सब को जलपान कराया गया. बड़े बेटे व बहुएं इस अवसर पर भी नहीं आ पाए. किसी न किसी बहाने न आ पाने की मजबूरी जता कर फोन पर क्षमा याचना कर ली थी उन्होंने.
अतिथियों के जाने के बाद उन्होंने बहूबेटे से कहा था, ‘‘लो भई, अब तक तो हम फिर भी कुछ न कुछ कमा लाते थे, आज से निठल्ले हो गए. फंड तो पहले ही खा चुका था, ग्रेच्युटी में से सोसाइटी ने अपनी रकम काट ली. यह 80 हजार का चेक संभालो, कुछ पेंशन मिलेगी. कुछ न बचा सका तुम लोगों के लिए. अब तो पिंकी और राजू की तरह हम बूढ़ों को भी तुम्हें ही पालना होगा.’
बहू रो दी थी. सुबकते हुए बोली थी, ‘‘बेटी को यों गाली नहीं देते, पापा. यह चेक आज ही मम्मी के खाते में जमा कर दीजिए. आप ने अपनी भूखप्यास कम कर के, मोटा पहन कर, पैदल चल कर, एकएक पैसा बचा कर, बेटेबेटियों को आत्मनिर्भर बनाया है. आप इस घर के देवता हैं, पापा. हमारी पूजा को यों लज्जित न कीजिए.’’
उन्होंने अपनी सुबकती हुई बहू को पहली बार सीने से लगा लिया था और बिना कुछ कहे उस के सिर पर हाथ फेरते रहे थे.
समय अपनी निर्बाध गति से चलता जा रहा था. अचानक एक दिन उन के हृदय की धड़कन के साथ ही जैसे समय रुक गया. घर में कोहराम मच गया. भलेचंगे वह सुबह की सैर को गए थे.
Writer- परवीन कुमार
‘‘इस बार दिल्ली में बारिश के दर्शन कुछ ज्यादा ही हो गए. जहां देखो पानी ही पानी. लगता नहीं कि यह वही दिल्ली है, जहां लोगों की आपसी दुश्मनी की वजह पानी बन जाता है.
‘‘सुबह से ही महल्ले की गलियों में बारिश और नाले का पानी जमा हो रखा है. बारिश जैसे ही कम हुई, काम पर जाने के लिए निकला ही था कि रास्ते में पूरे कपड़े भीग गए.
यह बात सोनू अपने दोस्त बिरजू को बता रहा था, जो उस का दिल्ली शहर में एकलौता खास दोस्त था और जिस से वह अपनी जिंदगी की सभी बातें किया करता था.
सोनू उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले का रहने वाला था. उस की पत्नी और
2 बच्चे गांव में उस के मातापिता के साथ रहते थे. उस की शादी के 4 साल हो चुके थे. जमीनजायदाद इतनी नहीं थी कि आराम से जिंदगी बिता सके. कहने को जमीन थी, जिस पर इतना भी नहीं उगता था कि परिवार का पेट भर सके. इस वजह से सोनू अपने गांव से दूर शहर में कमाने आया था.
शहर में सोनू को आए हुए सालभर हो चुका था. उस के जानपहचान वाले किसी दूसरे इलाके में रहते थे. पहचान वालों के साथ कोई खास रिश्ता नहीं था. बिरजू उस का जिगरी यार था. वे दोनों एक ?ाग्गी में किराए पर रहते थे.
‘‘तो तू काम पर नहीं गया,’’ बिरजू ने कुछ सोचते हुए सोनू से पूछा.
‘‘गया था. मु?ो पता था कि रास्ते में भीग जाऊंगा, इसलिए एक जोड़ी कपड़ा भी साथ रख लिया था. बस मिलने में देरी हो गई तो फैक्टरी देर से पहुंचा. तू बता, तू ने सोने के अलावा कुछ किया या नहीं?’’
‘‘किया न… सोने के बाद मैं जागा और फिर सो गया. क्या करता, पूरे दिन बारिश जो होती रही. कल रात हलका बुखार था, इसलिए आज छुट्टी ले ली.’’
‘‘इतनी छुट्टी मत कर, वरना कमाएगा क्या और खाएगा क्या? बीमारी का क्या है, काम पर जाने से पहले ही रहती है, काम पर जाते ही सब ठीक हो जाता है.’’
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‘‘भैया, देखो मेरी अभी तक शादी नहीं हुई है. तुम अपनी टैंशन मु?ा पर मत लादो,’’ बिरजू ने कहा.
‘‘लदे न इसलिए कह रहा हूं, बाकी तुम्हारी मरजी,’’ सोनू बोला.
‘‘आज क्या लाए हो? क्या बनाओगे?’’
‘‘दालचावल और आलू की तरकारी बना लेते हैं. जल्दी बन जाएंगे.’’
‘‘जैसा आप को ठीक लगे,’’ बिरजू ने हां में हां मिलाई.
खाना खा कर वे दोनों जल्दी ही सो गए. सुबह 6 बजे बिरजू पानी भरने के लिए उठा तो उस ने देखा कि सोनू को बहुत तेज बुखार है. उस ने सोनू को उठाया और बोला, ‘‘भैया, तुम्हें तो तेज बुखार है. आज आराम करो. मैं तुम्हारे मालिक को थोड़ी देर बाद फोन कर देता हूं.’’
सोनू उसे रोकते हुए बोला, ‘‘बुखार नहीं है, बस शरीर गरम हो गया है. सामान लेने बाहर जाओगे तो बुखार की गोली लेते आना. उस से सब ठीक हो जाएगा.’’
‘‘आज तो आराम कर लो. कल से काम पर चले जाना.’’
‘‘नहीं. ऐसे तो कोई न कोई दिक्कत होती ही रहती है.’’
बाद में सोनू बुखार की गोली खा कर अपना टिफिन ले कर काम पर निकल गया. बिरजू ने उसे आराम करने को कहा, लेकिन वह उसे टाल गया.
शाम को सोनू वापस आया, तो उस का शरीर ठंडा तो था, लेकिन वह कुछ ज्यादा ही थकाथका सा लग रहा था.
‘‘क्या सोनू भैया, आज कुछ ज्यादा ही थकेथके से लग रहे हो? तबीयत तो ठीक है न?’’
‘‘ठीक ही है बस, जरा कमजोरी सी लग रही है.’’
‘‘दवा ले लो. सब ठीक हो जाएगा.’’
‘‘इतनी सी बात पर कौन दवा लेता है. गरम पानी में काली मिर्च डाल कर पी लूंगा, तो सब ठीक हो जाएगा.’’
अपना देशी काढ़ा पी कर सोनू जल्दी सो गया. देर रात बिरजू को सोनू का शरीर बहुत ज्यादा गरम लगा. उस ने उठ कर देखा कि सोनू को फिर बुखार चढ़ गया है.
जल्द ही उस ने सुबह लाई हुई बुखार की दवा सोनू को उठा कर खिला दी. बिरजू की आवाज में गुस्सा था. उस ने कहा, ‘‘भैया, कल सुबह होते ही पहले दवा लो. तुम्हारी तबीयत बहुत ज्यादा खराब है. नहीं होता है तो कुछ दिनों के लिए अपने पहचान वाले के यहां चले जाओ. वे तुम्हें अस्पताल ले जाएंगे.’’
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‘‘नहीं बिरजू, पहचान वाले तो ठीक हालात में भी मुंह फेर लेते हैं, तो इन हालात में उन के लिए सिरदर्द बन जाऊंगा. रहने दो, मैं खुद ही सुबह बंगाली डाक्टर के पास जा कर दवा
ले लूंगा.’’
सोनू को ठंड लग रही थी और कमरे में मच्छर भी ज्यादा हो गए थे, इसलिए बिरजू ने उसे कंबल ओढ़ा दिया.
कुछ देर बाद सोनू को थोड़ा आराम आया तो उस ने देखा कि बिरजू बैठेबैठे ही सो गया है.
सुबह होते ही बिरजू रोजाना की तरह पानी भरने के बाद दूधब्रेड लेने चला गया. सुबह के नाश्ते में वे दोनों वही खाया करते थे. उन्हें यह सस्ता भी पड़ता था और स्वादिष्ठ भी लगता था.
सोनू आज देर तक सोया रहा और बिरजू ने भी उसे तकलीफ नहीं दी. बस, जातेजाते वह कह गया, ‘‘भैया, नाश्ता कर के दवा लेने चले जाना.’’
सोनू के जोड़ों में दर्द हो रहा था. हिम्मत नहीं हो रही थी फिर भी वह नहा कर एक ?ालाछाप बंगाली डाक्टर के पास चला गया.
दड़बेनुमा क्लिनिक पहुंच कर उस ने देखा कि आज तो वहां बहुत भीड़ थी. जैसे पूरा महल्ला बीमार पड़ गया हो. थोड़ी देर अपने आसपास देख कर वह भी उस लंबी कतार के आखिर में खड़ा हो गया.
नंबर नजदीक आने से पहले सोनू ने देखा कि वह बंगाली डाक्टर सभी को खून की जांच करवाने को कह रहा था, जिसे सुनते ही सब मना कर देते.
जब सोनू का नंबर आया, तो उस बंगाली डाक्टर ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’
‘‘मु?ो पिछले 2 दिन से बुखार आ रहा है और जोड़ों में कुछ ज्यादा ही दर्द रहने लगा है.’’
‘‘तुम अपनी एक जांच करा लो.’’
‘‘कितने रुपए में होगी यह जांच?’’
‘‘700 रुपए लग जाएंगे.’’
‘‘अभी तो तनख्वाह भी नहीं मिली है और इतने पैसे अभी मेरे पास हैं नहीं, जो टैस्ट करा लूं.’’
उस बंगाली डाक्टर ने भी ज्यादा जोर न डालते हुए उस से कहा, ‘‘कोई नहीं, कुछ दिन ये दवाएं खाओ, आराम न मिले तो टैस्ट करा लेना.’’
शोनू दवा ले कर ?ाग्गी में वापस आ गया. शाम को उस ने बिरजू के आने पर डाक्टर वाली बात बताई.
यह सुनने के बाद बिरजू ने कहा, ‘‘भैया, इतनी भी कंजूसी अच्छी नहीं. जांच कराने को कहा था तो करा लेते.’’
‘‘ऐसा नहीं है कि मैं जांच नहीं कराना चाहता था. अब वह दाम ही इतना ज्यादा कह रहा था कि मैं करता क्या.’’
‘‘सरकारी अस्पताल से करा लो.’’
‘‘करा तो लूं, लेकिन वहां की भीड़ देखी है तुम ने? पूरा दिन गुजर जाएगा, लेकिन जांच नहीं हो पाएगी. मेरी फैक्टरी में एक चाचा हैं, जो अपनी कोई जांच कराने गए तो उन से दिल्ली का पहचानपत्र मांग लिया. उन के पास पहचानपत्र नहीं था, इसलिए उन का टैस्ट नहीं हो पाया. मेरे पास भी पहचानपत्र नहीं है. वैसे भी अब पहले से तबीयत ठीक है.’’
कुछ दिनों तक वे दोनों काम पर जाते रहे और रात को वापस आ कर खाना खाने के साथ दिनभर की बात करते रहे. एक रात सोनू दर्द से
कहराने लगा और ठंड लगने के चलते कांपने लगा.
बिरजू आवाज सुनते ही उठा और पड़ोस के एक लड़के की मदद से उसे अस्पताल ले गया.
पास के सरकारी अस्पताल के आपातकालीन वार्ड में कुछ देर लाइन में लगने के बाद उसे डाक्टर ने देखा. उस की हालत को देखते हुए डाक्टर ने अस्पताल में भरती कर लिया और कुछ टैस्ट भी लिख दिए.
सुबह रिपोर्ट में कुछ नहीं निकला. डाक्टर ने उसे कुछ दवाएं दे कर छुट्टी दे दी. ?ाग्गी में वापस आ कर बिरजू ने सोनू को बिस्तर पर लिटा कर पूछा, ‘‘भैया, आप को हो क्या गया है… एक काम करो कि आप ?ाड़ा लगवा लो, नहीं तो फिर बीमार पड़ जाओगे.’’
‘‘बिरजू, यह एकदम से नहीं हुआ है. कुछ दिनों से मेरे जोड़ों में दर्द रहता है और रात को दर्द बढ़ने के साथ ठंड भी लगने लग जाती है.’’
‘‘इतने दिनों से कह तो रहा हूं, अच्छे डाक्टर को दिखाओ, लेकिन आप हो कि सुनते ही नहीं.’’
‘‘क्या करूं, साथ में कोई चलने वाला ही नहीं है.’’
‘‘मैं चलता हूं.’’
‘‘अरे, तुम कहां कामधंधा छोड़ कर भागदौड़ करोगे. मैं देखता हूं किसी और को.’’
‘‘क्या भैया, अब मेरे होते हुए आप को दूसरों से क्यों मदद लेनी है.’’
वे दोनों अगली सुबह दिल्ली के एक बड़े सरकारी अस्पताल में गए, जहां जातेजाते सोनू की तबीयत और ज्यादा बिगड़ने लगी. वहां जांच में मलेरिया निकला.
सोनू कभी इतना बीमार नहीं हुआ था. जब कभी मामूली बुखार होता तो मां की देखरेख में सब ठीक हो जाता. आज वह परिवार से दूर एक अनजान शहर के खस्ताहाल अस्पताल के बिस्तर पर अकेला पड़ा था.
बिरजू ने सोनू के पास आ कर कहा, ‘‘भैया, आप के घर वालों को यह बात बता देते हैं. डाक्टर भी दस्तखत के लिए परिवार वालों को ढूंढ़ रहा है.’’
सोनू ने कुछ नहीं कहा, लेकिन बिरजू ने सोनू के गांव में खबर पहुंचा दी. यह सुनते ही उस की पत्नी जोरजोर से रोने लगी. इतने में फोन पर सोनू के पिता बोले, ‘हैलो, क्या हुआ मेरे बेटे को?’
‘‘अंकलजी, मैं बिरजू बोल रहा हूं. दिल्ली से सोनू का दोस्त. उस की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है. डाक्टर आप लोगों को बुला रहे हैं,’’ और बिरजू भी फोन पर ही रो दिया.
वार्ड के अंदर से आवाज आई, ‘‘अरे, सोनू के साथ कौन है?’’
बिरजू ने सुनते ही कहा, ‘‘मैं हूं.’’
‘‘सुनाई नहीं दे रहा, डाक्टर कब से बुला रहे हैं.’’
बिरजू ने सोनू के पिता को जल्दी आने की कहने के बाद फोन काट दिया और डाक्टर के पास चला गया.
डाक्टर ने कहा, ‘‘जल्दी बताओ, कोई दस्तखत करने आ रहा है या नहीं? देखो, इलाज के दौरान अगर मौत होती है, तो उस के जिम्मेदार हम नहीं होंगे… और बाकी मरीजों को भी देखना है. जल्दी बताओ?’’
‘‘मु?ो कुछ समय दीजिए. मैं
बताता हूं,’’
यह कह कर बिरजू सोनू के पास चला गया. उस ने सोनू से पूछा, ‘‘भैया, अपने दिल्ली वाले चाचा का नंबर दे दो. डाक्टर दस्तखत के लिए बुला रहे हैं.’’
सोनू से नंबर पूछ कर बिरजू ने फोन लगा दिया. बिरजू ने समय बरबाद न करते हुए सोनू के चाचा को बताया कि सोनू बीमार है और डाक्टर परिवार वालों को जल्दी बुला रहे हैं, आप जल्दी आ जाओ.
बिरजू सोनू के पास वापस गया, तो उस ने उसे बेसुध देखा. वह सोनू को पुकारने लगा. जब जवाब नहीं मिला तो वह चीखते हुए रोने लगा.
डाक्टर ने आ कर देखा, तो सोनू मर चुका था.