‘मांजी, यह तो ठीक है पर जरा सोचिए, जिन मांबाप ने जन्म दिया, जिन्होंने पालपोस कर इतना बड़ा किया, शादीब्याह किया, क्या कोई लड़की उन्हें एकदम भुला सकती है? यह तो खून का अटूट संबंध है. इसे भुलाना संभव नहीं,’ मैं भावावेश में कह गई.
‘बहू, हमारे भी मांबाप थे. हमारे भी खून के संबंध थे. पर एक बार इस घर की चौखट के अंदर कदम रखा नहीं कि एक झटके से मायके को भूल गए. यह तो जग की रीति है. शादी होती है. सात फेरों के साथ लड़की का नया रिश्ता जुड़ता है. पुराना रिश्ता टूट जाता है. ऐसा ही होता आया है.’
‘वह तो ठीक है, मांजी. लड़की का कर्तव्य है कि वह सासससुर, पति, बच्चों की सेवा करे पर इस का यह अर्थ नहीं कि वह अपने जन्मदाताओं के सुखदुख में भी काम न आए. यह कैसी एकांगी विचारधारा है?’
‘जो शादीशुदा लड़कियां हर समय मायके वालों के चक्कर में पड़ी रहती हैं वे ससुराल में किसी को सुखी नहीं रख सकतीं. 2 घरों की एकसाथ देखभाल असंभव है.’
‘मांजी, क्या दोनों के बीच कोई संतुलन…’
‘मीना, तुम बहुत बहस करती हो, मानती हूं, तुम पढ़ीलिखी हो पर इस का यह मतलब नहीं कि…’
‘मैं बहस नहीं कर रही हूं. मैं 1 हफ्ते के लिए नासिक जाने की आज्ञा मांग रही हूं.’
‘मैं कुछ नहीं जानती. तुम जानो और तुम्हारा पति.’
मांजी का उखड़ा स्वर, फूला मुंह और मटकती हुई गरदन क्या मेरी प्रार्थना की अस्वीकृति के साक्षी नहीं थे? मेरा मन बुझ गया. क्या यह क्रूरता और हृदयहीनता नहीं? अपने स्वार्थ के लिए संबंधियों के सुखदुख में भागीदारी न करना क्या उचित है?
उद्विग्न और निराश मैं चुप लगा गई. जी में तो आया कि मांजी के इस अनुचित व्यवहार के विरुद्ध विरोध का झंडा खड़ा कर दूं.
कहूं, ‘कल को आप की बेटी का विवाह होगा. आप को कोई तकलीफ हो और आप उसे बुलाएं और उस के ससुराल वाले न भेजें तो आप को कैसा महसूस होगा, जरा सोचिए.’
मैं ने आगे बहस नहीं की. उस से कुछ नहीं होना था. केवल धैर्य, सहिष्णुता तथा उदारता के आधार पर ही हम पारिवारिक शांति स्थापित कर सकते हैं. वही मैं ने किया.
पर मेरे अंदर की घुटन को अभिव्यक्ति मिली रात में. जब हम दोनों बिस्तर पर अकेले थे तब प्रदीप ने मेरी उदासी का कारण पूछा था. मैं ने पूरा किस्सा उन्हें सुना दिया. सुन कर वह हंसे और बोले, ‘मांजी के इन विचारों का मैं स्वागत करता हूं.’
‘आप क्यों नहीं करेंगे? अरे, घुटना पेट की तरफ मुड़ता है. एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं आप दोनों.’
‘नहीं श्रीमतीजी, मांजी की बात में सार है. विवाह के बाद इतनी जल्दी पतिपत्नी विरह की अग्नि में जलें, कोई मां ऐसा चाहेगी.’
‘आप सोचते हैं, किसी लड़की के मांबाप. भाईबहन भूखे रहें और वह मिलन के गीत तू मेरा चांद, मैं तेरी चांदनी… गाती रहे.’
इस बार प्रदीप गंभीर हो गए. बोले, ‘भई, नाराज क्यों होती हो? अगर जाना चाहती हो तो ठीक है. कल सुबह मांजी को पटाने की कोशिश करेंगे.’
‘मैं जाऊं या न जाऊं, इस से कोई खास अंतर नहीं पड़ता पर मांजी का यह व्यवहार, संवेदनाशून्य, क्रूर और एकांगी नहीं है क्या? आप ही बताइए?’
‘हर व्यक्ति अपने हिसाब से काम करता है. मां ने जो कुछ कहा और किया वह उन का दृष्टिकोण है, जीवनदर्शन है. और यह दर्शन बनता है हमारी अतीत की अनुभूतियों से. मीना, शायद तुम्हें विश्वास न हो पर यह सच है कि मां एक ऐसे परिवार से आईं जहां लड़की का विवाह एक मुक्ति का एहसास माना जाता था और दोबारा मायके आना अभिशाप.’
‘वह क्यों?’ मैं ने उत्सुक हो कर पूछा.
‘इसलिए कि मां के मायके में 11 बहनभाई थे. 8 बहनें और 3 भाई. नानानानी एकएक लड़की की शादी करते और दोबारा उस का नाम नहीं लेते. मां भी इस घर में आईं. भीड़, अभाव और विपन्नता से शांति, समृद्धि और सुख के माहौल में एक बार इस घर में आईं तो फिर मुड़ कर उस घर को नहीं देखा. बस, शादीब्याह के मौके पर गईं या न गईं.’
‘वह तो ठीक है, पर…’
‘सच कहूं,’ प्रदीप ने कहा, ‘हम लोग ननिहाल जाते तो वहां पर मां का कोई खास स्वागत नहीं होता. हम लोग एक तरह से उन पर बोझ बन जाते. ज्यादा काम, मेहमानदारी पर खर्चा और लौटने पर बेटी और बच्चों को उपहार देने का संकट.’
‘ठीक है, प्रदीप, मैं मांजी की मनोदशा समझ गई. पर वह यह क्यों नहीं सोचतीं कि उन की और मेरी स्थिति में आकाशपाताल का अंतर है. उन के मायके में संकट में घर का काम करने के लिए और बहनें थीं. मैं अकेली हूं. उन को पीहर में एक बोझ समझा जाता था पर मेरा मेरे घर में अभूतपूर्व स्वागत होता है, आप स्वयं देख चुके हैं.’
‘ठीक है. मैं कल सुबह मांजी से बात करूंगा,’ कह कर प्रदीप ने मुझे अपने अंक में समेट लिया. शारीरिक उत्तेजना और रासरंग की बाढ़ में मेरे अंतर की समस्त कड़वाहट डूब गई.
अगले दिन सुबह मैं तो रसोईघर में नाश्ता बनाने में व्यस्त थी और मांबेटा बाहर मेरे नासिक जाने के प्रश्न पर ऐसी गंभीरता से विचार कर रहे थे जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में निरस्त्रीकरण पर बहस.
मैं नाश्ता ले कर बाहर आई तो महसूस किया जैसे प्रदीप विजय के द्वार पर पहुंच गए हैं. मां उन से कह रही थीं, ‘बीवी का गुलाम हो गया है. उसी के स्वर में बोलने लगा है.’
मुझे देख, उन्होंने बनावटी गुस्से से कहा, ‘बहू, तू 2 हफ्ते के लिए नासिक चली जाएगी तो इस घर और प्रदीप की देखभाल कौन करेगा?’
‘आप जो हैं, मांजी,’ मेरे मुंह से अनायास निकल गया.
मैं नासिक गई. पहुंच कर देखा, मां पीली पड़ गई थीं. एकदम अशक्त और असहाय. पिताजी कैसे उलझे और अस्तव्यस्त से लग रहे थे…और भाई क्लांत. मुझे देखते ही तीनों के चेहरे खिल गए. एक मुक्ति, निश्चिंतता का भाव उन के मुख पर उभर आया.
‘तू आ गई, बेटी. अब कोई चिंता नहीं. तेरे बिना तो यह घर खाने को दौड़ता है, मैं बिस्तर पर पड़ गई. घर के रंगढंग ही बिगड़ गए,’ मां ने उदास स्वर में कहा.