यकीन करना मुश्किल था कि 20 साल पहले मैं उस कमरे में रहता था. पर बात तो सच थी. साल 1990 से ले कर साल 1993 तक छपरा में पढ़ाई के दौरान मैं ने रहने के कई ठिकाने बदले, पर जो लगाव पंडित शिव शंकर के मकान से हुआ, वह बहुत हद तक आज भी कायम है.

वह खपरैल के छोटेछोटे 8-10 कमरों का लौज था. उन्हीं में से एक कमरे में मैं रहता था. किराया 70 रुपए से शुरू हो कर मेरे वहां से हटतेहटते 110 रुपए तक पहुंच गया था. यह बात दीगर है कि मैं ने कभी समय पर किराया दिया नहीं. पंडित का बस चले तो आज भी सूद समेत मुझ से कुछ उगाही कर लें.

एक बार तो पंडित ने मेरे कुछ दोस्तों से कह भी दिया था कि भाई उन से कहिए कि उलटा हम से 2 महीने का किराया ले लें और हमारा मकान खाली कर दें.

पंडित का होटल भी था, जहां 5 रुपए में भरपेट खाने का इंतजाम था. मेरा खाना भी अकसर वहीं होता था. पंडिताइन तकरीबन आधा दिन गोबर और मिट्टी में ही लगी रहतीं. कभी उपले बनातीं, कभी मिट्टी के बरतन.

जब खाने जाओ, झट से हाथ धोतीं और चावल परोसने लगतीं. सच कहूं, उस वक्त बिलकुल नफरत नहीं होती थी, बल्कि गोबर और मिट्टी की खुशबू से खाने में और स्वाद आ जाता.

उन की एक बेटी थी मालती. साल 1993 में उधर उस की शादी हुई, इधर मैं ने मकान खाली किया. वैसे, मालती से मेरा कोई खास नजदीकी रिश्ता नहीं था, मगर उस के जाने के बाद एक अजीब सा सूनापन नजर आ रहा था. मन उचट सा गया था, इसलिए मैं ने वहां से जाने का तय किया.

इस के पहले कि दूसरा ठिकाना खोजता, मेरी नौकरी लग गई और मैं ने छपरा को अलविदा कह दिया.

20 साल बाद छपरा में एक दिन मैं बारिश में बुरी तरह घिर गया और मेरी मोटरसाइकिल बंद हो गई. सोचा, क्यों न मोटरसाइकिल को पंडित के घर रख दें, कल फिर आ कर ले जाएंगे.

मैं मोटरसाइकिल को धकेलते और बारिश में भीगता हुआ वहां पहुंचा. पंडित का होटल अब मिठाई की दुकान में तबदील हो गया था.

पंडिताइन मुझे देखते ही पहचान गईं. वे चाय बनाने लगीं. मैं ने उन से कहा, ‘‘आप चाय बनाइए, तब तक मैं अपना कमरा देख कर आता हूं जहां मैं रहता था.’’

मैं पीछे लौज की ओर गया. सारे कमरे तकरीबन गिर चुके थे. अपने कमरे के दरवाजे को मैं प्यार से सहलाने लगा, तभी मेरी नजर एक चित्र पर गई. दिल का रेखाचित्र और बीच में इंगलिश का एम देख कर यादें ताजा हो गईं.

एक दिन मैं ने मालती से कहा था, ‘अबे ओ बौनी, नकचढ़ी, नाक से बोलने वाली लड़की, तेरा यह कमरा मैं तभी खाली करूंगा, जब तू ससुराल चली जाएगी.’

इस पर मालती बनावटी गुस्से में बोली थी, ‘यह मेरा मकान है. जब चाहें तब निकाल दें तुम्हें… यह लो…’ और उस ने खुरपी से दरवाजे पर दिल का रेखाचित्र बनाया और बीच में एम लिख दिया.

मालती का कद काफी छोटा था. लौज के सारे लड़के उसे बौनी कहते थे, मगर उस के पीछे. वे जानते थे कि मालती बड़ी गुस्सैल है, सुन लेगी तो खुरपी चला देगी.

पर, यह हिम्मत मैं ने की. एक दिन उस से कहा, ‘ऐ तीनफुटिया, जरा अपनी दुकान से चाय ला कर तो दे.’

उस ने भी पलट कर कहा था, ‘चाय नहीं, जहर ला कर दूंगी भालू…’

हमारे नहाने का कार्यक्रम खुले में होता था नल के नीचे और मालती ने बालों से भरा मेरा बदन देख लिया था, इसलिए वह मुझे भालू कहती थी.

मैं समझ गया कि उसे बुरा नहीं लगा था. कुछ मस्ती मैं कर रहा था, कुछ वह. फिर तो मस्ती का सिलसिला चल पड़ा.

पंडित के घर के पिछले हिस्से में लौज था. अगले हिस्से में वे रहते थे. बीच में एक पतली गली थी.

मालती हम लोगों के लिए अलार्म का काम भी करती थी. सुबहसुबह गाय ले कर उस गली से गुजरती तो जोर से आवाज लगाती थी, ‘कौनकौन जिंदा है? जो जिंदा है, वह उठ जाए. जो मर गया, उस का राम नाम सत्य.’

मैं जानता था कि मरने वाली बात वह मेरे लिए बोलती थी, क्योंकि मैं सुबह देर तक सोता था. खैर, उस के इसी डायलौग से मेरी नींद खुलती थी. फिर भी कभी अगर नींद नहीं खुलती तो मारटन टौफी चला कर मारती. उन दिनों बिहार में मारटन टौफी का खूब प्रचलन था.

पंडित की एक राशन की दुकान भी थी, जहां उन का बेटा यानी मालती का बड़ा भाई बैठता था. उस समय मैं महज 19 साल का था. इतनी समझ नहीं थी. मैं ने मालती की राशन की दुकान का भरपूर फायदा उठाया. जब कभी वह गली से गुजरती, मैं अपनेआप से ही जोरजोर से कहता, ‘यार, कोलगेट खत्म हो गया. पैसे भी नहीं हैं. मालती बहुत अच्छी लड़की है. उस से कह दो तो कोलगेट क्या पूरी दुकान ला कर दे दे…’

फिर क्या था. थोड़ी देर बाद दरवाजे पर कोलगेट पड़ा मिलता. फिर तो कभी साबुन, कभीकभी चीनी, कभी कुछ मैं अपनी जुगत से हासिल करने लगा.

एक दिन मालती गली में टकरा गई. वह बोली, ‘तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो, दिनरात जो तारीफ करते हो. क्या सचमुच मैं उतनी अच्छी और सुंदर हूं?’

मैं ने उस से मुसकरा कर कहा, ‘तुम तो बहुत सुंदर हो. सिर्फ थोड़ा कद छोटा है, नाक थोड़ी टेढ़ी है, दांत खुरपी जैसे हैं और गरदन कबूतर जैसी. बाकी कोई कमी नहीं. सर्वांग सुंदरी हो.’

वह लपकी, ‘तुम किसी दिन मेरी खुरपी से कटोगे. अब खा लेना मारटन टौफी…’

शरारतों का सिलसिला यों ही चलता रहा. एक दिन उस का रिश्ता आया. बाद में पता चला कि लड़के वालों ने उसे नापसंद कर दिया. यह मालती के लिए सदमे जैसा था. कई दिनों तक वह घर से नहीं निकली और जब निकली तो बदल चुकी थी. वह चंचल लड़की अब मूक गुडि़या बन चुकी थी.

एक दिन मैं ने उसे गली में घेर लिया और पूछा, ‘तू आजकल इतनी शांत कैसे हो गई?’

वह बोली, ‘तुम झूठे हो. कहते थे कि मालती सुंदर है, पर लड़के वाले रिजैक्ट कर के चले गए.’

मैं ने उसे समझाया, ‘धत पगली, वह लड़का ही तेरे लायक नहीं था. तेरे नसीब में तो कोई राजकुमार है.’

वह भोलीभाली मालती फिर से मेरी बातों का यकीन कर बैठी. अब फिर वह पहले की तरह चहकने लगी और कुछ दिनों बाद सचमुच उस की शादी तय हो गई.

उस ने मुझ से पूछा, ‘तुम मेरी शादी में आओगे न?’

मैं ने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया, ‘चाहे धरती इधर की उधर हो जाए, मैं तेरी शादी जरूर अटैंड करूंगा.’

उस की शादी हो गई. संयोग देखिए, जिस दिन शादी थी, उसी दिन मेरा पटना में इम्तिहान था. मैं शादी अटैंड नहीं कर सका. मालती चली गई थी अपने साथ सारी ऊर्जा ले कर.

मालती के जाने के बाद कुछ खालीखाली सा लगने लगा था. समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है. कहां चली गई ऊर्जा. ऐसा कब तक चल सकता था? कुछ दिनों बाद मैं ने भी वह कमरा खाली कर दिया.

मैं अपनी यादों से लौट आया. पंडिताइन की चाय तैयार थी. मैं चाय पी ही रहा था कि पंडितजी भी आ गए.

बातोंबातों में मैं ने उन से पूछा, ‘‘मालती कैसी है? आजकल वे कहां रहती है?’

तब पंडिताइन ने डबडबाई आंखों से बताया, ‘‘मालती… वह अब इस दुनिया में नहीं है.’’

यह सुन कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. कांपती आवाज में मैं ने पूछा, ‘‘कब हुआ यह सब?’’

पंडिताइन ने आंखें पोंछते हुए कहा,  ‘‘शादी के 2 साल बाद ही. डिलीवरी के दौरान जच्चाबच्चा दोनों.’’

ओह… तब मैं ने सोचा कि कितना बदनसीब हूं मैं. एक लड़की, जो मुझे बेइंतिहा चाहती थी, न मैं उस की शादी में शामिल हो सका और न ही जनाजे में. और तो और उस की मौत की खबर भी मिली उस के मरने के इतने साल बाद.

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