रोहित

यह दोहा 14वीं ईसवी में उत्तर प्रदेश के काशी (बनारस) में जनमे संत रविदास का है. वही रविदास, जो अपने तमाम कथनों में धर्म की जगह कर्म पर विश्वास करते थे और पाखंड के खिलाफ थे. आज की भाषा में अगर उन्हें धार्मिक कट्टरवाद और पोंगापंथ के खिलाफ एक मिसाल माना जाए तो गलत नहीं होगा.

इस दोहे में भी रविदास साफ शब्दों में कहते हैं कि न मुझे मंदिर से कोई मतलब है, न मसजिद से, क्योंकि दोनों में ईश्वर का वास नहीं है.

रविदास निचली जाति से संबंध रखते थे और जूते सिलने का काम करते थे. उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी, जहां शोषण, अन्याय और गैरबराबरी पर आधारित समाज नहीं होगा, कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं होगा और न ही वहां कोई छूतअछूत होगा. अपने इस समाज को उन्होंने बेगमपुरा नाम दिया, जहां कोई गम न हो.

समयसमय पर संत रविदास जैसे महापुरुष धर्म पर आधारित सत्ता और पाखंड को चुनौती देते रहे और उन से प्रेरणा लेने वाली दबीशोषित जनता इन पाखंडों के खिलाफ खड़ी होती रही.

जैसे अपनेअपने समय में बुद्ध, कबीर और रविदास ने ब्राह्मणवाद को चुनौती दी, ऐसे ही आधुनिक काल में अय्यंकाली, अंबेडकर और कांशीराम जैसों ने भेदभाव की सोच को इस तरह खारिज किया, जिस से दलितपिछड़ों की आवाज सुनी और बोली जाने लगी.

इतने सालों की कोशिशों और टकरावों के बाद एक ऐसा समय भी आया, जब भले ही दलितपिछड़ों की हालत में बड़ा बदलाव न आया हो, पर देश की राजनीति से ले कर सत्ता तक इन जातियों के प्रतिनिधि संसद, विधानसभा में तो पहुंचे ही, साथ ही सरकार बनाने में भी कामयाब रहे, लेकिन आज हालात वापस पलटते दिखाई दे रहे हैं.

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