क्या थी ‘‘बस, समझ लो कि इस घर में यह मेरा आखिरी खाना था,’’ लंबी डकार ले कर धनपत ने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा.
यह सुनते ही सुमति के हाथ बरतन समेटते अचानक रुक गए. उस ने गौर से अपने पति के चेहरे का मुआयना किया और पूछा, ‘‘क्या मतलब…?’’
‘‘कल से मैं संन्यास ले रहा हूं,’’ धनपत ने सहज भाव से कहा.
जोरदार धमाका हुआ. सुमति ने सारे बरतन सामने दीवार पर दे मारे और चिल्ला कर कहा, ‘‘तू फिर संन्यास लेगा?’’
चारों बच्चे चौके के दरवाजे पर आ खड़े हुए. 2-2 के झुंड में दाएंबाएं हो कर भीतर झांकने लगे, जैसे किसी बड़े मनोरंजक नाटक के तंबुओं को फाड़ कर बिना पैसे के देख कर मजे ले रहे हों.
सुमति उचक कर अलमारी के ऊपर चढ़ी और चीनी मिट्टी के बरतन से नीबू का अचार निकाल कर धनपत के मुंह में जबरन ठूंसने लगी और चिल्ला कर बोली, ‘‘ले खा चुपचाप.’’
‘‘क्या है?’’ धनपत ने ऐसे पूछा जैसे ये रोजमर्रा की बातें हों.
‘‘नीबू का अचार है. मुए, तेरी भांग का नशा उतार कर रहूंगी.’’
‘‘भांग नहीं, भंग,’’ झूमते हुए धनपत ने संशोधन किया.
‘‘तू आज फिर उन रमसंडों के डेरे पर गया था?’’ सुमति ने गरज कर पूछा.
‘‘रमसंडे नहीं, साधुमहात्मा,’’ धनपत ने अचार चबाते हुए कहा.
सुमति अपना माथा पकड़ कर चूल्हे के पास बैठ गई. महीने 2 महीने में संन्यासी होने का दौरा धनपत पर पड़ता था. जब भी शहर में साधुओं की टोली आती थी, धनपत दिनदिन भर उन्हीं के साथ बैठा रहता और मुफ्त की भांग और गांजा पीता रहता.
धनपत एक सेठ की दुकान पर मुनीमगीरी करता था. वह अब तक
8 बार नौकरी से निकाला जा चुका था और फिर वापस ले लिया गया था. सेठ धनपत की होशियारी और ईमानदारी की वजह से उसे वापस ले लिया करता था.
सुमति धनपत की इन हरकतों से परेशान थी. तनख्वाह में धनपत को मिले रुपए से घर का खर्च चलता नहीं था, लिहाजा वह 4 घरों में चौकाबरतन करने लगी थी. बड़ा बेटा शंकर अखबार बेच कर 15-20 रुपए रोज कमा लिया करता था, जिस से खुद उस की और छोटे भाईबहनों की पढ़ाई ठीकठाक चल
जाती थी.
धनपत पहले भी 2-3 बार घर से भाग चुका था. काशी, हरिद्वार और इलाहाबाद में साधुसंन्यासियों की संगत में रह कर फिर घर लौट आता. हर
बार जाने से पहले वह ऐसी ही बहकीबहकी बातें किया करता था.
अब भी सुमति को यही चिंता लगी थी. शहर में पिछले 4 दिनों से कुछ साधुओं ने रामलीला मैदान में डेरा जमा रखा था. जरूर उन लोगों ने ही इसे बरगलाया होगा, इसीलिए यह फिर संन्यास लेने की बात कह
रहा है.
हालांकि सुमति जानती थी कि जब अंटी के पैसे खत्म हो जाएंगे, तो धनपत चुपचाप घर लौट आएगा. मुनीमगीरी करेगा और फिर कसमें खाएगा कि अब संन्यास नहीं लेगा. फिर भी वह इस बात पर चिंतित थी कि बेहद सीधे स्वभाव वाले उस के पति को कुछ हो न जाए. जमाना खराब चल रहा है. जबजब ये बातें उस के दिमाग में आतीं, तबतब वह सिहर उठती. धनपत आखिर जैसा भी है, उस का पति है.
बाहर खड़े बच्चों ने मातापिता को चुपचाप कुछ सोचते हुए देखा, तो ‘शो’ जल्दी खत्म हो जाने की वजह से वे निराश हो कर अपने दड़बेनुमा कमरे की तरफ बढ़ चले.
इस बस्ती में छोटेछोटे घरों में कईकई लोग भेड़बकरियों की तरह ठुंसे रहते थे. धनपत के घर पर ही 6 लोग थे. कम आमदनी में शहर में परिवार पालना बहुत बड़ी समस्या थी. फिर धनपत तो भांग और गांजे का सेवन करता था. कर्जा चढ़ा था, सो अलग.
रात गहराती जा रही थी. साथ ही साथ सुमति की चिंता बढ़ती जा रही थी कि वह धनपत को कैसे रोके.
‘‘अच्छा, तो सुमति देवी, मुझे इजाजत दो. कहासुना माफ करना,’’ धनपत की आवाज से सुमति की सोच का सिलसिला टूटा.
सुमति ने एक पल उसे देखा, फिर भयंकर तेवर अपनाते हुए गरज कर बोली, ‘‘क्या कहा, माफ कर दूं? आज तू एक कदम भी घर से बाहर रख
कर देख. मैं उतारती हूं तेरे संन्यास
की सनक.’’
अगर और कोई वक्त होता, तो धनपत भी तूतूड़ाक करने लगता, लेकिन अभी वह भांग की तरंग में था, इसलिए दार्शनिकों के अंदाज में वह बोला, ‘‘आज मुझे मत रोको सुमति देवी. तुम नहीं जानती कि संन्यासी जीवन में कितनी शांति है.’’
सुमति गरज कर बोली, ‘‘इतना अचार चबाने के बाद भी तेरी भांग नहीं उतरी. बच्चे, घरगृहस्थी, कर्जा ये सब एक औरत के ऊपर छोड़ कर जाते हुए तुझे शर्म नहीं आती?’’
‘‘जिस आदमी के दिल में वैराग्य की भावना पैदा हो गई हो, उसे इन सब बातों से क्या मतलब…? और फिर बच्चे, घर वगैरह तो मोहमाया की बातें हैं. रही बात तुम्हारी, तो इतिहास गवाह है कि बुद्ध भी इसी तरह ज्ञान पाने के लिए घर से निकले थे,’’ धनपत ने तर्क दिए.
सुमति के पास इन बातों का कोई जवाब शायद नहीं था, पर फिर भी वह घायल शेरनी की तरह दहाड़ी, ‘‘तू जिन बुद्ध की बातें कह रहा है, वे राजामहाराजा थे. तेरे पास कौन सी जागीर है, जिस के सहारे तू हमें छोड़े
जा रहा है? और ये औलादें क्या
अकेले मैं ने पैदा की थीं? सीधे क्यों
नहीं बोलता कि जिम्मेदारियों से घबरा गया है और संन्यास के नाम पर बारबार घर से भाग जाता है,’’ कहतेकहते वह हांफने लगी.
‘‘कुछ भी हो, मैं ने संन्यास लेने का फैसला लिया है. अब संसार की कोई भी ताकत मुझे रोक नहीं सकती,’’ कुछ रुक कर धनपत अकड़ कर बोला.
पति की ये बातें सुनने के बाद सुमति का कलेजा मुंह तक आ गया. वह इस बात को समझ गई कि अब यह नहीं रुकने वाला है. वह चिल्लाचिल्ला कर रोने लगी और धनपत को पकड़ कर दरवाजे पर धकियाते हुए बोली, ‘‘जा भाग, लेले संन्यास, मांग भीख, लेकिन अब फिर कभी इस घर में अपने पैर
मत रखना.’’
सुबहसुबह सुमति की तेज आवाजें सुन कर उस के पड़ोस के लोग भी घरों से बाहर आ कर मुफ्त के मनोरंजन का मजा लेने लगे. हालांकि उन्हें मन ही मन सुमति से हमदर्दी थी.
सुमति अब भी चिल्ला रही थी, ‘‘मैं चला लूंगी गृहस्थी, पाल लूंगी बालबच्चों को. तू भाग यहां से…’’
तभी धनपत का बड़ा बेटा शंकर साइकिल से घर के पास आ कर रुका. वह अखबार बेच कर घर आया था. अपने घर के बाहर उस ने भीड़ और सुमति को चीखतेचिल्लाते देखा. माजरा उस की समझ में नहीं आया.
शंकर को देखते ही सुमति को कुछ राहत मिली. वह चीखचीख कर उस से कहने लगी, ‘‘देख बेटा, तेरा बाप बुजदिलों की तरह घर छोड़ कर जा रहा है, संन्यास ले रहा है, उसे रोक.’’
शंकर ने एक सरसरी निगाह पहले पड़ोसियों पर और फिर धनपत पर डाली. उस के बाद सुमति की बांह पकड़ घर के अंदर ले जाते हुए उस ने कहा, ‘‘इन्हें जाने दे मां. तू भीतर चल.’’
यह बात सुन कर सुमति को
लगा मानो कोई पहाड़ टूट पड़ा हो. वह बोली, ‘‘क्या…? तू भी ऐसी बातें कह रहा है?’’
सुमति की बातों का कोई जवाब दिए बिना शंकर जबरदस्ती उसे घर में ले गया और भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया.
बाहर खड़े लोग अपनेअपने ढंग से सोचते रहे. धनपत रामलीला मैदान की तरफ चल पड़ा.
अंदर सुमति फूटफूट कर रो रही थी.
‘‘खाना दो मां,’’ शंकर ने ऐसे कहा, मानो उसे इन बातों से कुछ लेनादेना ही नहीं था.
‘‘खाना दूं? उधर तेरा बाप घर छोड़ कर चला गया और इधर तुझे भूख लगी है? रोका क्यों नहीं?’’ सुमति ने गुस्से में उबल कर कहा.
‘‘कुछ नहीं होगा. अब संन्यास का भूत हमेशा के लिए उन के सिर पर से उतर जाएगा. अभी थोड़ी देर में वे लौट आएंगे,’’ शंकर ने कहा.
सुमति ने हैरानी से बेटे की तरफ सवालिया नजर से देखा.
‘‘वे साधु, जिन के साथ बाबूजी जाने वाले हैं, अब हवालात में बंद हैं,’’ शंकर ने कहा.
‘‘क्या…? क्यों…?’’ रोतीसिसकती सुमति ने चौंक कर पूछा.
‘‘हां…’’ अपना सिर झुकाए शंकर ने बताया, ‘‘कल शाम को उन में से एक साधु एक लड़की को पकड़ कर जबरदस्ती करने लगा था. लड़की की चीखपुकार सुन कर वहां काफी लोग इकट्ठा हो गए थे. पुलिस के आने तक उन लोगों ने उस की धुनाई की. अब बाबूजी को सही बात पता चलेगी, तो शायद उन की आंखें खुल जाएंगी.’’
यह सुन कर सुमति आंसू पोंछ कर मन ही मन खुश हुई और पति के लौट आने की आस में चुपचाप बैठ गई.
सचमुच धनपत 2 घंटे बाद घर लौट आया. दूसरे दिन से वह मुनीमगीरी करने लगा. उस के बाद उस ने संन्यास की बात कभी नहीं कही. उलटे उसे ऐसी बातों से चिढ़ ही होने लगी थी.