रज चढ़ आया था. आसमान में कहींकहीं बादलों के टुकड़े तैर रहे थे. साढ़े 8 बज गए थे.
दीपक काम पर जाने के लिए एकदम तैयार बैठा था. उस की पत्नी
ने टिफिन मोटरसाइकिल के ऊपर रख दिया था.
दीपक ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चल पड़ा. मोटरसाइकिल के शीशे में उस ने पत्नी को देखा. वह हाथ हिला रही थी.
दिल्ली में दोपहिया गाड़ी से जाने वालों की जिंदगी हाथ में रखी कांच की प्लेट की तररह है. न जाने कहां चूक हो जाए और जिंदगीनुमा यह प्लेट टूट कर बिखर जाए.
दीपक अपने घर की गली से मुड़ गया था. आगे मेन सड़क थी और बस स्टौप था. बस स्टौप खाली था. शायद कुछ देर पहले बस सवारियों को भर कर ले गई थी.
तभी एक औरत बदहवास सी दीपक की मोटरसाइकिल के पास आई और बोली, ‘‘प्लीज रुकिए, मेरी बस निकल गई है…’’
‘‘आप को जाना कहां है?’’ दीपक ने मोटरसाइकिल रोक कर पूछा.
‘‘मु झे मायापुरी में मैटल फोर्जिंग
बस स्टौप के पास जाना है. मैं वहां गारमैंट ऐक्सपोर्ट की एक फैक्टरी में काम करती हूं.’’
‘‘बैठो,’’ दीपक ने कहा और वह औरत मोटरसाइकिल पर बैठ गई.
‘‘आप को कैसे पता कि मैं मायापुरी जाता हूं?’’ दीपक ने उस से पूछा.
‘‘मैं ने आप को कई बार मैटल फोर्जिंग बस स्टौप के पास देखा है,’’ वह औरत बोली.
मैटल फोर्जिंग बस स्टौप के नुक्कड़ से जो सड़क अंदर जाती थी, वहीं से दीपक मुड़ता था और आटो गियर बनाने वाली एक फैक्टरी में इंजीनियर के पद पर काम करता था.
सुबह काम पर आते समय दीपक को पश्चिम विहार के पास लगा था कि आसमान में काले बादल घुमड़ने लगे हैं और ये अब बरसे कि तब बरसे.
तभी पीछे बैठी उस औरत ने कहा, ‘‘पीरागढ़ी के पास तो ऐसा कुछ नहीं था और यहां बादल घुमड़ आए हैं.’’
‘‘हां,’’ इतना कह कर दीपक ने मोटरसाइकिल की रफ्तार और तेज कर दी थी.
‘‘थोड़ी धीरे चलाओ न, डर लग रहा है,’’ वह औरत सहमते हुए बोली.
‘‘बरसात शुरू हो गई, तो हम क्या करेंगे? हमारे पास बरसात से बचने का कोई साधन नहीं है.’’
‘‘हां, यह तो है. सड़कों में भी कई जगह गड्ढे हैं. कोई सड़क साफ नहीं दिखती.’’
‘‘आप मोटरसाइकिल बहुत ज्यादा तेज चला रहे हैं. मेरा दिल धड़क रहा है. बरसात नहीं होगी, आप रफ्तार धीमी करो,’’ वह औरत दोबारा बोली.
‘‘आप ईएसआई अस्पताल वाले बस स्टौप पर उतर जाओ. वहां से बस में चली जाना,’’ दीपक बोला.
‘‘सवा 9 बज रहे हैं, मैं साढ़े 9 बजे तक नहीं पहुंच पाऊंगी.’’
‘‘फिर आप चुपचाप बैठी रहिए, मोटरसाइकिल इसी रफ्तार से चलेगी,’’ दीपक ने राजौरी गार्डन के फ्लाईओवर
से गुजरते हुए कहा, ‘‘तभी आप साढ़े
9 बजे तक अपनी कंपनी पहुंच पाएंगी.’’
‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ उस औरत ने मासूमियत से कहा.
‘‘आप की छुट्टी कब होती है?’’
‘‘रोजाना 2 घंटे ओवरटाइम लगता है. सवा 8 बजे छुट्टी होती है.’’
‘‘यानी ओवरटाइम न लगे, तो सवा 6 बजे छुट्टी होती है?’’
‘‘हां, हफ्ते में एक या 2 दिन ही सवा 6 बजे छुट्टी हो पाती है.’’
वे मायापुरी चौक पर थे. फ्लाईओवर के नीचे सामने रैडलाइट थी. वहां भीड़ बहुत थी. हरी बत्ती हुई.
‘‘सवा 6 और सवा 8 की बात सम झ नहीं आई कि 15 मिनट ज्यादा क्यों?’’ दीपक ने हैरान हो कर पूछा.
‘‘यही तो बात है. 15 मिनट में भी वे बहुत कमा लेते हैं. 3-4 सौ लोग काम करते हों, तो कमाई जरूर होती है.’’
वह औरत काफी तजरबे वाली लगी. एक वर्कर किसी सामान के 15 मिनट में 3 पैकेट भी पैक करे, तो सौ वर्कर कितना करेंगे? कई सैक्शन हैं और
कई काम.
‘‘बहुत ज्यादा शोषण है…’’ दीपक बोला, ‘‘ऐक्सपोर्ट की फैक्टरियों में तो ज्यादातर औरतें और लड़कियां ही काम करती हैं.’’
‘‘नहीं, मर्द भी बहुत काम करते हैं.’’
‘‘बहुत सब्र और हिम्मत है आप में. 20 किलोमीटर दूर से आना, रिकशा
और बस का महंगा किराया, भीड़ की तकलीफ और फिर रात को 10 बजे से पहले किसी हालत में घर नहीं पहुंच पाती होंगी?’’ दीपक ने कहा.
वह बेबसी से हंस पड़ी, ‘‘रोजाना 55 रुपए किराया, रात 10 बजे या इस से ऊपर घर पहुंचना. खाना बनाना, खाना, कुछ मैले कपड़े धो कर और बरतन मांज कर सोना… 12 बज जाते हैं. सुबह फिर साढ़े 5 बजे तक उठना…’’
‘‘आप के पति क्या काम करते हैं?’’ दीपक को उस से हमदर्दी हो आई थी.
वह लंबी सांस ले कर बोली, ‘‘मेरा पति शराब पीता है, लड़ाई झगड़ा करता है, जुआ खेलता है…’’ और वह हंस दी. उस की हंसी में आग थी, ठंडक नहीं.
दीपक ने मैटल फोर्जिंग रैडलाइट से हलका सा अंदर जाती सड़क में मुड़ते हुए मोटरसाइकिल रोक दी और पीछे बैठी उस औरत से बोला, ‘‘आप यहीं उतर जाओ. मैं भी इसी सड़क की आखिरी फैक्टरी में काम करता हूं.’’
वह उतर कर सामने आ गई, ‘‘आप का बहुतबहुत शुक्रिया. मैं भी अगली सड़क के अंदर ही काम करती हूं,’’ वह औरत बोली.
दीपक ने मोटरसाइकिल को गियर में डालते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आप समय से दफ्तर पहुंच गईं. मैं चलता हूं…’’
उस ने मुसकरा कर हाथ हिला दिया. उस की मुसकराहट और हाथ हिलाने के अंदाज में यकीन और अपनापन झलक रहा था. मोटरसाइकिल के शीशे में उस का अक्स दिख रहा था. वह तकरीबन आधा मिनट तक वहां खड़ी दीपक को देखती रही थी.
आगे सड़क के हलके घुमाव से दीपक मुड़ गया था. उस की फैक्टरी आ गई थी.
दीपक के जेहन में दिनभर उस औरत की जिंदगी की तसवीर खिंची रही थी. उस के बच्चे भी होंगे, पढ़ते भी होंगे? उस के मन में ऐसे लोगों के प्रति बेहद नफरत हो गई थी, जो शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, निठल्ले रहते हैं.
ऐसे लोग इनसान नहीं शैतान होते हैं, जो औरत किसी की मोटरसाइकिल पर मजबूरी में लिफ्ट लेती है, उस के साथ कुछ भी हो सकता है.




