गुलामी के दिनों में भी लोग काम करते ही हैं. यह प्रकृति की जरूरत है कि हर जीव किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश करे चाहे उसे आजादी के साथ रहना नसीब हो, मनचाहे लोगों के बीच में रहने को मिले, जुल्म करने वालों की गुलामी सहते हुए रहना पड़े या जंगलों में लगभग अकेले हरदम खतरों के बीच रहना पड़े. यही वजह है कि लाखों नहीं, करोड़ों लड़कियां घरवालों की जबरदस्ती के कारण ऐसों से शादी कर लेती हैं जिन्हें शादी के पहले नापसंद करती थीं, फिर वर्षों उन के साथ निभाती हैं और बच्चे तक पैदा करती हैं.
आज की सरकार हूणों, शकों, तुर्कों, मुगलों, अंगरेजों से बेहतर हो या न हो, लोग काम तो करते ही रहेंगे. चाहे जितनी महंगाई हो, जितने पैट्रोल के दाम बढ़ें, जितनी नौकरियां छूटें या न मिलें, वे कुछ न कुछ जुगाड़ कर पेट भरते और तन ढकने के लायक पैसा जुटा ही लेते हैं. जब देश के 130 करोड़ लोग ऐसा करेंगे तो सरकार के हिसाब से देश में प्रोडक्शन भी होगा और बिजनैस भी चलेगा.
यह मनचाहा है, इसे जानने का आज कोई तरीका नहीं है पर जब एक सरकारी नौकरी के लिए लाखों एप्लीकेशंस आ रही हों तो साफ है कि देश के युवा जिस तरह की सैलरी वाली नौकरी चाह रहे हैं, वह नहीं लग रही या नहीं मिल रही.
सरकार भले कहती रहे कि उस का जीएसटी का कलैक्शन बढ़ गया और इस का मतलब है कि देश में व्यापार व उत्पादन बढ़ा है. असल में स्थिति इस के उलट है. 18वीं व 20वीं सदी में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था. एक बार ईस्ट इंडिया कंपनी के दौरान और दूसरी बार सीधे ब्रिटेन के शासन के अधीन. दोनों बार अंगरेज देश से बहुत ज्यादा पैसा ले गए. पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने ज्यादा बोनस अपने शेयरहोल्डरों को दिया जबकि दूसरी बार ब्रिटेन ने हिटलर से लड़ाई में ज्यादा सेना झोंकी और भारत के लोग भूखे मरते रहे.
देश में आज पैसे की किल्लत कैसी है, यह गंगा में बहाए शवों से पता चला है. जब सरकार ज्यादा कर वसूलने के ढोल बजा रही थी तो खांसी और सांस की बीमारी से गांवों में लोग मर रहे थे. वे कोविड से नहीं मर रहे थे क्योंकि गांव में न कोविड टैस्ंिटग सैंटर हैं न औक्सीजन देने वाले अस्पताल.
बड़े अफसोस की बात है कि जैसे तुलसीदास मुगलों के शासन के दौरान रामभजन की वकालत करते रहे, तकरीबन वैसे ही हमारे युवा इन दिनों टिकटौक जैसे शौर्ट वीडियो बना कर फालतू में जंगली पौधों की तरह उग रहे एप्स पर डाल रहे थे. लोगों की सेवा करने के बजाय उन्हें फिक्र अपने लाइक्स और फौलोअर्स की रही. यह एक समाज के सड़ जाने की निशानी है जो सामूहिक परेशानी में भी केवल सैकड़ों रुपए के सुख के लिए कीमती समय, पैसा और तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है.
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