6 फरवरी, 2018 को मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के गांव गूजरीपुरा में आसपास के तकरीबन 2 दर्जन गांवों के पंच मौजूद थे. खास बात यह थी कि वे सभी कुशवाहा जाति के थे.
मुद्दा बड़ा अजीब था. पिछले साल 28 दिसंबर को शिवनंदन कुशवाहा नाम के एक नौजवान के हाथों एक ठेकेदार महेश शर्मा की हत्या हो गई थी. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. पर इधर आफत उस के घर वालों पर आ पड़ी थी.
शिवनंदन कुशवाहा के मामले में कहा यह गया कि अब शिवनंदन के घर वालों को समाज में रहने और सामाजिक जलसों में शिरकत करने का हक नहीं. लिहाजा, उन का हुक्कापानी बंद कर दिया जाए. मानो कत्ल शिवनंदन ने नहीं बल्कि पूरे घर ने किया हो. 6 फरवरी के जमावड़े में इसी बात का हल निकाला गया कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.
ऐसे धुले पाप
शिवनंदन के पिता नकटूराम और मां गोमतीबाई को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन का क्या कुसूर है. यही हालत उन के दूसरे बेटे बालकिशन की थी. वह भी अपने मांबाप की तरह इस बात से डर रहा था कि पंच कोई सख्त फैसला न सुना दें.
दिनभर की कवायद के बाद आखिरकार पंचों ने एकमत हो कर फैसला दिया कि नकटूराम और गोमतीबाई को गंगा स्नान कर रामायण का पाठ करना पड़ेगा. यह कोई तुक की बात नहीं थी इसलिए दबी आवाज में ही सही बालकिशन ने एतराज जताना चाहा लेकिन पंचों के सिर पर तो पंडा बन कर फैसला सुनाने का भूत सवार था इसलिए उन्होंने एक न सुनी. आखिरकार बूढे़ पतिपत्नी ने गंगा स्नान किया और रामायण भी पढ़ी, तब कहीं जा कर उन का पिंड छूटा.
यह पूछने वाला और बताने वाला कोई नहीं था कि अगर बेटे ने हत्या की है तो पूरे घर वाले कैसे अशुद्ध हो गए और गंगा स्नान और रामायण के पाठ से वापस कैसे शुद्ध हो गए? सच तो यह है कि वे अशुद्ध हुए ही नहीं थे, फिर शुद्धि का तो कोई सवाल ही नहीं उठता. दिलचस्प बात यह भी है कि मुकदमा चल रहा था और अदालती फैसला नहीं आया था.
यह था असली मकसद
गांवदेहातों में असल राज कानून का नहीं बल्कि धर्म और पंडों का चलता है, यह इस मामले से एक बार फिर उजागर हुआ. पंचायतें गांवों की तरक्की के लिए सड़कों और अस्पतालों के लिए बैठें तो बात समझ आती है लेकिन पंचायतें अदालत में चल रहे किसी मुकदमे पर बेगुनाह लोगों को पापी कहते हुए मुजरिम करार देने बैठें तो शक होना कुदरती बात है.
असल ड्रामा धर्म का धंधा बनाए रखने का है जिस से गांवों का माहौल बदले नहीं और पंडों का दबदबा कायम रहे. गंगा नहाने और रामायण पढ़ने से शुद्धि आती है, यह बात पिछड़ी कही जाने वाली कुशवाहा जाति को कैसे मालूम?
इस पर कुशवाहा समाज के एक पढ़ेलिखे और सरकारी मुलाजिम रह चुके जीएस सूर्यवंशी का कहना है कि इस के पीछे साजिश पंडों की ही नजर आती है. गांवदेहातों से धर्म का धंधा फैलाने के लिए ही यह नया टोटका रचा गया है.
मुमकिन है, कल को यह रिवाज बन जाए कि अगर किसी पिछड़े दलित ने कोई जुर्म किया है तो उस के घर वालों से भोज भी कराया जाने लगे. ऐसा अभी भी होता है कि पाप मुक्ति के लिए पूजापाठ और भोज के जलसे कराए जाते हैं नहीं तो नकटूराम जैसे बेगुनाहों को समाज और गांव से निकालने की धमकी दी जाती है जिस से वे घबरा उठते हैं.
गांवों में अगर इस तरह के धार्मिक पाखंडों से ही इंसाफ होना है तो कानून और अदालतों की कोई जरूरत नहीं रह जाती. इस से बेहतर तो यह होता कि शिवनंदन को ही 10-20 बार गंगा नहाने और रामायण पढ़ने के लिए कहा जाता जिस से बेचारा जेल जाने से बच जाता और उस का जुर्म भी माफ हो जाता.
कुशवाहा समाज पीढि़यों से दबंगों के खेतों में सागभाजी उगाता रहा है. आजादी के 70 साल बाद इस जाति के कुछ नौजवान पढ़ाईलिखाई कर के नौकरियों में आ रहे हैं. कहने भर के मेहनताने पर दबंगों की मजदूरी करती रही इस जाति में जागरूकता उम्मीद के मुताबिक नहीं आ पा रही है तो गूजरीपुरा जैसे गांवों के ये मामले इस की बड़ी वजह हैं जिस की मार एक कुशवाहा ही नहीं बल्कि तमाम पिछड़ी जातियों पर बराबरी से पड़ रही है.
दलितों को पाप मुक्ति के नाम पर कभी गंगा स्नान और रामायण पढ़ने की सजा नहीं दी जाती क्योंकि उन्हें तो यह हक ही धर्म ने नहीं दिए हैं और अब जिन्हें दिए जा रहे हैं, उन से कीमत भी वसूली जा रही है.
अंधविश्वासों के गुलाम
ज्यादातर गांवों में बिजली पहुंच गई है, सड़कें बन गई हैं, पर जागरूकता किसी कोने से नहीं आ रही तो इस की वजह गांवदेहातों में पसरे तरहतरह के अंधविश्वास हैं जिन्हें पंडेपुजारी और बढ़ाते रहते हैं.
गांव वालों का दिमागी दिवालियापन और पिछड़ापन इसी बात से समझा जा सकता है कि वे गेहूं की उन्नत किस्म बोते हैं लेकिन उस की बोआई का मुहूर्त पूछने पंडित के पास भागते हैं और इस बाबत उसे दक्षिणा भी देते हैं.
शादीब्याह और तेरहवीं में तो पंडों की हाजिरी जरूरी होती ही है लेकिन हैरानी तब होती है जब ये लोग गाय के गुम जाने पर उसे ढूंढ़ते नहीं बल्कि पंडे, तांत्रिक या गुनिया के पास जाते हैं. उस के बताए मुताबिक मवेशी मिल जाए तो उस की पूछपरख बढ़ जाती है नहीं तो किस्मत को कोस कर लोग चुप रह जाते हैं.
इस में चित और पट दोनों पंडों की होती है और हर मामले में रहती है. ये चालाक लोग जो गांवों के पिछड़ेपन के असली गुनाहगार हैं, झाड़फूंक के जरीए और पूजापाठ से बीमारियां ठीक करने का भी दम भरते हैं. भूतप्रेत, पिशाच और ऊपरी बाधा भगाने का काम भी करते हैं जो हकीकत में बड़े पैमाने पर पसरा वहम है. यह वहम भी हर कोई जानता है कि धार्मिक किताबों की देन है.
हर गांव में सालभर कोई न कोई धार्मिक जलसा होता रहता है. रामायण का पाठ तो अब आम बात हो चली है. इस बाबत शहरों की रामायण मंडलियां लाने का ठेका पंडे के पास ही होता है जो तयशुदा दक्षिणा में से अपनी दलाली दोनों तरफ से लेता है.
भागवत कथाएं भी इफरात से होने लगी हैं जिन में भारीभरकम खर्च बैठता है. भागवत कथाएं लोकल पंडा या मंडली नहीं कराती, बल्कि बाहर से नामीगिरामी महाराज बुलाए जाते हैं जिन की फीस भी लाखों रुपए में होती है.
जिस गांव में भागवत कथा होती है वहां आसपास के गांवों के लोग मधुक्खियों की तरह टूट पड़ते हैं और बगैर सोचेसमझे दक्षिणा की शक्ल में पैसा चढ़ा देते हैं. उन्हें लगता है कि भागवत कथा सुनने से उन के पाप धुल जाएंगे और अगले जन्म में उन्हें छोटी जाति में पैदा नहीं होना पड़ेगा.
अब नई चाल मुजरिम के घर वालों को फंसाने की चली जा रही है कि अगर उसे गांव में रहना है तो वह धर्मकर्म करे नहीं तो उसे भगा दिया जाएगा.
इस तरह के फैसलों से फायदा उन पंडों का ही होता है जो पहले ब्रह्म हत्या के बुरे नतीजे गिनाते हैं, फिर उन से बचाने के लिए धार्मिक टोटके बता कर अपनी बादशाहत कायम रखते हैं.
ऐसे फैसलों से गांवों की दशा सुधरने की उम्मीद रखना बेमानी है. गांवों की असली तरक्की तो तभी होगी जब धार्मिक पाखंडों और अंधविश्वासों की जकड़न से लोग आजाद हो पाएंगे. ऐसा हो न जाए, इस बाबत क्याक्या छलप्रपंच रचे जाते हैं, इस के लिए एक गूजरीपुरा से नहीं बल्कि लाखों गांवों से मिसालें मिल जाएंगी.