मोदी मंत्रिमंडल के जो दो चार सदस्य तुक की बात बोल पाते हैं गृह मंत्री राजनाथ सिंह उनमे से एक हैं, जिन्हें कुछ बोलने के पहले मोदी की इजाजत या रजामंदी की जरूरत नहीं पड़ती. नक्सल प्रभावित दस राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मीटिंग में राजनाथ सिंह की यह स्वीकारोक्ति कोई राजनैतिक मजबूरी नहीं थी कि नक्सली हिंसा का हल गोलियां नहीं हैं. यह जरूर उनकी सच से मुंह मोड़ने की कवायद थी कि वे बजाय कोई ठोस हल पेश करने के नक्सली समस्या से निबटने के अव्यवहारिक सुझाव देते रहे, मसलन सरकार के खुफिया तंत्र का कमजोर होना और नक्सलियों की फंडिंग के स्त्रोत रोकना वगैरह वगैरह.

किसी भी समस्या का हल असल में उसकी वजहों से होकर जाता है. राजनाथ सिंह या मौजूदा केंद्र सरकार पूर्ववर्ती सरकार की तर्ज पर जाने क्यों इन वजहों से कतरा रहे कि इस समस्या की जड़ या उत्पत्ति आदिवासियों का शोषण और उनके हक छीने जाना है. यह ठीक है की इन शोषकों की शक्ल सूरत बदल गई है, ठीक वैसे ही जैसे हिन्दी फिल्मों के खलनायक की बदल गई है. सरकार यह नहीं सोच रही कि भोला भाला आदिवासी बजाय उसके नक्सलियों पर क्यों भरोसा करता है और बस्तर में तैनात अर्धसैनिक बल उन पर वही कहर बरपाते हैं, जो कभी सामंत और जमींदार बरपाते थे, इस के लिए उदाहरणों की कमी नहीं है.

चार दिन पहले ही रायपुर जेल की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे को राज्य सरकार ने बर्खास्त किया है. वर्षा का गुनाह इतना भर था कि उसने आदिवासियों पर हो रहे सरकारी अत्याचारों का कच्चा चिट्ठा सोशल मीडिया पर खोलकर रख दिया था, जिसे सुन हर किसी के रोंगटे खड़े हो सकते हैं. बकौल वर्षा आदिवासी इलाकों में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लागू की जा रही है, आदिवासियों से उनका जल, जंगल और जमीन का हक छीना जा रहा है. अपनी भड़ास मे सीधे सरकार पर आरोप वह नहीं लगाती जिसकी जरूरत भी नहीं. वह कहती हैं, सारे प्राकृतिक संसाधन उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को बेचने के लिए जंगल खाली करवाये जा रहे हैं. वर्षा कहती हैं कि खुद आदिवासी नक्सलवाद का अंत चाहते हैं लेकिन जिस तरह से देश के रक्षक ही उनकी बहू बेटियों की इज्जत उतार रहे हैं, उनके घर जला रहे हैं तो इंसाफ के लिए आदिवासी कहां जाएं.

खुद वर्षा ने अपनी आंखों से देखा है कि बस्तर थाने में आदिवासी किशोरियों को पूरी तरह नग्न कर उनकी कलाइयों और स्तनों पर करंट लगाया गया, 14 से 16 साल की इन लड़कियों का इलाज खुद उसने करवाया था. वर्षा गलत इसलिए करार नहीं दी जा सकती कि अपनी बात में उसने सीबीआई रिपोर्ट और बिलासपुर हाईकोर्ट के एक फैसले का भी हवाला दिया है.

यह सब और इससे भी ज्यादा वीभत्स नजारे किसी गृहमंत्री को नहीं दिखते, इसलिए वर्षा यह सच बयानी कर अपनी नौकरी जाने का अफसोस नहीं करती कि बस्तर में जो भी समाजसेवी या मानवाधिकारकर्ता आदिवासियों के हक में बोलता है उसे नक्सली कहते जेल में ठूंस दिया जाता है. ऐसे में राजनाथ सिंह सच ही कह रहे हैं कि गोलियां नक्सली हिंसा का हल नहीं, क्योकि अघोषित तौर पर अधिकांश आदिवासी सैनिक शासन के खिलाफ हैं और इन सभी कथित नक्सलियों पर गोलियों कारगर नहीं होंगी. फिर जो हल बचता है वह यह है कि सरकार बस्तर से पहले सेना हटाए, फिर आदिवासियों का भरोसा जीते, नहीं तो हर साल हिंसा में मारे जाने बाले औसतन एक हजार आदिवासियों के मौतों की जिम्मेदारी लेने की हिम्मत दिखाए. समस्या अब नक्सली कम बस्तर में तैनात अर्ध सैनिक बलों की तैनाती ज्यादा हो चली है. भ्रष्टाचार पर सवार शोषण बस्तर में भी आम है, जिसके शिकार वे गरीब नंगे भूखे आदिवासी ज्यादा होते हैं जिन्हें अपने संवैधानिक हक तक नहीं मालूम.

रही बात फंडिंग की तो राजनाथ सिंह को औरों से ज्यादा बेहतर मालूम होना चाहिए कि मेहनती आदिवासी ही नक्सलियों के बड़े फाइनेंसर हैं, जो सेना से अपनी हिफाजत की कीमत नक्सलियों को चुकाते हैं. बंदूक की नोक पर कौन बस्तर में लोकतन्त्र की हत्या कर रहा है इस पर माथापच्ची अब बेकार की बात है, कौन विकास का दुश्मन है यह कतई चर्चा  की बात नहीं, मुद्दे की बात वे वजहें हैं जिनके चलते नक्सली वजूद में आए और ये वजहें जब तक दूर नहीं होंगी तब तक बस्तर के जंगलों में उड़ता बारूद खत्म या बंद होने की उम्मीद किसी को नहीं करनी चाहिए.

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