देश में बढ़ रहे एचआईवी और एड्स मरीजों की तादाद को देखते हुए इस बीमारी से बचाव के लिए सरकार द्वारा बड़े लैवल पर न केवल प्रचारप्रसार किया जा रहा है, बल्कि सरकारी व गैरसरकारी लैवल पर ऐसे काम भी किए जा रहे हैं, ताकि एचआईवी और एड्स को फैलने से रोका जा सके.

बहुत से लोगों का मानना है कि एचआईवी और एड्स बीमारी साथ बैठने, साथ खाना खाने, हाथ मिलाने जैसी वजहों से भी फैलती है, जिस के चलते लोग एचआईवी व एड्स मरीजों से दूरी बनाने की कोशिश करते हैं.

असल में यह दूरी बनाने की आदत वैसे ही हमारे समाज में पहले से है. हमारे यहां ब्राह्मण गैरब्राह्मणों के नहीं आतेजाते. पिछड़ों में सैकड़ों जातियां अपने को दूसरों से ऊंचा समझती हैं. हजारों जातियों को तो जन्म से ही अछूत माना जाता है. एचआईवी पीडि़तों से हर जाति में एक और नई उपजाति पैदा हो गई है.

वैसे, आज तक एड्स फैलने की सिर्फ 4 वजहें ही सामने आ पाई हैं, जिस में पहली असुरक्षित सैक्स संबंध बनाना, दूसरी एचआईवी पीडि़त मां से उस के होने वाले बच्चे में यह बीमारी होना, तीसरी एचआईवी व एड्स मरीज के खून को किसी सेहतमंद शख्स को चढ़ाना और चौथी एचआईवी संक्रमित सूई से नशा करना व औजारों का शरीर के अंगों व घावों में प्रवेश करना. इन के अलावा कोई भी वजह एड्स फैलने का खतरा नहीं बनती है.

लखनऊ, उत्तर प्रदेश की रहने वाली टीना (बदला नाम) को जन्म के समय ही अपनी मां से एचआईवी की बीमारी मिली थी. जब इस बात की जानकारी टीना के पिता को हुई, तो उन्होंने टीना की मां के ऊपर गलत संबंधों का लांछन लगा कर घर से निकाल दिया.

टीना की मां लाख दुहाई देती रही, रोईगिड़गिड़ाई कि उस का किसी से गलत संबंध नहीं रहा है और वह ऐसी हालत में अपनी नवजात बेटी को ले कर कहां जाएगी, लेकिन उस के पति का दिल नहीं पसीजा.

बाद में पता चला कि टीना की मां को यह बीमारी उसके पिता से मिली थी, क्योंकि उस का कई औरतों से नाजायज संबंध था. उस से यह बीमारी टीना की मां को और फिर टीना को भी हो गई.

पति का साथ छूटने के बाद टीना की मां का अपना और बेटी का पेट पालना मुश्किल हो गया था. तभी उस की मुलाकात एचआईवी व एड्स पीडि़तों के एक नैटवर्क से हुई. टीना की मां ने उस नैटवर्क से जुड़ने के बाद लखनऊ के एक बड़े सरकारी अस्पताल में काउंसलर की नौकरी कर ली, लेकिन किराए के जिस मकान में वह रह रही थी, उस के मालिक को जब यह पता चला कि मांबेटी दोनों एचआईवी से पीडि़त हैं, तो उस ने उन्हें घर खाली करने को कह दिया.

इसी बीच टीना की मां की एचआईवी की बीमारी एड्स में बदल गई और उसे कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी ने भी जकड़ लिया. ज्यादा तबीयत बिगड़ने के बाद टीना ने अपनी मां को उसी अस्पताल में भरती कराया, जहां वह काउंसलर थी. लेकिन उस को तब यह एहसास हुआ कि वहां इलाज करने वाले डाक्टर भी एचआईवी व एड्स मरीजों के साथ भेदभाव करते हैं.

टीना ने देखा कि जिस वार्ड में उस की मां भरती थी, उस में उस की मां के साथ जितने भी एचआईवी व एड्स से पीडि़त मरीज थे, उन के बिस्तर पर एक खास टैग लगा हुआ था, जिस में इस लाइलाज बीमारी होने का संकेत था. ऐसे मरीजों से डाक्टर खास दूरी बना कर बात करते थे. साथ ही, इन मरीजों से डाक्टरों का बरताव भी अजीब तरह का होता था.

टीना का कहना है कि एचआईवी व एड्स के चलते उस की मां की जान चली गई, लेकिन उस की मां तो मरने से पहले भी तिलतिल कर इसलिए मरती रही, क्योंकि उस को एचआईवी व एड्स पीड़ा से ज्यादा लोगों की अनदेखी की पीड़ा भी झेलनी पड़ी थी.

मां की मौत के बाद टीना को तमाम तरह की परेशानियों से जूझना पड़ा. फिलहाल वह उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा चलाए जा रहे लखनऊ के एक बड़े अस्पताल में एचआईवी व एड्स मरीजों की काउंसलर है.

टीना कहती है कि उसे एचआईवी है, लेकिन वह एक सेहतमंद जिंदगी जी रही है. फिर भी वह अपनी इस बीमारी के बारे में किसी को इसलिए नहीं बता सकती, क्योंकि उस की इस बीमारी को जानने के बाद लोगों का उस के प्रति नजरिया बदल जाएगा.

नजरिए में लाएं बदलाव

एचआईवी व एड्स पीडि़तों के लिए सरकार द्वारा यह पौलिसी तय की गई है कि इस बीमारी से पीड़ित किसी मरीज का जहां पर जांच इलाज या काउंसलिंग चल रही है, वहां का संबंधित डाक्टर या जिम्मेदार शख्स उस मरीज से जुड़े सभी रिकौर्डों व नाम को राज रखेगा और किसी भी हालत में उस का नाम सार्वजनिक नहीं करेगा.

इस मसले पर ‘स्वास्थ्य का वोट अभियान’ के कैंपेन डायरैक्टर राहुल द्विवेदी का कहना है कि एचआईवी व एड्स पीडि़तों के प्रति लोगों का रवैया बहुत अच्छा नहीं रहता है, जबकि एचआईवी पीडि़त लोग भी सामान्य लोगों की तरह जिंदगी जीने की कूवत रखते हैं.

एचआईवी व एड्स का इंफैक्शन जानकारी की कमी से होता है, ऐसे में बड़े लैवल पर जागरूकता लाने से इस बीमारी को फैलने से रोका जा सकता है. सरकार द्वारा एचआईवी व एड्स पीडि़तों के प्रति भेदभाव पर रोक लगाने के लिए नैशनल एड्स कंट्रोल और्गनाइजेशन के जरीए पौलिसी तय की गई है, जिस का पालन न करने पर संबंधित शख्स पर कार्यवाही की जा सकती है.

भारी पड़ता भेदभाव

भेदभाव का एक मामला राजस्थान के बाड़मेर शहर में देखने को मिला, जब एक एड्स पीडि़त ने सरकारी बस में सफर करते समय कंडक्टर से किराए में छूट लेने के लिए अपनी बीमारी का प्रमाणपत्र दिखाया, लेकिन कंडक्टर ने उस की बीमारी के बारे में जानने के बाद उस शख्स को डांटडपट कर उस की बीमारी सार्वजनिक करते हुए बस से उतार दिया.

प्यार दें दुत्कार नहीं

आम लोगों की तरह एचआईवी व एड्स पीडि़त भी सामान्य जिंदगी बिता सकते हैं. आम लोगों की तरह उठबैठ सकते हैं, त्योहार और खुशियां मना सकते हैं व नौकरी और कारोबार भी कर सकते हैं. ऐसे में इन के साथ किसी तरह का भेदभाव करना इन को तोड़ सकता है.

‘गौतम बुद्ध जागृति समिति’ के सचिव श्रीधर पांडेय का कहना है कि उन की संस्था नोएडा व गाजियाबाद में एड्स पीडि़तों के साथ काम कर रही है. उन्होंने बताया कि पूरी दुनिया में 3 करोड़ से भी ज्यादा लोगों ने एंटीरैट्रो वायरल ट्रीटमैंट ले कर खुद की बीमारी को एक हद तक कंट्रोल में किया है, जिस की वजह से उन्हें एचआईवी से किसी तरह की परेशानी नहीं हो रही है.

नई दिल्ली के रहने वाले हरि सिंह को पता चला कि वे एचआईवी पीडि़त हैं, तो उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने खुद के जीने का रास्ता तो तलाशा ही, साथ ही भारत समेत दुनियाभर के एचआईवी व एड्स पीडि़तों को ले कर फैली भ्रांतियों व इस बीमारी को रोकने की मुहिम को रफ्तार दी. वे दिल्ली सरकार में एचआईवी व एड्स मरीजों के लिए काउंसलिंग का काम कर रहे हैं.

एचआईवी व एड्स में फर्क

एड्स संक्रमित लोगों के साथ भेदभाव में रोकथाम के लिए एचआईवी और एड्स के अंतर को जानना बहुत जरूरी है.

एचआईवी एक वायरस है, जिस का पूरा नाम ह्यूमन इम्यूनोडैफिसिएंसी वायरस है. तकरीबन 12 हफ्ते के बाद ही खून की जांच से पता चलता है कि यह वायरस शरीर में दाखिल हो चुका है.

ऐसे शख्स को एचआईवी पौजिटिव कहते हैं. एचआईवी पौजिटिव कई सालों यानी 6 से 10 साल तक सामान्य दिखता है और आम लोगों की तरह जिंदगी बिता सकता है.

यह वायरस खासतौर पर शरीर को बाहरी बीमारियों से हिफाजत करने वाली खून में मौजूद टी कोशिकाओं व मस्तिष्क की कोशिकाओं को प्रभावित करता है और धीरेधीरे उन्हें नष्ट करता रहता है.

कुछ सालों बाद यानी 6 से 10 साल में यह हालत हो जाती है कि शरीर आम बीमारी के कीटाणुओं से अपना बचाव नहीं कर पाता और तरहतरह के इंफैक्शन से घिरने लगता है. इस को एड्स कहते हैं. लेकिन एचआईवी पीडि़त शख्स को एड्स की अवस्था में जाने से रोका जा सकता है, अगर वह संयमित दिनचर्या, खानपान व अपनी सेहत के प्रति जागरूक रहे.

एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर हम सब की यह जिम्मेदारी बनती है कि किसी एचआईवी संक्रमित मरीज के बारे में जानने के बाद उस से भेदभाव न करें, बल्कि उस के साथ प्यार से पेश आएं. किसी को भी यह हक नहीं है कि वह एचआईवी संक्रमित मरीज को नौकरी से निकाले या उस के साथ गलत बरताव करे, बल्कि उन्हें भी औरों की तरह समाज में इज्जत से रहने और जीने का हक दिया जाए. पर जो समाज जाति के नाम पर अच्छे सेहतमंद लोगों को न छूने के लिए तैयार बैठा है, उसे कोई कैसे समझा सकता है.

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