लेखक-दामोदर अग्रवाल

सफलता की चरम सीमा पर पहुंच जाने के बाद आज मुझे अपनी आत्मकथा लिखते हुए चरम आनंद का अनुभव हो रहा है. मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के एक गांव में हुआ था. मेरे पिता एक कर्मकांडी ब्राह्मण थे. घर में संस्कृत की कुछ पुरानी पोथियां थीं. उन्हें मैं बारबार पढ़ता और आगे चल कर एक महान उपदेशक और महात्मा बनने की कल्पना किया करता था. उसी के फलस्वरूप आज मैं जेटयुग का महान योगी माना जाता हूं.

मेरे प्रवचनों के वीडियो और आडियो कैसेटों की मांग रहती है. टेली-विजन के धार्मिक चैनलों पर भी मेरे प्रवचन होते हैं. पैसे को मैं हाथ का मैल समझता हूं अत: उन से जो आमदनी होती है उसे मैं अपने आश्रम को दान में दे देता हूं.

भारत में मेरे आश्रम की एक शाखा अहमदाबाद में है. वहां जेटयुग के अन्य ऋषिमुनियों का भी जमघट रहता है. धर्म के धंधे की दृष्टि से यह एक अद्भुत नगरी है. दूसरी शाखा जयपुर में है. वहां का नगरसेठ मेरा परम शिष्य है. अपने अथाह धन के सदुपयोग से उस ने मेरे लिए एक और आश्रम धार्मिक नगरी बंगलौर में  बनवाया है.

इन आश्रमों की देखरेख के लिए कर्मचारियों की एक सेना भी है. नियमानु- सार वे सफेद लकदक कपड़ों में आश्रम में विचरण करते, तिलक लगाते और कंठीमाला धारण करते हैं. हाथ में एक पुस्तिका ले कर पाठ भी करते रहते हैं. भोग और प्रसाद ग्रहण करने के कुछ घंटे पहले से ही उन के उदर में गुड़गुड़ाहट होने लगती है जो इस बात का प्रतीक है कि प्रसाद पाने के लिए वे परम प्रतीक्षारत हैं.

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