हमारे देश में आस्था के नाम पर धर्म का धंधा काफी फलफूल रहा है. देश में हर रोज हजारों संस्थाएं धर्म के नाम पर कोई न कोई आयोजन कर के लोगों को धर्मभीरु व निठल्ला बनाने में जुटी रहती हैं. इन में से कुछ संस्थाएं तो ऐसी होती हैं, जिन के लिए घर, परिवार और समाज कोई माने नहीं रखता है.

लगता है कि इस तरह की संस्थाओं से जुड़ कर धर्म के कामों को अमलीजामा पहना कर उन्हें मोक्ष मिल जाएगा, इसलिए वे धर्म का डर दिखा कर दूसरे कामकाजी लोगों को भी उन के रास्ते से भटका कर उन का भविष्य चौपट करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.

आज हर गलीचौराहे पर मंदिर बनाने वालों की होड़ सी लग गई है. ये धार्मिक संस्थाएं इनसानियत को बड़ी तेजी से डुबो रही हैं.

हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की अगर बात की जाए, तो यहां भी पहले एक ही जागरण का आयोजन किया जाता था, जिस में न केवल शहर  बल्कि गांवों से भी लोग आते थे. पर पिछले तकरीबन 10 साल से जागरण कराने वालों की तादाद में तेजी से इजाफा हुआ है और हर साल मई महीने से शुरू हुए जागरणों का सिलसिला अक्तूबर महीने तक चलता रहता है.

इस की खास वजह यह है कि हर सैक्टर में ऐसे आयोजन करा कर दबदबे की जंग लड़ना यानी यह दिखावा होता है कि किस संस्था ने जागरण का सब से अच्छा आयोजन किया और किस संस्था ने कितनी भीड़ जुटाई.

दरअसल, देखा जाए तो एक जागरण के आयोजन में 3-4 लाख रुपए तो खर्च हो ही जाते हैं. अगर लोगों से जमा की गई इस रकम को किसी वृद्धाश्रम को बनाने, सड़क पर लाचारबीमार पशुओं का इलाज कराने या उन के लिए रैनबसेरा बना कर या फिर किसी मुसाफिरखाने को बनवा कर समाज को एक नई दिशा दी जा सकती है.

पर ऐसा हो नहीं पाता है. आज देखा जाए, तो भाखड़ा बांध से बेघर हुए इस शहर में मुसाफिरों के ठहरने के लिए कोई सराय नहीं है. धर्म के नाम पर तो रुपए दिए जा सकते हैं, पर समाजसेवा के नाम पर लोग चंदा देने से कतराते हैं.

जागरण का आयोजन करने वाली संस्थाएं भी जागरण का प्रचारप्रसार करने के लिए होर्डिंग, बोर्ड, पंपलैट्स व गाडि़यों द्वारा अनाउंसमैंट करवा कर भीड़ जुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं.

कुकुरमुत्ते की तरह उग आए ये जागरण कराने वाले आयोजक गलीगली, घरघर व दुकानदारों से चंदा उगाहते हैं. जागरण में भक्ति रस के गीतों की छटा बिखेरने के लिए एक करार के तहत किसी गायक पार्टी को बुलाते हैं.

3-4 घंटे तक गायक पार्टी अपना कार्यक्रम दे कर रकम ले कर चली जाती है. यह रकम भी लाखडेढ़ लाख रुपए तक हो सकती है. फिर बिजली की सजावट पर भी खर्च होता है.

कुछ लोग दबी जबान में कहते हैं कि कुछ आयोजक इकट्ठा किए गए चंदे से ही जागरण का आयोजन करते हैं. वे अपनी जेब को जरा भी सेंक नहीं लगाते हैं यानी जनताजनार्दन से इकट्ठा किए गए रुपए पर ही वे अपनी दुकानदारी चमकाते हैं. मीडिया में इन आयोजकों की खबरें व फोटो छाए रहते हैं. बेचारा चंदा देने वाला कहीं नजर नहीं आता है.

सब से बड़ी बात तो यह है कि कुछ लोग कईकई संस्थाओं से जुड़ कर उन के लिए काम करते हैं. चाहे मंदिर में हफ्ते का आयोजन होना हो या कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व या फिर दंगल सभी के लिए चंदा उगाहने का काम इन्हीं चंद लोगों के कंधों पर टिका होता है.

सब से बड़ी दिक्कत तो उन छोटेछोटे दुकानदारों को है, जो रेहड़ी वगैरह लगा कर बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी कमा पाते हैं और मजबूरी में चंदा देते हैं.

हर महीने चंदा मांगने वालों से वे लोग बहुत तंग होते हैं. अगर कोई चंदा देने वालों को टरकाता भी है, तो चंदा मांगने वाले कहते हैं, ‘चंदा हम काम करवाने के लिए मांगते हैं, अपने लिए नहीं.’

बेचारा दुकानदार भी धर्म की इस चोचलेबाजी में फंस कर चंदा दे ही देता है और मन ही मन इन आयोजकों को कोसता रहता है कि अगर इन आयोजकों को यह सब प्रपंच कराने का इतना ही शौक है, तो क्यों नहीं वे अपनी जेब से हजारों रुपए खर्च कर के देखें कि ‘घर फूंक तमाशा देख’ कैसा लगता है?

आज धर्म के नाम पर लोगों को निचोड़ने का जो सिलसिला चला है, वह थमने वाला नहीं है. जब तक लोग ऐसे ही धर्मभीरु बने रहेंगे, तब तक धर्म का जाल फैलाने वालों के शिकंजे में वे यों ही फंसते रहेंगे.

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