मुद्दतों के बाद आज मुझे किसी शादी की दावत में शामिल होने का बुलावा आया था. मेरा मन बल्लियों उछलने लगा था.

मेरा खुश होना वाजिब था. एक तो बुलावा लड़के वालों की ओर से था. दूसरा, होने वाला दूल्हा रिश्ते में मेरा बड़ा भाई था. मैं ने सोचा, ‘वाह, अब कम से कम 3-4 दिन तो मौजमस्ती रहेगी. रंगबिरंगी मिठाइयों के अलावा तरहतरह का खाना खाने को मिलेगा.’

सफर पर जाने के खयाल से मैं ने सारे कपड़े और साथ ले जाने वाली दूसरी चीजों को अभी से ही सहेज लेना ठीक समझा, ताकि सुबह कोई परेशानी न हो.

सारी तैयारियां करने के बाद घड़ी पर नजर डाली, रात के 11 बज चुके थे. मुझे लगा कि अब सोना चाहिए. सुबह 4 बजे का अलार्म लगा दिया.

बिस्तर पर जाने के बाद सोने की मेरी सारी कोशिशें बेकार हो रही थीं. बारबार नजर घड़ी की ओर जा रही थी. आखिरी बार जब घड़ी की तरफ देखा था, तब 12 बज रहे थे. उस के बाद मैं कब सो गया, कुछ पता नहीं चला.

सुबह जब आंख खुली और नजर घड़ी की ओर गई तो मैं अवाक रह गया. घड़ी की सूइयां ठहरी हुई थीं. शायद बैटरी खत्म हो गई थी और घड़ी रात साढ़े 12 बजे बंद हो चुकी थी.

‘‘इस बेवफा बैटरी को भी आज ही खत्म होना था,’’ मैं झुंझलाया और लपक कर कलाई घड़ी उठाई. देखा, साढ़े 12 तो नहीं, लेकिन सुबह के 9 जरूर बज रहे थे.

मैं ने तेजी से सारे काम निबटाए. फिर भी एक घंटा लग गया. तैयार हो कर मैं बसस्टैंड की ओर लपक पड़ा.

वहां पहुंचने पर देखा कि बस खचाखच भरी हुई थी. पूछताछ करने पर पता चला कि अगली बस 3 घंटे बाद है. मुझे लगा कि किसी तरह इसी बस से चलना चाहिए, वरना बहुत देर हो जाएगी.

मैं फौरन बस की छत पर चढ़ कर सब से आगे बैठ गया. देखते ही देखते पूरी छत मुसाफिरों से भर गई.

बस चल पड़ी. मैं एक हाथ से अपना बैग और दूसरे से रेलिंग को मजबूती से थामे टूटीफूटी सड़क पर या यों कहें कि गड्ढों में बनी सड़क की बदहाली की तुलना खुद से कर रहा था.

हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ रही बस के साथ कभी बाएं तो कभी दाएं लुढ़कतेलुढ़कते बड़ी मुश्किल से खुद को संभाल रहा था.

मेरा बुरा हाल देख कर मेरे ठीक पीछे बैठे एक मुसाफिर ने मुझ से पूछा, ‘‘पहली बार छत पर बैठे हैं क्या?’’

‘‘जी, बिलकुल. मैं पहली ही बार बस की छत पर बैठ कर सफर कर रहा हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘तभी तो आप इतना परेशान हैं. कुछ नहीं होगा. आप सोच रहे हैं न कि बस उलट जाएगी… तो ऐसा सोचना बिलकुल गलत है. अरे, बस उलट कर भी कहां जाएगी? देखते नहीं कि सड़क के दोनों तरफ पेड़ लगे हैं. उलटेगी भी तो पेड़ पर अटक जाएगी.’’

उस मुसाफिर की बातों को सुन कर मेरी घबराहट कुछ कम हुई थी.

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उस आदमी ने फिर फरमाया, ‘‘यह बैग लाइए. इस को इधर बीच में रख देते हैं. तब आप दोनों हाथों से रेलिंग पकड़ कर आराम से बैठिएगा.’’

उस की बात मुझे जंच गई. मैं अभी पीछे मुड़ कर बैग उस के हाथों में थमा ही रहा था कि मेरे माथे पर कोई भारीभरकम चीज ‘खट’ से लगी.

मेरे मुंह से आह निकल गई. देखा, पेड़ की एक डाली सड़क की ओर कुछ ज्यादा ही झुकी हुई थी. वही मेरे सिर से टकराई थी.

जब मैं ने सिर का मुआयना किया, तो मालूम हुआ कि खून तो नहीं आ रहा था, मगर जिस हिस्से में चोट लगी थी, वह धीरेधीरे फूलती जा रही थी. दर्द तो जबरदस्त था, लेकिन इज्जत के मारे मैं चुप था.

एक हाथ से तो मैं अभी भी रेलिंग ही पकड़े हुए था, पर दूसरे हाथ में बैग की जगह मेरा माथा था.

बस अपनी रफ्तार से चलती जा रही थी. कुछ देर के बाद बस अचानक रुक गई. अपने ठिकाने तक पहुंचने के लिए मैं बेचैन हुआ जा रहा था.

बस से उतर कर बस का कंडक्टर चिल्लाया, ‘‘बस का एक टायर पंक्चर हो गया है. टायर बदलने में घंटाभर लगेगा.’’

कंडक्टर की बात सुन कर मेरा तो मानो दिल बैठ गया. मुसीबत की इस घड़ी में जो एक चीज मुझे तसल्ली दे रही थी, वह थी शादी में मौजमस्ती करने और ढेर सारी मिठाइयां खाने की उम्मीद.

मैं ने कहीं पढ़ रखा था कि जो चीज जितनी मुश्किल से मिलती है, वह उतनी ही मजेदार होती है.

लेकिन गड़बड़ यह थी कि मुसीबतें घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही थीं. कड़ी धूप और बस वाले के ऐलान के बावजूद कोई भी अपनी जगह से टस से मस नहीं हो रहा था. सब को यही डर था कि धूप से राहत पाने के लिए वह छत के नीचे उतरे नहीं कि उस की जगह पर दूसरे का कब्जा हो जाएगा.

सब अपनीअपनी जगह पर इस तरह बैठे हुए थे मानो उन्होंने उन जगहों को खरीद रखा हो.

मैं ने नीचे देखा तो एक डिस्पैंसरी नजर आई. मेरे माथे का दर्द अभी भी कम नहीं हुआ था. मैं ने दवा ले लेना ही ठीक समझा. अपना बैग लेने के लिए जब मैं पीछे वाले सज्जन की ओर मुखातिब हुआ तो देखा कि वे बैग को शायद गद्दा समझ कर उस पर आराम से बैठे हुए थे.

मैं ने उन से कहा, ‘‘जरा मेरा बैग लाइएगा.’’

‘‘उतरना है क्या?’’ उन्होंने पूछा.

मैं ने कहा, ‘‘जी, उतरना तो नहीं है, लेकिन बैग लाइए न.’’

उन्होंने बिना कुछ कहे मुझे बैग थमा दिया. मैं ने बैग को अपनी जगह पर रखते हुए एक दूसरे मुसाफिर से कहा, ‘‘जरा, बैग को देखते रहिएगा. मैं दवा खरीदने नीचे जा रहा हूं.’’

मुझे बैग से कहीं ज्यादा फिक्र अपनी जगह की थी. बस से उतर कर मैं ने डिस्पैंसरी से कुछ दवाएं ले कर खाईं और फिर अपनी जगह पर आ कर बैठ गया.

अब तक घंटेभर से ज्यादा समय बीत चुका था. टायर बदल दिया गया था. बस वाले ने एक आवाज दे कर बस स्टार्ट कर दी.

बस चले अभी कोई घंटाभर ही बीता होगा कि मैं ने देखा सड़क पर कुछ ज्यादा ही भीड़ हो गई थी. मालूम हुआ कि सड़क पर जाम लगा है. मैं ने अपना माथा पीट लिया.

1-2 घंटे नहीं, बल्कि पूरे 4 घंटे तक बस जाम में फंसी रही. जाम खत्म हुआ तो बस फिर चल पड़ी.

आखिरकार रात करीब 9 बजे बस अपने ठिकाने पर पहुंची. 5 घंटे का सफर पूरे 10 घंटे में तय हुआ था.

मैं बैग थामे झट से नीचे उतरा और तेज कदमों से अपनी मंजिल की ओर चल पड़ा. वहां पहुंचने के बाद हाथमुंह धोया. मैं ने चेहरा पोंछने के खयाल से तौलिया निकालने के लिए जब बैग खोला तो हैरान रह गया.

बैग में रखे मेरे सारे कपड़े और बाकी सामान गायब थे. उन की जगह चिथड़े ठूंसे हुए थे.

मैं अपनी हालत पर रोंआसा हो गया था. अब मुझे पता लगा कि बस पर वह आदमी मेरे लिए इतनी हमदर्दी क्यों जता रहा था. इधर भूख के मारे मेरा भी बुरा हाल हो रहा था.

मैं ने एक आदमी से तौलिया मांग कर चेहरा पोंछा और दावत का लुत्फ उठाने चला गया.

मुझे लग रहा था कि मैं ने जितनी तकलीफ उठाई और घाटा सहा, उस की भरपाई ये मिठाइयां शायद ही कर सकें. उलटे, मिठाइयों से चिढ़ सी होने लगी थी मुझे.

खाना खाने के बाद दिनभर की थकावट की वजह से नींद आने लगी थी. एक मेजबान से सोने की जगह के बारे में पूछा तो उस ने टका सा जवाब दे दिया, ‘‘सोने की जगह कोई तय थोड़े ही है. जहां जगह मिले सो जाओ.’’

मैं अपने सोने का इंतजाम करने लगा, पर जहां भी बिछावन नजर आता, वहां मेहमान खर्राटे लेते दिखते. ढूंढ़तेढूंढ़ते एक बिस्तर पर मैं ने देखा कि 2 आदमियों के सोने की जगह पर केवल एक आदमी सोया हुआ था.

नजदीक गया तो देखा, उस का एक हाथ उस के जिस्म से ठीक 90 डिगरी का कोण बनाए हुए बिस्तर पर पड़ा था. मैं ने जैसे ही हाथ को खिसका कर सोने की कोशिश के लिए जगह बनाई तो उस की नींद टूट गई.

वह एकदम कड़क आवाज में बोला, ‘‘यह क्या कर रहे हैं?’’

मैं ने हिम्मत बटोरते हुए कहा, ‘‘जी, मैं अपने सोने के लिए जगह बना रहा हूं. इस बिस्तर पर 2 आदमी तो आराम से सो सकते हैं.’’

‘‘2 आदमी सो तो सकते हैं, लेकिन मेरा हाथ ऐसे नहीं रहेगा न,’’ कहते हुए उस ने अपने हाथ को फैला कर पहले जैसा कर लिया.

मैं सोचने लगा, ‘अब कुछ चालाकी करने पड़ेगी,’ तभी मैं ने देखा कि एक आदमी उठ कर बाथरूम की ओर जा रहा था. ज्यों ही वह आदमी गया, मैं ने एक जगह सोए हुए 2 बच्चों को उठा कर झट से उस आदमी की जगह पर सुला दिया और बच्चों की जगह पर खुद निढाल हो कर सो गया.

सुबह नींद खुलने पर सब से पहले मैं ने अपने कपड़ों पर नजर डाली. उन की बुरी हालत देख कर मुझे लगा कि उन्हें साफ किए बिना काम नहीं चल सकता. आखिर यही तो एकलौता जोड़ा है मेरे पास और इसे ही पहन कर बरात में भी जाना है.

इधर मैं इस सोचविचार में खोया था, उधर वह आदमी, जिस की जगह पर रात मैं ने बच्चों को सुलाया था, उन बच्चों को बुरी तरह डांट रहा था, ‘‘अबे गधो, रात को मेरी जगह पर क्यों सो गए थे?’’

मैं उधर से ध्यान हटा कर फिर कपड़ों के बारे में सोचने लगा. जब यह तय हो गया कि कपड़े धोने हैं, तब एक और समस्या सामने आ गई कि इस बीच मैं पहनूंगा क्या?

बहुत सोचनेविचारने के बाद एक सज्जन मुझे अपनी फटीपुरानी लुंगी देने को तैयार हुए. मैं ने मन मसोस कर लुंगी पहनी और कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए.

अब हालत यह थी कि एक ओर जहां सारे के सारे लोग चाहे वे मेजबान हों या मेहमान, एक से एक सूटबूट में नजर आ रहे थे, वहीं दूसरी ओर मैं लुंगीगंजी में किसी फटीचर की तरह  इधरउधर टहल रहा था. बारबार देख रहा था कि कपड़े सूखे हैं या नहीं.

आखिर वह समय भी आ ही गया, जब कपड़े पूरी तरह सूख चुके थे. मैं उन्हें हाथों में लिए खड़ाखड़ा सोच रहा था कि इन में इस्तरी की जाए या नहीं. उसी समय एक मेजबान ने मुझ से पूछा, ‘‘बरात में जाने की तैयारी पूरी हो गई क्या?’’

‘‘जी, करीबकरीब पूरी हो गई है. बस, इन कपड़ों पर जरा इस्तरी करना बाकी है,’’ मैं ने कहा.

मेरी बात सुन कर उन के चेहरे पर एक अजीब सी मुसकराहट उभर आई. मुझे लगा शायद बरात जाने में बहुत कम समय बचा है, इसलिए मुझे देख कर मुसकरा रहे हैं कि मैं अभी तक पूरी तरह तैयार नहीं हो सका हूं.

मैं ने कहा, ‘‘आप मुसकरा क्यों रहे हैं? बहुत जल्दबाजी है क्या? जल्दी है तो कहिए न, मैं बिना इस्तरी किए ही इन कपड़ों को पहन कर चला जाऊंगा.’’

उन्होंने बड़े इतमीनान से फरमाया, ‘‘जल्दबाजी कैसी बरखुरदार, अब बरात जाएगी ही नहीं.’’

‘‘क्या कहा आप ने? बरात नहीं जाएगी, मगर क्यों?’’ मैं हैरान था.

‘‘वह इसलिए कि अभीअभी लड़की वालों के यहां से खबर आई है कि लड़की की दादी इस दुनिया से विदा हो गई हैं, इसलिए शादी को फिलहाल रद्द कर दिया गया है,’’ कहते हुए उस ने एक जोरदार ठहाका लगाया.

उस आदमी की बात सुन कर पहले तो मुझे समझ ही नहीं आया कि मेरे लिए यह अच्छा हुआ कि बुरा, लेकिन बाद में मैं ने राहत की सांस ली.

मैं सोच रहा था, ‘शादी का रुकना औरों के लिए भले ही लफड़ा हो, लेकिन मेरे लिए यह लफड़ा कतई नहीं है.’

मैं खुश था कि अच्छा हुआ जो  ऐसा हो गया, वरना अभी तक जो हुआ था सो तो हुआ ही, आगे भी मेरे सामने कौनकौन से लफड़े आते, पता नहीं. उन आने वाले लफड़ों के चंगुल में फंसने से मैं बच गया था.

CLICK HERE                               CLICK HERE                                    CLICK HERE

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...