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सफाई मुहिम के नाम पर चल रहा ‘स्वच्छ भारत अभियान’ बीते 3 साल में तकरीबन 6 अरब, 33 करोड़, 98 लाख रुपए खर्च कर चुका है. इस के अलावा ‘निर्मल गांव स्कीम’ में खरबों रुपए गंवई इलाकों में खप चुके हैं. इस के बावजूद गंदगी की समस्या जस की तस है. जहांतहां गंदगी के बड़ेबड़े अंबार दिखाई देते हैं. चंद जगहों को छोड़ कर ज्यादातर सार्वजनिक इलाकों में फैली गंदगी हमें आईना दिखाती है.
बसअड्डे, रेलवे स्टेशन, कचहरी, सिनेमाहाल, सरकारी दफ्तर, गलीमहल्ले, फुटपाथ, फलसब्जी की मंडी वगैरह में धूलपत्थर, कीचड़ व कूड़ाकचरा फैला मिलता है. सार्वजनिक शौचालयों का तो बहुत ही बुरा हाल रहता है.
हम हिंदुओं को साफसुथरा दिखना तो भाता है, लेकिन खुद साफसफाई करने में शर्म महसूस होती है. गंदगी साफ करना तो दूर ज्यादातर लोगों को काम करने तक की आदत नहीं है.
गंदगी से है प्यार
साधुसंत, पंडेपुजारी और भिखारी जानबूझ कर गंदे बने रहते हैं. बदन पर राख लपेटना, सिर पर जटाएं रखना, दाढ़ीमूंछ बढ़ाना उन की पहचान बन गया है. हालांकि साफ रहना मुश्किल या महंगा नहीं है, लेकिन कारीगर, मिस्त्री, हलवाई, रिकशाठेली वाले और मजदूर गंदे रहने के आदी हैं. गंदी जगहों पर लगे खोमचों पर लोग खाते रहते हैं. सभी इस के आदी हो चुके हैं.
लोगों पर निकम्मापन इतना हावी है कि उन्हें गंदगी में रहना मंजूर है, लेकिन वे अपने आसपास सफाई नहीं करते.
धर्म और जाति के नाम पर सदियों तक ऊलजुलूल पट्टी पढ़ाने का नतीजा है कि ज्यादातर अगड़े, अमीर व पढ़ेलिखे लोग भी सफाई के कामों से बचते हैं और हुक्म दे कर कमजोर दलितों व मातहतों का जबरन शोषण करते रहते हैं.
सफाई के दुश्मन
उन लोगों की गिनती कम नहीं है जो खुद गंदगी साफ करने को अपनी शानोशौकत के खिलाफ समझते हैं. जाति व्यवस्था के हिसाब से हमारे समाज में गंदगी साफ करने व सेवाटहल का जिम्मा उन जातियों को सौंपा गया जो सदियों से नीचे व पीछे रही हैं. ऊपर से जुल्म यह है कि वे लोग अगड़ों की गंदगी तो साफ करें, लेकिन खुद साफ न रहें.
दलितों को साफ रहने की कोई सहूलियत नहीं दी गई. उन्हें अपढ़, गंदा व अछूत बनाए रखने की मंशा से उन के पढ़नेलिखने, नहाने व साफ कपड़े पहनने तक पर पाबंदियां लगाई गईं. वे चारपाई पर नहीं बैठ सकते थे. उन्हें कुओं व नल से पीने या नहाने का साफ पानी तक नहीं भरने दिया गया. वे बैंडबाजे के साथ बरात नहीं निकाल सकते थे.
धर्म की आड़ में…
गंदा बनाए रखने की गरज से दलितों को बस्ती से बाहर ऐसी जगहों पर रहने को मजबूर किया गया, जहां इलाके का कूड़ा व मैला इकट्ठा होता था ताकि वे खराब आबोहवा में रह कर गंदे, बीमार और कमजोर बने रहें. पहले अगड़े व पंडेपुजारी ऐसा चाहते थे, अब नेता ऐसा चाहते हैं ताकि वोट पाने के लिए कमजोर तबकों को भेड़बकरी की तरह हांका जा सके.
पंडेपुजारी कहते हैं कि शूद्र जाति में जन्म लेना पिछले जन्मों में किए गए पापों का नतीजा है, इसलिए यह फल तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा. उन्हें दबाए रखने के लिए उन से बेगारी कराई जाती थी और फिर बड़े अहसान के साथ उन्हें खाने के लिए बचीखुची जूठन, रहने के लिए जानवरों का तबेला व पहनने को फटीपुरानी उतरन थमा दी जाती थी.
यह सब इसलिए किया गया ताकि निचले तबके के लोग गंदगी व गुरबत में जीने के आदी हो जाएं. उन का जमीर मर जाए, खुद पर से यकीन उठ जाए और वे खुद को दूसरों के रहमोकरम पर छोड़ दें.
पिछड़ों के खिलाफ यह साजिश थी ताकि वे कमजोर रहें. चूंचपड़ करने की हिम्मत न करें. चुपचाप अगड़ों की गंदगी साफ करने के अलावा उन की खिदमत करें.
ऊंची जाति वाले एक ओर जल, वायु व अग्नि को देवता, धरती, गाय व गंगा को माता व पत्थर को भगवान कहते हैं, चूहे, कुत्ते व बैल को देवताओं का वाहन बता कर पूजते हैं, सब में भगवान व सब को बराबर मानने की दुहाई देते हैं, वहीं दूसरी ओर इनसानों को शूद्र, चांडाल व नीच कह कर उन के साथ गैरबराबरी का शर्मनाक बरताव करते हैं. यह पाखंड है.
देश की गलत इमेज
चंद बड़े शहरों की चमचमाती सड़कों व अमीरों की पौश कालोनियों की बात अलग है, लेकिन सिर्फ उन से ही तो पूरे हिंदुस्तान की तसवीर नहीं बन सकती. गरीब लोग तो कम जगह व भारी गंदगी के चलते बदबूदार सीलन से भरे माहौल में सांस लेते हैं, जीते, खाते व रहते ही हैं, लेकिन गंदगी की एक बड़ी वजह यह भी है कि वे सफाई के बारे
में जागरूक दिखाई नहीं देते हैं, इसलिए घरेलू, खेतीबारी व कलकारखानों से निकले कूड़ेकचरे का निबटारा सही नहीं होता.
ऊंची जाति के लोग आज भी यही मानते हैं कि सफाई के काम से उन का कोई लेनादेना नहीं है. गंदगी साफ करना सिर्फ दलितों की जिम्मेदारी है. अमीर मुल्कों में ऐसा नहीं है. सिंगापुर में कुत्ता घुमाने वाले लोग अपने साथ 2 पौलीथिन लाते हैं. एक हाथ में पहनते हैं और दूसरे में सड़क पर की गई कुत्ते की गंदगी उठा कर साथ ले जाते हैं.
अपने देश में उलटा चलन है. यहां दिल्ली सरकार के रैनबसेरों में मुफ्त में रात गुजारने वाले लोग बिना सोचेसमझे कहीं भी पेशाब या शौच करने बैठ जाते हैं. बेघर, बेकार, मुफ्तखोरों को सोने के साथ नाश्ते की सहूलियतें देने वाली सरकार को उन से कम से कम उस जगह के आसपास की गंदगी तो साफ करानी चाहिए जहां वे रहते व सोते हैं. ओहदेदारों को सफाई के मुद्दे पर झाड़ू हाथ में ले कर फोटो खिंचवाने का तो शौक है, लेकिन इस बारे में नया सोचने की फुरसत नहीं है.
बदइंतजामी का आलम
आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी इस बात से वाकिफ नहीं है कि गंदगी को दूर करने के लिए कचरे का निबटान कैसे किया जाना चाहिए? अमीर मुल्क कूड़ेकचरे को रीसाइकिल कर के बिजली, खाद व दूसरी कई चीजें बनाते हैं. नई तकनीक से कचरे को दोबारा इस्तेमाल करना जरूरी है, लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं देता. नगरपालिका की गाडि़यां जब कचरा ढोती हैं तो अकसर वह पूरे रास्ते में बिखरता हुआ चला जाता है.
हमारे देश में एक ओर सुपर कंप्यूटर व मंगलयान की बातें होती हैं, वहीं दूसरी ओर बहुत से लोग साफसफाई के मामले में भी धार्मिक अंधविश्वासों के शिकार हैं. मसलन, हज्जाम के पास जाने के लिए भी दिन तलाशे जाते हैं. बहुत से लोग मंगल व शनिवार को बाल व नाखून कटाने से परहेज करते हैं.
तमाम औरतें गुरुवार को इसलिए सिर व कपड़े नहीं धोतीं कि ऐसा करने से पैसे का नाश होता है. ऐसी बातें सफाई से जुड़ी हमारी पिछड़ी सोच की बानगी हैं.
गंदगी की समस्या की जड़ में निकम्मापन तो है ही, हमारे धार्मिक अंधविश्वास भी इस की बड़ी वजह हैं. नतीजतन, नदियों में कलकारखानों के गंदे पानी के अलावा अधजली लाशें, पूजा का सामान व मूर्तियों का विसर्जन करने का चलन आज भी आम है.
लेकिन गंदगी की समस्या को दूर करना नामुमकिन नहीं है, बशर्ते सभी लोग मानें कि तरक्की के लिए खुद साफ रहना व अपने आसपास सफाई रखना जरूरी है.