उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा के बीच स्थित चंबल घाटी सदा से ही लोगों में दिलचस्पी का विषय रही है. इसकी वजह यहां रहने वाले खूंखार डकैत हैं. चंबल केवल डकैतों की वजह से ही मशहूर नहीं है. इसकी और भी खासियत है. चंबल को करीब से देखने समझने और यहां की दशा लोगों तक पहुंचाने के लिये युवा सोशल एक्टिविस्ट शाह आलम ने साइकिल से यहां की लंबी यात्रा की. साइकिल से चंबल की करीब 2300 किलोमीटर से अधिक की यात्रा कर चुके शाह आलम अब चम्बल के बीचों-बीच 25 मई से जन संसद शुरू करने जा रहे हैं. 25, मई 1857 में यहां से शुरू होने वाली जनक्रांति के 160 साल पूरे होने पर शुरू हो रही जनसंसद के दौरान चम्बल घाटी के अवाम, एक्टिविस्ट व जन प्रतिनिधि का जमावड़ा होगा.

जन संसद के दौरान चम्बल की समस्याओं को उजागर किया जाएगा. जनसंसद में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान राज्यों के लोग शरीक होंगे. कई सत्रों में चलने वाली जन संसद में लोगों के बीच से एक-एक सत्र के लिए अलग-अलग जन सांसद चुना जाएगा, जो अपने इलाके की समस्याएं रखेंगे. इन समस्याओं का दस्तावेजीकरण कर सरकार व प्रशासन के सामने रखा जायेगा. हजारों किलोमीटर यात्रा करने वाले देश के पहले एक्टिविस्ट बने शाह आलम बीहड़ांचल को ‘नर्सरी ऑफ सोल्जर्स’ बताते हैं. वह कहते हैं कि चम्बल डकैतों  के लिए ही जाना गया, लेकिन यह धारणा गलत है. चम्बल ने देश को इतने क्रांतिकारी दिए हैं कि इसे ‘नर्सरी ऑफ सोल्जर्स’ कहना बड़ी बात नहीं होगी.

शाह आलम कहते है कि 25 मई, 1857 को चम्बल की मशहूर पचनदा (पांच नदियों का संगम) से छापामार जंग की शुरुआत हुई थी. 25 मई को इस क्रांति के 160 साल पूरे हो रहे हैं. क्रांतिकारियों ने इसी इलाके में अंग्रेजों के खिलाफ सामूहिक योजनायें बनाई. चम्बल की घाटी के बीहड़ो को क्रांतिकारियों ने तैयारी के लिए सबसे अहम स्थान बनाया. इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि जैसी तैयारी यहां क्रांतिकारियों ने की, उत्तर भारत में वैसी तैयारी कहीं और नहीं हुई. यहां सैकड़ों क्रांतिवीरों ने अंग्रेजों सेना से लड़ते हुए शहादत दी थी.

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फौज में सबसे ज्यादा सिपाही चम्बल की घाटी के थे. शहीद आजम भगत सिंह को चम्बल के जंगल पसंद थे. इसके साथ ही उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात गेंदालाल दीक्षित, राम प्रसाद बिस्मिल, काशीबाई, जंगली-मंगली बालिमिकी, जन नायक गंगा सिंह, तेजाबाई, शेर अली नूरानी जैसे दर्जनों क्रांतिकारी चम्बल की घाटी को ट्रेनिंग सेंटर बनाया. उन्होंने बताया कि सन 1916 में बने उत्तर भारत के गुप्त क्रांतिकारी दल ‘मातृदेवी’ की सेन्ट्रल कमिटी के 40 सदस्यों में से 30 चम्बल के बागी ही थे. चम्बल में आजादी का बिगुल लगातार बजता रहा.

आजादी के बाद चम्बल की समस्याओं और अत्याचार ने डकैतों को जन्म दे दिया. डकैतों का पनपना आजाद भारत की सरकार की बड़ी खामी थी. देश और दुनिया ने चम्बल को डकैतों के रूप में जान लिया और चम्बल के गौरवशाली इतिहास को भुला दिया गया. शाह आलम ने बताया कि इसी उपेक्षा के कारण चम्बल समस्याओं की खान बन चुका है. चम्बल को उसका हक और पहचान दिलाने के लिए पांच नदियों के संगम पचनदा पर जनसंसद होगी. इसके साथ ही बीहड़ के रहवासियों के साथ जालौन के पचनद, जगम्मनपुर में घाटी की मौजूदा समस्याओं पर मंथन होगा. यहां चुने गए जनसांसद जो अपने इलाके की जन समस्याओं को प्रमुखता से सदन के बीच रखेगा. जनसंसद के दौरान चम्बल घाटी के तीन राज्यों औरैया, इटावा, जालौन, भिन्ड, मुरैना, धौलपुर के बीहड़ों में कठिन जीवनयापन से जूझ रहे ज्वलंत सवालों से पटल को रुबरु करायेंगे.

बस्ती जिले के नकहा गांव में जन्मे शाह आलम अयोध्या के निवासी हैं. अवध यूनिवर्सिटी और  जामिया सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी से पढ़ाई के बाद एक दशक से ज्यादा समय से दस्तावेजी फिल्मों का निर्माण किया. सामाजिक सरोकारों के लिए 2002 में चित्रकूट से अयोध्या तक, 2004 मेहंदीगंज बनारस से सिंहचर तक, 2005 में इंडो-पाक पीस मार्च दिल्ली से मुल्तान तक, 2005 में ही सांप्रदायिक सौहार्द के लिए कन्नौज से अयोध्या, 2007 में कबीर पीस हॉर्मोनी मार्च अयोध्या से मगहर, 2009 में कोसी से गंगा तक बिहार में पुनर्वास का हाल जानने के लिए पैदल यात्रा की. शाह आलम 2006 से ‘अवाम का सिनेमा’ के संस्थापक हैं. ‘अवाम का सिनेमा’ के देश में 17 केन्द्र हैं. जहां कला क विभिन्न माध्यमों को समेटे एक दिन से लेकर हफ्ते भर तक आयोजन अक्सर चलते रहते हैं. अवाम का सिनेमा के जरिये वह नई पीढ़ी को क्रांतिकारियों की विरासत के बारे में बताते हैं. शाह आलम ने बीते साल मई, जून, जूलाई के महीने में 2300 किमी से अधिक दूरी सायकिल से तय करके चंबल के बीहड़ो का दस्तावेजीकरण किया था.

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