मन का बोधबिंदु जब बारबार यह कहने लगता है कि अरे, यह कहां खप रहे हो, यह कौन सी बेहया सी चीज सोख ली तुम ने, तब ऐसा होता ही है कि कोई तूफान फड़फड़ा कर आ जाता है जो न जाने क्या-क्या उड़ा ले जाता है और जाने क्याक्या थमा जाता है.
दिल्ली के सदर बाजार से जाती तंग सी एक छोटी गली को मटर गली कहा जाता था. मटर गली नाम किस ने रखा, यह पता नहीं, पर यहां के सब से बुजुर्ग बुद्धि काका 7-8 दिनों पहले उस को बता रहे थे कि उन के दादाजी भी इस जगह को इसी नाम से पुकारते थे. तब यहां एक विशाल मंडी हुआ करती थी. उस मंडी में किसान सब्जियां लाते थे- अदरक, हलदी, लहसुन, प्याज आदि. ठेठ पहाड़ी रईस अपने टटटू की आर्मी ले कर मनचाहा माल यानी अदरक, लहसुन, प्याज लाद कर ले जाते. पहाड़ी लोग बगैर इन बेशकीमती लहसुन, प्याज के मांस वगैरह को बेस्वाद ही समझते थे. तब से ही हर आमओखास की पसंद थी यह मटर गली.
पर, अब इस का चेहरामोहरा बदल सा गया है. यह जगह अब सब्जी मंडी तो कम बल्कि मिलीजुली मार्केट बन गई है जहां देसी दवाओं से ले कर कपड़े, कफन, वरमाला, मोतियों के हार और जूतेचप्पल आदि सबकुछ मिल जाता है.
यहीं मटर गली से पतली सी पगडंडी आगे राजपुरा कालोनी की तरफ जा रही है. पहले यहां सब कैसा था, यह तो उस को कुछ भी मालूम नहीं मगर मोनिका ने बताया था कि पहले भी यह एकदम कच्ची हुआ करती थी और आज भी कच्ची ही रह गई है यह पगडंडी.
वह इसी पगडंडी पर कैसे संभलसंभल कर चलते हुए पहली बार मोनिका से मिलने गया था. मोनिका का बाप यहां मटरगली में ही घड़ी ठीक करने का काम करता था और कुछ दलाली वाले वैधअवैध काम भी करता था. उस दोपहर मोनिका परदे से सटी उस का इंतजार कर रही थी जब वह उस के टैंटनुमा घर पर पहुंचा था.
मगर उस की निगाह न घर पर थी न उस की साजसजावट पर. वह अपनी दोनों आंखों से बस मोनिका पर ही टिका था. उस दिन भी और उस के बाद भी हर दिन. यों मोनिका से उस की पहली मुलाकात अचानक सर्कस के प्रांगण में तकरीबन एक महीना पहले ही हुई थी जब उस ने अपने मालिक के साथ बैडशीट और चादरों की स्टाल सर्कस मैदान में ही लगा रखी थी.
यह भीड़ बनाने के लिए एक प्रयोग के तहत किया गया था और चादरों की यह दुकान सर्कस मालिक से इकरारनामे के अंतर्गत बुकिंग विंडो से सट कर लगाई गई थी. ऐसा प्रयोग सर्कस में पहली बार हुआ था और उस को यह लगता था कि यहां पर सस्ती व मंहगी चादर दिखाएं, फिर बेचने में कामयाब होएं. यह भी तो सर्कस की विधा यानी एक कलाबाजी ही थी.
वह और उस का मालिक एक दोपहर यही हिसाब कर रहे थे कि एक दिन में 4 शो हैं और लगभग 2 हजार लोग यहां आ रहे हैं. अभी सर्कस 20 दिन और है. तो क्यों न पानीपत, पिलखुवा और जयपुर से चादरों की एकदो गांठें ऐसी मंगाई जाएं जो सस्ती, सुंदर और टिकाऊ हों. वह एक बात की चर्चा कर के मालिक के साथ हंस रहा था कि मोनिका अचानक ही सामने आ गई और पूछने लगी कि, ‘10 चादरों को एकसाथ खरीदने में कितना डिसकाउंट मिलता है?’ एक युवती को ग्राहक के तौर पर देखा तो मालिक ने यह बातचीत और बिक्री का पूरा तूफान उस के भरोसे छोड़ दिया और सामने से हट गया. कुछ ही लमहों बाद वह दूसरे टैंट की तरफ निकल गया.
अब मोनिका आराम से बैठ गई और एक चादर की तरफ अपनी उंगली से इशारा करती हुई उस की डिटेल्स पूछने लगी. तकरीबन 20 मिनट के वार्त्तालाप में वह साफ जान गया था कि यह आत्मनिर्भर युवती है और घर की गाड़ी की स्टेयरिंग भलीभांति संभाले है. उस ने दर्जनों चादरों से मोनिका का परिचय कराया. वह चादरों का कपड़ा और उन के प्रिंट देखने के लिए कभीकभी उस के बहुत करीब भी आ रही थी. उस के बदन से किसी मोगरे वाले साबुन की भीनीभीनी महक आ रही थी. मोनिका कुछ न कुछ बोले जा रही थी, मगर मोगरे की महक से उस को कुछ याद आ रहा था. हां, उस को अब याद आया, 2 साल पहले वह मालिक के साथ ओडिशा एक मेले में गया था, तब वे चादरें, साडी़, कुरते और रंगबिरंगी ओढ़नी भी बेचा करते थे. वहां मेले में उन की दुकान लगी थी. पास ही के भोजनालय वाली छिम्मा से उस का काफी करीब का यानी दैहिक संबंध बन गया था.
वह जब भी उस को अपने पास बुलाया करती, ऐसे ही किसी साबुन से नहा कर तैयार रहती थी. मगर वह छिम्मा को ज्यादा बरदाश्त नहीं कर पाया था. 10-12 दिनों बाद जब वह उस के पास ही था तो उस को इस महक से उलटी सी आने लगी थी. तब छिम्मा ने राई और मिर्च से नजर उतार कर, नींबूपानी मिला कर उस की कितनी सेवा की थी. उस के बाद तो जल्दी ही मेला भी उठ गया था और अब वह छिम्मा को गलती से भी याद नहीं किया करता कि कैसे हैदराबाद की रमा और गोवा की डेल्मा की तरह उस पर कोई रुपया खर्च ही नहीं करना पड़ा था.
छिम्मा तो हवा, पानी, सूरज की रोशनी की तरह बिलकुल ही फोकट में उस को हासिल हो गई थी. पर, वह आज, बस, इसी महक के कारण छिम्मा को याद कर रहा था. लेकिन आज बात उलटी थी कि उसे उलटी नहीं आ रही थी, जबकि उस का दिल बारबार यह कह रहा था कि मोनिका पर वह महक खूब भा रही थी.
जैसे दोपहर की अपेक्षा शाम को नदी का तट बहुत ही अच्छा लगता है वैसे ही वह इन दिनों जैसे किसी नदी का कोई सूना सा तट था और मोनिका एक भीनीभीनी शाम. तो अब उस को नाम भी पता लग गया क्योंकि कुछ मिनट पहले ही उस का फोन बजा था और वह हौले से बोली थी, ‘जी नहीं, गलत नंबर लग गया है, मैं मोनिका हूं, लतिका नहीं. अभी उस का टाइम है.’ यह कह कर मोनिका ने फोन डिस्कनैक्ट किया और फिर उस ने सर्कस के ही एक सहायक लड़के को आवाज लगा कर कड़क चाय लाने को कहा.
तब उस ने हंस कर मोनिका को चाय का प्याला पीने का प्रस्ताव दिया और उस ने पहले तो गरदन हिला कर जरा सा मना किया पर अगले ही पल अच्छा ,”हां चाय ले लूंगी” कह कर पेशकश स्वीकार की. तब मोनिका ने अपने कोमल होंठों से कप को स्पर्श करते हुए बताया था कि इस चादर की दुकान का परिचय करवाया 2 दिनों पहले के अखबार ने. उस में एक छोटा सा विज्ञापन था. कलपरसों तो बारिश थी, इसलिए आज आ पाई. उस दिन मोनिका चादरें खरीद कर ले गई और उस ने पहली मुलाकात में कितनी भारीभरकम छूट दे दी थी, लगभग आधे से कम दाम.