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‘‘लेकिन, पिछले गांव में वह भी जवाब दे गई और बारिश भी अचानक तेज हो गई. अब तो आगे जंगल पड़ता है और बारिश में जोकटी (चीड़ की तेल वाली लकड़ी, जिसे पहाड़ के लोग मशाल बना कर रात में भी सफर कर लेते हैं) भी नहीं जल सकती. जंगल में बाघभालू का डर लग रहा है,’’ बात तो रामू ही कर रहा था, जो हमारी गली का चौकीदार था. बाकी के 2 लोग चुपचाप खड़े थे.

‘‘हम तुम्हें कहां रखेंगे, हमारे तो सारे कमरे सेबों से भरे पड़े हैं. हमारे अपने लिए भी जगह मुश्किल हो गई है. गांव में कहीं दूसरे घर में चले जाओ,’’ हरीश बोला.

‘‘ठीक है साहब, आप तो जानपहचान के हो. जब आप ही घर में जगह नहीं दे सकते, तो और कौन देगा?’’ रामू बहुत ही उदास हो कर कहने लगा, ‘‘अगर हो सके, तो एक टौर्च दे दीजिए. रामपुर में मैं आप के घर में दे दूंगा. कुछ तो आसरा हो जाएगा.’’

‘‘हां…हां, टौर्च ले जाओ. मैं लाता हूं,’’ कह कर हरीश भीतर गया, तो चाची भी उस के पीछेपीछे चली आईं.

दरवाजे के पास ही उन्होंने हरीश को जाते देख लिया, ‘‘क्यों रे, इतना बड़ा हो गया, पर इनसानियत नाम की कोई चीज तेरे पास है या नहीं? देख नहीं रहा, वे बेचारे किस तरह सर्दी से ठिठुर रहे हैं. गरीब क्या इनसान नहीं होते?’’

‘‘तुम भी न मां. बेमतलब दया की मूर्ति मत बना करो. अरे, ये थर्ड क्लास लोग चोरउच्चके भी तो होते हैं. इधर पापा घर में नहीं हैं और उधर तुम इन्हें घर में घुसाने की बात कर रही हो. कुछ उलटासीधा हो गया, तो मुझे मत कहना.’’

‘‘ये लोग कोई भी हों, इनसान तो हैं न. घर आए को शरण देनी है. ये मेहमान हैं और कहीं नहीं जाएंगे.

‘‘बाहर के बरामदे में एक चारपाई पड़ी है, उसे उठा लाओ और इन्हें दे दो. मैं कुछ कपड़े निकाल देती हूं,’’ कह कर चाची अपने कमरे में चली गईं और बड़ा बक्सा खोल कर कुछ पुराने कंबल और 2 दरियां निकाल कर बाहर ले आईं.

हरीश को न चाहते हुए भी मां की बात माननी पड़ी, क्योंकि वह जानता था कि अगर चारपाई नहीं लाई गई, तो वे खुद जा कर ले आएंगी. इतने अंधेरे में कहीं गिरगिरा गईं, तो फिर सभी को ?ोलना पड़ेगा.

चारपाई बरामदे में पटक कर ‘तुम्हारे मन में जो आए करो’ कहता हुआ हरीश पैर पटकता हुआ वहां से चला गया.

‘‘मुन्नी, पिछवाड़े से अंगीठी और थोड़ी सी लकड़ी उठा लाओ. देखो तो बेचारे सर्दी से कैसे ठिठुर रहे हैं,’’ बाहर खड़े तीनों के कानों में भी सारी बातचीत जा रही थी. उन्हें कुछ हौसला हुआ

और वे बारिश से बचने के लिए बरामदे में आ गए.

नीचे के कमरों में सचमुच सेब भरे पड़े थे और वहां ताले भी लगा दिए गए थे. एक कमरे में बिना छंटाई किए सेबों का ढेर लगा हुआ था, जो आज ही मजदूरों ने बाग से तोड़े थे. दूसरे कमरे में छंटे हुए सेब थे.

एक कमरे में सेबों से भरी पेटियां थीं, जो चाचा का फोन आने के बाद दिल्ली भेजी जाएंगी, पर बाहर का बरामदा तो खाली था. हां, वहां सेब भरने के बाद बचा कूड़ाकचरा जरूर पड़ा था.

चाची ने आवाज लगाई, ‘‘रामू.’’

‘‘जी, मांजी,’’ रामू, जो अपना कुरता उतार कर निचोड़ रहा था, झट बाहर आ गया. चाची ने कंबल और दरियां ऊपर से फेंक दीं, ‘‘मैं चारपाई देती हूं, पर तुम

3 जने उस एक चारपाई पर कैसे सो सकोगे?’’

‘‘नहीं मांजी, चारपाई रहने दीजिए. यहां पर बहुत सारा चिलारू (चीड़ की सूखी पत्तियां, जो सेब की पेटियों में लगाई जाती हैं) पड़ा है, इस को बिछा लेंगे. आप परेशान न हों. सुबह होते ही हम चले जाएंगे.’’

पर चाची ने चारपाई नीचे लटका ही दी, जिसे उन्होंने नीचे ला कर बाहर बरामदे में खड़ी कर के सर्दी से बचने के लिए दीवार बना लिया. रामू के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी. वह बराबर सर्दी से कांप रहा था.

तनु और मैं जलाने लायक लकड़ी, माचिस और अंगीठी उन्हें दे आए. उन्होंने हमारे लौटने का भी इंतजार नहीं किया. किसी भूखे भेडि़ए की तरह उस अंगीठी पर टूट पड़े और कुछ चिलारू जला कर उन्होंने आग सुलगा ली.

अब तक उन्होंने अपने कपड़े भी निचोड़ लिए थे और उन्हें बरामदे में खड़ी चारपाई पर फैला दिए.

हम जब तक लौट कर कमरे के अंदर आए, तब तक तो चाची खर्राटे भर रही थीं. पर मेरी नींद उड़ चुकी थी.

शायद तनु को भी नींद नहीं आ रही थी. उस ने उठ कर पानी पीया, तो मुझे भी याद आया कि मैं भी पानी पी ही लूं. हम दोनों बात करना चाह रही थीं, लेकिन चाची के जाग जाने का डर था.

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