Social Story: 31 मार्च, 2020. धूप इतनी तेज थी कि चमकती सड़क पर आंखें चुंधिया रही थीं. कोरोना की मार से पहले भूख की मार के डर से मजदूर अपनेअपने घरगांव लौटने के लिए बेचैन हो उठे. ट्रेनबस समेत तमाम सवारियां बंद होने के चलते वे पैदल ही चल पड़े.

जुबैर, नाजिया और उन के तीनों बच्चे. रामभरोसे, उस की पत्नी कलावती, रामभरोसे का छोटा भाई कन्हैया और उन की 65 साल की बूढ़ी मां सरस्वती. कुलमिला कर 9 लोगों का जत्था दिल्ली से चंपारण के लिए पैदल चल रहा था.

सड़कों के चौड़ीकरण ने किनारे खड़े तमाम पेड़ों को निगल लिया था. हाईवे पर पसीना बहाते, गमछे और आंचल की छांव तले कदम से कदम मिलाते ये लोग चले जा रहे थे. मीलों चलने के बाद एक घना पेड़ नजर आया, जहां उन्हें आराम करने का मौका मिला.

दिल्ली से चंपारण की दूरी 1,000 किलोमीटर से ऊपर होगी, लेकिन मौत के सामने यह दूरी इन्हें कम लग रही थी.

लौकडाउन का ऐलान होते ही कारखाना बंद कर के मालिक ने जगह खाली करने का फरमान सुना दिया था. बीमारी की भयावहता को देखते हुए सरकार ने दुकान, होटल, ट्रेन, बस, टैंपोरिकशा सब बंद कर दिया, ताकि कम्यूनिटी इंफैक्शन को रोका जा सके.

सफर का दूसरा दिन. सहारनपुर से इन का काफिला निकला. शाजेब और शहाब अपनी मां नाजिया की उंगली थामें चल रहे थे, जबकि सूफिया अपने अब्बु जुबैर के कंधे पर सवार थी. साथ में सामान से भरे 2 बैग भी जुबेर के कंधों से लटक रहे थे.

रामभरोसे के लिए सब से भारी बोझ उस की मां सरस्वती थी. एक तो बूढ़ी, ऊपर से बीमार. वह बेचारी भी हांफतेकांपते कदमों से चलने को मजबूर थी.

बहरहाल, सब ने अपनेअपने सामान पेड़ के नीचे रखे और बैठ कर सुस्ताने लगे. कलावती ने फटी हुई चादर बिछाई तो कन्हैया दौड़ कर चापाकल से पानी ले आया. शाजेब और शहाब कुछ खाने की जिद करने लगे.

नाजिया के पास बिसकुट के 2 पैकेट बचे थे, जो उस ने 5 रुपए के बदले 10-10 रुपए में खरीदे थे. 2 बिसकुट के पैकेट और 4 बच्चे… शाजेब, शहाब, सूफिया और कन्हैया. हालात के शिकार बच्चों ने उसी में मिलबांट कर खाया और बड़े लोगों ने सिर्फ पानी से प्यास बुझाई, फिर आगे चल दिए.

अचानक लौकडाउन होने के चलते सेठ ने 1000-1000 रुपए दे कर उन्हें टरका दिया था. दोनों परिवार एक ही गांव के थे. रामभरोसे के पास अब महज 680 रुपए और जुबैर के पास 820 रुपए बचे थे.

रास्ते में एक जगह मकई के भुट्टे खरीद कर सभी ने पेट की आग को शांत किया और सफर जारी रखा. बच्चे और बूढ़े में दम ही कितना होता है, इसलिए हर 4-5 किलोमीटर पर उन्हें रुकना पड़ता, ठहरना पड़ता. जगहजगह पुलिस वालों के सवालों का जवाब देना पड़ता और कहींकहीं लाठियां भी खानी पड़तीं.

रात होने लगी. अनजान शहर में खोजतेखोजते मुश्किल से एक रैनबसेरा मिला, लेकिन पुलिस वालों ने वहां भी ठहरने से रोक दिया. मजबूरन वहां से आगे बढ़े और कुछ दूर चल कर सड़क के किनारे सो रहे मजदूरों की कतार में प्लास्टिक बिछा कर सो गए.

भूख से अंतड़ियां कुलबुला रही थीं, इसलिए नींद नहीं आ रही थी. पैर के छाले अलग ऊधम मचा रहे थे और गरम बिछौना बनी सड़क अलग मुंह चिढ़ा रही थी.

रात के 2 बज रहे होंगे कि रामभरोसे की पत्नी कलावती को शक हुआ कि उस की सास सरस्वती देवी की सांसें बंद हो चुकी हैं. उस ने ‘अम्मांअम्मां’ कह कर जगाना चाहा, पर वह तो नहीं जागी, लेकिन बाकी सभी लोग जाग गए.

सब के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. बुढ़िया मर चुकी थी और उन के लिए बहुत बड़ी समस्या छोड़ चुकी थी. वह कोरोना से मरी, थकान से मरी या बीमारी से मरी, इस से मतलब नहीं था, मतलब इस से था कि वह अपने साथ सब को ले कर मरी थी, इसलिए सब ने सरस्वती देवी की लाश को छोड़ कर चुपचाप निकल जाने में ही भलाई समझी.

सब तो जाने लगे, लेकिन 8 साल का कन्हैया अपनी मां को छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं था. मां की लाश से लिपट कर वह जोरजोर से रो रहा था. सब ने समझाया कि चिल्लाना बंद करो वरना कोरोना के चक्कर में सब पकड़े जाएंगे. न सवारी है, न लाश ढोने का माद्दा, और न ही अंतिम संस्कार के लिए पैसे हैं. लाश का अंतिम संस्कार तो सरकार कर ही देगी, फिर मरने वाले के साथ इतने लोगों की जान सांसत में डालने का क्या मतलब.

फिर भी कन्हैया मानने के लिए तैयार नहीं था। बच्चा था, मासूम था, मां की याद उस के दिल में अभी भी बरकरार थी. दुनिया के पैतरेबाजी से अनजान था, इसलिए मां को लाश मानने के लिए तैयार नहीं था.

रामभरोसे ने कहा, “रे कन्हैया, मां हम दोनों की थी, पर तू बात क्यों नहीं समझता है, अब इस को घसीट कर तो ले नहीं जा सकते.”

कलावती ने कहा, “छोड़ दो इस को भी, अपनी माई के साथ यहीं सड़ता रहेगा.”

रामभरोसे ने ‘चटाक’ से एक थप्पड़ कलावती के गाल पर जमाते हुए कहा, “बच्चा है… समझा रहे हैं… तुम्हारी मां थोड़ी है… उस की मां है तो रोएगा ही… तुम क्यों भचरभचर कर रही हो.”

आखिरकार सब ने मिल कर कन्हैया को लाश से खींच कर अलग किया और उसे घसीटते हुए ले चले.

चौथे दिन लखनऊ पहुंचे. अब दोनों परिवारों के पास महज 300-300 रुपए बच रहे थे, जबकि सफर खासा लंबा था. पैर के छालों ने रुलाना छोड़ दिया और समझा दिया कि वे उन के हमसफर हैं, जो साथसाथ चलेंगे.

रात दर रात खुले आसमान में सोतेजागते जुबैर के दोनों बेटों को निमोनिया हो गया. नाजिया छाती पीटने लगी, ‘हायहाय’ करने लगी. न कोई मददगार, न डाक्टर, न दवा. बच्चे निमोनिया से जितना हांफते, नाजिया उतना ही तड़पती.

जैसेतैसे वे लोग एक सरकारी अस्पताल पहुंचे. कोरोना के डर से अस्पताल वालों ने मरीजों को दूसरे राज्य का बता कर इलाज करने से मना कर दिया.

अनजान जगह, सड़कों पर लोग नहीं, जेब में पैसे नहीं, हर तरफ मरघट जैसा सन्नाटा. भागतेभागते एक प्राइवेट क्लिनिक पहुंचे, जहां छिपछिपा कर इलाज चल रहा था.

डाक्टर ने 5,000 रुपए का खर्च बताया. उन लोगों के पास कुल जमा 600 रुपए बचे थे. डाक्टर ने इनकार कर दिया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

जुबैर ने कहा, “डाक्टर साहब, हम पर रहम करें, हम हालात के मारे हुए लोग हैं.”

डाक्टर ने अपने कंपाउंडर से उन्हें बाहर निकालने का इशारा किया. लेकिन, बच्चों की मां अभी जिंदा थी, उस के कानों में सोने की बाली थी. नाजिया ने उन्हें उतार कर डाक्टर के सामने रख दिया.

डाक्टर ने मन ही मन दोनों बाली को तोला और इलाज शुरू कर दिया.

इलाज से एक बच्चा बच गया तो दूसरा नहीं रहा. नाजिया गम से निढाल हो गई. एक मां के लिए उस की औलाद से बढ़ कर कुछ नही होता. नाजिया कभी कोरोना को कोसती, कभी सरकार को कोसती तो कभी अपनी गरीबी को.

बच्चे की लाश को रास्ते में दफना कर वे लोग फिर से आगे बढ़े. 9 में से 2 लोग साथ छोड़ चुके थे और बच गए थे 7 जाने, जबकि मंजिल अभी काफी दूर थी.

छठे दिन वे सब गोंडा पहुंचे. अपनों से बिछड़ने का गम अलग, कोरोना की मार अलग और भूख से बेहाल अलग. मजलूम इनसान अपनी बेबसी से लड़े, कोरोना से लड़े या भूख से लड़े… पैर के छाले और मुंह के छाले आपस में होड़ करने लगे, एकदूसरे को चिढ़ाने लगे, इनसान की मजबूरी पर मुसकराने लगे.

रास्ते में एक जगह लंगर चल रहा था. यह देख कर सब के चेहरे खिल उठे. सुख हो या दुख, भूख तो अपनी जगह हर हाल में बरकरार रहती है. सब ने पेट भर कर खाना खाया. जब पेट भरा तब गम कुछ हलका हुआ, फिर एक टाइम का खाना भी साथ में बांध लिया और आराम करने की गरज से रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े.

जैसे ही गोंडा जंक्शन पहुंचे आरपीएफ वाले लाठीडंडा ले कर आ धमके. काफी गुजारिश के बाद उन्हें रात गुजारने की मोहलत मिली. जब पेट भरा हो और ऊपर से जिस्म पर थकावट भी तारी हो तो नींद बहुत अच्छी आती है, इसलिए सब लोग घोड़े बेच कर सो गए.

अगली सुबह एक और मुसीबत सामने खड़ी थी. उन के सारे सामान चोरी हो चुके थे. बैग में रखे कपड़ेलत्ते, मोबाइल चार्जर, आईडी कार्ड, आधारकार्ड सबकुछ गायब.

“अब घर कैसे जाएंगे…” यह कलावती की फरियाद थी, जबकि नाजिया के आंसू तो कब के सूख चुके थे. कन्हैया कभीकभी दोनों औरतों की मनोदशा देख कर रोने लगता, फिर अपनेआप चुप भी हो जाता.

जुबैर और रामभरोसे को हर हाल में अपनी माटी को गले लगाना था. वे किस से अपना दुखड़ा रोते। बस किसी तरह वे लोग अपने गांव पहुंच जाना चाहते थे. अभी रास्ता आधा बचा था, जबकि जेब खाली हो चुकी थी.

फिर चलतेचलते सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम हो गई. पैर नौनौ मन के हो गए, जो उठाए नहीं उठ रहे थे. होंठों पर भूख से पपड़ी पड़ चुकी थी. पेट धंस कर पीठ में समा चुके थे.

बसस्टैंड पर भीड़ देख कर वे लोग रुक गए. पास पहुंचे तो देखा कि कुछ लोग खाने के पैकेट बांट रहे हैं, शायद एनजीओ वाले थे. खाने के पैकेट देख कर सब के चेहरे खिल उठे. सभी लाइन में लग गए और अपनी बारी का इंतजार करने लगे.

अगला ठहराव गोरखपुर में था जहां से चंपारण की दूरी महज 150 किलोमीटर थी. मांबाप के नाजों में पली नाजिया अब बेदम हो चुकी थी. उस के पैरों के छाले घाव बन कर तड़पा रहे थे. बुखार से उस का सारा बदन तप रहा था. उस के दोनों बच्चे अपनी अम्मी का मुंह ताक रहे थे, लेकिन अम्मी में इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि वह अपने बच्चों को दुलार सके, पुचकार सके, उन के चेहरों पर हाथ फेर सके.

जुबैर अपनेआप को कोस रहा था और सारी मुसीबत की जड़ खुद को मान रहा था. एक बच्चा खो चुका था अब बीवी भी हाथ से निकलती नजर आ रही थी.

मेहनतकश कलावती भी अब हार मान चुकी थी. उस से भी चला नहीं जा रहा था, फिर भी वह नाजिया के बच्चों की देखभाल कर रही थी.

दूर हाईवे के किनारे खड़ी एंबुलैंस को देख कर कुछ उम्मीद नजर आई. रामभरोसे लपक कर ड्राइवर के पास गया और बातें करने लगा. रामभरोसे ने इशारे से कन्हैया को बुलाया. जुबैर चुपचाप यह सबकुछ देख रहा था.

कन्हैया ने आ कर जुबैर को बताया, “ड्राइवर 7,000 रुपए में घर पहुंचाने को तैयार हुआ है. क्या कहते हो? पैसे घर चल कर देने हैं.”

‘घर पर कर्ज ले कर भाड़ा दे देंगे,’ यह सोच कर जुबैर फौरन तैयार हो गया.

फिर एंबुलैंस का ड्राइवर सभी अधमरे इनसानों को लाद कर, मुसकराते, सीटी बजाते हुए चंपारण के लिए चल पड़ा. यह आज का उस का दूसरा भाड़ा था.

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