आज मेरे लिए बहुत ही खुशी का दिन है क्योंकि विश्वविद्यालय ने 15 वर्षों तक निस्वार्थ और लगनपूर्वक की गई मेरी सेवा के परिणामस्वरूप मुझे कालेज का प्रिंसिपल बनाने का निर्णय लिया था. आज शाम को ही पदग्रहण समारोह होने वाला है. परंतु न जाने क्यों रहरह कर मेरा मन बहुत ही उद्विग्न हो रहा है. ‘अभी तो सिर्फ 9 बजे हैं और ड्राइवर 2 बजे तक आएगा. तब तक मैं क्या करूं…’ मैं मन ही मन बुदबुदाई और रसोई की ओर चल दी. सोचा कौफी पी लूं, क्या पता तब मन को कुछ राहत मिले.
कौफी का मग हाथ में ले कर जैसे ही मैं सोफे पर बैठी, हमेशा की तरह मुझे कुछ पढ़ने की तलब हुई. मेज पर कई पत्रिकाएं रखी हुई थीं. लेकिन मेरा मन तो आज कुछ और ही पढ़ना चाह रहा था. मैं ने यंत्रवत उठ कर अपनी किताबों की अलमारी खोली और वह किताब निकाली जिसे मैं अनगिनत बार पढ़ चुकी हूं.
जब भी मैं इस किताब को हाथ में लेती हूं, एक अलग ही एहसास होता है मुझे, मन को अपार सुख व शांति मिलती है. ‘आप मेरी जिंदगी में गुजरे हुए वक्त की तरह हैं सर, जो कभी लौट कर नहीं आ सकता. लेकिन मेरी हर सांस के साथ आप का एहसास डूबताउतरता रहता है,’ अनायास ही मेरे मुंह से अल्फाज निकल पड़े और मैं डूबने लगी 30 वर्ष पीछे अतीत की गहराइयों में जब मैं परिस्थितियों की मारी एक मजबूर लड़की थी, जो अपने साए तक से डरती थी कि कहीं मेरा यह साया किसी को बरबाद न कर दे.
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जन्म लेते ही मां को खा जाने वाला इलजाम मेरे माथे पर लेबल की तरह चिपका दिया गया था. पिताजी ने भी कभी मुझे अपनी बेटी नहीं माना. उन्होंने तो कभी मुझ से परायों जैसा भी बरताव नहीं किया. मुझे इंसान नहीं, एक बोझ समझा. मैं अपने पिताजी के साथ अकेली ही इस घर में रहती थी, क्योंकि मुझे पालने वाले चाचाचाची इस दुनिया से चले गए थे. और मैं तो अभी 8वीं में पढ़ने वाली 13 साल की बच्ची थी. फिर भला मैं कहां जाती. मैं घर में पिताजी के साथ एक अनचाहे मेहमान की तरह रहती थी, लेकिन घर के नौकरचाकर मुझ से बहुत प्यार करते थे.
जन्म से ले कर आज तक कभी भी मैं ने मां और पापा शब्द नहीं पुकारा है. मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इन रिश्तों को नाम ले कर बुलाने से कैसा महसूस होता है. पिताजी की सख्त हिदायत थी कि जब तक वे घर में रहें, तब तक मैं उन के सामने न जाऊं. इसलिए जितनी देर पिताजी घर में रहते, मैं पीछे बालकनी में जा कर नौकरों से बातें करती थी.
बालकनी से ही मैं ने उन्हें पहली बार देखा था. सामने वाले मकान में किराएदार के रूप में आए थे वे. पहले मैं नहीं जानती थी कि वे कौन हैं, क्या करते हैं? लेकिन जब भी मैं बालकनी में खड़ी होती तो उन की दैनिक गतिविधियों को निहारने में मुझे अद्भुत आनंद आता था. उम्र में तो वे मेरे पिताजी के ही बराबर थे लेकिन उन का आकर्षक व्यक्तित्व किसी को भी आकर्षित कर सकता था.
मैं अकसर उन्हें पढ़ते हुए देखती थी. कभीकभार खाना बनाते या कपड़े धोते हुए देखा करती थी. कई बार उन की नजर भी मुझ पर पड़ जाती थी. मैं अकसर उन के बारे में सोचती थी, परंतु पास जा कर कुछ पूछने की हिम्मत नहीं होती थी.
एक दिन जब मैं स्कूल से लौटी तो उन्हें बैठक में पिताजी के साथ चाय पीते देख कर चकित रह गई. मैं कुछ देर वहां खड़ी रहना चाहती थी, लेकिन पिताजी का इशारा समझ कर तुरंत अंदर चली गई और छिप कर बातें सुनने लगी. उस दिन पहली बार मुझे पता चला कि उन का नाम अनिरुद्ध है. नहीं…नहीं, अनिरुद्ध सर क्योंकि वे वहां के महिला महाविद्यालय में हिंदी के लैक्चरर थे.
कालेज के ट्रस्टी होने के नाते पिताजी और अनिरुद्ध सर की दोस्ती बढ़ती गई. और साथ ही मैं भी उन के करीब होती गई. स्कूल से आते वक्त कभीकभी मैं उन के घर भी चली जाया करती थी. वे बेहद हंसमुख स्वभाव के थे. जब भी मैं उन से मिलती, उन के चेहरे पर खुशी और ताजगी दिखती थी. वे मुझ से केवल मेरे स्कूल और मेरी सहेलियों के बारे में ही पूछा करते थे.
मेरी पढ़ाई का उन्हें विशेष खयाल रहता था, जबकि उतनी फिक्र तो शायद मुझे भी नहीं थी. मैं तो केवल पढ़ाई नाम की घंटी गले में बांधे घूम रही थी.
मैं ने तो सर से मिलने के बाद ही जाना कि ये किताबें किस हद तक मंजिल तक पहुंचने में मददगार सिद्ध होती हैं. सर कहा करते थे कि ये किताबें इंसान की सच्ची दोस्त होती हैं जो कभी विश्वासघात नहीं करतीं और न ही कभी गलत दिशा दिखलाती हैं.
ये हमेशा खुशियां बांटती हैं और दुखों में हौसलाअफजाई का काम करती हैं. उसी दौरान मुझे यह भी पता चला कि वे एक अच्छे लेखक भी हैं. इन दिनों वे एक नई किताब लिख रहे थे जिस का शीर्षक था ‘निहारिका.’ जब मैं ने 9वीं कक्षा पास कर ली तब उन्होंने एक दिन मुझ से कहा कि उन की ‘निहारिका’ आज पूरी हो गई है, और वे चाहते हैं कि मैं उसे पढूं.
तब मैं साहित्य शब्द का अर्थ भी नहीं जानती थी. कोर्स की किताबों के अलावा अन्य किताबों से मेरा न तो कोई परिचय था और न ही रुचि. लेकिन ‘निहारिका’ को मैं पढ़ना चाहती थी क्योंकि उसे सर ने लिखा था और उन की इच्छा थी कि मैं उसे पढ़ूं. और सर की खुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकती थी. जब मैं ने ‘निहारिका’ पढ़नी शुरू की तो उस के शब्दों में मैं डूबती चली गई. उस के हर पन्ने पर मुझे अपना चेहरा झांकता नजर आ रहा था. ऐसा लगता था जैसे सर ने मुझे ही लक्ष्य कर, यह कहानी मेरे लिए लिखी है, क्योंकि अंत में सर के हाथों मेरे नाम से लिखी वह चिट इस बात की प्रमाण थी.
‘प्रिय नेहा, ‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे अंदर किसी भी कार्य को करगुजरने की अनोखी क्षमता है, लेकिन जरूरत है उसे तलाश कर उस का सही इस्तेमाल करने की. मेरी कहानी की नायिका निहारिका ने भी यही किया है. तमाम कष्टों को झेलते हुए भी उस ने अपने डरावने अतीत को पीछे छोड़ कर उज्ज्वल भविष्य को अपनाया है, तभी वह अपनी मंजिल पाने में कामयाब हो सकी है. मैं चाहता हूं कि तुम भी निहारिका की तरह बनो ताकि इस किताब को पढ़ने वालों को यह विश्वास हो जाए कि ऐसा असल जिंदगी में भी हो सकता है.
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‘तुम्हारा, अनिरुद्ध सर.’ इस चिट को पढ़ने के साथ ही इस के हरेक शब्द को मैं ने जेहन में उतार लिया और फिर शुरू हो गया नेहा से निहारिका बनने तक का कभी न रुकने वाला सफर. जिस में सर ने एक सच्चे गुरु की तरह कदमकदम पर मेरा मार्गदर्शन किया. 10वीं का पंजीकरण कराते समय ही मैं ने अपना नाम बदल कर नेहा भाटिया की जगह नेहा निहारिका कर लिया.
स्कूल तथा कालेज की पढ़ाई समाप्त करने के बाद मैं ने पीएचडी भी कर ली. मेरी 10 वर्षों की मेहनत रंग लाई और मुझे अपने ही शहर के राजकीय उच्च विद्यालय में शिक्षिका के रूप में नियुक्ति मिल गई.
उस दिन जब मैं अपना नियुक्तिपत्र ले कर सर के पास गई तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. तब उन्होंने कहा था, ‘नेहा, अपनी इस सफलता को तुम मंजिल मत समझना, क्योंकि यह तो मंजिल तक पहुंचने की तुम्हारी पहली सीढ़ी है. मंजिल तो बहुत दूर है जो अथक परिश्रम से ही प्राप्त होगी.’ उधर, पिताजी को मेरा नौकरी करना बिलकुल रास नहीं आ रहा था.
परंतु न जाने क्यों वे खुले शब्दों में मेरा विरोध नहीं कर रहे थे. इसलिए उन्होंने मेरी शादी करने का फैसला किया ताकि वे नेहा नाम की इस मुसीबत से छुटकारा पा सकें. बचपन से ही आदत थी पिताजी के फैसले पर सिर झुका कर हामी भरने की, सो, मैं ने शादी के लिए हां कर दी.
अगले ही दिन पिताजी के मित्र के सुपुत्र निमेष मुझे देखने आए. साथ में उन के मातापिता और 2 छोटी बहनें भी थीं. जैसे ही मैं बैठक में पहुंची, पिताजी ने मेरी बेटी नेहा कह कर मेरा परिचय दिया. पहली बार पिताजी के मुंह से अपने लिए बेटी शब्द सुना और तब मुझे शादी करने के अपने फैसले पर खुशी महसूस हुई. मगर यह खुशी ज्यादा देर तक न रह सकी.
निमेष और उन के परिवार वालों ने मुझे पसंद तो कर लिया, लेकिन कुछ ऐसी शर्तें भी रख दीं जिन्हें मानना मेरे लिए मुमकिन नहीं था.
निमेष की मां ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि मुझे शादी के बाद नौकरी छोड़नी होगी और उन के परिवार के सदस्यों की तरह शाकाहारी बनना होगा. एक पारंपरिक गृहिणी के नाम पर शोपीस बन कर रहना मुझे गवारा नहीं था. मैं तो अपने सर के बताए रास्ते पर चलना चाहती थी और उन के सपनों को पूरा करना चाहती थी, जो अब मेरे भी सपने बन चुके थे.
सब के सामने तो मैं चुप रही परंतु शाम को हिम्मत कर के पिताजी से अपने मन की बात कह दी. यह सुन कर पिताजी आगबबूला हो गए. उस दिन मैं ने पहली बार बहुत कड़े शब्दों में उन का विरोध किया, जिस के एवज में उन्होंने मुझे सैकड़ों गालियां दीं व कई थप्पड़ मारे. फिर तो मैं लोकलाज की परवा किए बिना ही सर के पास चली गई. सर ने जैसे ही दरवाजा खोला, मैं उन से लिपट कर फफक पड़ी. इतनी रात को मेरी ऐसी हालत देख कर सर भी परेशान हो गए थे, लेकिन उन्होंने पूछा कुछ नहीं. फिर मैं ने उन के पूछने से पहले ही अपनी सारी रामकहानी उन्हें सुना डाली.
इतना कुछ होने के बाद भी सर ने मुझे पिताजी के पास ही जाने को कहा, लेकिन मैं टस से मस नहीं हुई. तब सर ने समझाना शुरू किया.
वे समझाते रहे और मैं सिर झुकाए रोती रही. उन की दुनिया व समाज को दुहाई देने वाली बातें मेरी समझ के परे थीं. फिर भी, अंत में मैं ने कहा कि यदि पिताजी मुझे लेने आएंगे तो मैं जरूर चली जाऊंगी, लेकिन वे नहीं आए. दूसरे दिन उन का फोन आया था.
मुझे ले जाने के लिए नहीं, बल्कि सर के लिए धमकीभरा फोन…यदि सर ने कल तक मुझे पिताजी के घर पर नहीं छोड़ा तो वे पुलिस थाने में रिपोर्ट कर देंगे कि अनिरुद्ध सर ने मेरा अपहरण कर लिया है. इतना सबकुछ जानने के बाद मैं सर की और अधिक परेशानी का कारण नहीं बनना चाहती थी, इसलिए सर के ही कहने पर मैं अपनी सहेली निशा के घर चली गई. पूरा एक सप्ताह बीत चुका था. मेरे
पिताजी को पता चल चुका था कि मैं निशा के घर पर हूं. फिर भी वे मुझे लेने नहीं आए. लेकिन मुझे कोई चिंता नहीं थी. मैं तो बस इसलिए परेशान थी कि इतने सालों बाद मैं पहली बार सर से इतने दिनों के लिए दूर हुई थी. इसलिए मुझे घबराहट होने लगी थी, जिस के निवारण के लिए मैं सर के कालेज चली गई. वहां मैं ने जो कुछ भी सुना वह मेरे लिए अकल्पनीय व असहनीय था. सर ने अपना स्थानांतरण दूसरे शहर में करवा लिया था और दूसरे दिन जा रहे थे.
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फिर तो मैं शिष्या होने की हर सीमा को लांघ गई और सर को वह सबकुछ कह दिया जिसे मैं ने आज तक केवल महसूस किया था. अपने प्रति सर के लगाव को प्यार का नाम दे दिया मैं ने. और सर…एक निष्ठुर की भांति मेरी हर बात को चुपचाप सुनते रहे. अंत में बस इतना कहा, ‘नेहा, आज तक तुम ने मुझे गलत समझा है. मेरे गुरुत्व का, मेरी शिक्षा का अपमान किया है तुम ने.’ ‘नहीं सर, मैं ने आप का अपमान नहीं किया है. मैं ने तो केवल वही कहा है जो अब तक महसूस किया है.
मैं ने सिर्फ प्यार ही नहीं, बल्कि हर रिश्ते का अर्थ आप से ही सीखा है. आप ने एक पिता की तरह मेरे सिर पर हाथ रख कर मुझे स्नेहसिक्त कर दिया, एक प्रेमी की तरह सदैव मुझे खुश रखा, एक भाई की तरह मेरी रक्षा की, एक दोस्त और शिक्षक की तरह मेरा मार्गदर्शन किया. यहां तक कि आप ने एक पति की तरह मेरे आत्मसम्मान की रक्षा भी की है. सच तो यह है सर, मन से तो मैं हर रिश्ता आप के साथ जोड़ चुकी हूं. इस के लिए तो मुझे किसी से भी पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है.’
‘नेहा, मेरा अपना एक अलग परिवार है और मैं अपने परिवार के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता. साथ ही, गुरु और शिष्य के इस पवित्र रिश्ते को भी कलंकित नहीं कर सकता.’ सर की आंखों में समाज का डर सहज ही झलक रहा था. ‘मैं जानती हूं सर, और मैं कभी ऐसा चाह भी नहीं सकती.
मैं ने आप से प्यार किया है. आप के अस्तित्व को चाहा है, सर. इसलिए मैं आप को अपनी नजरों में कभी गिरने नहीं दूंगी. मैं ने तो बस अपनी भावनाएं आप के साथ बांटी हैं. आप जहां चाहे जाइए, मुझे आप से कोई शिकायत नहीं. बस, कामना कीजिए कि मैं आप की दी हुई शिक्षा का अनुसरण कर सकूं.’
‘मेरी शुभकामनाएं तो हमेशा तुम्हारे साथ हैं नेहा, पर क्या जातेजाते मेरी गुरुदक्षिणा नहीं दोगी?’ सर ने रहस्यात्मक लहजे में कहा तो मैं दुविधा में पड़ गई.
मुझे असमंजस में पड़ा देख कर सर बोले, ‘मैं तो, बस इतना चाहता हूं नेहा कि मेरे जाने के बाद तुम न तो मुझे ढूंढ़ने की कोशिश करना और न ही मुझ से संपर्क स्थापित करने का कोई प्रयास करना. हो सके तो मुझे भूल जाना. यही तुम्हारे भविष्य के लिए उचित रहेगा.’
इतना कह कर उन्होंने अपनी पीठ मेरी तरफ कर ली. कुछ पलों के लिए मैं सन्न रह गई. समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी कीमती चीज मैं उन को कैसे दे दूं? फिर भी मैं ने साहस किया और बस इतना ही कह पाई, ‘सर, क्या आप अपनी ‘निहारिका’ को भूल पाएंगे? यदि आप ने इस का जवाब पा लिया तो आप को अपनी गुरुदक्षिणा अपनेआप ही मिल जाएगी.’
उस दिन मैं ने आखिरी बार अनिरुद्ध सर को आह भर के देखा. उन की शुभकामना ली तो? सर के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘हमेशा खुश रहो.’ शायद इसीलिए मैं किसी भी परिस्थिति में दुखी नहीं हो पाती हूं. जिंदगी के हर सुखदुख को हंसते हुए झेलना मेरी आदत बन गई है.
मैं ने सर की आधी बात तो मान ली और उन से कभी भी संपर्क करने की कोशिश नहीं की मगर उन्हें भूल जाने वाली बात मैं नहीं मान सकी, क्योंकि मैं गुरुऋ ण से उऋ ण नहीं होना चाहती थी.
सर के चले जाने के बाद मैं ने आजीवन अविवाहित रह कर शिक्षा के क्षेत्र में अपना जीवन समर्पित करने का फैसला कर लिया. न चाहते हुए भी पिताजी को मेरी जिद के आगे झुकना पड़ा.
इसी बीच, लगातार बजते मोबाइल की रिंगटोन को सुन कर मेरी तंद्रा भंग हुई, और मैं अतीत से वर्तमान के धरातल पर आ गई. पिताजी का फोन था, ‘‘आखिर तुम ने अपनी जिद पूरी कर ही ली. खैर, बधाई स्वीकार करो. मुझे अफसोस है कि मैं शहर से बाहर हूं और समारोह में नहीं आ सकता. आगे यही कामना है कि तुम और तरक्की करो.’’ पिताजी ने ये सबकुछ बहुत ही रूखी जबान से कहा था. फिर भी, मुझे अच्छा लगा कि पिताजी ने मुझे फोन किया. काश, एक बार सर का भी फोन आ जाता…