‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी, मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन...’ पर क्या आज के बच्चों का बचपन इतना सुहाना है कि वे उसे बारबार जीना चाहेंगे? जगजीत सिंह की इस गजल के विपरीत आज तो बच्चों का बचपन कहीं गुम ही हो गया है. आएदिन न्यूज चैनलों व समाचारपत्रों में बच्चों द्वारा परपस्पर एकदूसरे को मारनेपीटने की घटनाएं देखने और पढ़ने को मिलती हैं.
10 वर्षीय अभि ने एक दिन अपने से 2 साल छोटी बहन के हाथ पर इतनी जोर से काटा कि उस के हाथ से खून की धारा बह निकली. कारण सिर्फ इतना था कि बहन ने उस के बैग से स्कैचपैन ले लिए थे. कशिश की 12 वर्षीया बेटी बातबात पर चीखती है, गुस्से में घर का सामान इधरउधर फेंकने लगती है. कई बार तो वह खुद को ही चांटे मारना और बाल खींचना शुरू कर देती है.
दिन पर दिन बच्चे हिंसक होते जा रहे हैं, उन का बचपन खो सा गया है. वे अपनी उम्र से पहले ही बड़े हो रहे हैं. छोटीछोटी बातों पर चीखना, चिल्लाना, हिंसा करना और येनकेनप्रकारेण अपनी बात मनवाना उन की आदतों में शुमार हो चुका है. बच्चों के इस व्यवहार के पीछे उन की मानसिक अस्वस्थता है, जिस के कारण वे स्वयं पर से अपना नियंत्रण खो देते हैं. वे कई बार मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली कू्ररतम घटनाओं को अंजाम दे देते हैं. यही नहीं, छोटीछोटी घटनाओं से तनाव में आ कर वे स्थायी मानसिक अवसाद तक की अवस्था में चले जाते हैं और कई बार तो अपने जीवन को समाप्त करने के आत्मघाती कदम तक उठाने से पीछे नहीं हटते. बच्चे के इस तरह के व्यवहार के जिम्मेदार उस के मातापिता ही हैं, क्योंकि बच्चे की प्रथम पाठशाला उस का परिवार होता है और उस का अधिकांश समय अपने परिवार में ही व्यतीत होता है. अपनी जीवन की व्यस्ततम आपाधापी में पेरैंट्स कहीं न कहीं वे अपने उत्तरदायित्व को भलीभांति निभा पाने में असफल हैं.
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