लेखक – मनोज शर्मा, Family Story : घर की दहलीज पर चांदनी हाथ बांधे खड़ी थी. सामने आतेजाते लोगों में अपनी शाम ढूंढ़ रही थी. कोई दूर से देख लेता तो एक पल के लिए दिल मचल जाता, पर उसे वापस लौटते देखते ही सारी उम्मीदें टूट जातीं.
लौकडाउन से पहले ही आखिरी बार कोई आया था शायद…वह बंगाली, जिस के पास पूरे पैसे तक नहीं थे, फिर अगली बार रुपए देने का वादा कर के सिर्फ 50 का नोट ही थमा गया था.
उस रोज ही नहीं, बल्कि उस से पहले से ही लगने लगा था कि अब इस धंधे में भी चांदनी जैसी अधेड़ औरतों के लिए कुछ नहीं रखा, पर उम्र के इस पड़ाव पर कहां जाएं? उम्र का एकतिहाई हिस्सा तो यहीं निकल गया. सारी जवानी, सारे सपने इसी धंधे में खाक हो चुके हैं. अब तो यही नरक उस का घर है.
कभी जब चांदनी कुछ खूबसूरत थी, सबकुछ जन्नत लगता था. हर कोई उस की गदराई जवानी पर मचल जाता था. पैसे की चाह में सब की रात रंगीन करना कितना अच्छा लगता था.
पर, अब तो जिंदगी जहन्नुम बन चुकी है. लौकडाउन में पहले कुछ दिन बीते, फिर हफ्ते और अब तो महीने. यहां कई दिनों से फांके हैं. कैसे जी रही है, चांदनी खुद ही जानती है. सरकार कुछ नहीं करती इस के लिए. न अनाज का दाना है अब और न ही फूटी कौड़ी. कोई फटकता तक नहीं है अब.
जब चांदनी नईनई आई थी, तब बात ही अलग थी. 12 साल पहले, पर ठीक से याद नहीं. वे भी क्या दिन थे, जब दर्जनों ड्रैस और हर ड्रैस एक से बढ़ कर एक फूलों से सजी. कभी गुलाबी, कभी सुनहरी और कभी लाल. कभी रेशमी साड़ी या मखमली लाल चमकीला गाउन.
रोजरोज भोजन में 3 किस्म की तरकारी, ताजा मांस, बासमती पुलाव, पूरीनान. क्या स्वाद था, क्या खुश थी. घर पर पैसा पहुंचता था, तो वहां भी चांदनी की तूती बोलती थी. नएनए कपड़े, साजोसामान के क्या कहने थे. बस राजकुमारी सी फीलिंग रहती थी.
हर ग्राहक की पहली पसंद उन दिनों चांदनी ही थी और दाम भी मनचाहा. जितना मांगो उतना ही. और कई बार तो डबल भी. हर शिफ्ट में लोग उस का ही साथ मांगते थे. सोने तक नहीं देते थे रातभर. और वह बूढ़ा तो सबकुछ नोच डालता था और फिर निढाल हो कर पड़ जाता था. वे कालेज के लड़के तो शनिवार की शाम ही आते थे, पर मौका पाते ही चिपट जाते थे. हां, पर एक बात तो थी, अगर शरीर चाटते थे तो पैसा भी मिलता था और फिर कुछ घंटों में ही हजारों रुपए.
आज देह भी काम की नहीं रही और एक धेला तक साथ में नहीं. शक्ल ही बदल गई, जैसे कोई पहचानता ही न हो. बूढ़ा बंगाली या गुटका खाता वह ट्रक ड्राइवर या 2-4 और उसी किस्म के लोग, बस वही दोचार दिनों में. सब मुफ्तखोर हैं. मुफ्त में सब चाहते हैं. अब यहां कुछ भी नहीं बचा. यह तो जिंदगी का उसूल है कि जब तक किसी से कोई गर्ज हो, फायदा हो, तभी तक उस से वास्ता रखते हैं, वरना किसी की क्या जरूरत.
अब तो कालेज के छोकरे चांदनी की सूरत देखते ही फूहड़ता से हंसने लगते हैं, पास आना तो दूर रहा. 100-50 में भी शायद अब कोई इस शरीर को सूंघे. आंखें यह सब सोचते हुए धरती में गढ़ गईं. चांदनी रेलिंग पर हथेली टिकाए सुनसान सड़क को देखती रहती है.
कितना बड़ा घर था, पर अब समय के साथसाथ इसे छोटा और अलहदा छोड़ दिया गया है. कभी यह बीच में होता था. जब सारी आंखें चांदनी को हरपल खोजती थीं, पर अब इसे काट कर या मरम्मत कर एक ओर कर दिया है, ताकि चांदनी जवान और पैसे वाले ग्राहकों के सामने न आ सके, शायद ही कभीकभार कोई आंखें इस ओर घूरती हैं.
और फिर गलती से यहां कोई पहुंच भी जाता है तो आधे पैसे तो दलाल ले जाता है. वह मुच्छड़ वरदी वाला या वह टकला वकील और छोटेमोटे व्यवसायी या दूरदराज से आए नौकरीपेशा लोग ही यहां आते हैं. इस शरीर की इतनी कम कीमत, यह सोच कर ही मन सहम जाता है.
टैलीविजन का स्विच औन करते हुए चांदनी खिड़की से बाहर सुनसान सड़क पर देखती है. 2-1 पियक्कड़ इस ओर घूर रहे हैं. जाने कभी आए हों यहां किसी रोज. अब तो याद भी नहीं.
आज चांदनी का उदास चेहरा और अलसाई सी आंखें उन्हें खींचने में पूरी तरह नाकाम हैं. शायद भूखा पेट किसी की हवस को पूरा करने में अब नाकाम है और शरीर का गोश्त भी ढल चुका है.
चांदनी ने चैनल बदलतेबदलते किसी न्यूज चैनल पर टीवी पर कोरोना के बढ़ते प्रकोप को देखा. मर्तबान से मुट्ठीभर चने निकाल कर धीरेधीरे चबाने लगी. कुछ ही देर में टैलीविजन बंद कर के वह पलंग पर लेट गई. उस की खुली आंखें छत पर घूमतेरेंगते पंखे की ओर कुछ देर देखती रहीं और फिर वह गहरी नींद में खो गई.
सुबह कमरे के बाहर से चौधरी के चीखने की सी आवाज सुनाई पड़ी. रात की चुप्पी कहीं खो गई और सुबह का शोर चल पड़ा.
जाने क्यों लगा, सींखचों से कोई कमरे में झांक रहा है. आवाज बढ़ने लगी और गहराती गई.
‘‘3 महीने हो गए भाड़ा दिए हुए…’’ चौधरी के स्वर कानों में पड़ने लगे, ‘‘तुम्हारे बाप का घर है? मुझे शाम तक भाड़ा चाहिए, कैसे भी दो.’’
वही पुरानी तसवीर, जो 10-12 बजे के आसपास 2-3 महीनों में अकसर उभरती है.
चांदनी ने सींखचों से झांक कर देखा चौधरी का रौद्र रूप. लंबातगड़ा गंजा आदमी, सफेद कमीज पर तहमद बांधे मूंछों पर ताव देता गुस्से में चीख रहा था. वह बारीबारी से हर बंद कमरे की ओर देख कर दांत पीसता और आंखें तरेरता.
उस के सामने कुरसी रख दी गई, पर वह खड़ा ही खड़ा सब को आतंकित करता रहा.
‘‘अरे चौधरी साहब, बैठ भी जाइए अब,’’ अमीना बानो ने कुरसी पर बैठने के लिए दोबारा इशारा किया.
एक बनावटी हंसी लिए अमीना कितने ही दिनों से चौधरी को फुसला रही है, ‘‘अच्छा बताइए, आप चाय लेंगे या कुछ और?’’
‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल भाड़ा चाहिए.’’
8-9 साल की लड़की के कंधे को मसलते हुए अमीना ने चौधरी के लिए चाय बनवा कर लाने को बोला.
‘‘नहींनहीं, मैं यहां चाय पीने नहीं आया हूं. अपना भाड़ा लेने आया हूं.’’
छोटी लड़की झगड़ा देखते हुए तीसरे कमरे में घुस जाती है.
उसी कमरे के बाहर झड़ते पलस्तर की ओर देखते हुए चौधरी ने कहा, ‘‘घर को कबाड़खाना बना कर रख दिया है अमीना तुम लोगों ने… न साफसफाई, न लिपाईपुताई. देखो, हर तरफ बस कूड़ाकरकट और जर्जर होती दीवारें. सोचा था कि इस बार इस घर की मरम्मत करा दूंगा, पर यहां तो भाड़ा तक नहीं मिलता कभी टाइम से.
‘‘मैं 10 तारीख को फिर आऊंगा. मुझे भाड़ा चाहिए जैसे भी दो. घर से पैसा मंगवाओ या कहीं और से, मुझे
नहीं मालूम.’’
‘‘अरे चौधरी साहब, इन दिनों कोई नहीं आता यहां,’’ दूसरी कुरसी करीब सरका कर चौधरी को समझाने की कोशिश करते हुए अमीना ने कहा.
‘‘आप का भाड़ा क्यों नहीं देंगे… हाथ जोड़ कर देंगे. बहुत जल्दी सब ठीक हो जाएगा, टैंशन न लो आप. आप के चलते ही तो हम सब हैं यहां, वरना इस धरती पर हमारा कोई वजूद कहां.’’
सामने एक कमरे से एक जवान होती लड़की उठी. दरवाजा खोल कर अमीना के पास आई और ऊंघने लगी, ‘‘अम्मां क्या हुआ? कौन है ये बाबू? क्या कह रहे हैं?’’
इतना कह कर चौधरी की तरफ देख कर वह जबान पर जीभ फिरा कर हंसने लगी. उस लड़की की शक्लोसूरत पर अजीब सी मासूमियत है, पर उस की छाती पूरी भरी है, जिस पर इस अल्हड़ लड़की को खास गुमान है. उस के बदन पर एक टाइट मैक्सी है.
चेहरे पर गिरी जुल्फें उसे और खूबसूरत बना रही हैं. चौधरी की नजरें अमीना से हट कर उस ओर चली गईं और रहरह कर उस के गदराए बदन पर टिक जाती हैं.
अमीना की तरफ देखते हुए चौधरी बोला, ‘‘कौन है यह? नई आई है क्या? पहले तो इसे कभी नहीं देखा?’’
लड़की अपनी उंगलियों से बालों की लटों के गोले बनाती रही.
‘‘हां, यह कुछ दिन पहले ही यहां आई है. मुस्तफाबाद की जान है. अभी 17 की होगी, शायद दिसंबर में.’’
‘‘क्या नाम है तेरा?’’ लड़की को देखते हुए चौधरी बोला.
लड़की चुप रही, पर मुसकराती रही.
अमीना ने लड़की की कमर सहलाते हुए कहा, ‘‘बेटी, नाम बताओ अपना. ये चौधरी साहब हैं अपने. यह पूरा घर इन्हीं का है.’’
चौधरी किसी रसूखदार आदमी की तरह अपने गालों पर उंगली फिराने लगा.
लड़की गौर से देखती रही, कभी अमीना को तो कभी चौधरी को.
‘‘नरगिस है यह. नमस्ते तो करो साहब को.’’
लड़की हंसते हुए दोनों हथेलियां जोड़ कर सीने तक ले आई, पर चौधरी की आंखें अभी भी नरगिस के सीने पर थीं.
‘‘ओह नरगिस, कितना अच्छा नाम है,’’ एक भौंड़ी मुसकराहट लिए चौधरी बोला.
नरगिस अपनी तारीफ सुन कर चहकने लगी और अमीना की एक बांह पर लहर गई.
घड़ी में समय देखते हुए चौधरी कुछ सोचते हुए कुरसी से उठा. पहले इधरउधर देखा, पर जल्दी ही लौटने की बात कहता हुआ देहरी की ओर बढ़ने लगा.
अमीना ने कहा, ‘‘चाय की एक प्याली तो ले ही लेते?’’
मुंह पर मास्क लगाते हुए चौधरी ने नरगिस को भी मास्क लगाने की सलाह दी, ‘‘फिर आऊंगा. सब अपना खयाल रखना.’’
नरगिस के सीने पर नजर रखता और जबान पर होंठ फिराता हुआ चौधरी चला गया.
एकएक कर के कमरों की सांकलें खुलने लगीं. भूखेअलसाए चेहरे, जो अभी तक कमरों में बंद थे, बाहर दालान में इकट्ठा हो गए मानो किसी खास बात पर जिरह करनी हो.
‘‘कौन था? चौधरी?’’ एक अधेड़ उम्र की धंधे वाली ने अमीना से पूछा.
‘‘हां, चौधरी ही लग रहा था,’’ दूसरी ने बेमन से कहा.
‘‘और क्या हुआ तेरे सेठ का? कल भी नहीं आया क्या?’’ रोशनी की तरफ देखते हुए एक ने पूछा.
‘‘नहीं. लौकडाउन है न. फोन पर ही मजा लेता रहा, पर मैं ने भी पेटीएम से 500 रुपए झाड़ ही लिए.’’
‘‘अरे, यहां तो कोई ऐसा भी नहीं,’’ एक बोली और फिर वे एकदूसरे को देखते हुए बतियाने लगीं.
‘‘जैसे भी हो, अपनेअपने ग्राहकों को बुलाओ, नहीं तो चौधरी यहां से निकाल देगा,’’ अमीना ने नेता भाव से सब को इकट्ठा कर के कहा.
‘‘3 महीने हो गए हैं, एक धेला तक नहीं दे पाए उन को. वह महारानी कहां है? उसे यह सब दिखता नहीं क्या?’’ चांदनी के कमरे की तरफ देख कर अमीना ने आवाज दी, ‘‘चांदनी, ओ चांदनी.’’
चांदनी जैसे सपने से जाग गई हो.
एक बार तो दिल ने चाहा कि सांकल खोल कर सब की जबान पर लगाम लगा दे कि एक वक्त था, जब सारे उस की आमदनी पर जीते थे, पर आज मुश्किल घड़ी में ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं और यह चौधरी जब मूड करता था आ जाता था मुंह मारने, पर देखो तो आज कैसे सुर बदल गए हैं इस मरदूद के.
बाहर दालान में कुछ देर की बहस हुई. सब एकदूसरे को देखती रहीं, पर नतीजा कुछ नहीं निकला. सब को लगा कि अब नए सिरे से शुरुआत करनी होगी.
सुरैया पास ही खड़ी थी. चांदनी की रोंआसी सूरत देख और करीब आ गई. उस की ठुड्डी को सहलाते हुए बोली, ‘‘चांदनी दीदी, सब ठीक हो जाएगा.’’
सब अपनेअपने कमरे में लौट गईं. सुरैया न केवल शक्लोसूरत से खूबसूरत थी, बल्कि अच्छा गाती भी थी.
लौकडाउन से पहले सब से ज्यादा ग्राहक इसी के होते थे. कुछ तो केवल गायकी के फन को तराशने आते थे और 2-1 ने तो गाने के लिए बुलावा भी भेजा. जिस्म तो यहां सभी बेचती हैं, पर उस के सुर की बात ही अलग है. अगर वह यहां न आती और गायकी पर फोकस रखती तो जरूर ही नाम कमाती.
वह खाकी वरदी वाला रोज नई उम्मीद की किरण दे कर मुफ्त में सुरैया को नोच जाता है. बेचारी पढ़ीलिखी है. 10वीं तक स्कूल गई है, पर यहां आ कर सब एकसमान हो जाते हैं. आई तो यहां बाप के साथ कुछ बनने, पर इस खाकी वरदी वाले ने झूंठा झांसा दे कर इस धंधे में उतार दिया. अब खुद तो आता है 2-4 और भी आ जाते हैं. सुरैया न सही, मेरे जैसी अधेड़ ही मिल जाए.
सुरैया चांदनी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गई.
‘‘क्या हुआ? रो क्यों रही हो?’’ सुरैया ने चांदनी के बालों में उंगलियां फिराते हुए पूछा.
‘‘कुछ नहीं बस ऐसे ही. परसों देर रात तक तुम्हारे कमरे से आवाजें आ रही थीं,’’ चांदनी ने सुरैया से पूछा.
‘‘कब? अच्छा, परसों? वही वरदी वाला आया था. 3 और भी थे. मुंह पर मास्क बांधे थे. मैं ने जब पूछा कि दारोगा साहब कुछ बात बनी, मेरे गाने की तो वह हंसने लगा और मेरे सीने को छूने लगा. मैं ने उस से कुछ पैसे मांगे तो गाली देने लगा, पर एक धेला तक नहीं दिया…
‘‘उस का मुंह सूखे पान से भरा था. बीड़ी की राख फेंकते हुए बोला, ‘रानी, हो जाएगा सब. देखती नहीं कि अभी सब बंद है.’
‘‘और पीछे से उस ने आगोश में भर लिया. मैं ने कहा कि अच्छा दारोगा साहब थोड़े पैसे ही दे दो?’’
यह सुन कर उस का सारा नशा जाता रहा और गालीगलौज करने लगा.
‘‘चांदनी दीदी, आप ही बताओ कि अब कैसे चलेगा? सब मुफ्त में मजा चाहते हैं. कुत्ते कहीं के.’’
सुरैया बोलती रही, चांदनी सब ध्यान से सुनती रही.
‘‘पर, अब चारा भी क्या है. जब पेट की प्यास बुझाने को पैसा नहीं तो कोई क्या देह को दिखाए. वह रातभर के लिए अपने कमरे पर ले जाना चाहता था. बोलता था, ‘मेरी रानी, ऐश करवा दूंगा, चल तो बस एक बार.’
‘‘जब मैं ने मना किया तो मुझे घसीटने लगा. अमीना मैम ने समझाबुझा कर उसे चलता किया.’’
‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं मुझे?’’ चांदनी बोली.
‘‘चांदनी दीदी, अब क्या किसी को तंग करूं. तुम्हें मैं अपना मानती हूं, फिर यह सब देख कर तुम और ज्यादा दुखी होगी.’’
सुरैया की रोती आंखें चांदनी को देखती रहीं, कुछ देर तक वे दोनों चुप रहीं.
‘‘सुरैया एक काम करोगी मेरे लिए?’’
‘‘हांहां, कहो न?’’
‘‘नरगिस… जो अभी नई लड़की आई है न…’’
‘‘हां…’’
‘‘उसे यहां से कहीं दूर भेज दो, जहां वह जिस्मबाजारी न कर सके.’’
‘‘अभी तो वह बच्ची है. मैं उस में अपनी सूरत देखती हूं. इस जुम्मेरात जब अमीना बाई 1-2 घंटे के लिए बाहर जाए, तब किसी भी तरह उसे वापस भिजवा दो. तुम्हारा एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी या तुम 500-600 रुपए का इंतजाम कर दो, मैं ही उसे घर छोड़ आऊंगी सुरैया.’’
‘‘अरे दीदी, अभी सब बंद है. तुम कैसे जाओगी? और उस लड़की को भी तो समझाना होगा. वह तो अभी नासमझ है. देह ही निखरी है अभी, दिमाग से तो नादान ही है?’’
‘‘मैं जानती हूं, पर मौका पाते ही उसे भी समझा दिया जाएगा. वह चौधरी ही कहीं 1-2 दिन में… उस की नजर ही गंदी है. अब तो उस का वह छोकरा भी…’’
‘‘नहींनहीं दीदी, ऐसा नहीं होगा.’’
‘‘सुनो, एक बात बताऊं. यहां पास ही कालेज है. उस में पढ़ने वाला एक शरीफ लड़का है. उस से फोन पर बात करती हूं. वह कोई पढ़ाई कर रहा है धंधे वाली औरतों की जिंदगी पर. शायद, वह कुछ मदद कर दे.
‘‘जैसे भी हो, हम सब तो यहां बरबाद हो गईं अब और किसी नई को यहां न खराब होने दें.’’
‘‘ठीक है दीदी. आज दोपहर जब सब सोए होंगे, तब बात करते हैं. अच्छा, मैं भी अब चलती हूं. तुम से बतिया कर सच में सुकून पाती हूं. बहुत उम्मीद है तुम से.’’
‘‘अरे दीदी, ये बिसकुट तो खाती जाओ.’’
‘‘नहींनहीं, बस.’’
कमरे में लौट कर मानो चांदनी सब भूल गई. काम हो जाए. हमारा तो अब कोई नहीं हो सकता, पर उस की तो पूरी जिंदगी बन जाएगी. वह लड़का जरूर कुछ करेगा.
आज ही उस लड़के का फोन भी आना है. मेरी जिंदगी पर कुछ लिख रहा है वह. हां, रिसर्च कर रहा है. ये लोग काफी पढ़ेलिखे हैं, जरूर हमारी कुछ न कुछ मदद करेंगे.
चांदनी का दिल कहता है कि वह लड़का नरगिस के लिए कुछ करेगा. क्या नाम था उस का…?
जो भी हो, इस जहन्नुम भरी जिंदगी से इस लड़की को भेजना ही पहला काम होगा. सरकार और ग्राहकों के भरोसे भी कब तक बैठे रह सकते हैं. कोई किसी का नहीं इस नरक में.
अभी लौट गई तो कोई अपना भी लेगा. नहीं तो यह भी दूसरी धंधे वालियों जैसी हो जाएगी. जरूर कुछ होगा. अच्छा होगा, यकीनन.
3 महीने बाद…
‘‘ओह, कितना अच्छा लग रहा है आज 3 महीने बाद. नरगिस कैसी होगी? सुरैया, बात हुई कोई?’’
‘‘हां दीदी, कल रात हुई थी,’’ सुरैया चहकते हुए बोली.
चांदनी जैसे खुशी से झूम गई.
‘‘यह नया सूट कब लाई सुरैया? पहले तो कभी न देखा इस में.’’
‘‘दीदी, यह सूट उस पढ़ने वाले साहब ने दिया है. बहुत अच्छे हैं ये पढ़ने वाले लोग. हमारे जज्बात समझते हैं. कभी छुआ तक नहीं, पर हरमुमकिन मदद देते हैं. आप की बहुत तारीफ करता है वह.’’
‘‘कौन सा…?’’ चांदनी ने पूछा.
‘‘अरे वही, जिस ने नरगिस को यहां से उस के घर तक भिजवाया था. और न केवल भिजवाया था, बल्कि उस के घर वालों को अच्छे से समझाया भी था.’’
‘‘अच्छा…’’
‘‘हां, दीदी…’’
‘‘एक बात कहूं?’’
‘‘कहो न…’’
‘‘वे प्रोफैसर बन जाएंगे, कालेज में जल्दी ही.’’
‘‘अच्छा.’’
‘‘हां, वे बोलते हैं कि मेरे साथ घर बसाएंगे.’’
‘‘अरे वाह सुरैया, तेरा सपना अब पूरा हो जाएगा.’’
‘‘दीदी आप बहुत अच्छी हो, सब तुम्हारी बदौलत ही मुमकिन हुआ है. तुम सच में महान हो.’’
‘‘अरे नहीं सुरैया, मैं इस लायक कहां.’’
‘‘दीदी, अगर उन की किताब छप गई न, तो वे तुम्हें भी तुम्हारे घर पर भिजवा देगा.’’
‘‘अरे नहीं सुरैया, मेरा तो यही है सब स्वर्ग या नरक.’’
इस के बाद वे दोनों चहकते हुए घंटों तक बतियाती रहीं.