तहसीलदार साहब के यहां बरतन मांजने जाती हो… क्या कोई चक्कर चल रहा है उन से?’’ जब कमली ने यह बात कही, तब अनुसुइया भीतर ही भीतर आगबबूला हो उठी. बहू को कोई जवाब देते नहीं बना था.

कमली पलभर बाद बोली, ‘‘क्यों जबान तालू में चिपक गई अम्मां… अब जवाब देते क्यों नहीं बन रहा है…?’’

‘‘ठीक है… ठीक है, तुझे जवाब भी दूंगी. अभी तो साहब के यहां जा रही हूं,’’ नरम पड़ते हुए अनुसुइया बाहर निकल गई.

बहू कमली मन ही मन कुटिल मुसकान देते हुए बोली, ‘‘आप खावे काकड़ी, दूसरे को दे आंकड़ी,’’ और अपने काम में लग गई.

मगर अनुसुइया का मन बहू की उस बात से झनझना रहा था कि साहब से क्या चक्कर चल रहा है? आज बहू ने यह आरोप लगाया, कल बस्ती वाले लगाएंगे. अनुसुइया सड़क पर बेचैनी से चल रही थी.

50 साल की अनुसुइया विधवा थी. 15 साल पहले उस के पति की कैंसर की वजह से मौत हो गई थी. पति उसे विरासत में एक बेटा और एक बेटी दे गया था. साथ में गरीबी भी, क्योंकि कैंसर से पीडि़त पति शंकर का

इलाज करातेकराते सारी जमापूंजी खर्च हो चुकी थी. फिर भी वह उसे बचा न सकी.

बच्चों को पालने के लिए अनुसुइया मेहनतमजदूरी करने लगी. ऐसे में वह कई वहशी मर्दों के संपर्क में आई, जिन से वह बचती रही. कई घरों में उस ने बरतन मांजने का काम किया, तो कई बार तगारी भी उठाई.

इन 15 सालों में अनुसुइया ने बहुत ज्यादा जद्दोजेहद की, लड़की बड़ी थी इसलिए अब वह जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी. बस्ती के आवारा लड़के उसे हवस की नजर से देखने लगे थे. वह भी तो इन हवस के मारों से कहां बच सकी थी.

जैसे ही अनुसुइया को पता चला कि बेटी का बस्ती के एक आवारा लड़के से चक्कर चल रहा है, उसे बिरादरी में शादी कर के घर से विदा कर दिया. वह बेटी की बदनामी से तो बच गई थी, मगर बस्ती के लोग उसे बदनाम करने में चूकते नहीं थे. उस के चालचलन पर शक करने लगे, मगर उस ने किसी की परवाह नहीं की.

रहा सवाल बेटे का, तो उसे पढ़ायालिखाया. वह एक दफ्तर में चपरासी पद पा गया. उस की भी शादी कर अनुसुइया ने राहत की सांस ली.

आज अनुसुइया की बहू ने भी वही आरोप लगाया, जो उस की बस्ती वाले लगाते रहे थे. वह तहसीलदार के यहां बरतन मांजने जाती है. उस सरकारी क्वार्टर में तहसीलदार अकेले रहते हैं. उन की पत्नी और बच्चे उज्जैन में रहते हैं, जहां उन का खुद का मकान है.

अभी तहसीलदार की उम्र 35 से 40 साल के बीच की है. अभी वे नौजवान दिख रहे हैं. वह सुबहशाम उन के यहां झाड़ूबुहारी, बरतन मांजने और रोटी बनाने का काम करती है.

चाहते तो तहसीलदार इन सारे कामों को क्वार्टरों के नौकरों से भी करा सकते थे, मगर उन का मानना है कि सरकारी नौकरों से किसी तरह का निजी काम नहीं करा सकते हैं. यही वजह है कि घर का काम करने के लिए अनुसुइया को लगा रखा है.

तहसीलदार के यहां उसे काम करतेकरते सालभर से ऊपर हो गया है. उस के काम से वे खुश हैं. एक तरह से घरेलू रिश्ता बन गया है. इस रिश्ते में कब उन को प्यार हो गया, उसे नहीं मालूम.

उस दिन अनुसुइया ने तहसीलदार से पूछा था, ‘‘साहबजी, खाना परोस दूं?’’

‘‘नहीं, मुझे अभी रामबाग जाना है…’’ तहसीलदार ने कहा, ‘‘आ कर खा लूंगा.’’

‘‘मगर, जब तक आओगे, तब तक भोजन ठंडा हो जाएगा,’’ अनुसुइया ने अपनी बात रखी थी.

‘‘जाने दो बाई.’’

‘‘ऐसी कैसी नौकरी है आप की साहब कि समय पर बना भोजन भी नहीं कर सकते हो. आप मैडम को यहां क्यों नहीं ले आते हैं?’’ अनुसुइया ने सवाल किया.

‘‘वह आना नहीं चाहती यहां पर,’’ कह कर तहसीलदार तत्काल जीप में बैठ कर चले गए.

कैसी जिंदगी है साहब की… उन की मैडम क्यों नहीं आना चाहती हैं? शायद उन का पारिवारिक झगड़ा हो सकता है, इसलिए वे नहीं आना चाहती हैं या साहब लाना नहीं चाहते हैं.

कई दिनों से वह साहब को देख रही है. उन के प्रति उन का झुकाव ज्यादा रहने लगा है. उस का भी झुकाव उन की तरफ रहने लगा है. दोनों के बीच मौन आमंत्रण कई दिनों से चल रहा था, मगर वे एकदूसरे से खुल कर बात नहीं कर पा रहे हैं. दोनों तरफ से संकोच की दीवार खड़ी थी.

ऐसे ही एक दिन अनुसुइया साहब के पास बैठ कर टैलीविजन देख रही थी. तब वह शरमाते हुए बोली थी, ‘‘साहब, मेम साहब के बिना आप की रातें कैसे कटती होंगी?’’

‘‘तकिए को ही मेमसाहब समझ कर रातें काट लेता हूं,’’ साहब ने यह कह कर उस की तरफ हवस भरी निगाह से देखा और बोले, ‘‘क्या तुम मेरे लिए मेमसाहब नहीं बन सकती हो?’’

‘‘आप ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली,’’ जब अनुसुइया ने यह बात कही, तब उन दोनों के शरीर एक हो गए और यह खेल रोजाना चलने लगा…

‘‘ए बाई, क्या मरने का इरादा है?’’ जब एक गाड़ी वाले ने बे्रक लगा कर गाड़ी रोकी, तब अनुसुइया अतीत से वर्तमान में लौटी. वह तो विचारों में इतना खो गई कि उसे भान ही नहीं रहा कि सड़क पर चल रही है.

थोड़ी देर बाद वह तहसीलदार के बंगले पर पहुंच गई. तहसीलदार साहब ड्राइंगरूम में आने वाले लोगों की समस्या का निदान कर रहे थे. वह चुपचाप रसोई में जा कर रोटीसब्जी बनाने लगी.

जब वह रसोई का सारा काम निबटा चुकी थी, तब तहसीलदार के पास आ कर बोली, ‘‘साहब, कल से मैं नहीं आऊंगी?’’

‘‘क्यों नहीं आओगी?’’ तहसीलदार ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘इसलिए कि हमारे संबंधों का पता मेरी बहू को लग गया है…’’ बड़े ही उदास मन से अनुसुइया बोली, ‘‘मेरी बहू पूरी बस्ती में मुझे बदनाम कर रही है.’’

यह सुन कर तहसीलदार साहब बोले, ‘‘अनुसुइया, जिंदगी में कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. अगर तुम बदनाम हो रही हो तो मेरा कौन सा नाम हो रहा है. अगर तुम छोड़ जाओगी तो मुझे कोई और नौकर ढूंढ़ना होगा और तुम्हें घर पर बहू की जलीकटी फिर भी सुननी पड़ेगी कि हाथपैर चलते हैं, पर कमाती कुछ नहीं.’’

अनुसुइया सोच में पड़ गई. बात तो सच थी. इतने दिनों बाद कुछ सुख मिला था. उसे ऐसे ही क्यों जाने दे. वह बोली, ‘‘जी साहबजी, आप सही कह रहे हैं. कौन क्या कहता है, कहता रहे. जब तक निभेगा, निभाऊंगी. जिस दिन न आप संभाल सकें, न मैं, तब देखी जाएगी. आप लेटो, मैं नहा कर आती हूं.’’

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...