5 राज्यों के चुनाव जो नवंबरदिसंबर में होंगे 2019 की दस्तक देंगे. कांग्रेस के लिए तो नहीं पर नरेंद्र मोदी के लिए ये बड़े इम्तिहान हैं. एक तरफ पैट्रोल के दाम बढ़ने से जनता खाने को तैयार बैठी है तो दूसरी ओर दलित सवर्णों की धौंसबाजी से परेशान हैं. मुसलिम वोट तो पहले भी भाजपा को नहीं जाते थे पर अब सवाल उठ रहा है कि दलितों को मनाने के लिए जो कदम उठाए जा रहे हैं उन से ऊंची जातियां ही नाराज न हो जाएं.
देश की हालत पतली है, यह पक्का है. 2014 में जो उम्मीद जगी थी वह तो अब धुल चुकी है. आस है तो यही कि कांग्रेस अकेले अपने दम पर कुछ नहीं कर पाएगी और मायावती व अखिलेश यादव भाजपा के खिलाफ वोटों का बंटवारा कर के भाजपा को आखिर में जिता ही देंगे.
देश को ऐसी सरकार चाहिए जो चले. आम आदमी बेहतर जिंदगी चाहता है पर इस का फार्मूला किसी के पास नहीं है. कांग्रेस कहे कि उस का राज बेहतर होगा इस की कोई गारंटी नहीं है. सरकारों का रवैया एक तरह का हो गया है कि जहां चोट लगे वहीं मरहमपट्टी कर दो. चोट लगी ही क्यों इस पर सोचने और करने को तैयार नहीं.
नरेंद्र मोदी अगर आम लोगों की निगाह में खरे नहीं उतरे तो इसलिए कि उन्होंने सरकार चलाने का जो ब्लूप्रिंट दिया वह सिर्फ मंचों और फीते काटने तक रह गया.
बैंक फेल से न हों. सड़केंसुरंगें बनाने वाली कंपनियां दीवाला न पीटें. स्टील मिलें बंद न हों. नौकरियां कम न हों. पढ़ाई खराब न हो. जनता को सड़क पर निकलने में डर न लगे. कल क्या होगा, इस की चिंता न हो. यह नरेंद्र मोदी की सरकार न कर पाई.
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