सावन में होने वाली कांंवड़ यात्रा को अब तथाकथित ऊंची जाति के तबके ने तकरीबन छोड़ दिया है. सवर्ण समाज के बच्चे अब इंगलिश स्कूलों यहां तक कि विदेशों तक में पढ़ते हैं. कांवड़ यात्रा अब सिर्फ पिछड़ा वर्ग, दलित और आदिवासियों के बच्चे करते हैं. आप चाहें तो कांंवड़ यात्रियों का सर्वे कर सकते हैं, उन के जनेऊ भी चैक कर सकते हैं.
मांं लोगों के घरों में चौकाबरतन कर के घर चला रही है, पिता मजदूरी कर रहे हैं या फिर किसी प्राइवेट कंपनी में छोटीमोटी नौकरी कर के परिवार के लिए रोजीरोटी का बंदोबस्त कर रहे हैं और जवान बेटा भगवा गमछा गले में लटका कर धर्म की रक्षा में जुटा है. ऐसे बेरोजगार ज्यादातर एससी, एसटी और ओबीसी में ही बहुतायात से पाए जाते हैं.
सावनभादों के मौसम में अकसर लोगों को रंगबिरंगे, पचरंगे, सतरंगे झंडेझंडिया लिए जयकारे लगाते पैदल सड़कों पर यात्रा करते देखा जा सकता है. जयपुर इलाके में कहीं डिग्गी कल्याण की पदयात्राएं, तो कहीं अजमेर की तरफ जाने वाले रास्तों पर ख्वाजा के जायरीन, कहीं सवाईभोज के दीवाने, तो कहीं जोगमाया के चाहने वाले... सब से ज्यादा भीड़ सड़कों पर इन दिनों रामदेवरा जाने वाले जातरुओं की होती है. भगवा रंग में रंगे कांवड़िए तो देशभर में नजर आते ही हैं.
झंडा उठाए इन भक्तगणों की सोशल प्रोफाइल देखने, इन के चेहरे पढ़ने, इन की माली, सामाजिक बैकग्राउंड पर ध्यान देते हैं, तो साफ जाहिर होता है कि ये दलित, पिछड़े व आदिवासी जमात के गरीबगुरबे, किसानमजदूर ही होते हैं.
हालांकि यह कीमती समय इन के खेतों में होने का है. इस समय फसलें आकार ले रही होती हैं, खेतों को निराईगुड़ाई की सख्त जरूरत रहती है, नदीनाले, तालाबएनीकट व खेतों के भरनेफूटने के दिन होते हैं, जलसंचय का मौसम होता है, अपनी आजीविका के साधनसंसाधनों को सहेजनेसंभालने का समय होता है, लेकिन ये अपना घरबार छोड़ कर निकल पड़ते हैं. इन गरीबों, मेहनतकशों को ईश्वर की तथाकथित कृपा चाहिए, इन्हें देवीदेवताओं का आशीर्वाद हासिल करना है, सो ये झंडा ले कर निकल पड़ते हैं.
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