मृत्युभोज जैसी कुरीति को मात्र सामाजिक बुराई मानकर टालना जायज नहीं है. यह एक आर्थिक बर्बादी का बहुत बड़ा कारण है. गरीब परिवारों की तीन-तीन पीढियां इससे बर्बादी की कगार पर पहुंच जाती है.मृत्युभोज के खर्चे से बच्चों के अरमानों, मां-बाप के सपनों का कत्ल हो जाता है.जब एक पीढ़ी शिक्षा से वंचित हो जाती है तो उसका खामियाजा अगली तीन पीढ़ी भुगतती है.एक बड़ा तरक्की का जनरेशन गैप हो जाता है.

मृत्युभोज का खर्च बाकी बुनियादी जरूरतों पर होने वाले खर्च पर पाबंदियां लगा देता है.बुजुर्गों के इलाज में कोताही का कारण बन जाता है.जब कोई बुजुर्ग बीमार होता है और इलाज का बजट सामने आता है तो परिवार वालों के सामने सबसे पहले बड़ा संकट यही उभरकर सामने आता है कि इलाज पर पैसे खर्च करें व अगर नहीं बच पाया तो फिर मृत्युभोज के खर्च का इंतजाम कहाँ से होगा?ऐसे में मन मारकर परिवार वाले न्यूनतम खर्चे में इलाज करवाने का दिखावा मात्र करने को मजबूर हो जाते है.

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यह कोई सांस्कृतिक विरासत नहीं है और न धार्मिक रीति-रिवाज.यह पाखंड व बाजारवाद का गैर-मानवीय संगम है जो इंसानियत का कत्ल करके धंधे का स्वरूप लिए हुए है.एक परिवार की बर्बादी पर व्यापार होता है.रूसो ने कहा था “इंसान इतना भी अमीर नहीं होना चाहिए कि वह दूसरे इंसान को खरीद सके और इतना भी गरीब नहीं होना चाहिए कि खुद को बेचने के लिये मजबूर हो.”यहां सामाजिक बंधन या अनिवार्यता बताकर मानसिक दबाव के तहत इंसान को इतना मजबूर कर दिया जाता है कि वह खुद को बिकाऊ समझ बैठता है और चंद लोग अपने हिसाब से उसकी कीमत तय कर देते है.

तमाम मूढ़ बनी परंपरा के पीछे खड़े बेगैरत लोगों के बीच भी इंसानियत को जिंदा करने की एक खबर सामने आई है.समाज के गय्यूर नौजवानों व इज्जतदार बुजुर्गों ने एक नया चिराग दिखाया है.

मृत्युभोज जैसी विकराल कुरीति के पर कोरोना ने कतरकर सीमित कर दिए है और हमारा थोड़ा सा प्रयास इसको विदाई दे सकता है.उम्मीद की जानी चाहिए कि इस कुरीति के खिलाफ जिन जागरूक समाज बंधुओं ने जागृति की अलख जगाई वो रंग लाने लगी है.हमारे से पहले भी जागरूक बुजुर्गों ने कई प्रयास किये.हम भी पूर्ण पाबंदी की मुहिम चला रहे है और कई युवा लोग आगे आकर विभिन्न इलाकों में प्रयास कर रहे है.एक सामूहिक व सतत प्रयास जल्द ही इस बुराई से मुक्ति की राह दिखायेगा.

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कोरोना के बाद भयंकर आर्थिक मंदी उभरकर सामने आएगी और हमारे सामने भूख सबसे बड़ा मुद्दा होगा.इसलिए ऐसी गैर जरूरी कुप्रथाओं पर अभी लगाम लगा दोगे तो बचने के बेहतर अवसर उपलब्ध रह जाएंगे.पढ़े-लिखे हम जागरूक युवाओं का दायित्व बनता है कि इस संकट की घड़ी में हालातों को भांपते हुए समझाइश करें व इस सामाजिक कलंक से पीछा छुड़ाएं.

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