शाम गहराने लगी थी, मगर बाहर के अंधेरे से घोर अंधेरा कृष्ण के भीतर छाने लगा था. अपने चेहरे को हथेलियों से ढके, आंखें मूंदे उस ने मोबाइल के ईयरफोन कान में ठूंस कर सुनीता की आवाज दबाने की नाकाम कोशिश में अपना सारा ध्यान गाने पर लगा दिया था, ‘जिंदगी की तलाश में हम मौत के कितने पास आ गए…’

गाना खत्म होतेहोते कृष्ण की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. उस के जी में आया कि वह अपने हालात पर खूब फूटफूट कर रोए… मगर उस से ऐसा नहीं हो सका और अंदर की हूक आंखों से आंसू बन कर बहती रही.

कृष्ण ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की जिंदगी इस मोड़ पर आ कर खड़ी हो जाएगी, जहां वह कहीं का नहीं रहेगा… काश, वह उस नर्स के इश्क में न फंसा होता… काश… उस ने घर वालों की बात मानी होती… काश… उस ने अपने और अपने परिवार के बारे में सोचा होता… काश… काश… काश… मगर अब क्या हो सकता था… जिंदगी इसी काश में उलझ कर रह गई थी.

कृष्ण को अच्छी तरह याद है कि पिता की अचानक हुई मौत के बाद उन की जगह पर उस की नौकरी लगते ही उस के जैसे पंख उग आए थे. जवानी का जोश और मुफ्त में मिली पिताजी की जगह रेलवे की नौकरी के बाद दोस्तीयारी में पैसे उड़ाना, मोटरसाइकिल पर सजसंवर कर इधर से उधर चक्कर काटना, मौका मिलते ही दोस्तों के साथ मौजमस्ती मारना… बस, यही उस का रोज का काम बन गया था. तब न उसे दोनों बहनों के ब्याह की चिंता थी और न विधवा मां की सेहत की फिक्र.

एक दिन दोस्तों के साथ पिकनिक पर भीग जाने पर कृष्ण को बुखार चढ़ गया था. अस्पताल में नर्स से सूई लगवाते हुए उस की नजरों से घायल हो कर कृष्ण उस का दीवाना हो उठा था, जब नर्स ने अपने मदभरे नैनों में ढेर सारा प्यार समेटे हुए पूछा था, ‘‘सूई से डरते तो नहीं हो? आप को सूई लगानी है.’’

कृष्ण उस नर्स की हिरनी सी बड़ीबड़ी आंखों को बस देखता रह गया था. सफेद पोशाक में गोलमटोल चेहरे वाली नर्स की उन आंखों ने जैसे उसे अपने अंदर समा लिया था. उसे लगा था, जैसे खुशबू से सराबोर हवा ने उसे मदहोश कर दिया हो, जैसे पहाड़ों पर घटाएं बरसने को उमड़ पड़ी हों…

नर्स ने बांह ऊंची करने के लिए कृष्ण का हाथ अपने कोमल हाथों में लिया, तो वह कंपकंपा कर बोला था, ‘‘डर तो लगता है, पर आप लगाएंगी तो लगवा लूंगा.’’

इतना कहते हुए नर्स ने शर्ट की बांह ऊपर चढ़ा दी थी. नर्स ने हौले से सूई लगा कर कृष्ण की आंखों में झांकते हुए पूछा था, ‘‘दर्द तो नहीं हुआ?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘कृष्ण.’’

‘‘मतलब कृष्ण कन्हैया हैं आप… गोपियों के कन्हैया…’’ नर्स ने इंजैक्शन की जगह को रुई से रगड़ते हुए मुसकरा कर कहा था.

कृष्ण अपने घर चला आया था. शरीर का बुखार तो अब उतर चुका था, मगर नर्स के इश्क का बुखार उस पर इस कदर हावी हो गया था कि आंखें बंद करते ही नर्स की बड़ीबड़ी हिरनी सी आंखें नजर आती थीं.

बुखार उतरने के बाद भी कृष्ण कई बार अस्पताल के चक्कर लगा आता. नर्स से किसी न किसी बहाने दुआसलाम कर आता. नर्स भी उस से मुसकरा कर बात करती.

उसी दौरान क्रिसमस पर हिम्मत कर कृष्ण ने नर्स को रास्ते में रोक कर ‘मैरी क्रिसमस’ कह कर लाल गुलाबों का गुलदस्ता थमा दिया था. नर्स

ने भी मुसकरा कर उस का तोहफा कबूल कर लिया था.

बस, फिर वे दोनों मिलने लगे थे. प्यार हो चुका था, इजहार हो चुका था. घर में क्या हो रहा है, कृष्ण को कुछ परवाह न थी. वह उस नर्स को मोटरसाइकिल पर पीछे बैठा कर घूमता… उस के प्यार में झूमता, मस्ताता बस.

उधर ब्याह लायक बहनें कृष्ण के इस आवारापन की हरकतों को देख कर मजबूरन मां को संभालने की खातिर अपना घर बसाने की सोच भी न पाती थीं. अगर उन्होंने ब्याह रचा लिया, तो दिल की मरीज विधवा मां को कौन संभालेगा? बस, इसी एक बड़े सवाल ने उन्हें कुंआरी रहने पर मजबूर कर दिया था. वे दोनों घर में ही ब्यूटीपार्लर खोल कर रोजीरोटी कमाने लगी थीं.

फिर अचानक ही नर्स का तबादला और उसी के चलते ही कृष्ण का घर से और दूर हो जाना… वह कईकई दिन घर से 200 किलोमीटर दूर अपने प्यार के नशे में चूर पड़ा रहता.

और एक दिन जैसे बिजली गिरी थी कृष्ण पर. नर्स के घर का दरवाजा बिना खटखटाए घनघोर घटाओं में भीगता वह अचानक अंदर दाखिल हुआ था, तो सामने का नजारा देख कर उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई थी. वह नर्स किसी और मर्द के साथ बिस्तर पर थी.

कृष्ण को यह सब देख कर ऐसा लगा था, जैसे किसी ने उस के दिल में छुरा भोंक दिया हो, जैसे सारा आसमान घूमने लगा हो… उसे लगा था कि वह खून से लथपथ हो कर वीरान रेगिस्तान में अकेला घायल खड़ा हो और तमाम चीलकौए उसे नोंच खाने को उस पर मंडरा रहे हों… कितने वादे… कितनी कसमें खाई थीं… कैसे कहती थी वह नर्स, ‘मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती कृष्ण… मैं मर जाऊंगी, जो तुम मेरे न हुए…’

कृष्ण को लगा था कि जमीन फट जाए और वह उस में समा जाए… जैसे नर्स के क्वार्टर की दीवारें आग से भभक उठी हों, वैसे ही नफरत की आग में भभक उठा था कृष्ण.

कृष्ण नर्स को कुछ कह पाता, उस से पहले ही नर्स ने उस से रूखी आवाज में कहा था, ‘‘बेवकूफ इनसान, तुम को इतना भी नहीं पता कि किसी लड़की के घर का दरवाजा खटखटा कर अंदर आना चाहिए…’’ फिर गुर्राते हुए नफरत भरे अंदाज में उस ने घूरते हुए कृष्ण से कहा था, ‘‘ऐसे घूर कर क्या देख रहे हो मुझे? ये नए डाक्टर साहब हैं. मेरे नए फ्रैंड… अभी एक हफ्ता पहले ही डिस्पैंसरी में पोस्टिंग हुआ है…’’

कृष्ण मुट्ठी भींचे सब सुनता रहा था. जी में आया कि नर्स का गला ही घोंट दे, मगर वह कुछ और कहती, उस से पहले ही वह मुड़ कर मोटरसाइकिल स्टार्ट कर निकल पड़ा था तेज रफ्तार से घर की ओर… जैसे वह जल्दी से जल्दी दूर… बहुत दूर भाग जाना चाहता हो… जैसे नर्स की आवाज उस का पीछा कर रही हो और वह

उसे सुनना नहीं चाहता हो… वह टूट गया था अंदर ही अंदर.

इसी तरह उदासी और तनहाई में दिन रगड़रगड़ कर बीत रहे थे कि एक दिन अचानक ही कृष्ण के कानों में किसी की दिल भेद देने वाली रुलाई सुनाई पड़ी.

‘अरे, यह तो सुनीता के रोने की आवाज है,’ कृष्ण पहचान गया था. सुनीता, उस की पड़ोसन… मजबूर, बेसहारा सी, मगर निहायत ही खूबसूरत, जिसे उस का पति रोज शराब पी कर बिना बात मारता है और वह उस की मार खाती जाती है. आखिर जाए भी तो कहां… उस का इस दुनिया में कोई नहीं… मामा ने मामी की रोजरोज की चिकचिक से तंग आ कर उसे एक बेरोजगार शराबी से ब्याह कर मानो अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली थी.

कृष्ण, जो अपने प्यार में नाकाम हो कर टूट चुका था, न जाने क्यों अचानक ही उठ कर सुनीता के घर की ओर लपका. वह  रोजरोज सुनीता को यों पिटते नहीं देख सकता.

कृष्ण ने दरवाजा खोल कर पिटती सुनीता को हाथ से पकड़ा ही था कि वह उस के सीने से इस कदर लिपट पड़ी, जैसे कोई बच्चा मार के डर से लिपट जाता है.

‘‘बचा लो इस राक्षस से, वरना मुझे यह मार ही डालेगा…’’ सुनीता कृष्ण से लिपट कर फूट पड़ी थी. पता नहीं, कृष्ण के टूटे दिल को सुनीता के यों सीने से लग जाने से कितना सुकून मिला था. उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था.

‘‘मैं तुम्हें इस तरह पिटता नहीं देख सकता सुनीता…’’

‘‘अबे हट, बड़ा आया सुनीता का आशिक. तू होता कौन है इसे बचाने वाला…?’’ कहते हुए सुनीता के पति ने कृष्ण को जोर का धक्का दे दिया और खुद कमरे में रखी हौकी उठा कर कृष्ण के ऊपर लपका. अगर पड़ोसी न बचाते, तो वह नशे में कृष्ण के सिर पर हौकी दे मारता.

मगर अब सुनीता कृष्ण के सामने आ खड़ी थी उसे बचाने के लिए. सारा महल्ला तमाशा देख रहा था.

सुनीता के पति ने तमाम महल्ले वालों के सामने चीखचीख कर कहा, ‘‘आशिक बनता है इस का… कब से चल रहा है तुम्हारा चक्कर… रख सकता है हमेशा के लिए इसे… चार दिन ऐश करेगा और छोड़ देगा… इतना ही मर्द है तो ले जा हमेशा के लिए और रख ले अपनी बीवी बना कर… मुझे इस की जरूरत भी नहीं…’’

सुनीता और सारा महल्ला खामोश हो कर कृष्ण के जवाब का इंतजार करने लगे. सुनीता उस से लिपटी कांप रही थी. कृष्ण के जवाब के इंतजार में उस का दिल जोरजोर से धड़कने लगा था.

‘‘हां, बना लूंगा अपनी बीवी… एक औरत पर हाथ उठाते, भूखीप्यासी रखते, जुल्म करते शर्म नहीं आती… बड़ा मर्द बनता है… देख, कैसा मारा है इसे…’’ कृष्ण ने जेब से रूमाल निकाल कर सुनीता के होंठों से बहता खून पोंछ दिया.

सुनीता कृष्ण के सीने से लगी आंखों में आंसू लिए बस उसे ही देखती रह गई, जैसे कहना चाह रही हो, ‘मेरे लिए इतना रहम… आखिर क्यों? मैं तो शादीशुदा और एक बच्ची की मां… फिर भी…’

किसी ने पुलिस को भी फोन कर दिया. फिर क्या, पुलिस के सामने ही सुनीता ने कृष्ण को और कृष्ण ने सुनीता को स्वीकार कर लिया. महिला थाने में रिपोर्ट, फिर फैमिली कोर्ट से आसानी से तलाक हो गया.

पता नहीं, कृष्ण ने अपने पहले प्यार को भुलाने के लिए या सुनीता पर इनसानियत के नाते तरस खा कर उसे घर वालों, महल्ले वालों और रिश्तेदारों की परवाह किए बगैर अपना लिया था… फिर किराए का अलग मकान… सुनीता की बेटी का नए स्कूल में दाखिला और लोन पर ली गई नई कार…

शायद अपने पहले प्यार को भुलाने की कोशिश में कृष्ण ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था और सुनीता उसे और उस के द्वारा मुहैया कराए गए ऐशोआराम पा कर निहाल हो गई थी.

उधर, कृष्ण सुनीता की बांहों में पड़ा उस की रेशमी जुल्फों से खेलता और नर्स के साथ बिताए पलों को सुनीता के साथ दोहराने की कोशिश करता. पड़ोस में रहने के चलते शायद सुनीता उस के पहले प्यार के बारे में सबकुछ जानती थी.

कृष्ण को न बूढ़ी मां की चिंता थी, न दोनों बहनों के प्रति फर्ज का भान. हां, कभी सुनीता को उस ने मांबहनों के साथ रहने के लिए दबाव दिया था, तो सुनीता ने दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘‘मैं उस महल्ले में तुम्हारी मांबहनों के साथ कभी नहीं रह सकती. लोग तुम्हारे और नर्स के किस्से छेड़ेंगे, जो मुझ से कभी बरदाश्त नहीं होगा…’’

समय के साथसाथ कृष्ण का अपने पहले प्यार को भुलाने और जोश में आ कर सुनीता को अपनाने की गलतियों का अहसास होने लगा.

सुनीता ऐशोआराम की आदी हो गई. वह कृष्ण के उस पर किए गए उपकार को भी भूल गई और एक लड़के को जन्म देने के बाद तो उस के बरताव में न जाने कैसा बदलाव आया कि कृष्ण अपने किए पर पछताने लगा.

कभीकभार मां के पास रुक जाने, दोस्तयारों के पास देर हो जाने पर सुनीता उसे इतना भलाबुरा कहने लगी कि उस का जी करता उसे जहर ही दे दे. वह अकसर नर्स को ले कर ताना मारने लगी. न समय पर नाश्ता, न समय पर खाना… कृष्ण के लेट घर आने पर खुद खा कर बेटी को ले कर सो जाना उस का स्वभाव बन गया.

सुनीता तो अब नर्स और कृष्ण के पहले प्यार को ले कर ताना मारती रहती थी. ज्यादा कुछ बोलने पर वह दोटूक कह देती थी, ‘‘नर्स ने धोखा दिया तुम्हें इस चक्कर में मुझे अपना लिया, वरना इतने बदनाम आदमी से कौन रचाता ब्याह? मुझे अपना कर कोई अहसान नहीं कर दिया तुम ने… अभी भी मुझे क्या पता कहांकहां जाते हो… किसकिस के साथ गुलछर्रे उड़ाते हो…’’

तब काटो तो खून नहीं वाली हालत हो जाती थी कृष्ण की. वह चीख पड़ता, ‘‘हां… उड़ाता हूं… खूब उड़ाता हूं गुलछर्रे… तेरी इच्छा है तो तू भी उड़ा ले…’’ और निकल जाता कार ले कर दूर जंगलों में.

एक दिन कृष्ण तेज बुखार से तपता जब नजदीकी डिस्पैंसरी में इलाज कराने पहुंचा, तो सन्न रह गया. हाथ

में इंजैक्शन लिए उस की वही नर्स खड़ी थी.

कृष्ण ने उस के हाथ से परची छीन ली. नर्स ने आसपास देखा. दोपहर के डेढ़ बजे का समय था. मरीज जा चुके थे. उस के और कृष्ण के अलावा वहां कोई नहीं था.

नर्स ने कृष्ण के हाथ से दोबारा परची ली और कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं आप के पैर पड़ती हूं. मुझ से बहुत बड़ी भूल हुई, जो मैं ने आप को…’’

बाकी शब्द नर्स के गले में अटक कर रह गए. कान पकड़ कर आंखों में आंसू भरे वह कृष्ण के कदमों में झुक गई.

कृष्ण का गुस्सा नर्स को यों गिड़गिड़ाते देख बुखार की गरमी से जैसे पिघल गया. उस ने बुखार से तपते अपने हाथों से उठाते हुए पहली बार नर्स को उस के नाम से पुकारा, ‘‘बस भी करो मारिया. मैं अब…’’

कहतेकहते रुक गया कृष्ण और अपनी बांहें खोल कर मारिया के सामने कर दीं.

‘‘पास ही स्टाफ क्वार्टर है, मैं उसी में रहती हूं. अभी एक हफ्ता पहले ही ट्रांसफर हुआ है यहां. आप को देखने की कितनी तमन्ना थी… आज पूरी हो गई. प्लीज आना… ए 41 नंबर है र्क्वाटर का,’’ कहते हुए मारिया ने आंसुओं से भरी आंखों से कृष्ण को इंजैक्शन लगा दिया.

घर आ कर कृष्ण निढाल सा पलंग पर पड़ गया. आंखों में मारिया की आंसुओं भरी आंखें और फूल

सा कुम्हलाया चेहरा था. आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट के साथ तेज चमकती बिजली थी. कृष्ण पलंग पर आंखें मूंदे यों ही पड़ा रहा और आज के दिन के बारे में सोचता रहा…

सुनीता ने एक बार भी कृष्ण से तबीयत खराब होने के बावजूद खानेपीने, दवा वगैरह के बारे में नहीं पूछा. बस, नए दिलाए हुए मोबाइल फोन से वह चिपकी रही.

आज तीसरा दिन था. बुखार अभी भी महसूस हो रहा था, मगर रविवार के दिन डाक्टर कम ही मिलता है, फिर भी कृष्ण किसी तरह उठा और डिस्पैंसरी की ओर चल दिया. उस की सोच के मुताबिक डाक्टर नहीं आया था. मारिया ही डिस्पैंसरी संभाल रही थी.

कृष्ण को देखते ही मारिया गुलाब के फूल सी खिल उठी, ‘‘ओह कृष्ण… अब कैसा है आप का तबीयत?’’

केरल की होने के चलते मारिया के हिंदी के उच्चारण कुछ बिगड़े हुए होते थे. उस ने कृष्ण की कलाई को अपने नरम हाथों से पकड़ कर नब्ज टटोलने की कोशिश की ही थी कि तभी कृष्ण ने हाथ खींच लिया.

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘अभी तक नाराज हो…’’ कहते हुए मारिया ने कृष्ण को अपनी बांहों में भर लिया. कृष्ण को लगा जैसे वह कोयले की तरह धूधू कर जल उठा हो. जैसे उसे 104 डिगरी बुखार हो गया हो. तभी मारिया ने मौका पा कर अपने पंजों पर खड़े हो उस के होंठों पर अपने धधकते होंठ रख दिए.

मारिया की आंखों में नशा उतरने लगा था. डिस्पैंसरी खाली थी. खाली डिस्पैंसरी के एक खाली कमरे की हवा मारिया की गरम सांसों से गरम हो चली थी.

‘‘कृष्ण, मुझे माफ कर दो. देखो न, आप की मारिया आप से अपने प्यार की भीख मांग रही है. अभी भी वही आग, वही कसक और वही प्यार बाकी है मारिया में… एक बार, सिर्फ एक बार…’’

कृष्ण, जो मारिया का साथ पा कर कुछ पल को अपने होश खो बैठा था, ने मारिया को दूर धकेल दिया और बोला, ‘‘मुझे तुम से घिन आ रही है. तुम प्यार के नाम पर कलंक हो. मैं तुम से प्यार नहीं, बल्कि नफरत करता हूं. मुझे कभी अपनी सूरत भी मत दिखाना…’’

इतना कहता हुआ कृष्ण डिस्पैंसरी से बाहर चला गया था. मारिया ‘धम्म’ से कुरसी पर बैठ गई.

कृष्ण नफरत से भरा भनभनाता सीधे अपने घर की तरफ निकल पड़ा था. उसे लग रहा था जैसे उस के चारों ओर आग जल रही हो, जिस में वह जला जा रहा हो… मारिया ने जैसे उस के अंदर आग भर दी थी… प्यार की नहीं, नफरत की आग. बस, उसी आग में जलता जब घर पहुंचा तो वहां का नजारा देख हैरान रह गया.

घर के दरवाजे पर सुनीता का पहला पति सुनीता का हाथ अपने हाथों में लिए उस से कह रहा था, ‘‘चिंता मत करो, मैं जल्दी आऊंगा…’’ फिर कृष्ण को देख कर वह नजरें झुकाए हुए चुपचाप वहां से खिसक लिया.

कृष्ण ने सुनीता के गाल पर एक करारा तमाचा जड़ दिया और बोला, ‘‘मक्कार… धोखेबाज… बता, कब से चल रहा है यह सब?’’

सुनीता गाल को सहलाते हुए कृष्ण पर चिल्लाई, ‘‘जब से तुम्हारा नर्स के साथ चक्कर चल रहा है. कहां से आ रहे हो? मारिया से मिल कर न? अपने गरीबान में झांक लो, तब मुझे कुछ कहना. वे आएंगे… तुम उन्हें रोक भी नहीं सकते… उन की बेटी मेरे पास है… क्या कर लोगे तुम?’’

कृष्ण को लगा कि वह चक्कर खा कर वहीं गिर पड़ेगा. उस ने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था. इतना बड़ा धोखा.

कृष्ण चल पड़ा था अपने घर की ओर. मांबहनों के पास. टूटे कदम और बोझिल मन लिए. जा कर ‘धम्म’ के पलंग पर पड़ गया था. उसे लगा जैसे वह न घर का रहा न घाट का… न मांबहनों का हो पाया और न मारिया या सुनीता का… आखिर उसे उस के भटकने की सजा जो मिल गई थी.

कृष्ण की आंखों में आंसू थे. सुनीता की गूंजती आवाज दबाने के लिए उस ने मोबाइल फोन के ईयरफोन कानों में ठूंस लिए थे, ‘जिंदगी की तलाश में हम मौत के कितने पास आ गए… जब ये सोचा तो घबरा गए… आ गए, हम कहां आ गए…’

 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...