लेखक- मनमोहन भाटिया
महानगरों की जिंदगी पूरी तरह बदल गई है. हर इनसान अपने में ही व्यस्त है. कुसूर किसी का भी नहीं है, वक्त की कमी सभी को है और हर कोई दूसरे से न मिलने की शिकायत करता है. लेकिन व्यक्ति क्या खुद अपने गिरेबान में झांक कर स्वयं को देखता है कि वह खुद जो शिकायत कर रहा है, स्वयं कितना समय दूसरों के लिए निकाल पाता है.
सुबह आफिस जाने के लिए सुभाष तैयार हो कर नाश्ते की मेज पर बैठे समाचारपत्र की सुर्खियों पर नजर डाल रहे थे कि तभी फोन की घंटी बजी. फोन उठा कर उन्होंने जैसे ही हैलो कहा, दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘क्या भाषी है?’’
एक अरसे के बाद भाषी शब्द सुन कर उन्हें अच्छा लगा और सोचने लगे कि कौन है भाषी कहने वाला, नजदीकी रिश्तेदार ही उन्हें भाषी कहते थे. तभी दूसरी तरफ की आवाज ने उन की सोच को तोड़ा, ‘‘क्या भाषी है?’’
‘‘हां, मैं भाषी बोल रहा हूं, आप कौन, मैं आवाज पहचान नहीं सका,’’ सुभाष ने प्रश्न किया.
‘‘भाषी, तू ने मुझे नहीं पहचाना, क्या बात करता है, मैं मेशी.’’
‘‘अरे, मेशी, कितने सालों बाद तेरी आवाज सुनाई दी है, कहां है तू. तेरी तो आवाज बिलकुल बदल गई है.’’
‘‘थोड़ा सा जुकाम हो रहा है पर यह बता, तू कहां है, कभी नजर ही नहीं आता.’’
‘‘मेशी, तेरे से मिले तो एक जमाना हो गया. क्या कर रहा है?’’
‘‘तेरे से यह उम्मीद न थी, भाषी. तू तो एकदम बेगाना हो गया है. मैं ने सोचा, कहीं तू विदेश तो नहीं चला गया, लेकिन शुक्र है कि तू बदल गया पर तेरा टैलीफोन नंबर नहीं बदला है.’’
‘‘क्या बात है मेशी, सालों बाद बात हो रही है और तू जलीकटी सुना रहा है.’’
‘‘भाषी, तू हरी के अंतिम संस्कार पर भी नहीं पहुंचा, आज उस की उठावनी है, इसलिए फोन कर रहा हूं, शाम को 3 से 4 बजे का समय है.’’
‘‘क्या बात करता है, हरी का देहांत हो गया. कब, कैसे हुआ, मुझे तो किसी ने बताया ही नहीं.’’
‘‘4 दिन हो गए हैं. आज तो उस की शोकसभा है. आना जरूर.’’
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‘‘कहां आऊं, पता तो बता…आज 10 साल बाद हमारे बीच बात हो रही है. न पता बता कर राजी है, न पहले बताया. बस, गिलेशिकवे कर रहा है,’’ भाषी ने तीखे शब्दों में अपनी नाराजगी जाहिर की.
मेशी ने उठावनी कहां होनी है, उस का पता बताया.
सुभाष की पत्नी सारिका रसोई में थी, टिफिन हाथ में ला कर बोली, ‘‘यह लो अपना लंच… नाश्ता यहीं ले कर आऊं या डाइनिंग टेबल पर लगाऊं.’’
‘‘टिफिन से खाना निकाल लो, आज आफिस नहीं जा रहा हूं.’’
‘‘क्यों? तबीयत तो ठीक है न?’’
‘‘हां, मेशी का फोन आया था. अभी उसी से बात कर रहा था. हरी का देहांत हो गया है, वहां जाना है.’’
‘‘क्या?’’ सारिका ने हैरानी से पूछा.
‘‘आज शाम को हरी की उठावनी है.’’
‘‘4 दिन हो गए और हमें पता ही नहीं. किसी ने बताया ही नहीं,’’ इस से पहले सारिका कुछ और कहती सुभाष ने कहा, ‘‘रहने दे, हम क्यों अपना दिमाग और समय खराब करें. जब पता चल ही गया है तो हम अभी हरी के घर चलते हैं और शाम को उठावनी में भी चलेेंगे.’’
‘‘ठीक है, मैं भी तैयार हो जाती हूं, फिर साथ चलते हैं.’’
सारिका तैयार होने चली गई तो सुभाष अतीत में गुम हो गया. हरी, भाषी और मेशी तो उन के घर के नाम थे. तीनों ताऊ, चाचा के लड़के थे. बचपन में सब के मकान एकसाथ थे. तीनों की उम्र में 1-2 साल का ही अंतर था. एकसाथ स्कूल जाना, पढ़ना, खेलना. तीनों भाई ही नहीं दोस्त भी थे.
हरी यानी बिहारी, मेशी यानी रमेश और भाषी यानी सुभाष. तीनों बड़े हो गए लेकिन बचपन के उन के नाम नहीं गए. बाहरी दुनिया के लिए वे भले ही बिहारी, रमेश, सुभाष हों, लेकिन एकदूसरे के लिए हरी, मेशी और भाषी ही थे.
कालेज की पढ़ाई के बाद हरी ताऊजी की दुकान पर बैठ गया. रमेश चाचाजी की दुकान पर और सुभाष ने नौकरी कर ली, क्योंकि उस के पिताजी का व्यापार नुकसान की वजह से बंद हो चुका था और बहनों की शादी के खर्च के बाद मकान भी बिक गया. सुभाष मांबाप के साथ किराए के मकान में रहने लगा तो वे दूर हो गए फिर भी आपसी नजदीकियां और मेलजोल पहले जैसा ही रहा.
सुभाष की शादी सब से पहले हुई, फिर रमेश की और सब से बाद में बिहारी की. जहां सुभाष की पत्नी सारिका गरीब परिवार की थी वहीं रमेश और बिहारी की शादियां बड़े व्यापारियों की बेटियों के साथ बहुत धूमधाम से हुईं. अमीर घर की बेटियां सारिका से दूरी ही बनाए रखती थीं, लेकिन घर के बुजुर्गों के रहते कुछ बोल नहीं पाती थीं.
समय बीतता गया. घर के बुजुर्गों के गुजर जाने के बाद रमेश और बिहारी की पत्नियां सेठानी की पदवी पा गईं, उन के सामने सारिका का कोई पद नहीं था, नतीजतन, सुभाष और सारिका का बचपन के लंगोटिया मेशी, हरी का साथ छूट गया.
एक शहर में रहते हुए भी वे अनजाने हो गए. आज के भौतिकवाद में हैसियत सिर्फ रुपएपैसों से तौली जाती है. सुभाष सोचने लगा, शायद 15 साल बीत गए होंगे, मेशी और हरी से मिले हुए. शायद नातेरिश्ते भी सिर्फ पैसा ही देखते हैं. एक छोटी सी नौकरी करते हुए सुभाष बिहारी और रमेश के नजदीक न आ सका. तभी सारिका की आवाज ने सुभाष को अतीत से वर्तमान में ला दिया.
‘‘कब चलना है, मैं तैयार हूं.’’
सुभाष व सारिका बाइक पर बैठ बिहारी (हरी) के मकान की ओर चल पड़े. सुभाष ने रमेश से बिहारी के नए मकान का पता ले लिया था. सुभाष और सारिका जब बिहारी की कोठी के सामने पहुंचे तो उस की भव्यता देख कर हैरान हो गए और उस के सामने उन्हें अपने 2 कमरे के फ्लैट का कोई वजूद ही नजर नहीं आ रहा था. वे हिम्मत कर के अंदर जाने लगे तो बड़े से भव्य गेट पर गार्ड ने उन्हें रोक लिया और विजिटर रजिस्टर पर नामपता लिखवाया फिर इंटरकौम पर पूछ कर इजाजत ली, तब कहीं अंदर जाने दिया.
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अंदर कुछ लोग पहले से बैठे थे जिन्हें सुभाष नहीं जानते थे. उन्हें कोई रिश्तेदार नजर नहीं आया. काफी देर तक वे बैठे रहे. जो लोग मिलने आ रहे थे, उन के डिजिटल कैमरे से फोटो खींच कर एक लड़का अंदर जाता और फिर मिलने की इजाजत ले कर बरामदे में आता और अपने साथ अंदर छोड़ कर आता.
सुभाष ने बैठेबैठे नोट किया कि उस लड़के के पास रिवाल्वर था. अपने भाई के देहांत पर अफसोस करने आए मगर अफसोस का यह सिस्टम उन की समझ से बाहर था कि क्यों आगंतुकों को एकएक कर के अफसोस जाहिर करने के लिए अंदर भेजा जा रहा है. आखिर 1 घंटे बाद सुभाष को अंदर भेजा गया. एक आलीशान कमरे में उस की भाभी डौली सोफे पर अपने 2 भाइयों के साथ बैठी थी. सोफे के दोनों कोनों पर 2 खूंखार विदेशी नस्ल के कुत्तों को देख कर सुभाष और सारिका ठिठक गए और दूर से ही हाथ जोड़ कर सिर झुका कर अफसोस जाहिर किया.