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न स्याही के हैं दुश्मन न सफेदी के हैं दोस्त,
हम को आईना दिखाना है दिखा देते हैं.
पत्रकारिता को ले कर कहा गया यह शेर देश के जानेमाने पत्रकारों द्वारा बड़ी शान के साथ अकसर उन के भाषणों में पढ़ा जाता रहा है. पर आज यही लाइनें अपने वजूद पर ही सवाल उठा रही हैं.
आज चारों तरफ यह सवाल किया जा रहा है कि क्या पत्रकार, संपादक, मीडिया ग्रुपों के मालिक व पत्रकारिता से जुड़े लेखक, स्तंभकार, समीक्षक वगैरह अपनी जिम्मेदारियों को पूरी ईमानदारी के साथ निभा रहे हैं? क्या वाकई आज के दौर का मीडिया सरकार, शासनप्रशासन व सिस्टम को आईना दिखाने का काम ईमानदारी से कर रहा है?
क्या आज अपनी लेखनी, अपनी आवाज, अपनी नेकनीयती व पूरी जिम्मेदारी के साथ पत्रकारों द्वारा दर्शकों या पाठकों को ऐसी सामग्री परोसी जा रही है जिस से जनता को फायदा हो सके?
क्या लोकतंत्र का चौथा खंभा पूरी तरह से पक्षपाती तो नहीं हो चुका है? क्या ज्यादातर मीडिया ग्रुपों के मालिक पैसा कमाने की गरज से सत्ता की गोद में जा बैठे हैं? क्या आजकल एक अच्छे पत्रकार की कसौटी उस की काबिलीयत या पत्रकारिता की अच्छी जानकारी होने के बजाय उस का अच्छा दिखना, उस की खूबसूरती, उस के चीखनेचिल्लाने का ढंग व अपने मालिक के प्रति उस की वफादारी ही रह गया है?
आजकल टैलीविजन के खबरिया चैनलों को ही देखा जाए तो अनेक चैनलों के अनेक एंकर व खबरें पढ़ने वाले गंभीरता से अपना कार्यक्रम पेश करने के बजाय जानबूझ कर चीखनेचिल्लाने का नाटक करते देखे जा सकते हैं. किसी गंभीर बहस या किसी साधारण से मुद्दे को चीखचिल्ला कर व उस कार्यक्रम में भड़काऊ किस्म के सवाल दाग कर ये नए जमाने के एंकर महज अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ाना चाहते हैं. टीआरपी का बढ़ना या घटना अच्छी पत्रकारिता के लिए जरूरी नहीं है बल्कि यह कारोबार व मार्केटिंग से जुड़ी चीज है. पर टैलीविजन एंकरों के भड़काऊ व आगलगाऊ अंदाज ने इन दिनों जनता को अपनी ओर इस तरह खींच रखा है कि दर्शक दूसरे मनोरंजक कार्यक्रमों से ज्यादा अब टैलीविजन की खबरें सुनने व देखने लगे हैं. यही वजह है कि खबरें पेश करने के दौरान इन टैलीविजन चैनलों की मुंहमांगी मुराद पूरी हो रही है और बढ़ती टीआरपी की वजह से ही खबरें दिखाने के दौरान या किसी गरमागरम बहस के बीच उन्हें भरपूर इश्तिहार हासिल हो रहे हैं.
दूसरी ओर इन दिनों यह भी देखा जा रहा है कि ज्यादा से ज्यादा लेखक व पत्रकार सत्ता की खुशामद करने या उसे खुश करने में लगे हुए हैं. इन में से कई तो ऐसे भी हैं जो खुद को समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष या वामपंथी या मध्यमार्गी विचारधारा का लेखक तो बताते हैं, पर अगर आप उन की टैलीविजन पर बहस सुनें या उन की लेखनी पढ़ें तो आप को यही पता चलेगा कि ऐसे कई लोग किसी अवार्ड या दूसरे लालच में सत्ता की भाषा बोलते दिखाई देने लगते हैं.
पत्रकारों के इसी लालच व मीडिया ग्रुपों के मालिकों की सौ फीसदी होती जा रही कारोबारी सोच ने ही ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि अब पत्रकारिता को ‘पत्थरकारिता’ कहना ही ज्यादा ठीक लगता है.
अगर आप को उकसाऊ व भड़काऊ पत्रकारिता के कुछ जीतेजागते उदाहरण देखने हों तो अनेक टैलीविजन चैनलों के कार्यक्रमों के शीर्षक से ही यह पता चल जाएगा कि फलां कार्यक्रम में क्या पेश किया जाने वाला है. उदाहरण के तौर पर ‘हल्ला बोल’, ‘सनसनी’, ‘दंगल’, ‘टक्कर’, ‘ताल ठोंक के’ जैसे कार्यक्रमों के शीर्षक क्या पत्रकारिता के उसूलों पर खरा उतरते हैं? या फिर नमकमिर्च लगे हुए ऐसे शीर्षक केवल टीआरपी बढ़ाने के लिए बनाए जाते हैं?
जाहिर है कि जब शीर्षक ऐसे होंगे तो कार्यक्रम पेश करने वाला इस शीर्षक व अपने मालिक की टीआरपी बढ़ाने के मकसद से अपनी बात शालीनता के साथ कहने के बजाय गरजता और बरसता हुआ ही दिखाई देगा.
सूत्र तो यह भी बताते हैं कि टैलीविजन पर होने वाली कई बहसों खासतौर पर मंदिरमसजिद, हिंदूमुसलिम, तीन तलाक के मुद्दे के अलावा दूसरे धार्मिक मुद्दों जैसे गाय, गंगा, लव जिहाद, गौरक्षक वगैरह में एंकरों द्वारा जानबूझ कर कार्यक्रम में भाग लेने वाले लोगों से ऐसे सवाल किए जाते हैं जिस से उन्हें गुस्सा आए और वे ऐसे जवाब दे डालें जो झगड़े की वजह बन सकें.
टैलीविजन पर जब कभी 2 पक्ष आपस में किसी मुद्दे पर बहस में भिड़ जाते हैं उस समय एंकर की ओर से उन्हें और ढील दे दी जाती है, जबकि अगर एंकर चाहे तो उसी समय उन का माइक बंद कर सकता है और दूसरे मेहमान की ओर रुख कर सकता है. पर एंकर जानबूझ कर 2 लोगों में बहस कराता है ताकि दर्शकों को उस चटकारेबाजी में मजा आ सके.
इन दिनों पूरे देश में ऐसे ही एक टैलीविजन शोमैन रोहित सरदाना के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा देखा जा रहा है. उस के खिलाफ सैकड़ों एफआईआर दर्ज होने की खबरें हैं. कई जगह हिंदूमुसलिम सभी ने मिल कर रोहित सरदाना के खिलाफ ज्ञापन दिए हैं.
फिल्म ‘पद्मावत’ को ले कर खड़े हुए बवाल के बारे में भी ऐसी ही बातें कही जा रही हैं. अगर आज पत्रकारिता भी इसी फार्मूले का सहारा ले कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है तो यह देश का सब से बड़ा नुकसान है. आज हमारे समाज में एकदूसरे के लिए बैर का ऐसा ही माहौल बनता दिखाई दे रहा है.