‘‘मेरी उम्र कितनी होगी?’’ मिली ने कचरे के ढेर के बीच जमुना की ओर चलते हुए पूछा.

‘‘कौन जाने… शायद इस बरस 12वां साल लगा होगा तेरा,’’ जमुना ने अपने दिमाग पर थोड़ा दबाव दे कर कहा.

‘‘अच्छा… मैं जानती हूं कि आप जन्म देने वाली नहीं, बल्कि मेरी पालने वाली मां हो,’’ मासूम मिली के साथ इस दुनिया में आते ही क्या हुआ था, यह उसे कुछ दिन पहले ही पता चला था, जिस के चलते उस के नन्हे से दिमाग में अनेक तरह के सवाल घूमने लगे थे.

‘‘तुझे कैसे मालूम?’’ जमुना ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘मुझे शर्मिला ताई ने बताया. एक और बात कि आप ने मेरा नाम मिली ही क्यों रखा?’’ मिली ने जैसे आज सवालों की झाड़ी लगा दी थी.

‘‘क्योंकि तू मुझे ऐसे ही एक कूड़े के पहाड़ में दबी हुई मिली थी.’’

‘‘क्या तब आप ने मेरी मां को जाते देखा था? कैसी दिखती थी वह?’’

‘‘नहीं, अब छोड़ इन बातों को… अच्छा चल, आज तू पन्नी इकट्ठा कर और मैं टिन और कांच का सामान उठाती हूं… दिखा तेरे घाव…’’

‘‘आह… दुखता है…’’ कह कर मिली ने अपने हाथ समेट लिए.

‘‘पूरे एक हफ्ते बल्ब और कांच नहीं पकड़ना, ठीक है?’’ जमुना ने उस के हाथ पकड़ कर देखते हुए चिंता से कहा.

‘‘ठीक है मां…’’ कहते हुए मिली रोज की तरह कचरे में से कबाड़ी को बेचने लायक सामान को जगहजगह से उधड़ी बोरियों में बिना हाथों में दस्ताने या मुंह पर मास्क पहने बेखौफ हो कर भरती जा रही थी.

शाम हुई और कुछ पैसे हाथ में आए, जिन्हें ले कर वे दोनों मांबेटी अपने जैसे लोगों के बीच खुद से बनाई बस्ती में जा पहुंचीं.

‘‘मां, आज हाथों के साथसाथ न जाने क्यों पेट में भी दर्द हो रहा है,’’ मिली ने चोट से जख्मी हाथों को अपने पेट पर फेरते हुए जमुना से कहा.

‘‘कोई बात नहीं… तू आज आराम कर… मैं कुछ बनाने लायक बाजार से खरीद लाती हूं,’’ जमुना मिली को उस के बिस्तर पर बिठा कर बाजार चली गई.

दिनभर की थकी मिली के कई अंग जख्मों से भरे पड़े थे. जब वह सो कर उठी तो देखा कि चादर पर लाल छींटे थे. मिली सकपका गई कि उसे न जा जाने कौन सी बीमारी हो गई है.

तब तक मां भी घर आ चुकी थी. उस ने मिली के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी, अब तू बड़ी हो गई है.’’

घर में न साफ पानी का इंतजाम था और न ही साफ नया कपड़ा था. क्या करें गरीब लड़कियां इस उम्र के उमड़ आए पड़ाव का?

मिली कभी कचरे से बीन कर घंटों पुराना अखबार लगाए रही, तो कभी वह कहीं से उड़ आए कपड़े से पोंछती रही. महीने दर महीने ऐसे ही बीतते चले गए. हाथों के घाव तो सूखे, मगर कहीं और के घाव हरे होते चले गए.

‘‘मां, आज मुझ से चला नहीं जा रहा, पेट में बहुत दर्द उठ रहा है,’’ कहते हुए मिली सड़क किनारे धूल के थपेड़ों बीच धम्म से बैठ गई.

‘‘आजकल तुझे क्या हो रहा है? तेरी तो उम्र भी नहीं इतनी बीमार होने की…’’ जमुना उस की दिनबदिन बिगड़ती हालत देख कर कहने लगी.

‘‘मां… मां…’’ मिली कुछ पल तड़पती रही और फिर बेहोश हो गई.

आसपास के लोग उसे सरकारी अस्पताल ले जाने लगे. कमरे के भीतर मिली का चैकअप कर लेडी डाक्टर ने बाहर आ कर कहा, ‘‘माफ कीजिएगा, बच्ची तो नहीं रही.’’

‘‘ऐसे कैसे मर गई मेरी मिली…’’ जमुना की जिंदगी में बस उस का ही तो साथ था.

‘‘उसे हुआ क्या था, यह तो बताइए…’’ मिली को अस्पताल ले जाने वाले लोगों में से एक शख्स ने पूछा.

‘‘टौक्सिक शौक सिंड्रोम…’’ लेडी डाक्टर ने मिली के मरने की वजह बताई.

‘‘इस का मतलब…?’’ उस आदमी ने दोबारा पूछा.

‘‘समझाती हूं… यह उन दिनों में कपड़े को 12 घंटे तक लगाए रखने से शुरू होता है, जिस से गंदगी बच्चेदानी तक पहुंच जाती है और खून में मिल जाती है. इस से ब्लड प्रैशर कम होने लगता है और कई बार हालत इतनी गंभीर हो जाती है कि मौत भी हो

सकती है…’’ लेडी डाक्टर इतना कह कर चली गईं.

उसी भले इनसान ने मिली का क्रियाकर्म कराने का पूरा खर्चा उठाया. वह जानता था कि जिन लोगों के पास जीने तक को पैसे नहीं हैं, वे खुद के मरने पर कहां से कोई इंतजाम कर पाएंगे.

देखा जाए तो मिली का क्रियाकर्म आज हो रहा था, पर वह तो अपनी जन्म देने वाली मां के लिए पैदा होते ही मर चुकी थी. उस के होने या न होने से किसे परवाह. अनचाही बेटियों के लिए यहां किसे चिंता थी. धूधू कर जलती उस की चिता आज गरीबी से नजात पा रही थी. मिली की सांसें वे लाल छींटे ले गए.

दोस्तो, माहवारी किसी के साथ पक्षपात नहीं करती. महीने के ये 4 दिन किसी औरत के धर्म, अमीरगरीब की हैसियत देख कर कमज्यादा नहीं होते.

कई बहनबेटियों की जिंदगी उतनी आसान नहीं कि वे हम और आप की तरह सैनेटरी पैड जैसी बुनियादी चीजों का हर महीने आराम से खर्च उठा सकें.

कितनी बच्चियों के लिए यह माहवारी उन की पढ़ाईलिखाई में रोड़ा बनती आई है, क्योंकि महज उन 4 दिनों में आने वाले लाल छींटे उन्हें घर बैठने पर मजबूर कर देते हैं. धीरेधीरे ये 4 दिन महीनों में बढ़ते जाते हैं और महीने सालों में, नतीजतन उन की पढ़ाईलिखाई बंद करा दी जाती है.

इतना नहीं, संसाधन की कमी के चलते उन्हें बच्चेदानी में इंफैक्शन होने का डर बना रहता है और उस से होने वाली मौत का साया हमेशा उन के सिर पर मंडराता रहता है.

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