दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में अमेरिका और सोवियत संघ ही 2 महाशक्तियां थीं. दोनों के बीच हमेशा शीतयुद्ध चलता रहता था. मगर सोवियत संघ के टूटने और चीन के शक्ति के रूप में उदय के बाद दुनिया का शक्ति संतुलन बदल गया है. नए समय में अमेरिका और चीन महाशक्तियां हैं. चीन महाशक्ति की हैसियत पाने के बाद अपने तेवर दिखा रहा है. इसलिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकास का नाटक कर रहा है मगर उस का मकसद पुरानी महाशक्तियों की तरह दुनियाभर में अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करना है.

वन बैल्ट वन रोड (ओबीओआर) ऐतिहासिक रेशम मार्ग (सिल्क रूट) की तर्ज पर एशिया, यूरोप और अफ्रीका को सड़कें, रेलमार्ग और जलमार्ग से जोड़ने की चीन की अपनी महत्त्वाकांक्षी योजना है जो इस सदी में अंतराष्ट्रीय व्यापार में जबरदस्त उछाल लाएगी. इसे ले कर चीन ने पिछले  दिनों 2 दिनों का अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन किया जिस की दुनियाभर में धूम मची हुई थी. आखिर क्यों न हो, अरबोंखरबों डौलर जो लगे हैं इस परियोजना में.

सम्मेलन में 29 देशों के राष्ट्राध्यक्ष, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस, विश्व बैंक के प्रैसिडैंट जिम योंग किम, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मैनेजिंग डायरैक्टर क्रिस्टीन लगार्ड के अलावा 130 देशों के अधिकारी, उद्योगपति, फाइनैंसर और पत्रकारों ने  हिस्सा लिया. भारत के बेहद करीबी दोस्त माने जाने वाले रूस ने भी इस सम्मेलन में भाग लिया. चीन का ऐसा दावा है कि सड़क रास्तों से दुनिया के कई देशों को एकसाथ जोड़ने से इन देशों के बीच कारोबार को बढ़ाने व इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने में मदद मिलेगी.

क्या है परियोजना

चीन की दुनिया के 65 देशों को इस प्रोजैक्ट से जोड़ने की योजना है. जिन में धरती की आधी से ज्यादा करीब 4.4 अरब आबादी रहती है. इस प्रोजैक्ट में कई सड़कमार्गों, रेलमार्गों और समुद्रमार्गों से देशों को जोड़ने का प्रस्ताव है. प्रोजैक्ट के पूरा होने में करीब 30 से 40 साल लग सकते हैं.

सवाल उठता है कि ‘वन बैल्ट वन रोड’ परियोजना आखिर है क्या? इसे न्यू सिल्क रूट नाम से भी जाना जाता है. देखा जाए तो ओबीओआर एक ही परियोजना नहीं है, बल्कि 6 आर्थिक गलियारों की मिलीजुली परियोजना है, जिस में रेलवेलाइन, सड़क, बंदरगाह और अन्य आधारभूत ढांचे शामिल हैं. ओबीओआर में 3 जमीनी रास्ते होंगे जिन की शुरुआत चीन से होगी.

पहला मार्ग मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप के देशों की ओर जाएगा. इस से चीन की पहुंच किर्गिस्तान, ईरान, तुर्की से ले कर ग्रीस तक हो जाएगी. दूसरा मार्ग मध्य एशिया से होते हुए पश्चिम एशिया और भूमध्य सागर की ओर जाएगा. इस रास्ते से चीन, कजाकिस्तान और रूस तक जमीन के रास्ते कारोबार कर सकेगा. तीसरा मार्ग दक्षिण एशियाई देश बंगलादेश की तरफ जाएगा. साथ ही, पाकिस्तान के सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण बंदरगाह ग्वादर को पश्चिमी चीन से जोड़ने की योजना पर काम चल ही रहा है.

इस के अलावा, चीन से एक जलमार्ग थाईलैंड, मलयेशिया होते हुए सिंगापुर और हिंद महासागर की ओर जाएगा. इस तरह सड़क, रेल और बंदरगाहों के जाल बुनने के लिए चीन करीब 60 लाख करोड़ रुपए से अधिक की रकम उपलब्ध कराएगा. दुनियाभर में कुल कारोबार का तकरीबन 90 फीसद हिस्सा अभी समुद्री रास्तों से हो कर जाता है. यह सीधेसीधे द्विपक्षीय आदानप्रदान होता है.

यानी अगर सऊदी अरब से तेल चीन ले जाना हो तो जहाज समुद्री रास्ते से चीन पहुंचेगा और ऐसा बहुत कम होता है कि रास्ते में पड़ने वाले किसी और देश को इस व्यापारिक सौदे का फायदा हो.

ओबीओआर से उन देशों को भी लाभ पहुंचेगा जिन के रास्तों से माल गुजरेगा. इस परियोजना से व्यापार के लिए समुद्री रास्तों पर निर्भरता कम हो जाएगी और जहां तक अहमियत का सवाल है तो इस से वैश्विक कारोबार की तसवीर बदल जाएगी क्योंकि, समुद्री रास्तों से कारोबार पर अभी अमेरिका का दबदबा है. 900 अरब डौलर की लागत से चीन कई नए अंतर्राष्ट्रीय रूट बनाना चाहता है. वन बैल्ट वन रोड नाम के अभियान के तहत बीजिंग ये सब करेगा.

विकास की दौड़

भारत इस सम्मेलन से अलग ही रहा. कई आर्थिक विशेषज्ञ भारत को इस के खिलाफ आगाह कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि भारत ऐसा कर के दुनिया की आर्थिक विकास की दौड़ में पिछड़ जाएगा. लेकिन भारत को चीन के इरादे नेक नहीं लगते.

सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि सभी देशों को एकदूसरे की संप्रभुता और भूभागीय एकता का सम्मान करना चाहिए. भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर से हो कर गुजरने वाले इस विवादित आर्थिक गलियारे को ले कर चिंताओं के चलते इस फोरम का बहिष्कार किया था. भारत ने करीब 50 अरब डौलर से ज्यादा की लागत वाले सीपीईसी (चाइना पाकिस्तान इकोनौमिक कौरिडोर) को ले कर अपनी संप्रभुता संबंधी चिंताओं के चलते सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया.

शी जिनपिंग ने कहा कि वन बैल्ट वन रोड पहल सदी की परियोजना है, जिस से पूरी दुनिया के लोगों को लाभ होगा. चीन के राष्ट्रपति ने देश के दृष्टिकोण के बारे में कहा, ‘‘हमें सहयोग का एक खुला मंच तैयार करना चाहिए और एक खुली वैश्विक अर्थव्यवस्था के रूप में बढ़ना व बरकरार रखना चाहिए.’’ सिल्क रोड फंड का गठन 2014 में किया गया, जिस का मकसद बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की आर्थिक मदद करना था.

इस परियोजना के जरिए चीन अपनेआप को उदार दानदाता के तौर पर पेश कर रहा है. जो गरीब देशों की हालत पर तरस खा कर उन्हें सस्ती दरों पर कर्ज दे रहा है. लेकिन असलियत कुछ और है. पिछले कुछ वर्षों में चीनी माल की मांग में कमी आई है. इस मांग को फिर बढ़ाने के लिए उसे नए बाजार की जरूरत है. ओबीओआर से नया बाजार उपलब्ध करा कर चीन अपनी अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकना चाहता है. इसलिए यह सारी परियोजना बहुत फुलप्रूफ तरीके से तैयार की गई है. यह चीन के लिए ‘चित भी मेरी पट भी मेरी, सिक्का मेरे बाप का’ वाली कहावत को चरितार्थ करती है.

यह सही है कि चीन गरीब देशों को अरबों डौलर का कर्ज देगा. इस कर्ज से गरीब देश अपने यहां सड़कें, पुल, पोर्ट और हवाईअड्डे बनाएंगे. मगर यह सारा काम चीनी कंपनियां ही करेंगी यानी कर्ज का पैसा चीन के पास ही लौट आएगा. इस कारण चीन घाटे में नहीं होगा, असल में उसी का ही व्यापार बढ़ेगा. फिर जिन देशों में वह बुनियादी ढांचा बनाएगा, उन पर कुछ हद तक उस का वर्चस्व बढ़ जाएगा.

इस का सब से बड़ा उदाहरण तो पाकिस्तान है. लोग तो उसे चीन का 29वां राज्य कहने लगे. पाकिस्तान में बन रहे ग्वादर रोड की रक्षा के नाम पर वहां चीनी विमान और अन्य हथियार भी तैनात होने लगे हैं. यानी पाकिस्तान में चीन की सैनिक उपस्थिति बढ़ी है.

चीन के लिए समस्या तब पैदा होगी जब कर्ज डूबने लगेगा तो क्या होगा? कर्ज देने वालों में चीन के 2 प्रमुख बैंक हैं, चाइना डैवलपमैंट बैंक और ऐक्सपोर्टइंपोर्ट बैंक औफ चाइना. दोनों एशिया, मध्यपूर्व और अफ्रीका के कई देशों को 200 अरब डौलर का कर्ज दे चुके हैं. लेकिन जैसेजैसे प्रोजैक्ट आगे बढ़ेगा, वैसेवैसे जोखिम भी बढ़ता जाएगा. बैंक, लेनदारों और देनदारों के बीच का समीकरण बेहद अहम हो जाएगा. ऐक्सपोर्टइंपोर्ट बैंक औफ चाइना चाहता है कि हर देश के लिए कर्ज की सीमा निर्धारित की जाए.

बैंक के उप गवर्नर सुन पिंग कहते हैं, ‘‘कुछ देशों को अगर हम ने बहुत ज्यादा कर्ज दिया तो ऋण की स्थिरता पर सवाल उठ सकते हैं.’’

कागजों से निकल कर प्रोजैक्ट जैसे ही जमीन पर शुरू होगा, वैसे ही व्यावहारिक परेशानियां सामने आएंगी. वन बैल्ट वन रोड के तहत आने वाले 1,676 प्रोजैक्ट्स को चीन की सरकारी संस्थाएं फाइनैंस कर रही हैं.

इस प्रोजैक्ट के तहत बहुत ही बड़ा ठेका चीन कम्यूनिकेशन कंस्ट्रक्शन ग्रुप को मिला है, अकेले 40 अरब डौलर का ठेका. ग्रुप को 10,320 किलोमीटर लंबी सड़कें, 95 गहरे बंदरगाह, 10 एयरपोर्ट, 152 पुल और 1,080 रेलवे प्रोजैक्ट्स पूरे करने हैं. यानी चीन सूद समेत कर्ज भी वसूलेगा और उस की कंपनियों को निर्माण के दौरान होने वाला फायदा भी मिलेगा.

ओबीओआर को मांग में कमी से जूझ रहे चीन के स्टील, सीमेंट सहित अन्य उद्योगों के लिए बाजार तलाशने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है. यही नहीं, इस से चीन के उत्पादों के लिए कम विकसित बाजारों के रास्ते भी खुल जाएंगे. दूसरी तरफ इस के दायरे में आने वाले कई देश अस्थिरता के दौर से गुजर रहे हैं और इस से जुड़े किसी भी प्रोजैक्ट के असफल रहने पर पूरे प्रोजैक्ट के धराशायी होने की आशंका है.

ओबीओआर और सीपीईसी को ले कर भारत यों ही चिंतित नहीं है. चीनपाकिस्तान आर्थिक कौरिडोर कश्मीर के उस हिस्से से हो कर गुजरेगा जो पाकिस्तान के कब्जे में है, भारत इसे हमेशा से अपना अभिन्न अंग मानता रहा है. पाकिस्तान आतंकवादियों को ट्रेनिंग दे कर भारत में भेज कर दशकों से छद्म युद्ध चला रहा है.

उधर चीन, पाकिस्तान को लंबे वक्त से समर्थन देता रहा है. ओबीओआर के चलते दक्षिण एशिया में चीनी सेना का दखल भी बढ़ेगा, जो भारत को कतई मंजूर नहीं है. हालांकि चीन का कहना है कि सीपीईसी का भारतपाकिस्तान सीमा विवाद से कोई लेनादेना नहीं है, लेकिन इस से भारत की चिंताओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता. चीन ओबीओआर को ले कर साझा विकास की बात कर रहा है और उस का कहना है कि भारत को भी इस में अहम भूमिका निभानी चाहिए.

यह परियोजना यूरोप, एशिया और अफ्रीका के बीच एक पुल की तरह काम करेगी. यूरोप विकास के चरम पर है, जबकि एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर देश विकासशील या अविकसित हैं. इस परियोजना से जहां यूरोप को एशिया और अफ्रीका का बाजार मिलेगा, वहीं एशिया और अफ्रीका को यूरोप की तकनीक सुलभ होगी. इस से दुनिया एकसूत्र में बंध जाएगी. पूर्व और पश्चिम में अमीरगरीब का अंतर कम करने में मदद मिलेगी और तरक्की के रास्ते पर चलने से आतंकवाद जैसे दानव से भी मुक्ति मिलने की उम्मीद की जा सकती है.

चीन का ओबीओआर मूर्तरूप ले सका तो वह एशिया और यूरोप के लिए बूस्टर डोज साबित होगा. इस जनवरी में झिझिआंग राज्य से एक मालगाड़ी 1,200 किलोमीटर की दूरी और 9 देशों से गुजर कर लंदन पहुंची. समुद्रीमार्ग से लगने वाले समय से आधे समय में उस ने माल पहुंचाया. ऐसी मिसालें बढ़ीं तो उस से व्यापार को प्रोत्साहन मिलेगा. परियोजना निर्माण के दौरान लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार मिलेगा. इस से चीन के नेतृत्व में कई देशों का एक ऐसा समूह बनेगा जिस के आर्थिक हित आपस में जुड़े होंगे.

इस परियोजना के पीछे चीन के कई आंतरिक कारण हो सकते हैं. मगर उस के तमाम उद्देश्य चीन की अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व की आकांक्षा के साथ जुड़े हुए हैं. चीन को 21वीं सदी की आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्वयं को स्थापित करना है. युआन को विश्वमुद्रा बनाना है. डोनाल्ड ट्रंप और अमेरिका की सिर्फ अपने हितों का विचार कर नीतियां बनाने और वैश्वीकरण व मुक्त व्यापार को रोकने की कोशिश का लाभ चीन उठा रहा है. चीन ने वैश्वीकरण  का झंडा अब अपने कंधों पर उठाया है और ओबीओआर परियोजना शुरू की है.

परियोजना के विरोधी चीन की मंशा पर शक करते हैं. दुनियाभर के तमाम देशों को डर है कि चीन इस परियोजना के जरिए दुनिया पर अपना आर्थिक साम्राज्यवाद थोपना चाहता है. इस परियोजना के कार्य में चीन के मजदूर, चीन का पैसा, चीन की तकनीक और दुनियाभर में चीन के सैनिकों का फैलाव भी होगा. ऐसे में इस परियोजना के अंतर्गत आने वाले देशों पर चीन अपना मालिकाना हक जताएगा. यह ठीक उसी तरह का हो सकता है, जैसा 19वीं सदी में ब्रिटेन ने अपना साम्राज्य बढ़ाया था.

दुनिया की दूसरी सब से बड़ी आर्थिक महाशक्ति चीन, सड़क मार्गों पर अपना दबदबा बनाना चाहता है. अमेरिका और चीन के बीच चल रही होड़ में इस से चीन को फायदा होगा. बता दें कि ज्यादातर समुद्रीमार्गों पर अभी भी अमेरिका का एकतरफा वर्चस्व है. इस को देखते हुए चीन अपना खास जोर सड़कमार्गों को विकसित करने में लगाएगा जिस से वह अमेरिका को कारोबार में टक्कर दे सके.

कुछ अर्थशास्त्री इसे उस मार्शल प्लान की तर्ज पर देख रहे हैं, जिस ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका को दुनिया का सुपरपावर बना दिया, लेकिन यह उस से भी बड़ा प्रोजैक्ट है. अगर कीमत के लिहाज से देखा जाए तो आज की कीमत के हिसाब से अमेरिका का मार्शल प्लान 130 अरब डौलर का था, जबकि चीन का प्रोजैक्ट इस से कई गुना ज्यादा बड़ा यानी 10 खरब डौलर का है.

शी जिनपिंग ने इसे प्रोजैक्ट औफ द सैंचुरी बताया है. एक ऐसी योजना जो उस खाली जगह को भरेगी जो ट्रंप के दौर में अमेरिका फर्स्ट की पौलिसी के तहत अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से अमेरिका के पैर पीछे खींचने से बन गई है. चीन इस के जरिए दुनिया की अर्थव्यवस्था पर अपनी पकड़ और गहरी करने की कोशिश में है.

चीन इस बात से बेहद दुखी है कि इस परियोजना को भारत का समर्थन नहीं मिल रहा है. इसलिए  वह इस दलील के साथ भारत को मनाने की कोशिश कर रहा है कि अभी वह प्रगति की दौड़ में शामिल हो सकता है, बाद में वह केवल मूकदर्शक भर रह जाएगा.

चीनी स्टेट मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने कहा, ‘‘वन बैल्ट वन रोड के चीन के प्रस्ताव को दुनियाभर से जबरदस्त समर्थन मिल रहा है. ऐसे में अगर भारत  ओबीओआर से खुद को अलग रखना चाहता है तो उस के पास इंटरनैशनल स्तर पर चीन के बढ़ते दबदबे को देखते रह जाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचेगा.’’

कश्मीर के चलते भारत-पाक के बीच विवाद रहा है. इस के चलते नई दिल्ली ने क्षेत्र में इन्वैस्टमैंट करने से दूरी बना कर रखी है. हालांकि, भारत के लिए इस बात में फर्क जानना भी जरूरी है कि उस का कमर्शियल इन्वैस्टमैंट किस बात में हैं और कहां उस की संप्रभुता पर असर पड़ रहा है.

भारत के पड़ोसी देश नेपाल, बंगलादेश ने चीन के साथ हाल ही में करार किया है. वे इस प्रोजैक्ट में शामिल हो रहे हैं. वहीं श्रीलंका, म्यांमार भी शिखर सम्मेलन के दौरान इस प्रोजैक्ट से जुड़ने की इच्छा जता चुके हैं. पाकिस्तान पहले से ही चीन का अहम सहयोगी बना बैठा है. लेकिन भारत ने इस का बहिष्कार किया.

भारत का इस से दूर रहना कितना वाजिब है? इस मुद्दे पर आर्थिक मामलों के जानकार एम के वेणु कहते हैं, ‘‘वन बैल्ट वन रोड कौन्फैं्रस में न जाने का भारत का रुख थोड़ा सा विरोधाभासी है. विरोधाभासी इसलिए क्योंकि भारत 3 दिन पहले तक यह कहता रहा है कि हमें इस बात पर नाराजगी है कि इस परियोजना का एक हिस्सा पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से गुजरता है, जिसे सीपैक यानी चाइना- पाकिस्तान कौरिडोर कहते हैं और जो ग्वादर पोर्ट तक जाता है. अगर आप तार्किक रूप से देखें तो 3-4 दशकों पहले चीन ने इसी इलाके से होता हुआ काराकोरम हाईवे भी बनाया था. भारत को उस पर भी आपत्ति थी क्योंकि यह इलाका कश्मीर मसले के तहत विवादित है. इस के बावजूद भारत ने चीन से बहुत अच्छे संबंध बनाए रखे हैं.

‘‘आप देखें तो पिछले 20 सालों में दोनों देशों के बीच 20 गुना व्यापार बढ़ा है. ऐसे में, फिर भारत सीपैक को ले कर अपनी आपत्ति जता रहा है. यह पूरा प्रोजैक्ट 900 अरब डौलर का है जिस में 30-40 देश शामिल हैं. इस में यूरोप भी है, सैंट्रल एशिया भी और ईस्ट एशिया भी है. दक्षिण एशिया से श्रीलंका और नेपाल हैं. भूटान के अलावा सभी दक्षिण एशियाई देश इस में अपनी इच्छा से भाग ले रहे हैं. ऐसे में भारत को भी किसी हद तक इस में शामिल होना चाहिए. साथ ही, वह अपनी आपत्ति भी रखे कि यह विवादित इलाके से जा रहा है.’’

सीमा विवाद

वहीं, भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस मुद्दे पर बयान जारी कर कहा है कि कोई भी देश ऐसे प्रोजैक्ट को स्वीकार नहीं कर सकता जो संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की उस की चिंताओं को नकारता हो. भारत की इस बात में दम है कि कोई देश संप्रभुता की कीमत पर ऐसी परियोजना में शामिल नहीं हो सकता. चीन ने स्वयं कश्मीर की जमीन पर कब्जा किया हुआ है और पाक अधिकृत कश्मीर में वह चीनपाकिस्तान कौरिडोर बना रहा है. चीन के साथ सीमा विवाद तो सुलझने का नाम भी नहीं ले रहा हालांकि दोनों देशों के बीच कई दौर की बातचीत हो चुकी हैं. ऐसे में चीन के आश्वासनों को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता.

चीन प्रचार जो भी करे, उस का एक मकसद दक्षिण एशियाई देशों के बीच भारत के दबदबे को कम करना है. इस मंसूबे में बहुत हद तक वह कामयाब हो भी गया है. भूटान को छोड़ कर भारत के सभी पड़ोसी देश चीन की परियोजना से जुड़ गए हैं. इन हालात में भारत के सभी पड़ोसी देशों पर चीन की पकड़ और मजबूत हो जाएगी.

वैसे बहुत से आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन द्वारा ओबीओआर के बारे में

की जा रही घोषणाएं कितनी ही नाटकीय और धमाकेदार क्यों न हों मगर उन पर अमल करना आसान नहीं है. इस परियोजना से अगले 4-5 सालों में एशिया और यूरोप का आर्थिक नक्शा बदल जाएगा, यह सोचना सपनों की दुनिया में रहना है. इस परियोजना को मूर्तरूप लेने में अभी 15-20 साल लगेंगे. इतने लंबे समय तक इस परियोजना को खींचने की राजनीतिक और आर्थिक क्षमता चीन की सरकार और बैंकों में है क्या, यह वक्त ही बताएगा. ओबीओआर के समुद्र मार्ग पर साउथ एशिया सी के विवाद का साया होगा. साउथ एशिया सी को ले कर चीन का जापान समेत कई देशों के साथ विवाद है. प्रोजैक्ट के लिहाज से एक बड़ा खतरा सुरक्षा का भी है. सीपीईसी के लिए तालिबान और बलूच समेत कई आतंकी संगठन भी बड़ा खतरा बन सकते हैं. सो, रेशम मार्ग इतना रेशमी नहीं होगा.

भारत, जापान का चीन को जवाब

चीन की वन बैल्ट वन रोड यानी ओबीओआर योजना को चुनौती देने के लिए भारत और जापान ने कदम उठाने शुरू कर दिए हैं. भारत व जापान मिल कर, ईरान, श्रीलंका, बंगलादेश, आग्नेय एशिया और अफ्रीका में व्यूहरचनात्मक दृष्टि से अहम ऐसी कई मूलभूत सुविधा परियोजनाएं हाथ में लेने वाले हैं. एशियाप्रशांत क्षेत्र से ले कर अफ्रीका तक फ्रीडम कौरिडोर विकसित करने की दोनों देशों की योजना का यह अहम पड़ाव है, ऐसा माना जा रहा है. इसे चीन के ओबीओआर को टक्कर देने वाली योजना के तौर पर देखा जा रहा है. साथ ही, दोनों देशों ने अफ्रीका और एशिया के देशों में कई अहम परियोजनाओं में निवेश करने को भी तैयार हैं.

चीन के साम्राज्य के सपने

अफीम युद्धों से पहले चीन दुनिया की सब से बड़ी आर्थिकशक्ति था और आज उस के नेता शी जिनपिंग उसे फिर वही स्थान दिलाना चाहते हैं. चीन पर किसी विदेशी ने लंबा राज नहीं किया है. यूरोप के देशों ने बहुत कोशिश की पर व्यापार का हक मांगने के अलावा वे ज्यादा कुछ न कर पाए.

चीन के नेता चीनी प्रतिव्यक्ति आय, जो 8,000 डौलर है, को वर्ष 2021 तक 10,000 डौलर पर पहुंचा देंगे. भारत की प्रतिव्यक्ति आय केवल 1,700 डौलर है. चीन केवल बड़ी शक्ति नहीं बनना चाहता, वह सब से बड़ी शक्ति बनना चाहता है. और जिस तरह से उस के नेता ओबीओआर से यूरोप और एशिया पर छा रहे हैं, कोई आश्चर्य नहीं कि उस का यह सपना सच हो जाए.

1839 से 1949 तक 100 साल चीन बुरे दौर से गुजरा है. लेकिन अब, वह एक नया इतिहास रचने की तैयारी में है.

चीन ने नेपाल के सड़क रेल निर्माण प्रस्ताव को स्वीकारा

ओबीओआर को ले कर चल रही रस्साकशी के बीच चीन ने भारत को चिढ़ाने के लिए नेपाल की ओर से इस परियोजना के तहत सड़क और रेलमार्गों के निर्माण के लिए दिए गए प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है. बताया जा रहा है कि चीन अपनी अतिमहत्त्वाकांक्षी परियोजना ओबीओआर के तहत नेपाल में सड़क और रेलमार्गों के निर्माण में भारी निवेश करेगा. हालांकि, भारत ने अभी हाल ही में ओबीओआर परियोजना के तहत दक्षिण एशियाई देशों में सड़क और रेलमार्गों के निर्माण के लिए चीन की ओर से किए जा रहे प्रयासों से खुद को अलग रखने को ले कर स्थिति स्पष्ट कर दी है.

भारत को शामिल करने के लिए चीन का सीपीईसी का नाम बदलने का प्रस्ताव

वन बैल्ट वन रोड योजना में भारत को शामिल कराने के लिए चीन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा यानी सीपीईसी का नाम बदलने का प्रस्ताव रखा था जिसे विदेश मामलों के विशेषज्ञ चीन के नए दांव के रूप में देख रहे हैं. विदेश मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि चीन इस प्रस्ताव के जरिए भारत का रुख भांपना चाहता है. यही कारण है कि चीन ने सीपीईसी का नाम बदलने का प्रस्ताव देने के साथ ही भारत-पाकिस्तान के सीमा विवाद में नहीं पड़ने की भी बात कही है.

गौरतलब है कि चीन कई बार भारत से ओबीओआर में शामिल होने की अपील करता रहा है. हालांकि भारत ने इसी योजना के तहत बनने वाले सीपीईसी के पाक अधिकृत क्षेत्र से गुजारने के कारण अपना लगातार विरोध दर्ज कराया है.

पूर्व विदेश सचिव सलमान हैदर के मुताबिक, ओबीओआर में भारत को शामिल कराने की चीन की यह पहली कोशिश नहीं है. नया यह है कि इस बार उस ने सीपीईसी का नाम बदलने और भारत-पाकिस्तान सीमा विवाद में नहीं पड़ने की बात कही है.

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