जो अपने हकों को जानते भी हैं और अपनी विकलांगता के मुताबिक नौकरी पा कर कमा भी रहे हैं. तीसरी श्रेणी उन विकलांगों की है जो न तो अनपढ़ हैं और न ही बहुत ज्यादा पढ़ेलिखे. वे अपने हकों से परिचित तो हैं, पर सरकारी नौकरी नहीं पा सकते हैं. वे कुछ करना तो चाहते हैं, पर लाचार हैं. सैंसस 2001 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 2 करोड़ से ज्यादा लोग किसी न किसी तरह की विकलांगता से पीडि़त हैं.

इन विकलांगों में 26 से 45 फीसदी अनपढ़ हैं. आमतौर पर अनपढ़ विकलांग वे होते हैं जिन्हें जन्म के बाद भीख मांगने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया जाता है या मानव तस्करी के चलते उन्हें बचपन में ही विकलांग बना दिया जाता है. दूसरे गरीब बेसहारा परिवारों के विकलांग खुद के पैरों पर खड़े होने के बजाय उम्रभर सहारा ढूंढ़ने की कोशिश में जुटे रहते हैं. क्या सच में विकलांगों को सहारे की जरूरत है? क्या वे खुद ही हालात के मुताबिक अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते हैं? विकलांगों के हालात पर दिल्ली के जनकपुरी इलाके के ए ब्लौक की रहने वाली किरण ने एक किस्सा सुनाया, ‘‘मैं एक दिन जनकपुरी मैट्रो स्टेशन से बाहर निकली तो देखा कि थोड़ा अंधेरा हो गया था और इक्कादुक्का रिकशे वाले ही वहां खड़े थे. मैं अपने घर जाने के लिए किसी रिकशे वाले को ढूंढ़ ही रही थी कि एक आदमी मेरे सामने रिकशा ले कर आया और बैठने को कहा. ‘‘तभी मेरी नजर उस के पैरों पर पड़ी. उस का एक पैर बिलकुल बेजान था, पर दूसरा ठीक था. मुझे रिकशे पर बैठते हुए लग रहा था कि पता नहीं, यह ढंग से रिकशा चला भी पाएगा या नहीं. लेकिन फिर मैं उस के रिकशे पर जा कर बैठ गई, क्योंकि बाकी रिकशे वाले मेरे घर तक जाने को तैयार ही नहीं थे. ‘‘जब वह आदमी रिकशा ले कर आगे बढ़ा तो मुझे लगा कि यह इतनी मेहनत कर रहा है, वहीं दूसरी ओर हट्टेकट्टे होते हुए भी कई लोग सड़कों पर भीख मांग रहे हैं.

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असल में यह अपने पैरों पर तो खड़ा है.’’ दिल्ली में ही करोलबाग की एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले वीरेंद्र ने बताया, ‘‘एक बार मैं बस से अपने घर सुलतानपुरी जा रहा था, वहां मेरी एक नेत्रहीन से मुलाकात हुई. ऐसे ही जानकारी के लिए मैं ने उस से पूछा कि आप कहां रहते हैं और क्या करते हैं तो उस आदमी ने जवाब दिया, ‘एक समाजसेवी संगठन ने बेसहारा अंधों के लिए आश्रम बनाया हुआ है. मैं वहीं रहता हूं. अपनी रोजीरोटी और जेबखर्च के लिए मैं एक फैक्टरी में मोमबत्ती बनाने का काम करता हूं.’ ‘‘नेत्रहीन होने के बावजूद वह आदमी आश्रम में पड़े रहने से बेहतर काम करना पसंद करता था. यह बहुत बड़ी बात है.’’

मंजिल की ओर अब विकलांगों को ‘दिव्यांग’ कहा जाने लगा है जिस का मतलब है ‘दिव्य अंग’ होना. पर विकलांग को ‘दिव्यांग’ कहने से क्या उस की विकलांगता ठीक हो जाएगी या उसे आम आदमी की तरह रोजगार मिल जाएगा? क्या हमें विकलांग को ‘दिव्यांग’ का नया नाम दे कर उसे समाज से अलग दिखाना चाहिए? एक तरफ विकलांगों को आम आदमी की तरह मानने की बात की जा रही है, वहीं दूसरी तरफ उन को उन्हीं की ही सचाई शहद में डुबो कर बताई जा रही है. यह ढोंग का कौन सा नया रूप है? क्यों न विकलांग खुद अपने हुनर का परिचय दें? क्यों न वे अपने हालात को लाचारी का नहीं, बल्कि हौसले का रूप दें? साधना ढांड, सुधा चंद्रन, गिरीश शर्मा, अरुणिमा सिन्हा और मालती कृष्णामूर्ति सभी विकलांगों के लिए मिसाल हैं, पर क्या वह रिकशे वाला और मोमबत्ती बनाने वाला विकलांग भी मिसाल नहीं हैं? काम जो ये कर सकें कोई हाथपैरों से विकलांग है, लेकिन ठीक से बोलसुन सकता है तो वह रेडियो जौकी या एंकर बनने की सोच सकता है. इस तरह के विकलांग काल सैंटर वगैरह में भी नौकरी पा सकते हैं.

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अगर किसी विकलांग शख्स को लिखनेपढ़ने का शौक है तो वह लेखक बन सकता है. वह घर बैठे फ्रीलांस काम कर सकता है और अपनी पसंद के विषयों पर भी लेख लिख सकता है. इस के अलावा अपनी खुद की छोटीमोटी दुकान खोली जा सकती है. 5वीं क्लास की एक किताब में एक लड़की ईला का जिक्र किया गया है जो हाथ न होने के बावजूद कशीदाकारी में माहिर हो जाती है. सुनने व बोलने में नाकाम विकलांग यह काम सीख सकते हैं. वे इसी तरह के दूसरे काम भी सीख कर रोजीरोटी कमा सकते हैं. थोड़ेबहुत पढ़ेलिखे विकलांग खासकर लड़कियां या औरतें किसी औफिस में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी पा सकती हैं. वैसे भी अगर कोई मन में किसी काम को करने की ठान लेता है तो हिमालय जैसा पहाड़ भी चढ़ जाता है, फिर उस की विकलांगता भी आड़े नहीं आती है. द्य

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