लेखक- सावित्री रांका
रजाई में मुंह लपेटे केतकी फोन की घंटी सुन तो रही थी पर रिसीवर उठाना नहीं चाहती थी सो नींद का बहाना कर के पड़ी रही. बाथरूम का नल बंद कर रोहिणी ने फोन उठाया रिसीवर रखने की आवाज सुनते ही जैसे केतकी की नींद खुल गई हो, ‘‘किस का फोन था, ममा?’’
‘‘कमला मौसी का.’’
यह नाम सुनते ही केतकी की मुख- मुद्रा बिगड़ गई.
रोहिणी जानती है कि कमला का फोन करना, घर आना बेटी को पसंद नहीं. उस की स्वतंत्रता पर अंकुश जो लग जाता है.
‘‘आने की खबर दी होगी मौसी ने?’’
‘‘कालिज 15 तारीख से बंद हो रहे हैं, एक बार तो हम सब से मिलने आएगी ही.’’
‘‘ममा, 10 तारीख को हम लोग पिकनिक पर जा रहे हैं. मौसी को मत बताना, नहीं तो वह पहले ही आ धमकेंगी.’’
‘‘केतकी, मौसी के लिए इतनी कड़वाहट क्यों?’’
‘‘मेरी जिंदगी में दखल क्यों देती हैं?’’
‘‘तुम्हारी भलाई के लिए.’’
‘‘ममा, मेरे बारे में उन्हें कुछ भी मत बताना,’’ और वह मां के गले में बांहें डाल कर झूल गई.
‘‘तुम जानती हो केतकी, तुम्हारी मौसी कालिज की प्रिंसिपल है. उड़ती चिडि़या के पंख पहचानती है.’’
‘अजीब समस्या है, जो काम ये लोग खुद नहीं कर पाते मौसी को आगे कर देते हैं. इस बार मैं भी देख लूंगी. होंगी ममा की लाडली बहन. मेरे लिए तो मुसीबत ही हैं और जब मुसीबत घर में ही हो तो क्या किया जाए, केतकी मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘पापा भी साली साहिबा का कितना ध्यान रखते हैं. वैसे जब भी आती हैं मेरी खुशामदों में ही लगी रहती हैं. मुझे लुभाने के लिए क्या बढि़याबढि़या उपहार लाती हैं,’ और मुंह टेढ़ा कर के केतकी हंस दी.
‘‘अकेले क्या भुनभुना रही हो, बिटिया?’’
‘‘मैं तो गुनगुना रही थी, ममा.’’
मातापिता के स्नेह तले पलतीबढ़ती केतकी ने कभी किसी अभाव का अनुभव नहीं किया था. मां ने उस की आजादी पर कोई रोक नहीं लगाई थी. पिता अधिकाधिक छूट देने में ही विश्वास करते थे, ऐसे में क्या बिसात थी मौसी की जो केतकी की ओर तिरछी आंख से देख भी सकें.
इस बार गरमियों की छुट्टियों में वह मां के साथ लखनऊ जाएंगी. मौसी ने नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना रखा था. कालिज में अवकाश होते ही तीनों रोमांचक यात्रा पर निकल गईं. रोहिणी और कमला के जीवन का केंद्र यह चंचल बाला ही थी.
नैनी के रोमांचक पर्वतीय स्थल और वहां के मनोहारी दृश्य सभी कुछ केतकी को अपूर्व लग रहे थे.
‘‘ममा, आज मौसी बिलकुल आप जैसी लग रही हैं.’’
‘‘मेरी बहन है, मुझ जैसी नहीं लगेगी क्या?’’
इस बीच कमला भी आ बैठी. और बोली, ‘‘क्या गुफ्तगू चल रही है मांबेटी में?’’
‘‘केतकी तुम्हारी ही बात कर रही थी.’’
‘‘क्या कह रही हो बिटिया, मुझ से कहो न?’’ कमला केतकी की ओर देख कर बोली.
‘‘मौसी, यहां आ कर आप प्रिंसिपल तो लगती ही नहीं हो.’’
सुन कर दोनों बहनें हंस दीं.
‘‘इस लबादे को उतार सकूं इसीलिए तो तुम्हें ले कर यहां आई हूं.’’
‘‘आप हमेशा ऐसे ही रहा करें न मौसी.’’
‘‘कोशिश करूंगी, बिटिया.’’
खामोश कमला सोचने लगी कि यह लड़की कितनी उन्मुक्त है. केतकी की कही गई भोली बातें बारबार मुझे अतीत की ओर खींच रही थीं. कैसा स्वच्छंद जीवन था मेरा. सब को उंगलियों पर नचाने की कला मैं जानती थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि शस्त्र सी मजबूत मेरे जैसी युवती कचनार की कली सी नाजुक बन गई.
सच, कैसी है यह जिंदगी. रेलगाड़ी की तरह तेज रफ्तार से आगे बढ़ती रहती है. संयोगवियोग, घटनाएंदुर्घटनाएं घटती रहती हैं, पर जीवन कभी नहीं ठहरता. चाहेअनचाहे कुछ घटनाएं ऐसी भी घट जाती हैं जो अंतिम सांस तक पीछा करती हैं, भुलाए नहीं भूलतीं और कभीकभी तो जीवन की बलि भी ले लेती हैं.
अच्छा घरवर देख कर कमला के मातापिता उस का विवाह कर देना चाहते थे पर एम.ए. में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर स्कालरशिप क्या मिली, उस के तो मानो पंख ही निकल आए. पीएच.डी. करने की बलवती इच्छा कमला को लखनऊ खींच लाई. यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मुकेश वर्मा के निर्देशन में रिसर्च का काम शुरू किया. 2 साल तक गुरु और शिष्या खूब मेहनत से काम करते रहे. तीसरे साल में दोनों ही काम समाप्त कर थीसिस सबमिट कर देना चाहते थे.
‘कमला, इस बार गरमियों की छुट्टियों में मैं कोलकाता नहीं जा रहा हूं. चाहता हूं, कुछ अधिक समय लगा कर तुम्हारी थीसिस पूरी करवा दूं.’
‘सर, अंधा क्या चाहे दो आंखें. मैं भी यही चाहती हूं.’
थीसिस पूरी करने की धुन में कमला सुबह से शाम तक लगी रहती. कभीकभी काम में इतनी मग्न हो जाती कि उसे समय का एहसास ही नहीं होता और रात हो जाती. साथ खाते तो दोनों में हंसीमजाक की बातें भी चलती रहतीं. रिश्तों की परिभाषा धीरेधीरे नया रूप लेने लगी थी. प्रो. वर्मा अविवाहित थे. कमला को विवाह का आश्वासन दे उन्होंने उसे भविष्य की आशाओं से बांध लिया. धीरेधीरे संकोच की सीमाएं टूटने लगीं.
‘कितना मधुर रहा हमारा यह ग्रीष्मावकाश, समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.’
‘अवकाश समाप्त होते ही मैं अपनी थीसिस प्रस्तुत करने की स्थिति में हूं.’
‘हां, कमला, ऐसा ही होगा. मेरे विभाग में स्थान रिक्त होते ही तुम्हारी नियुक्ति मैं यहीं करवा लूंगा, फिर अब तो तुम्हें रहना भी मेरे साथ ही है.’
इन बातों से मन के एकांतिक कोनों में रोमांस के फूल खिल उठते थे. जीवन का सर्वथा नया अध्याय लिखा जा रहा था.
‘तुम्हारी थीसिस सबमिट हो जाए तो मैं कुछ दिन के लिए कोलकाता जाना चाहता हूं.’
‘नहीं, मुकेश, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूंगी.’
‘अरी पगली, परिवार में तुम्हारे शुभागमन की सूचना तो मुझे देनी होगी न.’
‘सच कह रहे हो?’
‘क्यों नहीं कहूंगा?’
‘मुकेश, किस जन्म के पुण्यों का प्रतिफल है तुम्हारा साथ.’
‘तुम भी कुछ दिन के लिए घर हो आओ, ठीक रहेगा.’
परिवार में कमला का स्वागत गर्मजोशी से हुआ. पहले दिन वह दिन भर सोई. मां ने सोचा बेटी थकान उतार रही है. फिर भी उन्हें कुछ ठीक नहीं लग रहा था. अनुभवी आंखें बेटी की स्थिति ताड़ रही थीं. एक सप्ताह बीता, मां ने डाक्टर को दिखाने की बात उठाई तो कमला ने खुद ही खुलासा कर दिया.
‘विवाह से पहले शारीरिक संबंध… बेटी, समाज क्या सोचेगा?’
‘मां, आप चिंता न करें. हम दोनों शीघ्र ही विवाह करने वाले हैं. वैसे मुझे लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप भी मिल गई है. मुकेश भी वहीं प्रोफेसर हैं. मैं आज ही फोन से बात करूंगी.’
‘जरूर करना बेटी. समय पर विवाह हो जाए तो लोकलाज बच जाएगी.’
कमला ने 1 नहीं, 2 नहीं कम से कम 10 बार नंबर डायल किए, पर हर बार रांग नंबर ही सुनना पड़ा. वह बहुत दिनों तक आशा से बंधी रही. समय बीतता जा रहा था. उस की घबराहट बढ़ती जा रही थी. बड़ी बहन रोहिणी भी चिंतित थी. वह उसे अपने साथ पटना ले आई. नर्सिंग होम में भरती करने के दूसरे दिन ही उस ने एक कन्या को जन्म दिया. पर वह कमला की नहीं रोहिणी की बेटी कहलाई. सब ने यही जाना, यही समझा. इस तरह समस्या का निराकरण हो गया था. मन और शरीर से टूटी विवश कमला ड्यूटी पर लौट आई.
निसंतान रोहिणी को विवाह के 15 वर्ष बाद संतान सुख प्राप्त हुआ था. उस का आंगन खुशियों से महक उठा. बहुत प्रसन्न थी वह. कमला की पीड़ा भी वह समझती थी. सबकुछ भूल कर वह विवाह कर ले, अपनी दुनिया नए सिरे से बसा ले, यही चाहती थी वह. सभी ने बहुत प्रयत्न किए पर सफल नहीं हो पाए.
अवकाश समाप्त होने के कई महीनों बाद भी मुकेश नहीं लौटा था. बाद में उस के नेपाल में सेटिल होने की बात कमला ने सुनी थी. उस दिन वह बहुत रोई थी, पछताई थी अपनी भावुकता पर. आवेश में पुरुष मानसिकता को लांछित करती तो स्वयं भी लांछित होती. अत: जीवन को पुस्तकालय ही हंसतीबोलती दुनिया में तिरोहित कर दिया.
कभी अवकाश में दीदी के पास चली जाती, पर केतकी ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी उसे मौसी का आना अखरने लगा था. वह देखती, समाज की वर्जनाओं की परवा न कर के जीजाजीजी ने बिटिया को पूरी छूट दे रखी है. आधुनिक पोशाकें डिस्को, ब्यूटीपार्लर, सिनेमा, थियेटर कहीं कोई रोकटोक नहीं थी. इतना सब होने पर भी वे बेटी का मुंह जोहते, कहीं किसी बात से राजकुमारी नाराज तो नहीं.
‘‘इस बार जन्मदिन पर मुझे कार चाहिए, पापा,’’ बेटी के साहस पर चकित थी रोहिणी. मन ही मन वह जानती थी कि जिस शक्ति का यह अंश है, संसार को उंगली पर नचाने की ऐसी ही क्षमता उस में भी थी. युवा होती केतकी के व्यवहार में रोहिणी को कमला की झलक दिखाई देती.
ऐसी ही हठी थी वह भी. मनमाना करने को छटपटाती रहती. हठ कर के लखनऊ चली आई. बेटी को त्यागने का निश्चय एक बार कर लिया तो कर ही लिया. पर आंख से ही दूर किया है, मन से कैसे हटा सकती है. अभी इस के एम.बी.बी.एस. पूरा करने में 2 वर्ष बाकी हैं. पर अभी से अच्छे जीवनसाथी की तलाश में जुटी हुई है. कैसे समझाऊं कमला को? कब तक छिपाए रखेंगे हम यह सबकुछ. एक न एक दिन तो वह जान ही जाएगी सब. सहसा केतकी के आगमन से उस के विचारों की शृंखला टूटी.
‘‘ममा, आप मेरे बारे में हर बात की राय मौसी से क्यों लेती हैं? माना वह कालिज में पढ़ाती हैं पर मैं जानती हूं कि वह आप से ज्यादा समझदार नहीं हैं.’’
‘‘मां को फुसलाने का यह बढि़या तरीका है.’’
‘‘नहीं, ममा, मैं सच कहती हूं. वह आप जैसी हो ही नहीं सकतीं. आप के साथ कितना अच्छा लगता है. और मौसी तो आते ही मुझे डिस्पिलिन की रस्सियों से बांधने की चेष्टा करने लगती हैं.’’
‘‘केतकी, कमला मुझे तुम्हारे समान ही प्रिय है. मेरी छोटी बहन है वह.’’
‘‘आप की बहन हैं, ठीक है पर मेरी जिंदगी के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं?’’
‘‘बिटिया सोचसमझ कर बोला कर. मौसी का अर्थ होता है मां सी.’’
‘‘सौरी, ममा, इस बार आप की बहन को मैं भी खुश रखूंगी.’’
वातावरण हलका हो गया था.
आज मौसम बहुत सुहाना था. लौन की हरी घास कुछ ज्यादा ही गहरी हरी लग रही थी. सफेद मोतियों से चमकते मोगरे के फूल चारों ओर हलकीहलकी मादक सुगंध बिखेर रहे थे. सड़क को आच्छादित कर गुलमोहर के पेड़ फूलों की वर्षा से अपनी मस्ती का इजहार कर रहे थे. प्रकृति का शीतल सान्निध्य पा कर कमला की मानसिक बेचैनी समाप्त हो गई थी. चाय की प्यालियां लिए रोहिणी पास आ बैठी.
‘‘क्या सोच रही हो, कमला?’’
‘‘कुछ नहीं, दीदी, ऊपर देखो, सफेद बगलों का जोड़ा कितनी तेजी से भागा जा रहा है.’’
‘‘अपने गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी है इन को. क्या तुम नहीं जानतीं कि संध्या ढल रही है और शिशु नीड़ों से झांक रहे होंगे,’’ इतना कह कर रोहिणी खिलखिला दी.
‘‘जानती हूं दीदी, लेकिन जिस का कोई गंतव्य ही न हो वह कहां जाए? किनारे के लिए भटकती लहरों की तरह मंझधार में ही मिट जाना उस की नियति होती होगी.’’
‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, कमला. तुम्हारा वर्तमान तुम्हारा गंतव्य है. चाहो तो अब भी बदल सकती हो इस नियति को.’’
‘‘नहीं, दीदी, मुक्त आकाश ही मेरा गंतव्य है, अब तो यही अच्छा लगता है मुझे.’’
कमला एकदम सावधान हो गई. पिछले कई महीनों से जीजाजी विवाह के लिए जोर डाल रहे हैं. मस्तिष्क में विचार गड्डमड्ड होने लगे. जीजी, आज फिर उस बैंक मैनेजर का किस्सा ले बैठेंगी. जीवन के सुनिश्चित मोड़ पर मिला साथी जब छल कर जाए तो कैसा कसैला हो जाता है संपूर्ण अस्तित्व.
‘‘केतकी को देखती हूं तो अविश्वास का अंधकार मेरे चारों ओर लिपट जाता है. इस मासूम का क्या अपराध? जीजी, तुम्हारा दिल कितना बड़ा है. मेरे जीवन की आशंका को तुम ने अपनी आशा बना लिया. मुकेश की सशक्त बांहों के आश्रय में कितना कुछ सहेज लिया था मैं ने, पर मुट्ठी से झरती रेत की तरह सब बह गया.’’
रात की कालिमा पंख फैलाने लगी थी. कमला के जेहन में बीती घटनाएं केंचुओं की तरह जिस्म को काटती हुई रेंग रही थीं. कैसेकैसे आश्वासन दिए थे मुकेश ने. प्रगतिशील पुरुष का प्रतिबिंब उस का व्यक्तित्व जैसे ‘डिसीव’ शब्द ही नहीं जानता था. मेरी आशंकाओं को निर्मल करने के लिए अपने स्तर पर वह इस शब्द का अस्तित्व ही मिटा देना चाहता था. अंत में क्या हुआ. दोहरे व्यक्तित्व का नकाबपोश. बहुत देर तक रोती रही कमला.
कभी अनजाने में ही मुकेश की उपस्थिति कमला के आसपास मंडराने लगती. तब वह बहुत बेचैन हो जाती, जैसे कोई खूनी शेर तीखे पंजों से उस के कोमल शरीर को नोच रहा हो. सबकुछ बोझिल और उदास लगने लगता. दुनिया को पैनी निगाहों से परखने वाली कमला सोचती, इस संसार में चारों ओर कितना सुख बिखरा है पर दुख की भी तो कमी नहीं है. ऐसे में कवि पंत की ये पंक्तियां वह अकसर गुनगुनाने लगती : ‘जग पीडि़त है अति सुख से जग पीडि़त है अति दुख से.
मानव जग में बंट जाए सुख दुख से, दुख सुख से.’
अंधकार बढ़ रहा था, वातावरण पूरी तरह से नीरव था. कमला बुदबुदा रही थी, अपने ही शब्द सुन रही थी. केतकी को क्या समझूं एक दिन के लिए भी मैं इसे अपना न कह सकी. दीदी सहारा न देतीं तो इस उपेक्षित बाला का भविष्य क्या होता? कितनी खुश है यहां. यह तो उन्हें ही वास्तविक मातापिता समझती है.
एम.बी.बी.एस. की परीक्षा केतकी ने स्वर्णपदक के साथ उत्तीर्ण की. हर बात की टोह रखने वाली कमला अगले ही दिन पटना पहुंच गई. केतकी हैरान रह गई.
‘‘ममा, यह आप ने क्या किया? कल रिजल्ट आया और आज आप ने मौसी को बुला भी लिया.’’
‘‘तुम्हारी पीठ ठोकने चली आई. उसे कैसे रोकती मैं.’’
कमला ने केतकी को हृदय से लगा लिया. मौसी की आंखों में अपने लिए आंसू देख कर वह चकित थी.
‘‘यह क्या? आप रो रही हैं?’’
‘‘पगली, खुशी के भी आंसू होते हैं. होते हैं न?’’ गाल को उंगली से छू कर कहा कमला ने, ‘‘मैं तुम्हें ताज में पार्टी दूंगी बिटिया. तुम अपने दोस्तों को भी खबर कर दो. मैं उन सब से मिलना चाहती हूं.’’
‘‘सच मौसी, आप को अच्छा लगेगा?’’
‘‘क्यों नहीं? मेरी लाडली अब डाक्टर है, अबोध बच्ची नहीं.’’
कमला बहुत खुश थी. पार्टी चल रही थी. बहुत से जोडे़ हंस रहे थे. आपस में बतिया रहे थे. उसी दिन कमला ने देखा केतकी और कुणाल के हावभाव में झलकता निच्छल अनुराग.’’
‘‘कमला, केतकी और कुणाल के संबंधों की बात मैं खुद ही तुम्हें बताना चाहती थी पर कह न पाई,’’ रोहिणी बोली, अब तुम ने सब देख लिया है. अच्छा हो इस बार यह संबंध तय कर के जाओ.
‘‘जीजी, यह अधिकार आप का है.’’
‘‘तुम्हारी स्वीकृति आवश्यक है.’’
‘‘दीदी, कुणाल को मैं जानती हूं. मेरी क्लासमेट अनुराधा का बेटा है वह, बहुत भला और संस्कारी परिवार है. आप कहें तो कल अनु को बुला लूं.’’
‘‘क्यों नहीं, मैं तुम्हारे चेहरे पर खुशी की रेखा देखना चाहती हूं.’’
कमला ने कालिज से एक माह का अवकाश ले लिया था. विवाह खूब धूमधाम से संपन्न हुआ. कमला लखनऊ लौट गई. अपने कमरे के एकांत में वर्षों बाद उस ने मुकेश का नाम लिया था पर लगा जैसे चारों ओर कड़वाहट फैल गई हो. चाहत में डुबो कर तुम ने मुझे छला मुकेश और तुम्हारे राज को मैं ने 24 वर्ष तक हृदय की कंदरा में छिपाए रखा. मैं केतकी को तुम्हारी बेटी कभी नहीं कहूंगी. तुम इस योग्य हो भी नहीं. पता नहीं रिसर्च और सर्विस का झांसा दे कर तुम ने मेरे जैसी कितनी अबोध युवतियों के साथ यह खेल खेला होगा. बेटी के सुखी भविष्य के लिए मैं उसे तुम्हारा नाम नहीं बताऊंगी.
‘‘ममा, मौसी का फोन है.’’
‘‘दीदी, मैं कल ही कालिज का ट्रिप ले कर कुल्लूमनाली जा रही हूं. 10 दिन का टूर है. हां, केतकी कैसी है?’’
‘‘दोनों बहुत खुश हैं. तुम अपना ध्यान रखना.’’
‘‘ठीक है, जीजी,’’ कह कर कमला फोन पर खिलखिला कर हंसी थी. रोहिणी को लगा कि बेटी का घर बस जाने की खुशी थी यह.
नियत तिथि पर टूर समाप्त हुआ. केतकी के लिए ढेरों उपहार देख रोहिणी चकित थी कि हर समय इस के दिल में केतकी बसी रहती है.
अवकाश समाप्त होने में अभी 10 दिन शेष थे. कमला दीदी और केतकी के साथ घर पर रहने के मूड में थी. पर आने के 2 दिन बाद ही कमला को ज्वर हो आया. डा. केतकी ने दिनरात परिचर्या की. कोई सुधार होता न देख कर दूसरे डाक्टर साथियों से भी सहायता ली उस ने.
‘‘जीजी, लगता है अब यह ज्वर नहीं जाएगा. मेरा अंत आ पहुंचा है.’’
‘‘ऐसा मत कहो, कमला. अभी तुम्हें केतकी के लिए बहुत कुछ करना है.’’
‘‘समय क्या किसी के रोके रुका है, जो मैं उसे रोक लूंगी. दीदी, केतकी को बुला दीजिए.’’
‘‘वह तो यहीं बैठी है तुम्हारे पास.’’
‘‘बेटी, यह जरूरी कागज हैं तुम्हारे और कुणाल के लिए. इन्हें संभाल कर रख लेना.’’
‘‘यह क्या हो रहा है ममा? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा.’’
‘‘कमला, केतकी कुछ जानना चाहती है.’’
‘‘जीजी, आप सब जानती हैं, जितना ठीक समझो बता देना. मेरे पास अब समय नहीं है.’’
कमला ने अंतिम सांस ली. तड़प उठी केतकी. पहली बार रोई थी वह उस अभागी मां के लिए, जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी. द्य