मैंने बहुत से कारोबार किए, पर कामयाब न हुआ. थकाहारा मैं एक ग्राहक के लिए एक किलो के बदले साढ़े 7 सौ ग्राम गोभी तोल रहा था कि एकाएक कहीं से प्रकट हुए बाबा ने मुझ से पूछा, ‘‘सब्जी के ठेले पर एक किलो के बदले साढ़े 7 सौ ग्राम तोल कर अपना यह लोक तो छोड़ो, परलोक तक क्यों खराब कर रहे हो कामपाल?’’ मैं ने उन के पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘मैं कामपाल? मैं तो… प्रभु, और क्या करूं? अगर मैं एक किलो के बदले साढ़े 7 सौ ग्राम न तोलूं, तो शाम को कमेटी वालों को, इस इलाके के हवलदार को, इनकम टैक्स वाले अफसर को 4-4 किलो मुफ्त सब्जी कहां से दूंगा? अगर न दूंगा, तो कल यहां ठेला कौन लगाने देगा?
‘‘बाबा, अपना तो नसीब ही ऐसा है कि जब भी सिर मुंड़वाने बैठता हूं, तो साफ मौसम में भी पता नहीं कहां से ओले पड़ने लगते हैं. ‘‘जवानी में पहली दफा प्यार के चक्कर में सिर मुंड़वाने बैठा ही था कि शादी कर के वह मेरे गले पड़ गई. और फिर कमबख्त आज तक पता ही नहीं चल पाया कि प्यार किस बला का
नाम है. ‘‘अब आप ही बताइए कि ऐसे में मैं एक किलो के बदले साढ़े 7 सौ ग्राम न तोलूं, तो और क्या करूं?’’
‘‘तो सुनो कामपाल, अब तुम्हारे शक्तिवर्धक कैप्सूल खाने के दिन आ गए हैं. कल से तुम्हें यह देश कामपाल के नाम से जानेगा. बाबा का हुक्म है कि कल से तुम सब्जी का पंचर टायरों वाला ठेला लगाना बंद कर के धर्म का ठेला लगाओ.’’ ‘‘धर्म ठेले पर भी बिकता है क्या बाबा? मैं ने तो आज तक धर्म के मौल ही देखे हैं. ऐसे में ठेले पर कौन मुझ से धर्म खरीदने आएगा? ऐसा न हो कि मैं दो वक्त की रोटी से भी जाता रहूं.’’
बाबा मेरी अक्ल पर गुस्सा होते हुए बोले, ‘‘मूर्ख, लगता है कि बीवी ने तुम्हारे दिमाग को चाटचाट कर साफ कर दिया है. इस देश में जितना धर्म बिकता है, उतना और कोई माल नहीं बिकता. धर्म के खरीदार यहां हर तबके के लोग हैं. जिन लोगों के पास आटादाल खरीदने तक को पैसे नहीं हैं, वे भी आटेदाल की परवाह किए बिना धर्म जरूर खरीदते हैं. ‘‘रही बात ठेले पर धर्म बेचने की, तो आज धर्म के जितने भी मौल सजे देख रहे हो न, सब ने ठेले से ही धर्म बेचना शुरू किया था. यह धंधा वह धंधा है, जो दिन दूनी रात सौ गुनी तरक्की करता है. जिस ने भी यह धंधा किया है, वह गंगू तेली से राजा भोज हो गया है.
‘‘मेरा तुझे आदेश है कि जनता में धर्म की स्थापना के लिए तू भी धर्म का ठेला लगा और ठेले से मौल तक पहुंच कर करोड़पति हो जा.’’ ‘‘पर बाबा, मेरे पास तो सब्जी बेचने की ही पुश्तैनी कला है. ऐसे में मैं धर्म को कैसे बेच पाऊंगा? सड़ी सब्जी की गंध मेरी नसनस में बस चुकी है,’’ मैं ने अपने भीतर का दर्द कहा.
बाबा मेरी पीठ थपथपाते हुए बोले, ‘‘धर्म बेचना सब्जी बेचने से कहीं ज्यादा आसान है. न तराजू, न बट्टे. न लंगोट, न कच्छे. न तेल लगा कर चमकाई गई सड़ी शिमला मिर्च, न ग्रीस मले मुरझाए भुट्टे. कोशिश कर के तो देख. इस धंधे में न गला फाड़ने की जरूरत, न सड़ी बंदगोभी को ताजा बनाए रखने के लिए उस के सड़े पत्ते उखाड़ने की.’’ बाबा की बातों से हैरानपरेशान हो कर मैं गश खा कर गिरतेगिरते बचा. मैं ने टूटी तराजू और सील निकाले बट्टों को परे फेंकते हुए पूछा, ‘‘पर बाबा…’’
‘‘जानता हूं. तुम बरवाला वाले का केस देख कर डर रहे हो. पर बेटा, चांदनी चौक की एक दुकान बंद होने का मतलब पूरे चांदनी चौक का बाजार बंद होना तो नहीं? गरीबी की सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं मौल के 2-4 दिन. घोर कलियुग है, घोर कलियुग. अब धर्म का झंडा उठाने वालों के साथ यहां ऐसा ही होगा, पर तुम डरना मत.’’ ‘‘पर बाबा…’’
‘‘पर क्या… सब्जी का ठेला छोड़ कर कल से धर्म का ठेला लगा और चंद दिनों में ही इसरो से भी कम
लागत में चांद पर पहुंच जा,’’ इतना कह कर बाबा अंतर्ध्यान हो गए.
मुझे बाबा की बात जंच गई. लिहाजा, शाम को ठेले की बची सब्जी के भरभर झोले कमेटी वालों को, इलाके के हवलदार को, इनकम टैक्स वाले अफसर को दे कर घर पर ही धर्म का ठेला लगाने की बात पत्नी से की, तो 10-20 दिन न नहाने वाली बीवी खोली में ही स्विमिंग पूल में तैरने के सपने लेने लगी. खुले में शौच जाने वाली मेरी आंखों के सामने एयरकंडीशंड वाशरूम सज उठा. इधरउधर से गत्ते की पेटियां चुन कर लाने वाली मेरी बीवी की आंखों के आगे मौड्यूलर किचन नाचने लगा. देखते ही देखते मैं ने देखा कि जैसे मैं नामीगिरामी बाबा हो गया हूं.
कुछ भी बकने के लिए मेरे भक्तों ने मेरे लिए सोने का सिंहासन बनवा दिया है. भक्त मेरी बकवास सुनने को बेचैन हैं.
मेरे पास स्वर्ग तक जाने के लिए लिफ्ट मौजूद है. भीतर ही भीतर आई फील दैट स्वर्ग के देवता तक मुझ से चिढ़ने लगे हैं. हजारों की तादाद में मेरे दिमाग और बिना दिमाग वाले भक्त हैं. घर के खाली दालचावल के डब्बों में सोने के गहने, हीरेजवाहिरात भरे पड़े हैं. कल तक जिन्हें मैं हफ्ता दिया करता था, वे सब मेरे पैरों में ‘डेली’ चढ़ाने आ रहे हैं.