रास्ते में उस औरत ने दीपक को यह कह कर चौंकाया था, ‘मैं रोज उसी समय बस स्टौप पर पहुंचती हूं.’
यह सुन कर दीपक ने मोटरसाइकिल धीमी कर ली थी. औरत का साथ सफर में अच्छा होता है. सफर छोटा हो या बड़ा, मजे में कट जाता है.
‘‘आप का एक महीने में किराए का 16-17 सौ रुपए तो खर्च हो जाता होगा?’’ दीपक ने पूछा था.
‘‘हां, इतना तो हो ही जाता है.’’
‘‘आप को वहां पर कौन सा ग्रेड मिलता है?’’
‘‘ट्रेंड गे्रड.’’
‘‘यानी साढ़े 6 हजार रुपए महीना?’’
‘‘प्रोविडैंट फंड, ईएसआई और
20 फीसदी बोनस. कटकटा कर 56 सौ रुपए मिल जाते हैं.’’
‘‘अच्छा है, पक्की नौकरी है. आप सारा खर्च कर डालो, पर सरकारी खाते में प्रोविडैंट फंड के रूप में हर महीने आप के दोढाई हजार रुपए जमा होते
ही हैं. ऊपर से साढ़े 8 फीसदी ब्याज… जिंदगी का यह सब से बड़ा सहारा है.’’
‘‘इसलिए ही तो मैं नौकरी कर रही हूं, ईएसआई अस्पताल से मुफ्त इलाज हो जाता है, दवाएं मिल जाती हैं. सालभर बाद साढ़े 8 हजार रुपए बोनस मिल जाता है, घर का सारा सामान और कपड़ालत्ता आ जाता है.’’
‘‘आप अगर उसी समय पर बस स्टौप पहुंचती हों तो देख लिया करो कि मैं आ रहा हूं कि नहीं. उस समय आप मेरी मोटरसाइकिल पर बैठ कर मायापुरी पहुंच सकती हैं और आप का किराया भी बच सकता है,’’ दीपक बोला था.
‘‘ठीक है,’’ उस ने दबी जबान से कहा था.
इस के बाद जब भी दीपक घर से निकला, गली के छोर पर वह नहीं मिली. बस स्टौप या तो खाली होता या फिर 9 बजे जाने वाली बस के इंतजार में 4-6 लोग खड़े दिखाई देते.
दीपक सोचता, ‘शायद उसे कोई दूसरा लिफ्ट देने वाला मिल जाता हो और वह उस के साथ निकल जाती हो?’
फिर वह सोचता, ‘ऐसा नहीं हो सकता.’
एकएक कर के काफी दिन बीत गए. दीपक के मन से पहले दिन की याद भी निकल रही थी. वह रोजाना गली के छोर वाले बस स्टौप के पास मोटरसाइकिल धीमी कर लेता था कि शायद वह खड़ी हो, पर नहीं होती थी.
उस दिन भी उस औरत ने दीपक से कहा था, ‘किसी पराए मर्द के साथ मोटरसाइकिल पर जाने के लिए बड़ा दिल होना चाहिए. मैं एक औरत हूं, और कोई औरत पराए मर्द के साथ बैठे, बड़ा हिम्मत का काम है.’’
‘‘आज यह हिम्मत कहां से आई?’’ दीपक ने पूछा था.
‘‘आज मजबूरी बन गई.’’
‘‘और आगे?’’
‘‘अब हिचक दूर भाग गई,’’ कह कर वह शरमा गई थी.
‘‘वह कैसे?’’
‘‘पता लग गया कि आप भले और नेक इनसान हैं.’’
‘‘जान कर खुशी हुई कि आप को लगा कि दुनिया एकजैसी नहीं है.’’
इन बातों को महीनाभर हो चला था. उस सुबह दीपक समय से कुछ पहले ही उठ गया था.
पत्नी ने टोका था, ‘‘आजकल नींद नहीं आती आप को. जल्दी उठ जाते हैं. लो, चाय पीओ.’’
‘‘अच्छी पत्नी के यही लक्षण हैं कि वह पति के मन को समझे,’’ चाय का घूंट पी कर दीपक ने कहा था, ‘‘बहुत बढि़या, अच्छी चाय के लिए थैंक्स.’’
पत्नी खिलखिला कर हंस दी थी.
दीपक को नाश्ते में आलू के परांठे और आम का अचार मिला था. खाने में बड़ा मजा आया था.
पत्नी ने टिफिन मोटरसाइकिल की सीट पर रखते हुए कहा था, ‘‘आलूमटर की सूखी सब्जी है.’’
‘‘क्या बात है? आज तो खाने में मजा आएगा. तुम मेरा इसी तरह खयाल रखती रहो,’’ दीपक बोला.
‘‘बातें बनाना तो कोई तुम से सीखे,’’ पत्नी ने प्यार भरा उलाहना दिया था.
दीपक जैसे ही मेन गली के छोर वाले बस स्टौप पर पहुंचा, तो सड़क पर मुड़ते ही किनारे पर वह औरत खड़ी मिल गई.
उस ने अपने हाथ के इशारे से मोटरसाइकिल रुकवाई और चुपचाप पीछे बैठ गई. कुछ खोईखोई, आंखें मानो सोईसोई, अलसाई सी.
दीपक ने भी बिना इधरउधर देखे मोटरसाइकिल को तीसरे गियर में डाल दिया. दरअसल, वह रोजाना के समय से 10 मिनट लेट निकला था. बीच में वह औरत मिल गई. अगर तेज न चलता, तो वह लेट हो जाती.
भीड़ कुछ कम और सड़क साफ दिखी, तो दीपक ने पूछा, ‘‘तकरीबन एक महीने बाद मिली हो आप. क्या आप कहीं चली गई थीं?’’
‘‘नहीं, मैं कहीं नहीं गई थी,’’ उस ने लंबी सांस ली और बताया, ‘‘पति बीमार था. 25 दिन तक तो उस की सेवा में ईएसआई अस्पताल में लगी रही.’’
‘‘क्या हो गया था उन्हें, जो इतने दिन लग गए?’’
‘‘मुंह का कैंसर था. अब वे इस दुनिया में नहीं हैं,’’ उस ने आह भरी, मानो किसी झं झट से छुटकारा मिला हो, ‘‘25 साल तक निठल्ला रहा, शराब
पी, जुआ खेला और…’’ कहतेकहते वह रुक गई.
‘‘और क्या?’’ दीपक ने पूछा.
कुछ चुप्पी के बाद वह धीरे से बोली, ‘‘और… औरतबाजी की… बड़ा वैसा आदमी था… रात के अंधेरे में मु झ से झगड़ा करता था…’’
‘‘क्या?’’
‘‘मैं कमा कर खाती हूं और उस को खिलाती थी.’’
‘‘आप ने जो किया, अच्छा किया. लाज ही औरत की जिंदगी है और आप लाज की पक्की हैं.’’ कह कर दीपक थोड़ा हंस दिया.