ऐसी ही एक टौप क्लास तौलियाधारियों की है. पूरा जहां, जहां घर में कुरतापाजामा, लुंगी, अपरलोअर, बरमूडाटीशर्ट वगैरह पहनता हो तो पहनता रहे, अपनी बला से. हम नहीं बदलेंगे की तर्ज पर सुबह उठने के बाद और नौकरी या दुकान से घर आने के बाद ये उसी तौलिए को, जिसे नहाने के बाद इस्तेमाल किया था, लपेटे घूमते रहते हैं. इसी तौलिए को लपेटेलपेटे ये रात को नींद के आगोश में चले जाते हैं.
आप सोचते होंगे कि तौलिया अगर सोते समय खुल जाता होगा तो बड़ी दिक्कत होती होगी? जिसे आजकल की भाषा में ऊप्स मूमैंट कहते हैं. सोते समय तौलिया खुल जाए तो खुल जाए, क्या पता चलता है. वह तो जब कोई सुबहसवेरे दरवाजे की घंटी बजा दे और ये अलसाए से बिस्तर से उठें तब जा कर पता चलता है कि तौलिया तो बिस्तर की चादर से गलबहियां करे पड़ा है. तब वे जल्दी में तौलिए को लपेट दरवाजा खोलने आगे बढ़ते हैं.
वैसे भी सोते समय क्या, यह तौलिया किसी भी समय, खिसकते समय की तरह जब चाहे कमर से खिसक जाता है और ये उसे बारबार संभालते देखे जा सकते हैं. लेकिन ये तौलिया टाइप वाले भाईजी लोग बड़े जीवट होते हैं. भले ही ये बड़े अफसर हों, नेता हों या बड़ेछोटे कारोबारी हों, तौलिए से अपना लगाव नहीं छोड़ पाते हैं.
मैं तो अपने पड़ोस में एक मूंदड़ाजी को जानता हूं. बाजार के बड़े सेठ हैं, लेकिन बचपन से ही उन को जो तौलिए में देखता आ रहा हूं तो आखिरी समय में भी तौलिए में ही देखा. बाद में घर वालों को पता नहीं क्या सू झा कि तौलिया रूपी कफन में ही उन का दाह संस्कार कर दिया गया. शायद कहीं वसीयत में उन की आखिरी इच्छा ही यह न रही हो?
मेरा बचपन से जवानी का समय उन के तौलिए में ही लिपटेलिपटे कट गया. उन की पत्नी और बच्चों ने कई बार कोशिश की थी कि वे कुरतापाजामा नहीं तो कम से कम लुंगीबंडी अवतार में आ जाएं, लेकिन वे नहीं माने तो नहीं माने. बोले, ‘यह हमारी परंपरा है. हमारे पिता और उन के पिता भी इसी तरह से रहते थे.’
वे आगे गर्व से दलील देते हैं कि गरमी प्रधान इस देश में तौलिए से अच्छा व आरामदायक और कोई दूसरा कपड़ा नहीं है. वे यह भी बताने लगते हैं कि अगर एक आदमी साल में 2 जोड़ी कुरतापाजामा या लुंगी लेता हो, तो उन पर कम से कम 1,000 रुपए का खर्चा आता है और उन्होंने जब से होश संभाला है, तब से तौलिए से ही काम चला
रहे हैं, तो सोचें कि 40-50 सालों में 50,000 रुपए तो बचा ही लिए होंगे. वाह रे परंपरा के धनी आदमी, वाह रे तेरा गणित.
हम तौलिए में ही अपना यह पूरा लेख नहीं लपेटना चाहते. महज तौलिए की ही बात से तो कई पाठक भटकाव के रास्ते पर चले जाएंगे. कई हिंदी फिल्मों के सीन दिमाग पर छा जाएंगे कि कैसे किसी छरहरी हीरोइन के गोरे व चिकने बदन से तौलिया आहिस्ता से सरका था.
चाहे फिल्म का कोई सीन हो या कोई रोमांटिक गाना हो, जो बाथरूम में फिल्माया गया हो या बाथरूम से मादक अदाओं के साथ बाहर निकलती हीरोइन पर फिल्माया गया हो, दोस्तों की कही इसी बात पर तो फिल्म को देखने हम लोग दौड़े चले गए थे.
दूसरी ओर तौलिया नापसंदधारी टाइप सज्जन भी होते हैं. ये धारी वाला कच्छा पहन कर ही सुबह से देर रात तक घरआंगन, बाहर, बाजार, पड़ोस में दिखते रहते हैं.
हां, इस क्लास में हर चीज की तरह थोड़ा विकास यह हुआ है कि कुछेक धारीदार कच्छे में नहीं तो पैंटनुमा अंडरवियर में ही अब घर के अंदरबाहर होते रहते हैं. कुछ तो इन में इतने वीर हैं कि अपनी दुकान में भी इस परंपरागत कपड़े में ही काम चला लेते हैं. जो नहाधो कर शरीर पर तो एक कच्छा और एक बनियान चढ़ाई रात तक का काम हो गया. अल्प बचत वालों को अगर बचत सीखनी है तो इन से सीखें. लोग साल में 4 जोड़ी कपड़े खरीदते हैं तो ये 4 जोड़ी कच्छेबनियान खरीदते हैं.
आइए, अब आते हैं अगले परंपरागत संस्कारी पर. ये स्वच्छता अभियान को झाड़ू लगाने वाले लोग हैं. ये कहीं भी हलके हो लेते हैं. ये वे लोग हैं, जो घर के बाहर की ही नाली में परंपरागत आत्मविश्वास से मूत्र त्याग करने का लोभ छोड़ नहीं पाते हैं. इस काम में वे पता नहीं क्यों गजब की ताजगी महसूस करते हैं.
डीएनए जोर मारने लगता है तो वे क्या करें? कितने भी धनी हों, इन्हें इस बात से बिलकुल भी िझ झक नहीं होती कि वे कहां खड़े हो कर या बैठ कर मूत्र विसर्जन कर रहे हैं.
यह तो साफ है कि अगर ये धोती, लुंगीधारी या तौलियाधारी हैं तो बैठ कर और पैंटकमीज में हों तो खड़े हो कर धारा प्रवाह हो जाते हैं, इसीलिए शायद ऐसे लोगों का पैंटकमीज से छत्तीस का आंकड़ा रहता है.
एक और परंपरागत जन हमारे यहां पाए जाते हैं. डायनासौर भले ही लुप्त हो गए हों, लेकिन ये सदियों से पाए जाते रहे हैं और कभी लुप्त नहीं होने वाले.
ये बस में हों, रेल में हों, बाजार में हों, आप से बात कर रहे हों, न कर रहे हों, इन का हाथ बराबर उन की एक पसंदीदा जगह पर पहुंच जाता है और अपने इस अनमोल अंग को चाहे जब अपनेपन से छू लेता है, सफाई से मसल लेता है.
आप किसी शराबी की शराब छुड़वा सकते हैं, लेकिन इन के हाथ को वहां जाने से नहीं रोक सकते. यकीन न हो तो ऐसे किसी सज्जन पर प्रयोग कर के देख लें. हां, सब के खाते में 1-2 पड़ोसी दोस्त ऐसे होते ही हैं. जैसे आदमी अपनी पलकें अपनेआप झपकाता रहता है, वैसे ही इन का हाथ भी अपनेआप अपनी पसंदीदा जगह पर वजह या बेवजह पहुंचता रहता है. इन के बड़े पहुंच वाले लंबे हाथ होते हैं.
अब वक्त हो गया है, दूसरे परंपरागत जन की तरफ जाने का. ये कहीं भी खड़े हों, कुछ भी कर रहे हों, लेकिन खखारना नहीं छोड़ते. मौका मिलते ही गले को साधा, बजाया और थूका. पार्क में घूम रहे हों, कार, स्कूटर, साइकिल पर जा रहे हों, दफ्तर में बैठें हों, बस जब इच्छा हुई थूक दिया.
यह सीन तब और भी ज्यादा कलरफुल हो जाता है, जब ये पानतंबाकू चबाने के शौकीन हों. तब ये अपने आसपास की जगह के साथ हर रोज ही मुंह से होली खेलते रहते हैं.
गंगू ने तो अभी आप को केवल 4 जनों की क्लास बताई है, बाकी बाद में. नहीं तो आप अपनी संस्कृति पर गर्व करने लगेंगे और ‘गर्व से कहो हम भारतीय हैं’ कहने से खुद को रोक नहीं पाएंगे.