मैं ने घड़ी में समय देखा. उस समय सवा 8 बज रहे थे. 9 बजे की ट्रेन थी.

मैं ने एकदम बैग उठाया और घर से बाहर निकल पड़ा. सड़क पर पहुंचते ही मैं ने एक रिकशे वाले को स्टेशन चलने को कहा. वह 10 रुपए मांग रहा था, लेकिन मैं ने

8 रुपए में तय कर लिया. स्टेशन पहुंचते ही मैं रिकशे से उतरा. मैं ने रिकशे वाले को 10 रुपए का नोट दिया.

‘‘बाबूजी, मेरे पास छुट्टे पैसे नहीं हैं...’’ रिकशे वाला बोला, ‘‘आप 8 रुपए खुले दे दीजिए.’’

‘‘मैं खुले 8 रुपए कहां से लाऊंगा? कमाल है यार, तेरे पास 2 रुपए भी नहीं हैं, तो मेरे पास 8 कहां से आएंगे?’’

‘‘इस में कमाल की क्या बात है बाबूजी? आजकल छुट्टे पैसे कहां मिल रहे हैं. आप 10 का नोट छुट्टा करवा लो... 2 रुपए का गुटका वगैरह ले लो.’’

‘‘मैं यह सब नहीं खाता... तुम ही ले लो कुछ...’’

‘‘बाबूजी, मुझे कुछ नहीं चाहिए. मुझे तो 8 रुपए दे दो.’’

‘‘ठहर जरा, मैं कोशिश करता हूं,’’ मैं ने कहा और एक परचून वाले की दुकान पर पहुंच कर बोला, ‘‘भाई साहब, 10 रुपए के छुट्टे हैं?’’

दुकानदार ने मेरी तरफ इस तरह घूर कर देखा मानो मैं ने उस से गलत बात कह दी हो. वह बोला, ‘‘आप कहीं बाहर से आए हैं?’’

‘‘नहीं भाई साहब, मैं तो यहीं रहता हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘अच्छा. मैं ने समझा कि आप इंगलैंड या अमेरिका से आए हैं, तभी तो आप को मालूम नहीं है.’’

‘‘क्या मालूम नहीं है?’’ मैं ने दुकानदार की ओर गौर से देखते हुए पूछा.

‘‘यही कि इस देश में छोटे नोटों की कितनी जबरदस्त कमी हो रही है.’’

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