शादी के 7-8 साल बाद रमिया के पैर भारी हुए थे. बलदेव ने तो आस ही छोड़ दी थी, मगर अब उस के कदम जमीन पर नहीं पड़ते थे.

दोनों पतिपत्नी मजदूरी करते थे. काम मिल जाता तो ठीक, नहीं तो कई बार फाका करने की नौबत आ जाती. मगर थे तो इनसान ही, उन के अंदर भी मांबाप बनने की चाह थी.

ब्याह के सालभर बाद ही बलदेव की अम्मां ने रमिया को ‘बांझ’ कहना शुरू कर दिया था. आतेजाते टोले की औरतें अम्मां से पूछतीं, ‘बलदेव की अम्मां, कोई खुशखबरी है क्या?’

यह बात सुन कर वे कुढ़ जातीं. घर में रोज कलह मचने लगा था. रमिया तो कुछ कहती न थी, चुपचाप सारी कड़वाहट झेल जाती, पर बलदेव उस के हक में मां से लड़ पड़ता.

तब मां उसे गाली देतीं, ‘कमबख्त, मेरी कोख का जना कैसे उस के लिए मुझ से ही लड़ रहा है. करमजली ने मेरे छोरे को मुझ से छीन लिया.’

जब बलदेव और रमिया के सब्र का पैमाना छलकने लगा, तो उन्होंने घर? छोड़ दिया और दूसरे शहर में जा कर मजदूरी करने लगे.

जचगी का समय नजदीक आता जा रहा था. उन की खुशी और चिंता का दिलों में संगम सा हो रहा था. रमिया ने बच्चे के लिए छोटेछोटे कपड़े तैयार कर रखे थे.

‘‘ओ रमिया, मुझे तो बेटी चाहिए, बिलकुल तेरे जैसी,’’ बलदेव अकसर उस से चुहल करता.

रमिया कहती, ‘‘अगर छोरा होगा, तो क्या उसे प्यार न करोगे?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’ यह सुन कर रमिया रूठ जाती.

बलदेव कहता, ‘‘छोरे कमबख्त किसी की बात नहीं सुनते, दिनभर ऊधम मचाते हैं...’’

‘‘पर तुम भी तो मरद हो?’’

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