Long Hindi Story: दिल्ली में कई साल से रहते हुए भी हसामुद्दीन इस शहर को ठीक ढंग से देख नहीं पाया था. कभी प्लान करता, तो पैसे न होते, जब पैसे होते, तो कारखाने की छुट्टी न होती. जब छुट्टी होती, तो कुछ घरेलू काम पड़ जाता था.
लेकिन उस शनिवार को हसामुद्दीन अपने कमरे से यह सोच कर निकला था कि आज तो कनाट प्लेस में घूमनाफिरना होगा. उस की इच्छा तो मैट्रो से जाने की हुई थी, लेकिन किराया ज्यादा होने की वजह से वह डीटीसी की नारंगी क्लस्टर बस में ही चढ़ गया, जो टर्मिनल से ही भर चुकी थी. फिर भी उसे सब से पीछे वाली एक सीट मिल गई थी.
उसी समय 2 लड़के पिछले दरवाजे की सीढि़यों पर आ कर बैठ गए. टर्मिनल से चलने तक बस में और ज्यादा भीड़ हो गई थी.
कई आदमी हसामुद्दीन के सामने खड़े थे. उस ने ‘पत्ते शाह बाबा’ को याद किया और कहा, ‘‘अगर सीट न मिलती तो आज खड़े हो कर ही जाना पड़ता.’’
जब बस अगले बस स्टौप पर रुकी, तो वहां से एक ट्रांसजैंडर पिछले दरवाजे से बस में चढ़ी, जो काफी पतली थी. उस का चेहरा लंबा और गोरा रंग था.
उस ने ‘हायहाय’ कहते हुए अपनी हथेलियों से 2 बार ताली बजाई. उस के माथे पर लाल गोल टीका लगा था. नाक में नथ और कान में झुमकी थी.
उस का साधारण सा सूटसलवार था. उस की क्लीन शेव, जो गहरे हरे रंग की थी, को चेहरे पर लगी सफेद क्रीम ने छिपा रखा था. उस ने अपने बाल ऊपर कर के टाइट बांधे हुए थे, जिन में गर्द भी भरा था और रूसी भी नजर आ रही थी.
हसामुद्दीन ने सोचा, ‘ताली बजाना इन लोगों की अपनी एक अलग पहचान है…’
तब तक वह ट्रांसजैंडर सवारियों से पैसे मांगने लगी थी. ताली बजाते हुए उस ने हसामुद्दीन से कहा, ‘‘दे न भाई.’’
हसामुद्दीन ने हाथ के इशारे से कहा, ‘‘मेरे 5 रुपए कंडक्टर के पास बकाया हैं. आप उन से ले लो.’’
हसामुद्दीन की यह बात सुन कर वह ट्रांसजैंडर मुंह बना कर आगे बढ़ गई.
हसामुद्दीन अपनी सीट से उचक कर देखने लगा कि कंडक्टर से उस ट्रांसजैंडर ने पैसे लिए या नहीं. अगर ले लिए होंगे, तो वह कंडक्टर से अपने पैसे नहीं मांगेगा.
अरे, यह क्या… वह ट्रांसजैंडर तो कंडक्टर के पास गई ही नहीं. हसामुद्दीन को अफसोस हुआ कि उसे कुछ दे देना चाहिए था.
जब हसामुद्दीन अपनी सीट से उचक कर उस ट्रांसजैंडर को देख रहा था, तब कुछ लोगों को लगा कि वह अगले बस स्टौप पर उतरेगा.
उसे उचकता देख कर एक आदमी ने दूसरे आदमी को संकेत करते हुए कहा, ‘‘वहां बैठ जाओ.’’
लेकिन हसामुद्दीन तो दोबारा अपनी सीट पर बैठ गया. तब कुछ लोग ट्रांसजैंडर और उसे देखने लगे.
एक लड़के ने हसामुद्दीन को देख कर अपने चेहरे पर मंद सी मुसकराहट दिखाई. अगले बस स्टौप पर वह ट्रांसजैंडर उतर गई.
उस लड़के के रिऐक्शन पर हसामुद्दीन ने अपना मुंह नीचे कर लिया और सोचा, ‘देश में जातिवाद, छुआछूत, बंधक मजदूर, लिंग असमानता, दहेज प्रथा, औरतों पर घरेलू हिंसा, बाल
यौन शोषण, धार्मिक हिंसा, दलितों आदिवासियों का शोषण जैसे बहुत से मुद्दे हैं, फिर ट्रांसजैंडर को हीन भावना से देखना तो परिवार और समाज से ही मिलता है. पर क्या ये लोग हमारी तरह इनसान नहीं हैं?
‘सुप्रीम कोर्ट ने 15 अप्रैल, 2014 को ट्रांसजैंडर समुदाय को तीसरे लिंग के रूप में मंजूरी तो दे दी थी, पर समाज का नजरिया अभी भी बदला नहीं है…’
हसामुद्दीन ने अपनी दाईं तरफ बैठे एक आदमी को देखा. उस के देखने पर उस आदमी ने पूछा, ‘‘भाई साहब, अभी मैडिकल कितना दूर है? आने से पहले मुझे बता देना.’’
हसामुद्दीन ने अपना सिर ‘हां’ में हिलाया और उस आदमी से पूछा, ‘‘क्या आप इलाज कराने जा रहे हैं?’’
‘‘नहीं, कोई और भरती है,’’ उस आदमी ने कहा.
‘‘अभी मैं उस ट्रांसजैंडर के बारे में सोच रहा था. ऐसे बहुत से ट्रैफिक सिगनल पर, रेल में लोगों से भीख
मांगते दिख जाते हैं. इन की हालत बहुत पतली है.’’
वह आदमी बोला, ‘‘पर भाई साहब, पैसे न देने पर ये लोगों से बदतमीजी करते हैं. किसी के घर खुशी होने पर ये उस के घर जाते हैं और मुंहमांगे पैसे ले कर ही वहां से टलते हैं. ऐसा माना जाता है कि इन में लोगों को दुआ और बद्दुआ देने की ताकत होती है. लोगों को इन से डर भी लगता है.’’
‘‘लेकिन बहुत से लोग तो इन्हें ‘छक्का’ कह कर मजाक उड़ाते हैं. अगर ऐसा किसी के साथ होगा, तो वह आप के खिलाफ कड़ा रुख ही अपनाएगा न?
‘‘अगर बसों, रेलगाडि़यों में ये नरमी बरतेंगे, तो मुझे नहीं लगता कि लोग इन्हें सही से जीने भी देंगे. जहां जातिधर्म, क्षेत्र, भाषा, रंगरूप के नाम पर लोगों को जिंदा जला डालते हों, तो ऐसे समाज में ये क्या करें?
‘‘सही माने में देखें तो इन्होंने जीने के लिए अपना ऐसा रुख किया है. इन को समाज में अच्छी तरह बसाने के बारे में हम सभी को सोचना चाहिए,’’ हसामुद्दीन ने कहा.
उस आदमी ने कहा, ‘‘आप की बात ठीक है, लेकिन क्षेत्र के विधायक, सांसद इन के बारे में क्यों नहीं सोचते हैं? लोग तो एकदूसरे को ‘हिजड़ा’ बोल कर बेइज्जती करते हैं. आप ने बसों और ट्रेनों में सफर करते समय इन्हें लोगों से पैसे मांगते देखा होगा.
‘‘इन में से ज्यादातर तो नकली होते हैं, जो हिजड़ों जैसा हुलिया बना कर लोगों को ठगते हैं. उन में से कइयों की तो पोल भी खुल चुकी है,’’ उस आदमी ने अपनी बात रखी.
जसोला अपोलो बस स्टौप से कुछ और सवारियां चढ़ीं, लेकिन वे लड़के सीढि़यों पर ज्यों के त्यों बैठे रहे.
जब एक आदमी बस से उतरने के लिए उन के पीछे खड़ा हुआ, तब उन लड़कों में से एक ने उसे हड़काते हुए कहा, ‘‘अबे, यहीं उतरेगा क्या?’’
लेकिन उस आदमी ने तनते हुए कहा, ‘‘क्या कह रहा है बे?’’
वे लड़के उस आदमी की बात सुन कर चुप तो हो गए, लेकिन उसे घूरने लगे. उस आदमी के चेहरे पर डर का भाव तो नहीं था, पर वह दाएंबाएं देख कर चुप रहा.
बस आगे बढ़ती जा रही थी. हरकेश नगर ओखला बस स्टौप पर कुछ और सवारियां चढ़ीं और उतरीं. बस रुकते ही एक आदमी दौड़ता हुआ उन लड़कों के सामने आ कर बोला, ‘‘भाई, यह बस मैडिकल जाएगी?’’
एक लड़के ने उस से कहा, ‘‘अबे, नहीं जाएगी.’’
जब वह आदमी कुछ पीछे हटने लगा, तभी कंडक्टर ने उसे आवाज दी, ‘‘हां, जाएगी.’’
वह आदमी उन लड़कों के बगल से होता हुआ हड़बड़ी में अंदर आया और उन्हें डांटते हुए कहा, ‘‘अबे, तू तो कह रहा था कि बस मैडिकल नहीं जाएगी…’’
इस पर वे दोनों लड़के तमतमाते हुए खड़े हो गए और उन में से एक ने कहा, ‘‘देखने में सही लग रहा है, जहां जा रहा है सही से जा, नहीं तो पीछे आ. अभी तेरी सारी गरमी निकालता हूं.’’
उस आदमी ने दूसरी सवारियों से कहा, ‘‘बताएं, क्या इस की गलती नहीं है… ऊपर से कह रहा है कि गरमी निकाल दूंगा.’’
उन में से एक लड़का बोला, ‘‘बस में गरमी बहुत है, तू पीछे आ…’’
उन के बीच में न कंडक्टर कुछ बोल रहा था, न सवारियां ही कुछ बोल रही थीं. बस, सब यह तमाशा देख रहे थे.
उन दोनों के बीच होती बहस के बीच हसामुद्दीन हिम्मत करते हुए बड़बड़ाया, ‘‘लड़ो मत, शांत हो जाओ.’’
कंडक्टर बिलकुल शांत हो कर अपनी जगह पर बैठा था और ड्राइवर निश्चिंत भाव से बस चला रहा था. उन्हें इस लफड़े से कोई मतलब नहीं था.
बस में अब पीछे उतनी भीड़ नहीं थी. बस आश्रम बस स्टौप पार कर चुकी थी.
उन लड़कों में एक लड़का सांवला था. उस की उम्र 15-16 साल के बीच होगी. उस के दांत साफ दिखे, कान में बाली पहनी हुई थी. दूसरे लड़के की उम्र 20-22 साल के बीच होगी, जिस के बाएं हाथ पर जगहजगह गहरे कट के निशान थे, जो उभरे हुए दिख रहे थे. उस लड़के के दांत मटमैले और रंग साफ था.
बाल भूरे थे, जो उलझे हुए थे.
छोटा लड़का उस से कह रहा था, ‘‘भाई, मुझे घर जाना है, कुछ पैसे दे दे…’’
बड़ा लड़का लंपटता से बोला, ‘‘अबे, ‘स्टाफ’ बोल कर चला जा.’’
उस लड़के के ‘स्टाफ’ कहने पर हसामुद्दीन को याद याद आया कि जब दिल्ली में ब्लूलाइन बसें चला करती थीं, उन में स्कूलकालेज के बच्चे और दबंगई करने वाले दूसरे लोग अपनेअपने ‘स्टाफ’ चलाते थे और ब्लूलाइन वाले डीटीसी बसों के ड्राइवर और कंडक्टर से मिलीभगत कर के डीटीसी बसों को रुकवा लेते थे और अपनी बसें पहले चलवाते थे.
सभी ब्लूलाइन प्राइवेट बसें थीं, जो ठेके पर चला करती थीं. उन्हें चलाने वाले अपने रूट पर ज्यादा से ज्यादा चक्कर लगा कर 2-3 गुना पैसे कमाने के चक्कर में बड़ी तेज रफ्तार से चलते थे, जिस से आएदिन हादसे होते रहते थे.
लोग इन को दिल्ली की ‘हत्यारी ब्लूलाइन बसें’ भी कहते थे. लेकिन सितंबर, 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने इन सभी ब्लूलाइन बसों को बंद कर दिया था.
उस बड़े लड़के की गरदन पर त्रिशूल और डमरू का टैटू बना हुआ था और उस के दाएं हाथ पर ‘जय माता दी’ गुदा हुआ था. उस की पैंट सरकी हुई थी और अंडरवियर के साथ अंदर की तरफ एक पेचकस जैसा कुछ ठुंसा दिख रहा था.
जब वह लड़का उस आदमी को धमकाने के लिए खड़ा हुआ, तब उस ने अपने बाएं हाथ में लोहे के एक कड़े को कस कर फंसा लिया था, जिसे देख कर हसामुद्दीन डर गया था.
उस लड़के से नजर बचाते हुए हसामुद्दीन ने जल्दी से अपना मोबाइल पैंट की जेब में रखा. उसे लगा कि कहीं वह मोबाइल न छीन ले.
तभी बस की बाईं तरफ की सीटों पर बैठी 2 औरतों में किसी बात को ले कर गालीगलौज शुरू हुआ.
एक ने दूसरी से कहा, ‘‘सही से बैठो.’’
दूसरी ने कहा, ‘‘तझे बैठने की तमीज नहीं है.’’
दूसरी औरत बूढ़ी थी. कंडक्टर ने समझाया, ‘‘माताजी, गलत मत बोलो.’’
उस लड़के ने कंडक्टर से कहा, ‘‘अबे, तुझे चाकू चाहिए, तो मुझ से ले ले. मेरे पास है. नहीं तो मैं इन दोनों को ठीक कर देता हूं. बहुत देर से ‘चैंचैं’ लगा रखी है.’’
कंडक्टर ने उस लड़के की बात का जवाब नहीं दिया. कुछ सवारियां और कंडक्टर की दखलअंदाजी से वे दोनों औरतें चुप हुईं.
बस के ज्यादातर मर्द इन औरतों के बीच हुई बहस को सीरियसली नहीं ले रहे थे. वे उन की बहस को केवल हंसी की बात समझ रहे थे. बस के अंदर उन औरतों के अगलबगल खड़े मर्द तो मंदमंद मुसकरा रहे थे, जबकि पीछे वाले कुछ लोग ठहाके मार रहे थे.
दरअसल, ज्यादातर मर्द समाज औरतों को इनसान ही नहीं मानता है, न ही उन की बातों को गंभीरता से लेता है. सही माने में मर्द औरतों को समझाना ही नहीं चाहते हैं, क्योंकि वे खुद को बेहतर समझते हैं, जबकि औरतें मर्दों से किसी भी मामले में पीछे नहीं हैं. वे पुलिस, सैनिक, डाक्टर, व्यापारी, टीचर, प्रोफैसर, ड्राइवर हैं. और तो और मर्दों को पैदा करने वाली भी वे ही हैं.
लाजपत नगर बस स्टौप पर कुछ और सवारियां उतर गईं. हसामुद्दीन के बाईं तरफ एक सीट खाली हो गई और एक सीट उस से आगे की भी खाली हुई.
कंडक्टर ने उन लड़कों को मान देते हुए कहा, ‘‘भाई, सीट पर बैठ जाओ.’’
बड़ा लड़का कुछ संकोच करते हुए हसामुद्दीन के बगल वाली सीट पर आ कर बैठ गया और दूसरा लड़का आगे वाली सीट पर बैठा.
हसामुद्दीन उस बड़े लड़के से कुछ डरा हुआ था, फिर भी उस से पूछा, ‘‘तुम बदरपुर में रहते हो?’’
उस लड़के ने धीरे से कहा, ‘‘नहीं, दक्षिणपुरी में.’’
उस लड़के के मुंह से बदबू आ रही थी. उस ने कहा, ‘‘सरजी, मैं आप को जानता हूं. मैं ने आप को बदरपुर के एक स्कूल में देखा है.’’
यह सुन कर हसामुद्दीन को कुछ राहत मिली. सोचा कि कहीं किसी स्कूल के कार्यक्रम में देख लिया होगा.
हसामुद्दीन ने उस लड़के से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे मम्मीपापा हैं?’’
उस लड़के ने कहा, ‘‘सरजी, सब हैं, लेकिन दुनिया बड़ी जालिम है, हमें जीने नहीं देती है.’’
हसामुद्दीन को लगा कि वह लड़का पूरी बात नहीं आप ही बता रहा है.
हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘तुम कुछ काम सीख लो और जिंदगी में आगे बढ़ो. जो भी तुम्हारे साथ बुरा हुआ, वह बीत गया है. उसे छोड़ कर आगे बढ़ो. अपनी जिंदगी क्यों बरबाद कर रहे हो…’’
उस लड़के ने कहा, ‘‘सरजी, दुनिया बहुत खराब है. क्या काम करें, आप ही बताओ?’’
हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘भाई, बहुत से काम हैं. मोटर मेकैनिक का काम सीख लो, बिजली का काम सीख लो, और भी बहुत से काम हैं.’’
उस लड़के ने दोबारा कहा, ‘‘सरजी, दुनिया जीने नहीं देती,’’ कह कर वह अपना सिर दिखाने लगा और बोला, ‘‘इस में डाक्टरों ने गलत आपरेशन कर दिया था.’’
लेकिन हसामुद्दीन ने उस चोट को देखने की कोशिश नहीं की, क्योंकि उसे ऐसा करना सही नहीं लग रहा था.
फिर उस लड़के ने कहा, ‘‘सरजी, 50 रुपए दे दो.’’
हसामुद्दीन के मन में उस लड़के को 50 रुपए देने की बात आई, लेकिन वह 20 रुपए ही देने लगा, जिसे
वह लड़का नहीं ले रहा था. उस ने कहा, ‘‘सरजी, इतने कम पैसे मैं नहीं लेता.’’
लेकिन हसामुद्दीन ने उस लड़के के हाथ में जबरदस्ती पैसे रख दिए और कहा, ‘‘कुछ खा लेना.’’
उस लड़के ने कहा, ‘‘सरजी, इतने में कहां कुछ मिलता है…’’ और अपने साथी के साथ वह एम्स (मैडिकल) वाले बस स्टौप पर उतर गया.
उस लड़के ने बात तो ठीक कही थी. इस जमाने में पैसे कीमत ही कहां है. महंगाई के दौर में आम आदमी की जिंदगी कितनी मुश्किल हो गई है.
उन दोनों लड़कों के उतरने पर बस कंडक्टर ने सवारियों से कहा, ‘‘ये दोनों जेबकतरे थे. इन से कौन बहस करे…’’
बस कंडक्टर ने एक बात और कही, ‘‘शनिवार के दिन दिल्ली की बसों में किसी की जेब नहीं कटती है.’’
हसामुद्दीन की बाईं तरफ एक सीट छोड़ कर एक अधेड़ उम्र का आदमी बैठा था.
हसामुद्दीन ने उस आदमी से कहा, ‘‘ये लड़के पहले ऐसा नहीं होंगे, जैसा हम ने इन्हें फिलहाल देखा है.
किसी के हालात उसे क्या से क्या बना देते हैं. मुझे लगा कि मैं ने एक लड़के को कहीं देखा है. जन्म से कोई बुरा या अच्छा नहीं होता है. अच्छा या बुरा बनने में भी समय लगता है. यह समाज उसे अच्छा या बुरा बनाता है.
उस अधेड़ आदमी ने हसामुद्दीन की तरफ देख कर कहा, ‘‘आप की बात तो ठीक है, पर बच्चे समझते कहां हैं…’’
हसामुद्दीन ने उस आदमी से पूछा, ‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘केंद्रीय सचिवालय.’’
‘‘क्या आप सरकारी नौकरी में हैं?’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘नहीं… एक क्लब है, वहीं पर काम करता हूं.’’
‘‘आप कब से वहां काम कर रहे हैं?’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘पिछले 3 साल से.’’
‘‘बड़ा क्लब है?’’
हां. उस क्लब में बहुत से लोग काम करते हैं, लेकिन सब ठेकेदारी पर हैं.’’
‘‘आप पहले कहां काम करते थे?’’
‘‘साउथ ऐक्सटैंशन में एक होटल है, मैं वहीं पर कुक था.’’
हसामुद्दीन ने पूछा, ‘‘आप ने कितने साल वहां काम किया?’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘25 साल से ज्यादा ही.’’
‘‘फिर तो आप को छोड़ना नहीं चाहिए था.’’
‘‘क्या करें, मालिक ने लौकडाउन का फायदा उठाते हुए 18 लोगों को निकाल दिया, जिन में मैं भी शामिल था.’’
‘‘वहां पर तो आप परमानैंट होंगे?’’
‘‘हां, छुट्टियां भी मिलती थीं. अभी भी वहां पर बहुत लोग काम करते हैं, लेकिन सब ठेकेदारी पर हैं. हमारी तो वहां एक यूनियन भी थी. मालिक ने धीरेधीरे सभी को निकालना शुरू कर दिया था.’’
हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘मालिक को यूनियन से डर होता है.’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘डर तो होता है, क्योंकि यूनियन होने से कामगार को एक तरह की सिक्योरिटी मिलती है. अगर किसी ने कामगार को उचित वेतन नहीं दिया है, तब यूनियन मैनेजमैंट के सामने अपनी बात रखती है. यूनियन न होने से कामगार अपनी बात को मजबूती से और बिना डर के नहीं रख सकता है.’’
हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘आप उस क्लब में क्यों नहीं एक यूनियन बना लें?’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘अब ट्रेड यूनियन बनाना आसान काम नहीं है. सरकार ने ट्रेड यूनियन बनाने के लिए नियमों में बड़ी कड़ाई की है. पहले जहां 7 लोग मिल कर यूनियन बना लेते थे, अब कुल कामगारों का 10 फीसदी कर दिया गया है. न 10 फीसदी कामगार होंगे, न यूनियन बनेगी. अब कारखाना और फैक्टरी के अंदर धरनाप्रदर्शन करने की भी छूट नहीं है. सरकार केवल पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए काम कर रही है.’’
हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘जब ट्रेड यूनियनें नहीं होंगी, तब कामगारों की आवाज कौन उठाएगा?’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘अब आवाज ही कौन उठा रहा है… जो हैं वे बहुत कमजोर हैं. देखिए, इस क्लब में काम करते हुए मुझे 3 साल हो गए हैं, लेकिन कोई छुट्टी नहीं मिलती है. जिस दिन काम करने नहीं गए, उस दिन की दिहाड़ी नहीं मिलती है.’’
हसामुद्दीन ने पूछा, ‘‘आप को यहां कितने पैसे मिलते हैं?’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘15,000 मिलते हैं, लेकिन आनेजाने का किराया और छुट्टी निकल लूं, तो 10,000 बच जाते हैं. लेकिन भाई साहब, बगैर छुट्टी के कैसे काम चलेगा. बस, यही सोचता हूं कि खाली बैठने से अच्छा है कि कुछ करता रहूं.’’
हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘आप के बच्चे तो बड़े हो गए होंगे…’’
‘‘जी…’’ उस आदमी ने कहा.
‘‘कहां रहते आप हैं?’’
उस आदमी ने कहा, ‘‘विनय नगर, फरीदाबाद में.’’
‘‘किराए पर रहते हैं?’’
‘‘नहीं. 30 गज का प्लौट ले कर बना लिया है. उसी में रहते हैं.’’
हसामुद्दीन ने उस आदमी के पीले और जंग लगे हुए दांत देख कर पूछा, ‘‘क्या आप गुटका या पान मसाला खाते हैं?’’
‘‘नहीं, पर बीड़ी जरूर पीता हूं.’’
हसामुद्दीन ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और कहा, ‘‘आप वादा कीजिए कि आज से बीड़ी नहीं पीएंगे?’’
उस आदमी ने अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाया, लेकिन कहा, ‘‘वादा कर के तोड़ना नहीं चाहता हूं.’’
हसामुद्दीन ने उसे एक सलाह दी, ‘‘आप आलू, प्याज, फल बेचने का अपना काम करें. इतना पैसा तो आप फरीदाबाद में ही कमा लेंगे.
उस आदमी ने कहा, ‘‘एक बार ढाबा शुरू किया था, लेकिन चला नहीं.’’
वह आदमी केंद्रीय सचिवालय उतरने लगा, तब हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘मैं ने आप को 2 बातें बताई हैं. एक बीड़ी न पीने की और दूसरी अपना कोई काम करने की.’’
उस आदमज ने कहा, ‘‘बिलकुल भाई साहब, मैं आप की बात याद रखूंगा.’’
हसामुद्दीन सोचने लगा, ‘‘आमजन में बेरोजगारी के चलते ही ठेकेदारी प्रथा फलफूल रही है और नवउदारवादी नीति का मतलब है कि काम ज्यादा, पैसे कम और न कोई छुट्टी, न कोई स्वास्थ्य सुरक्षा और न ही कोई दूसरा फायदा. इस नीति ने केवल पूंजीपतियों को मजबूत किया है. सरकार की इच्छाशक्ति से ही इस देश में ठेकेदारी प्रथा को खत्म किया जा सकता है या लोग ठेकेदारी पर काम ही न करें.’’
निजीकरण पर हसामुद्दीन को अपनी कालोनी के एक साथी दशरथ ठाकुर की बात याद आई. वे कहते हैं, ‘सरकारी मुलाजिम खुद इस के लिए जिम्मेदार हैं. जिस की नौकरी लग जाती है, वह खुद को सरकारी दामाद समझने लगता है.’
दशरथ ठाकुर रेलवे महकमे से रिटायर हो चुके हैं. हसामुद्दीन ने उन से एक बार पूछा था, ‘‘क्या रेलवे में सभी मुलाजिम काम नहीं करते हैं?’’
तब उन्होंने कहा था, ‘‘सरकारी मुलाजिम देरी से आता है और जल्दी घर चला जाता है.’’
हसामुद्दीन इस बारे में विचार करता है कि कैंटीन में चाय पीना, सिगरेट फूंकना या किसी से बात करने का मतलब यह नहीं है कि वह काम नहीं करता है. कुछ मुलाजिम कामचोर जरूर होते हैं, लेकिन उन्हें कड़ाई से दुरुस्त किया जा सकता है न कि उदारवादी लोककल्याणकारी व्यवस्था को बदल कर पूंजीवादी व्यवस्था लागू कर दिया जाए. अंगरेजी राज में भी तो सरकारी स्कूल थे. सरकारी रेलवे और डाक महकमे थे. तब वहां काम होता था, तो आज क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या केवल डर से ही लोग सही से काम करेंगे?
निजीकरण तो इस का कोई हल नहीं है.
फैक्टरी मालिक ग्रैच्युटी नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि नवउदारवादी नीति तो केवल टैंपरेरी नौकरी देने के पक्ष में है. आज बड़ेबड़े उद्योगों में भी टैंपरेरी नौकरियां ही दी जा रही हैं.
पूंजीपतियों के पक्षधर कहते हैं, ‘भाई, सभी को परमानैंट नौकरी नहीं दी जा सकती है…’ यह सोच हमारे समाज में तेजी से बढ़ाई गई है. पर लोग यह क्यों नहीं सोचते कि कोई पूंजीपति खुद पूंजीपति नहीं बनता है, उसे मजदूर और मुलाजिम पूंजीपति बनाता है. क्या पूंजीपति मजे नहीं करते हैं? उन के बच्चों की शादी में करोड़ों रुपए खर्च नहीं होते हैं?
खर्च करना गलत नहीं है, क्योंकि एक का खर्च होना भी तो अर्थशास्त्र में दूसरे की आमदनी है. सरकारी मुलाजिमों की आड़ में तो प्राइवेट कंपनियों में काम कर रहे मजदूरों, दूसरे मुलाजिमों के हकों को इन बीते दशकों में तेजी से हड़प लिया गया है.
7 लोग मिल कर यूनियन क्यों नहीं बना सकते हैं, जबकि धर्म को बचाने के लिए 4 लोग खड़े हो कर होहल्ला कर सकते हैं? कामगारों का हक क्या हक नहीं है? किसी कंपनी के मालिक ने किसी को रोजगार दे कर क्या उसे अपना गुलाम बना लिया है?
हसामुद्दीन को बस की सीढि़यों पर बैठे उस बड़े लड़के की याद आई, जिस के शरीर पर टैटू खुदे थे. क्या वे पैदाइशी थे या समाज ने ही उसे इतना धर्मभीरू बना दिया? अच्छेबुरे की परवाह न करते हुए उस ने अपने धर्म को ज्यादा अहमियत दी, लेकिन धर्म भी एक पदार्थ है… निकालने वाले तो उस में से अच्छीअच्छी चीजें निकाल कर अपनी जिंदगी संवार लेते हैं.
दूसरी तरफ सांप्रदायिक और धार्मिक अवसरवादी तत्त्व हैं, जो ऐसे लड़कों का इस्तेमाल हैं, क्योंकि धर्मभीरूता और पक्षधरता तो हर आदमी में होती है, लेकिन सांप्रदायिकता उस के अनुपात को बढ़ा देती है.
वे दोनों लड़के भयमुक्त लग रहे थे, लेकिन उन्हें भी भूख और प्यास लगती है. उन्होंने बस में कुछ लोगों को धमकाया भी था.
आदमी में डर होता है, पर जिसे सजा का डर न हो तो वह भयमुक्त हो जाता है या व्यवस्था ही अमानवीय हो जाए, तब आदमी का डर खत्म हो जाता है. अगर आदमी की जीने की चाह ही मर जाए, तब भी आदमी को डर नहीं लगता है.
कालोनी के साथी दशरथ ठाकुर को अब सरकारी नौकरियों में कमियां नजर आती हैं, जबकि वे खुद सरकारी मुलाजिम थे. उन का पैर रेल से कट गया था. रेलवे ने उन्हें अपने महकमे में दूसरा काम दिया, उन का इलाज करवाया. यहां तक कि नकली पैर भी लगवाया. उन की रेलवे की पैंशन है, पर प्राइवेट सैक्टर में काम कर रहे कामगारों के साथ होने वाले हादसों में मालिक उन्हें बाहर का रास्ता ही दिखा देते हैं.
इतने में हसामुद्दीन को कंडक्टर की आवाज सुनाई देने लगी, ‘‘अरे भाई, बस खाली कर दो…’’
बस मिंटो रोड तक पहुंच गई थी. हसामुद्दीन बस से उतर कर मिंटो ब्रिज से होता हुआ रीगल सिनेमा की तरफ चल दिया. Long Hindi Story