वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान देश की जनता बड़े मुग्धभाव से नरेंद्र मोदी की तरफ देखती थी. वे कांग्रेसी नेताओं से बेहतर, लच्छेदार भाषण देते थे, उम्मीदें बंधाते थे और सब्जबाग दिखाने के तो वे विशेषज्ञ हैं. तब लगता था कि कोई जादूगर पाशा या जादूगर सरकार मंच पर है जो अपनी छड़ी घुमाएगा और देखते ही देखते देश की तकदीर बदल जाएगी. खेत लहलहाने लगेंगे, उत्पादन चारगुना बढ़ जाएगा, बैंक खातों में नोट बरसने लगेंगे, आतंकी सहम कर भाग जाएंगे और इस से भी ज्यादा अहम बात यह, कि हर हाथ के लिए काम होगा. यानी कोई बेरोजगार नहीं रहेगा.
उस दौरान नरेंद्र मोदी बड़े फख्र से खुद को जब चाय वाला कहते थे तो जनता उन पर बलिहारी जाती थी कि देखो, इतने नीचे से वे इतने ऊंचे तक आ गए यानी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन गए. नतीजतन, देशवासियों ने उन के हाथों में देश सौंप कर बेफिक्र होते अच्छे दिनों का इंतजार करने लगे.
उन के प्रधानमंत्रित्वकाल के 4 वर्ष बीत जाने के बाद भी अच्छे दिन नहीं आए तो अब लोगों को शक हो रहा है कि यह कैसा जादू है जिस के चलते सबकुछ उलटापुलटा हो रहा है, किसान पहले से ज्यादा खुदकुशी करने लगे हैं. जो नोट बड़े जतन से अपने खर्चों में से कटौती कर बचा कर रखे थे वे तक नोटबंदी के चलते छू हो गए थे. जीएसटी के कारण कारोबारी बेकार होते जा रहे हैं. आतंकी देश के सैनिकों की खुलेआम हत्याएं करने लगे हैं जिस से शहीदों की तादाद बढ़ रही है, यह तो हमारी सेना की देशभक्ति और पे्रम है कि वह विद्रोह तो दूर की बात है, कोई एतराज भी दर्ज नहीं कराती. फसलों की पैदावार तो कहीं बढ़ी नहीं और नौजवान थोक में बेरोजगार हो कर हताशा का शिकार हो चले हैं.
2 आरजू में और 2 साल इंतजार में कटे, लेकिन इस दौरान बुरा यह हुआ कि जनता का ब्लडप्रैशर कभी लो और कभी हाई होने लगा कि अब आगे क्या होगा. होने के नाम पर कुछ नहीं होना, यह तो सभी को समझ आ गया पर न होने के नाम पर अब क्या होगा, यह सोचसोच कर लोग हैरानपरेशान हैं.
नरेंद्र मोदी ने जनता की नब्ज टटोली तो वे चिंता में पड़ गए जो नए बजट को देख गश खाने लगी थी. ऐसे में एक दिन उन का ध्यान पकौड़ों की तरफ गया तो वे अपने सुनहरे अतीत में खो गए जिसे सिगमंड फ्रायड जैसे मनोविज्ञानी अतीत और बचपन में जीना कहते रहे हैं.
हर कोई जानता है कि यह पकौड़ा एक परंपरागत भारतीय व्यंजन है जो बेसन व तेल के मिश्रण से तैयार किया जाता है. छोटे साइज का पकौड़ा, पकौड़ी कहलाता है. इसे आलू, प्याज, पनीर सहित गिलकी व पालक तक से बनाया जाता है. भारतीय इसे बड़े चाव से खाते हैं.
होली के दिनों में भांग के पकौड़े खाने का रिवाज है, जिन के सेवन से लोग 2014 के सम्मोहित दौर में पहुंच जाते हैं. भांग का पकौड़ा बड़ा असरकारी होता है. फागुन के मदमस्त माहौल में तो इस का असर हजारगुना तक बढ़ जाता है.
पकौड़े की एक खूबी यह है कि इसे एक बार खाओ तो मन नहीं भरता. लिहाजा, लोग ठूंसठूंस कर पकौड़े खाते हैं और दूसरे दिन स्वच्छ भारत अभियान पर पलीता लगाते नजर आते हैं. आयुर्वेदिक चूर्णों की बिक्री में पकौड़ों के सेवन का बड़ा योगदान है.
देश के बेरोजगार होते नौजवानों की चिंता का हल प्रधानमंत्रीजी को यों ही पकौड़े में नहीं दिख गया कि उन्होंने युवाओं को पकौड़ा बेचने का मशवरा दे डाला. पकौड़ा बेचने की सलाह पर व्यापक और देशव्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं और इतनी हुईं कि अगर पकौड़े में चेतना होती तो वह घबरा कर खुदकुशी कर लेता. देश की सारी समस्याएं पकौड़े में सिमट कर रह गईं. जनता ने अभी राफेल डील के बाबत मुंह खोला ही था कि उस में पकौड़े ठूंस दिए गए.
जो राजनीति कल तक चायमय थी, वह पकौड़ामय हो गई. पकौड़े पर शोध होने लगे लेकिन इधर युवाओं को यह मशवरा नागवार गुजरा कि हम डिगरी ले कर पकौड़ा बेचने जैसा क्षुद्र उद्यम क्यों करें, यह तो शर्म की बात है. इस पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बिदकते युवाओं को समझाया कि पकौड़े बेचना कोई शर्म की बात नहीं. वे नहीं बता पाए कि यह फख्र की बात कैसे है. चूंकि पार्टी के मुखिया ने कहा था, इसलिए इसे बाद में तरहतरह से जगहजगह कई भाजपाई दरबारियों ने दोहराया कि पकौड़ा बेचना शर्म या हर्ज की बात नहीं.
हम ऐसा कुछ नहीं कर पा रहे हैं जिस से नौकरियां और रोजगार के मौके पैदा हों, यह बात शीर्ष नेताद्वय ने बड़े फागुनी अंदाज से कही थी कि अगर नौकरीरोजगार नहीं मिल रहे तो पकौड़े बेचो. यह इन की गलती नहीं थी, बल्कि मौसम की थी, होली के महीनाभर पहले से ही मानवदिल हंसीमजाक के लिए मचलने जो लगता है.
राजनीति का एक अलिखित सिद्धांत है कि जब सत्तापक्ष हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है तब विपक्ष सुस्त पड़ जाता है. इधर मोदी और शाह ने पकौड़ा उछाला, तो विपक्ष ने उसे लपक कर पकड़ लिया. तरहतरह की दिलचस्प बयानबाजियां हुईं. जगहजगह सार्वजनिक रूप से पकौड़े तल कर विरोध जताया गया. पकौड़ामय हो चले देश को एक काम मिल गया. सोशल मीडिया के सूरमा पोर्न साइट्स और धर्म को भूलभाल कर पकौड़े को ले कर पोस्ट डालने लगे. पकौड़े ने इतनी प्रसिद्धि अपने उद्भव के बाद कभी हासिल नहीं की थी जितनी साल 2018 के फरवरी महीने में की.
इन महावीरों ने साल 2018-19 के बजट को पकौड़ा बजट घोषित कर दिया. बुद्धिजीवी और विद्वान भी पकौड़ाचिंतन में व्यस्त हो गए. कइयों ने तो पकौड़े पर सब्सिडी की मांग कर डाली और कुछ लोग पकौड़े को भी आधार से लिंक करने की बात करने लगे. एक पोस्ट में तो पकौडे़ बनाने का राष्ट्रीय व्यावसायिक चित्रण यह बताते किया गया कि पकौड़ा बेचने का आइडिया मोदी ने दिया, इस के लिए गैस रिलायंस वाला अंबानी देगा, फौर्च्यून का तेल अडानी देगा और रामदेव पंतजलि का बेसन मुहैया कराएगा.
कुछ अर्थशास्त्रियों ने भी अपना ज्ञान बघारा कि जब सभी लोग पकौड़े बेचने लगेंगे तो उन्हें खरीदेगा कौन और क्या पकौड़े के स्टौल (हकीकत में ठेला या खोमचा) लगाने के लिए सरकार कर्ज देगी. पकौड़ा व्यवसाय को ले कर लोग आशान्वित भी हैं कि मुमकिन है ज्यादा पकौड़े बेचने वाले को सरकार पद्मश्री दे.
धर्म के जानकारों ने धर्मग्रंथ छान मारे पर किसी वेदपुराण, संहिता या उपनिषद में पकौडे़ का जिक्र नहीं मिला. फिर भी, उन्होंने मान लिया कि पकौड़ा सनातनी व्यंजन है. इधर, पूछा यह भी जा रहा है कि पकौड़े न खाने वालों को कहीं राष्ट्रद्रोही तो करार नहीं दिया जाएगा और क्या भगवा रंग के पकौड़े बनाने, खाने व बेचने वालों को देशभक्त का खिताब दिया जाएगा?
कुछ अदूरदर्शी लोगों की राय यह है कि जल्द ही बाबा रामदेव पंतजलि बेसनी पकौड़ा लौंच कर सकते हैं क्योंकि वे मैदा के घोर दुश्मन हैं. नई पीढ़ी पिज्जा, चाउमीन और नूडल्स खा कर अपनी सेहत खराब कर रही है, उस से बचने का एकमात्र तरीका पकौड़ा है जो आखिरकार एक आयुर्वेदिक पकवान है. इस का इकलौता आधार यह है कि इसे पीढि़यों से देश खा रहा है और अफ्रीका या यूरोप ने अभी पकौड़े पर अपनी दावेदारी नहीं जताई है.
हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर जल्द ही कोई प्रदेश पकौड़े की बढ़ती लोकप्रियता देख अपनी दावेदारी इस पर ठोक दे. रसगुल्ला ओडिशा की डिश है या पश्चिम बंगाल की, यह तय करने में अदालतों को पसीने आ गए थे.
हरहर पकौड़ा, घरघर पकौड़ा के लगते नारों के बीच अच्छी बात यह है कि पकौड़ा एक धर्मनिरपेक्ष और जातिवाद से मुक्त व्यंजन है. पकौड़े का वंशवाद से भी कोई संबंध नहीं है. मायावती जैसी नेत्री यह आरोप नहीं लगा सकतीं कि चूंकि पकौड़ा मनुवाद का प्रतीक है, इसलिए इसे प्रोत्साहन दिया जा रहा है. वामपंथी भी पकौड़े पर खामोश रहने को विवश हैं, क्योंकि इस का सामंतवाद, जमींदारी या शोषण से कोई संबंध अभी तक सामने नहीं आया है. पकौड़ा दिल्ली के छोलेकुलचे और भठूरों के खिलाफ भी कोई साजिश नहीं है.
पकौड़े की राजनीति के अपने अलग नजरिए हैं. लोग जिस दिलचस्पी से पकौड़ापकौड़ा खेल रहे हैं, मुमकिन है इसे प्रसाद के रूप में देवीदेवताओं को चढ़ाया जाने लगे. कुछ शिक्षाविदों की राय है कि पकौड़ा निर्माण और विपणन को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए, जिस से देश का भविष्य स्वावलंबी बने. देश के बच्चे अब डाक्टर, इंजीनियर या साइंटिस्ट बनने के सपने नहीं देखते, बल्कि वे पकौड़ाबाज बनने की ख्वाहिश पालने लगे हैं. ऐसे में देश का भविष्य वाकई उज्ज्वल है, यही कहा जाएगा.
नरेंद्र मोदी वाकई अतिमानव हैं जो देश का मनोरंजन करने के लिए नईनई तरकीब पेश करते रहते हैं. उन के सामने कर्नाटक, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनावों की चुनौती है. उन्हें देश को विश्वगुरु भी बनाना है. उन के चिंतन में बाधा डाल रहे लोग पकौड़ाचिंतन में व्यस्त हो गए हैं, यह किसी उपलब्धि से कम बात नहीं.
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