कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

वह खामोश रह कर चाय पी रहा था.

‘‘आप की दीदी कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘ठीक हैं… आप मेरी दीदी को जानती हैं क्या?’’ ‘‘हां…

काव्या को जानते हैं न आप? वे मेरी दीदी हैं.’’

‘‘आप की सगी दीदी?’’ ‘‘हां, तभी तो उस दिन शादी में मैं  भी थी.

आप को याद है, आप ने मुझे देखा था. ‘‘हां, याद है.’’

‘‘तब तो उस रिश्ते से मैं आप की दीदी भी हो गई.’’ ‘‘आप से 2-2 रिश्ते हो गए… दीदी का भी और भाभी का भी.’’ ‘‘आप कौन सा रखिएगा?’’ ‘‘भाभी का…’’

उस ने कहा. वह मेरे हसबैंड को पहले से जानता था और उन्हें भैया ही कहता था, तो उस ने मुझे भाभी ही कहा. लेकिन, मुझे क्या पता था कि इस रिश्ते से भी गहरा रिश्ता मेरा उस से जुड़ने वाला था. सबकुछ ताक पर रखते हुए कितना गहरा रिश्ता मेरे और उस के  बीच पैदा हो गया,

इस का आज एहसास होता है. वह तो मेरी पूरी जिंदगी में ही उतर गया, जबकि जब वह मुझे मिला  था तब ही मेरी शादी के 4 साल हो चुके थे और एक बेटी भी हो चुकी थी एक साल की.  मेरे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था, फिर भी वह मुझ से सबकुछ ले गया. जिस्म मैं अपने पति को दे चुकी थी और प्यार मेरी बेटी के हिस्से चला गया था. फिर भी वह क्यों मेरे इतने अंदर समा गया?

आज घर पर सिर्फ 3 लोग थे. जेठानी नीचे थीं और मैं ऊपर किचन के काम मे लग गई. वह आज भी सामने बैठा कोई किताब पलट रहा था. घर पर कोई और नहीं था, जिस के साथ मैं उसे बाहर भेजती.  ‘‘आप बाहर घूम कर आ जाइए,’’ फिर भी मैं ने उस से कहा.  ‘‘मुझे यहां के बारे में कुछ भी पता नहीं है.’’ ‘‘आप जाइए न, यहीं बाहर इस गली से निकलते ही मार्केट है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर वह कमरे से बाहर निकला. वह सीढि़यों से नीचे उतरने लगा और मैं बाहर रेलिंग के पास आ कर उसे देखती रही. वह चला गया था. अब मैं उसे नहीं देख पा रही थी. मैं छत से कपड़े लाने चली गई. उसे आए तकरीबन एक महीना हो चुका था. अब वह मुझ से काफी खुल गया था. थोड़ा हंसीमजाक भी करता था. कभीकभी चाय भी बनाता था और अब मुझे उस के हाथ की बनी चाय की आदत लग रही थी.  मैं अकसर उसी से चाय बनाने के लिए कहती.

मेरी और उस की नजरों के मिलने का सिलसिला भी बढ़ता गया. अब काफी देर तक मैं उसे देखती रहती. वह मेरे बिस्तर पर बैठ कर कुछ पढ़ रहा होता और मैं किचन में कुछ काम कर रही होती. उस की भी कभी उठती अनायास नजर मुझ से आ कर मिल जाती और ठहर जाती. दोनों की आंखें ही बातें करती थीं. होंठ कंपकंपा कर रह जाते.  मेरे पति अकसर रात को देर से घर आते और सुबह जल्दी चले जाते. उन के पास मेरे लिए समय नहीं था.

जब वे रात को आते तब भी काफी थके होते, खाना खा कर सो जाते और सुबह होते ही ग्राहकों का फोन आने लगता और कई बार बिना ब्रश किए भी चले जाते. कई बार वे रात को आते ही नहीं थे. वहीं किसी दोस्त के घर सो जाते. रात को हम सब एक ही कमरे में सोते थे. मैं, मेरी बेटी, मेरे पति, मेरा भतीजा और वह… अब वह मेरा बहुत खयाल रखने लगा था और मेरी बेटी का खयाल भी अपनी बेटी की तरह रखता था. कई बार वह उस की गोद में खेलतेखेलते उस के कपड़े गीले कर देती.

वह उस के कपड़े भी बदल देता था. मेरी बेटी अब उसे अच्छे से पहचान चुकी थी. एक दिन मेरे पति दोपहर में घर आए थे. किसी बात पर मेरी उन से बहुत लड़ाई हो गई. उन्होंने मुझ पर हाथ भी उठा दिया था. फिर वे बाहर चले गए. मैं पलंग पर लेटी सुबक रही थी. थोड़ी देर में वह आया. उस ने आते ही कमरे की लाइट औन की और मुझे नाम से पुकारा,

‘‘क्या हुआ सुदीप्ता?’’ पहली बार ऐसा हुआ, जब उस ने मुझे मेरे नाम से पुकारा. वह मेरे बगल में आ कर बैठ गया. ‘‘कुछ नहीं…’’ मैं ने उस से सबकुछ छिपाना चाहा. लेकिन न जाने क्या हुआ, मैं फफक कर रो पड़ी. उस ने मेरा सिर उठा कर अपनी गोद में रख लिया और मुझे चुप कराने लगा. उस ने कई बार अपने हाथों से मेरे आंसू पोंछे. ‘‘सुदीप्ता, रोना वहीं चाहिए, जहां कोई आंसू पोंछने वाला हो, नहीं तो फिर रोने से क्या होगा… आंसू खुद ही बहतेबहते सूख जाएंगे.’’ मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा था.

लेकिन अभी मुझे चुप कराने के लिए वह था और मैं थोड़ी देर में चुप हो गई. फिर मैं ने उसे सबकुछ बता दिया कि किस बात पर मेरे पति ने मुझ पर हाथ उठाया.  उस ने सुन कर कुछ नहीं कहा. उस ने मेरी कमर पर हाथ लगा कर मुझे उठाया. उस के हाथ लगाते ही मैं उसे एक अजीब नजरों से देखने लगी. उस ने मुझ से खाना खाने के लिए कहा. वह जा कर खाना परोसने लगा.  मैं वहीं पलंग पर बैठ गई और उसे देखती रही. वह खाना ले कर आया. उस ने अपने हाथ से मुझे खाना खिलाया.

उसे खिलाना नहीं आ रहा था. उस ने 2-4 कौर ही खिलाए थे कि मैं ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘रहने दो, मैं खा लूंगी. तुम्हें खिलाना नहीं आ रहा है. देखो, ऐसे खिलाते हैं…’’ और मैं ने पहला कौर उसे अपने हाथ से खिलाया. मैं अपने दुख से बाहर निकल आई थी और उस के प्रेम में डूबी हुई थी.  मैं और वह एकसाथ नीचे वाले कमरे  में आए. दीदी मुझे देख कर खुश हुईं और उन्होंने मुझ पर व्यंग्य भी कसा, ‘‘मैं मनाने गई, तब तो तुम नहीं मानी…’’ सबकुछ धीरेधीरे ठीक हो गया.

अब मैं उस के और ज्यादा करीब आ गई थी. मैं अब कभीकभी अपने पति के सामने भी उस के साथ एक ही थाली में खाती. कई बार मेरे पति भी शामिल होते. वे इस बात का बुरा नहीं मानते थे.  एक सुबह वह कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था. मैं ने उस से कहा, ‘‘आप नीचे जाइए, मुझे नहाना है.’’ चूंकि बाथरूम छोटा था, इसलिए मैं बाथरूम के बाहर ही नहाती थी. वह बोला,

‘‘नहीं, मुझे आप को नहाते हुए देखना है.’’ मैं कमरे से बाहर निकली और कमरे का दरवाजा सटा दिया. वह दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया. ‘‘जाओ न…’’ वह नहीं गया. मैं उस के सामने ही अपनी साड़ी उतारने लगी. अब मैं सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज में थी. मैं ने पेटीकोट को ऊपर खींच कर उसी से अपने ब्लाउज को ढक लिया, फिर अंदर से ब्लाउज और ब्रा भी  उतार दिए.  उस की नजर मुझ पर गड़ी जा रही थी. पेटीकोट ऊपर खींचने से वह मेरे घुटनों के ऊपर आ चुका था.

मेरे उभारों पर उस की नजर गड़ी थी.  मुझे महसूस हुआ कि देह पर पानी पड़ने और कपड़ा सूती और पतला होने की वजह से मेरे शरीर का गोरापन छलक रहा था. उस की नजर मेरी देह से हट नहीं रही थी. मुझे अच्छा लग रहा था, जब वह इस तरह से मुझे देख रहा था. मुझे न जाने क्या हुआ और अपने पेटीकोट को खोल कर थोड़ा सा नीचे सरका दिया. कुछ पल के लिए मेरे उभार बिलकुल नंगे हो गए. उस ने देखा, वह देख कर खुश हो गया.  मैं पेटीकोट भी उस के सामने उतार फेंकना चाहती थी.

मैं चाहती थी कि मेरे तन पर कोई कपड़ा ही न हो. वह आ कर मेरे बदन पर पानी डाले. मुझे सहलाए. मेरे हर अंग को चूम ले. मेरे उभारों से खेले. हां, मैं यह सबकुछ चाहती थी.  तभी दरवाजे पर घंटी बजी. मैं ने जल्दी उसे ऊपर जाने को कहा. इस तरह कुछ महीने बीत गए. ऐसे ही अब हमारी शरारतें बढ़ गई थीं. वह मुझे कभी चिकोटी काट लेता, कभी पैरों से मेरे पैर रगड़ता. मैं भी कभी उस पर पानी डाल देती. अब मुझे एक दूसरी जगह रहने के लिए जाना था. मेरे पति को यहां से आनेजाने में परेशानी होती थी, तो उन्होंने वहीं एक किराए का फ्लैट ले लिया. सारा सामान एक दिन पहले ही पहुंचाया जा चुका था.

आज मुझे जाना था इस घर को छोड़ कर. अब तक वह मेरे बहुत करीब आ चुका था. मेरा मन भारी हो रहा था.  विवेक गाड़ी लेने गया था. तभी वह मेरे पास आया और एक कागज का टुकड़ा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘मुझे इस पर आप के होंठों के निशान चाहिए.’’ मैं थोड़ा चौंक गई, फिर मैं ने उस कागज को अपने होंठों से चूम लिया. मैं उसे चूमना चाहती थी. लिपस्टिक का गहरा निशान कागज पर उभर आया.  गाड़ी आ गई थी. मेरे साथ वह नहीं आया. मैं ने उसे साथ चलने के लिए कहा.

उस ने किसी और दिन आने के लिए कहा.  मुझे अपने नए घर में आए हुए 5-6 दिन हो गए थे. वह नहीं आया. मैं उस से मिलना चाहती थी. डोरबैल बजी. दरवाजा खोला, विवेक था. वह अंदर आ गया. तभी फिर दरवाजे पर दस्तक हुई. मैं मुड़ी. देखा कि वह सामने खड़ा था.

मैं उसे देख कर खिल गई. मैं उसे बांहों में भरना चाहती थी. उसे चूमना चाहती थी, लेकिन नहीं कर सकी… ‘‘बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’ मैं चाय बना कर ले आई और उस के बगल में बैठी. विवेक का मोबाइल फोन बजा और वह बात करते हुए बाहर निकल गया. ‘‘आए क्यों नहीं इतने दिनों से? अगले दिन ही आने के लिए कहा था न…’’ ‘‘नहीं आ सका… मैं आना नहीं चाहता था…’’ उस ने कहा. वह मुझ से मिलना क्यों नहीं चाहता था… वह शायद मुझ से दूर होने की कोशिश कर रहा था. उसे शायद अपना रिश्ता याद आ गया था. लेकिन, मैं भूल चुकी थी कि मैं शादीशुदा हूं और एक बच्ची की मां भी.

‘‘चाची, मैं दुकान पर जा रहा हूं. चाचा का फोन आया था,’’ विवेक ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘अमित, तू यहीं रुक जा. दुकान से आता हूं, फिर यहीं खाना खा कर चलेंगे. चाची, मेरा भी खाना बना देना.’’ अमित अभी भी जूते पहने हुए था. मैं ने कहा, ‘‘जूते खोल कर आराम से बैठो.’’

वह जूते खोल कर पलंग पर चढ़ कर बैठ गया. मैं चाय का कप वापस किचन में रख कर आ गई.  उस ने मुझे अपनी गोद में बैठने के लिए कहा. मैं बैठ गई. उस की बाजुओं की पकड़ मेरे शरीर पर जकड़ गई. उस ने मेरे होंठों को चूम लिया.  उस के होंठ हलके गुलाबी थे. वह मुझे छोड़ नहीं रहा था. मेरे होंठ अब भी उस के होंठों से लगे हुए थे. उस की बाजुओं का जोर मेरी पीठ पर और मेरे उभार उस के सीने से दबे हुए थे. एक बार के लिए उस ने अपने होंठ अलग किए और फिर और जोर से मेरे होंठों को चूमने लगा. मैं सिहर गई. तभी दरवाजे पर आहट हुई. मैं तुरंत उस की गोद से उठ गई. दरवाजा अंदर से बंद नहीं था, हलके से सटाया हुआ था. शायद उस ने मुझे देख लिया था.

लेकिन मेरे शरीर पर मेरे पूरे कपड़े थे. पड़ोस की एक लड़की मेरी बेटी को ले कर आई थी. मैं ने उसे बताया, ‘‘ये मेरे देवर हैं.’’ उन दोनों ने एकदूसरे को ‘नमस्ते’ किया, फिर मैं ने उस से चाय के लिए पूछा. ‘‘नहीं. आप की बेटी रो रही थी. शायद इसे भूख लगी है. दूध पिला दो,’’ कहते हुए वह लड़की चली गई.  मैं दूध गरम कर के लाई. वह नहीं पी रही थी और जोर से रोने लगी.

वह मेरा दूध पीना चाहती थी.  मैं ने ब्लाउज के बटन खोले. उस की नजर मुझ पर थी. मेरी नजर मिलते ही उस ने दूसरी तरफ आंखें कर लीं. उस  ने आज मेरी छाती को बहुत करीब से देखा था.  मैं उस के चेहरे के बदले हुए भाव देख रही थी. मैं ने उस से बात करनी शुरू कर दी. मेरी बेटी चुप हो गई थी.  वह मेरी तरफ देख रहा था और बातें कर रहा था, लेकिन कई बार उस की नजर मेरी छाती पर रुक जाती. मैं ने कहा, ‘‘लो, इसे खिलाओ. मुझे खाना बनाना है.’’ वह मेरी गोद से मेरी बेटी को उठाने लगा कि तभी उस की कुहनी मेरी छाती से छू गई. अब अमित अकसर ही मेरे घर आनेजाने लगा.

2-4 दिन के अंदर वह आ ही जाता. कई बार वह खाना खाता और कई बार खा कर आया होता. यहां भी उस ने कई बार मेरे लिए चाय बनाई. इस बीच मेरी और उस की नजदीकियां काफी बढ़ गईं. अब जब कभी कोई नहीं होता, तो वह मुझे अपनी बांहों में ले लेता. मैं भी उस से लिपट जाती और उस के होंठों को चूमने लगती

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...