तमाम किसानों द्वारा आत्महत्याएं किए जाने के समाचार अखबारों और टीवी वगैरह की सुर्खियां भले ही बन रहे हों, लेकिन इन मरते किसानों को बचाने की ठोस कोशिशें कहीं दिखाई नहीं दे रहीं. आखिर क्यों कर रहे हैं देश के किसान खुदकुशी किसानों की बेबसी और आत्महत्या के किस्से रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं. एक 40 साला किसान ने कर्ज से परेशान हो कर अपने खेत के पास ही फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली. उस पर डेढ़ लाख रुपए का कर्ज था और उस की फसल बरबाद हो गई थी. एक अन्य 40 साला किसान ने आंगन में लगे लगे नीम के पेड़ पर फंदा लटका कर आत्महत्या कर ली. उस किसान ने खेती के लिए ट्रैक्टर फाइनेंस कराया था, लेकिन किश्त नहीं जमा करने पर कंपनी के अधिकारी उसे परेशान करते थे.
एक 48 साला किसान ने फसल खराब होने और उस के बाद भैंसें चोरी हो जाने के सदमे से परेशान हो कर फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली.सोयाबीन की फसल खराब होने और कर्ज का बोझ बढ़ जाने से परेशान 38 साला किसान ने जहर खा कर अपनी जान दे दी. ये तो एक ही दिन के अखबार में छपी खबरों की झलकियां हैं. शायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा, जब किसानों की आत्महत्याओं के समाचार प्रकाशित न होते हों. इस के अलावा तमाम ऐसे मामले भी होते हैं, जो न तो अखबारों की सुर्खियां बन पाते हैं और न ही रेडियो या टेलीविजन तक पहुंच पाते हैं.
हाल ही में जारी नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट से किसानों की आत्महत्याओं के बारे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं. आंकड़ों के मुताबिक साल 2015 में 80 फीसदी किसानों ने बैंकों और पंजीकृत माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं से कर्ज लेने और फिर दिवालिए होने के कारण आत्महत्याएं कीं. साल 2015 में 3000 से ज्यादा किसानों ने कर्ज लेने के बाद यह कदम उठाया था. एनसीआरबी ने पहली बार किसानों की आत्महत्याओं को कर्ज लेने और दीवलिया होने के आधार पर वर्गीकृत किया है.
बैंकों और साहूकारों दोनों से कर्ज लेने के कारण 10 फीसदी किसानों ने आत्महत्याएं की थीं. साल 2014 से 2015 के बीच किसानों की आत्महत्याओं में 41.7 फीसदी का इजाफा हुआ. साल 2015 में कुल 8007 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं, जबकि साल 2014 में 5650 किसानों ने ऐसा कदम उठाया था. रिपोर्ट के मुताबिक कर्ज के बोझ की वजह से सब से ज्यादा आत्महत्याओं के मामले (1293) महाराष्ट्र में आए, जबकि कर्नाटक 946 मामलों के साथ दूसरे स्थान पर रहा. वहीं तेलंगाना राज्य 632 मामलों के साथ तीसरे स्थान पर रहा.
खेती की वजह से होने वाली आत्महत्याओं के मामले में भी महाराष्ट्र (769) पहले स्थान पर रहा, जबकि तेलंगाना (363) दूसरे, आंध्र प्रदेश (153) तीसरे और कर्नाटक (113) चौथे स्थान पर रहा. साल 2015 में पारिवारिक समस्याएं (933) और बीमारियां (842) भी आत्महत्याओं की खास वजहें थीं. साल 2014 की तुलना में कर्ज की वजह से आत्महत्याओं में साल 2015 में 3 गुने (3097) का इजाफा हुआ. खेती की वजहों से आत्महत्या करने के मामलों में 61 फीसदी का इजाफा हुआ. राज्यवार आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि महाराष्ट्र में सब से ज्यादा 3030, तेलंगाना में 1358, कर्नाटक में 1197, छत्तीसगढ़ में 854 और मध्य प्रदेश में 516 किसानों ने आत्महत्याएं कीं. कर्नाटक में किसानों की आत्महत्याओं में 1 साल के भीतर तकरीबन 3 गुने का इजाफा हुआ.
एनसीआरबी ने जो आंकड़े जारी किए हैं, वे किसानों और उन के परिवारों से जुड़ी बेहद दुखद तसवीर को बयां कर रहे हैं. कहां तो सरकार ने दावा किया था कि 5 सालों में किसानों की आय को 2 गुना किया जाएगा, लेकिन हालात इस के उलट हैं. एक तरफ तो किसान कुदरत की मार और साहूकारों के कुचक्र में पिस रहे हैं, तो दूसरी ओर सरकार भी उन की मदद से हाथ खींच रही है.
मध्य प्रदेश में भी खुदकुशी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, वहां साल 2015 में रोजाना औसतन 4 किसानों ने जान दी. साल 2016 में रोजाना जान देने वालों की तादाद बढ़ कर 6 हो गई थी. योजना आयोग के पूर्व सदस्य अभिजीत सेन का कहना है कि ज्यादातर किसान साहूकारों से ही कर्ज लेते हैं, क्योंकि वे बैंकों व माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस के मुकाबले लचीले होते हैं.
भारतीय किसानों के बारे मे एक कहावत सदियों से कहीसुनी जाती है कि ‘भारतीय किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में पलता है और कर्जदार रहते हुए मर जाता है’ यानी पैदा होने से ले कर मरने तक कर्ज उस का पीछा नहीं छोड़ता. जब कर्ज का बोझ इतना बढ़ जाए कि उसे चुका पाना मुमकिन न हो तो मजबूर हो कर किसान आत्महत्या कर लेते हैं.
कोई किसान आत्महत्या क्यों करता है इस के पीछे कई वजहें हो सकती हैं. सब से बड़ी वजह गरीबी और कर्ज है. भारतीय किसानों के पास गरीब होने की वजह से खेती की मशीनें नहीं होती हैं. ऐसे में हलबैल से खेती करना उस की मजबूरी है. ऐसी हालत में किसान मशीनें या तो किराए पर लाता है या फिर कर्ज ले कर खरीदता है. अगर किसान कर्ज ले कर मशीनें खरीदता है, तो उसे उस का भारीभरकम ब्याज चुकाना मुश्किल हो जाता है.
हालांकि देश में बैंकिंग सुविधाएं बढ़ी हैं, तो भी एक आम किसान बैंकों की बजाय साहूकार से ही रकम उधार लेता है. जब ब्याज चुकाना ही कठिन हो तो मूलधन चुकाना भी मुश्किल हो जाता है. ऐसे में किसान खुदकुशी कर लेते हैं.
किसान खाद, बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक दवाओं वगैरह के लिए कर्ज लेते हैं. लेकिन जब कुदरती आपदा की वजह से उन की फसल चौपट हो जाती है, तो उन की आशाओं पर पानी फिर जाता है और वे मजबूर हो कर खुद को मिटा डालते हैं. सूखा, बाढ़, पाला फसलों के रोग, कीड़ों, आगजनी व जानवरों वगैरह की वजह से किसानों को अकसर लाभ की बजाय हानि उठानी पड़ती है. ऐसे में वे अपने परिवार का पेट कैसे पालें घबरा कर वे न केवल अपनी जान ही देते हैं, बल्कि अपने पूरे परिवार को मौत की नींद सुला देते हैं.
भारतीय किसानों में ज्यादातर कम पढ़ेलिखे हैं. वे तमाम सामाजिक रीतिरिवाजों, रूढि़यों और कुप्रथाओं से जकड़े रहते हैं. इन सब में वे फुजूलखर्ची करते हैं. आज भी वे कर्ज ले कर मृत्युभोज का आयोजन बड़े पैमाने पर करते हैं, मगर वह कर्ज अकसर चुका नहीं पाते और फिर हार कर खुदकुशी कर लेते हैं. छोटे किसान पशुओं पर निर्भर रहते हैं. आजकल पशु काफी महंगे हो गए हैं. ऐसे में यदि असमय अचानक पशुओं की मौत हो जाए, तो उन का मामला गड़बड़ा जाता है. वे पशुओं के लिए लिया गया कर्ज चुका नहीं पाते और अकसर हार कर खुदकुशी कर लेते हैं.
ग्रामीण इलाकों में किसानों के बीच जमीन संबंधी मामलों को ले कर काफी मुकदमेबाजी होती है, जिस में उन का काफी पैसा खर्च होता है. ऐसे में यदि वे मुकदमा हार जाते हैं, तो आत्महत्या के सिवा उन्हें कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझता. कहने को तो भारत एक कृषि प्रधान देश है और देश के किसान सभी का पेट भरने के लिए अन्न उपजाते हैं. लेकिन यह भी एक हकीकत है कि ज्यादातर किसान या तो खेतीहर मजदूर हैं या उन के पास इतनी कम जमीन है कि खेती उन के लिए घाटे का सौदा बन कर रह गई है. ऐसे में दूसरों के लिए अन्न उपजाने वाले ये गरीब किसान अकसर घबरा कर खुदकुशी कर लेते हैं.
किसानों को राहत पहुंचाने के लिए केंद्र और राज्य दोनों एकदूसरे पर जिम्मेदारी डालते हैं, लेकिन यह जिम्मेदारी दोनों की है, क्योंकि किसान देश का है किसी राज्य विशेष का नहीं. उस का दुखदर्द हर स्तर पर जाननासमझना होगा और उस का हल भी करना होगा. जब केंद्र और राज्य में अलगअलग दलों की सरकारें होती हैं, तो वे किसानों की आत्महत्याओं और मदद को ले कर राजनैतिक रोटियां सेकने लग जाती हैं. ऐसे में किसानों के हाथ कुछ भी नहीं लगता. किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामले दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं, जिन्हें राजनैतिक रंग दे कर इलजाम लगाने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा.
ऐसे में अहम सवाल उठता है कि आखिर देश के किसान आत्महत्या पर क्यों उतारू हो रहे हैं उन के दर्द और परेशानियों को आजादी के 7 दशकों बाद तक दूर नहीं कर पाना हमारी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक नीतियों पर सवालिया निशान लगाता है. वैसे आजादी के बाद देशभर में बैंकों व सहकारी संस्थाओं का जाल बिछाया गया है, फिर भी किसानों की साहूकारों पर निर्भरता कम नहीं हुई है.
साहूकार किसानों का शोषण करते हैं और उन्हें कभी कर्ज मुक्त नहीं होने देते. ऐसे में उन कर्जदार किसानों की मौत के बाद कर्ज की भरपाई उन के घर वालों से कराई जाती है. किसान के बेवक्त मरने का साहूकार की सेहत पर जरा सा भी असर नहीं पड़ता है. भारतीय कृषि मानसून का जुआ है यानी उस पर निर्भर है. कई बार मानसून की गड़बड़ी से किसानों की फसलें पूरी तरह से बरबाद हो जाती हैं. ऐसे बदहाली के आलम में उन्हें कर्ज चुकाने के लिए मजबूर किया जाए तो वे कहां से चुकाएंगे ऐसे में उन्हें सरकारी मदद की उम्मीद रहती है. अगर समय पर मदद नहीं मिलती, तो अकसर तमाम किसान घबरा कर खुदकुशी कर लेते हैं. कृषि प्रधान देश का एक किसान अगर आत्महत्या करता है, तो इस से ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है हमारे लिए हर किसान बेशकीमती है और उस की जान हर कीमत पर बचानी चाहिए.
बरबादी टमाटरों की – प्रदीप कुमार शर्मा
यह झारखंड सरकार के निकम्मेपन का ही नतीजा है कि किसान भारी मात्रा में उपजे टमाटरों को खरीदार न मिलने के कारण नजदीकी टाटा रांची राजमार्ग एनएच 33 पर फेंकने को मजबूर हो गए. बताया जाता है कि बाहर के व्यापारियों को 50 पैसे प्रति किलोग्राम के हिसाब से देने के बावजूद उन्होंने टमाटरों की खरीदारी में जरा भी रुचि नहीं दिखाई.
वैसे सर्दी का मौसम टमाटर उत्पादन के लिए सब से अच्छा होता है. इस समय टमाटर सहित तमाम सब्जीभाजियों की बंपर खेती होती है. खेती करने वाले किसान दूसरी सब्जियों के मुकाबले टमाटर की खेती करने में ज्यादा रुचि दिखाते हैं, क्योंकि टमाटर की खेती में ज्यादा मेहनत की जरूरत नहीं होती. टमाटर एक ऐसी सब्जी है, जो खाने के स्वाद को बढ़ाती है. इस में विटामिन भी भरपूर होता है. किसी भी सब्जी में टमाटर डाल कर खाना भारत का रिवाज है. सलाद के रूप में इस का काफी ज्यादा इस्तेमाल होता है. इस के बगैर सब्जी बेमजा हो जाती है. यही कारण है कि इस की मांग हर घर में हमेशा बनी रहती है.
टमाटर की खेती के लिए नमी की बहुत जरूरत होती है, इसीलिए इस की खेती के लिए जाड़े का मौसम सब से सही होता है. बेमौसम में जब टमाटर की उपज नहीं होती, तब इस की मांग काफी बढ़ जाती है. ऐसी हालत में इस के दाम उछल कर 70-80 रुपए प्रति किलोग्राम तक हो जाते हैं. वैसे सामान्य दिनों में इस की कीमत 20 से 25 रुपए प्रति किलोग्राम तक हो जाती है.
ज्यादा मांग को देखते हुए तकरीबन सभी किसान अपने खेतों में टमाटर जरूर लगाते हैं. इस की खेती काफी आसान है. बस एक बार पौधा रोप कर 2 से 3 बार पानी देने की जरूरत होती है. इस की देखभाल करने की भी ज्यादा जरूरत नहीं होती. टमाटर का पौधा करीब 3 से 4 फुट ऊंचा होता है. जब उस में टमाटर लगने लगते हैं, तो भारी होने की वजह से वह झुक जाता है. ऐसे में उसे बांस की छड़ी से बांध कर खड़ा रखा जाता है. पूरे मौसम में 1 पौधे से 50 से 70 टमाटर तोड़े जाते हैं.
झारखंड के किसान खेती लायक जमीन होते हुए भी गरीबी और बदहाली की जिंदगी जीते हैं. वे सभी प्रकार की खेती नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें सरकार से कोई सुविधा प्राप्त नहीं हैं. उन्हें सरकार की तरफ से यह जानकारी नहीं दी जाती है कि कौन सी सब्जी लगाने से ज्यादा फायदा होगा. वे ज्यादातर धान की खेती करते हैं और सिंचाई के लिए बरसात के पानी पर निर्भर रहते हैं.
पिछले कुछ सालों से झारखंड ग्लोबल वार्मिंग के कारण सूखे का सामना कर रहा है. वहां औसत बारिश होती है, जो खेती के लिए पर्याप्त नहीं होती. एक साल अच्छी बारिश होती है, तो दूसरे साल राज्य में सूखा पड़ जाता है. राज्य सरकार द्वारा बनाई गई नहर सिंचाई योजना का हाल भी खस्ता है. वहां गरमी के मौसम में पानी के लिए हाहाकार मच जाता है. आम लोगों को जब पीने के लिए पूरा पानी नहीं मिल पाता है, तो फिर खेती के लिए कहां से मिलेगा. नदियों पर बैराज बनाए गए हैं, जोकि अधूरे ही हैं. आम किसानों को उन से कोई फायदा नहीं है. खेती में सिंचाई के लिए वहां के किसान खुद अपने भरोसे रहते हैं. वे नदी, तालाब या नाले के पानी को डीजल की मोटर से खींच कर अपने खेतों तक पहुंचाते हैं. ऐसे में उन्हें खेती करना महंगा पड़ जाता है.
मायूस किसान बताते हैं कि टमाटर की खेती वे इसलिए भी करते हैं, क्योंकि इस में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है और न ही खास लागत लगती है. पैदावार भी अच्छी हो जाती है, इसीलिए वे जाड़े के मौसम में टमाटर की खेती करते हैं. मगर बुरी हालत तब हो जाती है, जब किसान टमाटर बेचने के लिए कसबे के बाजार में लाते हैं और खरीदार नहीं मिल पाते. बाहर के व्यापारी कसबे के बाजार में नहीं आते. वे राष्ट्रीय राजमार्ग पर ही माल मंगवाते हैं, ताकि उन्हें ले जाने में आसानी हो.
व्यापारियों से सौदा तय हो जाने पर टमाटरों को डब्बों में भर कर गाड़ी में लदवाने तक का खर्च किसानों को झेलना पड़ता है. इस के बाद भी किसी वजह से जब माल नहीं बिकता तो उसे वापस ढो कर ले जाने में किसान सक्षम नहीं होते और माल जहां का तहां छोड़ कर भारी मन से वापस गांव लौट जाते हैं. किसानों ने बताया कि इस साल ज्यादा टमाटर होने की वजह से इस का बाजार मूल्य 50 पैसे प्रति किलोग्राम हो गया था, फिर भी खरीदार नहीं मिल रहे थे. ऐसे में हार कर वे टमाटरों को सड़कों पर फेंकने पर मजबूर हुए.
किसानों ने बताया कि वे काफी अरसे से कोल्ड स्टोरेज की मांग कर रहे हैं, लेकिन अभी तक इस पर कोई काम नहीं हुआ, जबकि झारखंड के 2016 के बजट में यहां के किसानों की कच्ची उपज को रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज प्रस्तावित है. लेकिन अभी तक इस पर काम भी शुरू नहीं हुआ. नतीजतन हर साल उन्हें हजारों रुपए का नुकसान होता है.
किसानों ने बताया कि सरकारी सहायता के बिना कोल्ड स्टोरेज बनाना मुमकिन नहीं है, क्योंकि वहां के ज्यादातर किसान गरीब हैं. सब्जीभाजी बेच कर जो पैसा आता है, वह फिर से सब्जीभाजी रोपने के लिए कम पड़ जाता है. खेती को उपजाऊ बनाए रखने के लिए खाद की जरूरत होती है, पर खाद बहुत महंगी हो गई है. नए तरह के कृषि यंत्र उन की पहुंच से बाहर हैं, लिहाजा वे पारंपरिक तरीके से ही खेती करने को मजबूर हैं. किसानों का कहना है कि अगर झारखंड सरकार उन की ओर ध्यान दे, तो वे सब्जी उगा कर भरपूर पैसे कमा सकते हैं. तब रोजगार के लिए उन्हें दूसरे शहरों की ओर नहीं जाना पड़ेगा.
बहुत ज्यादा मात्रा में उगी सब्जीभाजियों को बरबाद होने से बचाने और उन की ताजगी को बरकरार रखने के लिए पिछले साल झारखंड सरकार ने किसानों से फूड प्रोसेसिंग का काम शुरू करने के लिए कहा था, मगर बाद में इस बारे में सरकार का कोई सहयोग नहीं मिला नतीजतन समस्या जस की तस बनी हुई है और किसान जरूरत से ज्यादा उपजी सब्जीभाजियों को फेंकने पर मजबूर हैं.