साल 1913 में जब पहली बार दादा साहब फालके ने फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी, तब देश अंगरेजी हुकूमत के अधीन था. उस समय देश की जनता के लिए अंगरेजी हुकूमत के साए में फिल्में देखना आसान नहीं था. चूंकि ‘राजा हरिश्चंद्र’ एक मूक फिल्म थी, इसलिए दर्शकों को समझाने के लिए दादा साहब फालके ने इस फिल्म के दृश्यों के साथ शब्दों का इस्तेमाल किया था, जो देश की 3 भाषाओं में थे.
इसी दौर में हिंदुस्तानी सिनेमा ने पहली बार बोलना भी सीखा था. यह दिन था शनिवार और तारीख थी 14 मार्च, 1931. इस पहली बोलती फिल्म का नाम था ‘आलम आरा’, जो मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमाघर में रिलीज हुई थी.
साल 1947 में जब देश को आजादी मिली, तो इसी के साथ देश की सभी चीजों को आजादी मिलती गई. इस के बाद देश में हिंदी भाषा में एक के बाद एक कई फिल्में बनीं और कामयाब भी हुईं.
उस समय भोजपुरी बोलने वाले दर्शकों की तादाद ज्यादा थी, इसलिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की फिल्मों के संवादों में कुछ हिंदीभोजपुरी के शब्द मिले होते थे. लेकिन पूरी तरह से भोजपुरी सिनेमा बनाने का आगाज तब भी नहीं हो रहा था. भोजपुरी फिल्मों का आगाज
आजादी के बाद भोजपुरी बैल्ट के दर्शकों में भोजपुरी बोली में फिल्म की डिमांड बढ़ती जा रही थी. यह बात किसी तरह उस समय के राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद के कानों तक पहुंच गई. वे बिहार के एक गांव से ताल्लुक रखते थे, इसलिए उन की भोजपुरी में खासा दिलचस्पी थी. ऐसे में उन्होंने
60 साल पहले भोजपुरी में सिनेमा निर्माण की पहल भी खुद शुरू की, जिस का नतीजा यह रहा कि देश की पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ बनी.
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