दलित तबका सामाजिक तौर पर भले ही हाशिए पर हो, पर राजनीतिक रूप से वह सत्ता हासिल करने का जरीया बन सकता है. यही वजह है कि हर राजनीतिक दल दलितों का करीबी दिखने की होड़ में लगा है.
लोकसभा की 544 सीटों में से 131 सीटें दलित तबके के लिए रिजर्व्ड हैं. साल 2014 में भाजपा को मिली कामयाबी में भी दलित तबके का खास हाथ था. तब लोकसभा की 131 रिजर्व्ड सीटों में से 65 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी.
2019 के आगामी लोकसभा चुनाव में ये सीटें काफी खास हैं. भाजपा का इन रिजर्व्ड सीटों पर प्रदर्शन दोहरा पाना मुश्किल है. भाजपा का साथ दे कर दलित नेता उदित राज, सावित्री बाई फुले, रामदास अठावले और रामविलास पासवान काफी हद तक अपनी पुरानी इमेज को खो चुके हैं. अब दलित तबके में उन की पुरानी साख नहीं रह गई है.
लिहाजा, दलित नेताओं में मायावती खुद को मजबूत विकल्प के रूप में सामने रख कर दलित वोट बैंक को दोबारा खुद से जोड़ने की कवायद में जुट गई हैं.
दलित तबके को एक मजबूत नेता के साथ जुड़ कर ही अपना भला होता दिखता है. ऐसे में बसपा ने मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना शुरू कर दिया है.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में कार्यकर्ता सम्मेलन का आयोजन कर इस बात को समझाया गया. इस सम्मेलन में बसपा प्रमुख मायावती शामिल नहीं थीं. वहां पार्टी के महासचिव और कोऔर्डिनेटर वीर सिंह समेत कई बड़े नेताओं ने मायावती को प्रधानमंत्री बनाने की बात कही.
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और जोनल कोऔर्डिनेटर जय प्रकाश सिंह ने भीम आर्मी जैसे दूसरे दलित संगठनों को मायावती का साथ देने की बात कही.
जय प्रकाश सिंह ने अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘गब्बर’ कह दिया. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी पर भी टिप्पणी कर दी. सम्मेलन के बाद मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया गया.
लोकसभा चुनावों को ले कर बसपा बूथ लैवल पर अपनी रणनीति तैयार कर चुकी है. वह चाहती है कि नेताकार्यकर्ता बिना किसी प्रचार के काम करते रहें. प्रमोशन में रिजर्वेशन और दलित ऐक्ट के सहारे बसपा दलितों को एकजुट करने का काम कर रही है.
बसपा का कैडर अपने वोट बैंक को यह समझाने का काम कर रहा है कि रिजर्वेशन तब तक है, जब तक मायावती और बसपा मजबूत रहेगी, इसलिए बसपा के लोग मायावती को देवी तक बताने का काम कर रहे हैं.
लेकिन मायावती को लगता है कि इन बातों का विरोधी दुष्प्रचार न करने लगें इसलिए वे इन बातों को मीडिया से दूर रखने की बात कर रही हैं. वे नहीं चाहती हैं कि उन के प्रचार की बातें मीडिया और विपक्षी लोगों में जाएं.
भाजपा का दुष्प्रचार
कार्यकर्ता सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के खिलाफ टिप्पणी करने वाले राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और जोनल कोऔर्डिनेटर जय प्रकाश सिंह को मायावती ने बसपा से बाहर कर दिया. बसपा ने रामजी गौतम को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया.
बसपा प्रमुख मायावती को सोशल मीडिया पर हुआ प्रचार भी पसंद नहीं आया. बसपा ने इसे अपनी पार्टी के खिलाफ दुष्प्रचार मानते हुए गलत बताया. यही नहीं, बसपा ने साफ कर दिया है कि सोशल मीडिया पर वे सक्रिय नहीं हैं.
मायावती ने पार्टी कार्यकर्ताओं को बताया कि उन को किसी तरह के दुष्प्रचार का हिस्सा नहीं बनना है. इस वजह से मीडिया में किसी भी तरह की बयानबाजी पर भी रोक लगा दी गई.
मायावती ने कहा कि चुनावी तालमेल जैसे संवेदनशील मुद्दों पर पार्टी पदाधिकारी कुछ न बोलें. इस तरह की किसी भी टिप्पणी को अनुशासनहीनता माना जाएगा. पार्टी हाईकमान ही इस बारे में आखिरी फैसला करेगा.
दरअसल, मायावती की असली चिंता भाजपा का काम करने का तरीका है. भाजपा के पास किसी भी बयानबाजी पर पलटवार करने की ताकत है. भाजपा का प्रचारतंत्र केवल अपनी पार्टी के नेताओं की इमेज को निखारने का काम ही नहीं करता है, बल्कि वह दूसरे दलों का दुष्प्रचार भी करता है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ‘पप्पू इमेज’ इस का बेहतर उदाहरण है. सपा नेता अखिलेश यादव को ‘टोंटी चोर’ प्रचारित किया गया.
मायावती खुद और बसपा को इस तरह के दुष्प्रचार का मौका नहीं देना चाहतीं. इस वजह से उन्होंने अपने नेताओं को चुप रहने की सीख दे दी है.
मायावती ने कार्यकर्ताओं से कहा है कि भाजपा ने राजनीतिक वातावरण को काफी खराब कर दिया है. यह पार्टी लांछन वाली राजनीति करने पर उतारू है. ऐसे में जरूरी है कि बसपा के नेता और कार्यकर्ता बोलने में संयम बरतें. बसपा की पहचान सेना की तरह अनुशासन में बने रहने की है. इस के जरीए ही बाबा साहब के सपनों को पूरा किया जा सकता है.
प्रधानमंत्री बनने का सपना
मायावती के मन में प्रधानमंत्री बनने का सपना साल 2009 के लोकसभा चुनाव से पल रहा है. तब बसपा के महासचिव सतीश मिश्रा ने इस की कोशिश भी शुरू की थी. पर तब लोकसभा में बसपा को मनचाही कामयाबी नहीं मिली थी. तब कांग्रेस ने बसपासपा को साथ ले कर डाक्टर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया था और 2014 तक सरकार चलाई थी.
साल 2019 के आगामी लोकसभा चुनाव में जब बसपा नेताओं ने मायावती को प्रधानमंत्री बनने का सपना दिखाया तो वे सचेत हो गईं. उन को लगा कि कहीं भाजपा इस को आधार बना कर दूसरे दलों से दूरियां न बना दे.
ऐसे में मायावती ने अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को कहा है कि वे इस तरह का प्रचार न करें.
दरअसल, मायावती को यह पता है कि चुनाव से पहले इस तरह की बातोेंसे कोई फायदा नहीं होगा, उलटे नुकसान होने का डर ज्यादा है.
साल 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए बहुत अहम है. उत्तर भारत के राज्यों में उस को अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा पाना मुमकिन नहीं दिख रहा है. ऐसे में बहुमत की सरकार बनाने की उम्मीद कम है.
कांग्रेस भी तालमेल की राजनीति पर जोर दे रही है. ऐसे में प्रधानमंत्री बनने का सपना दल के सांसदों की तादाद के बल पर निर्भर करेगा.
इस के अलावा 2 बड़े दलों के रूप में भाजपा और कांग्रेस उभरेंगी. ऐसे में प्रधानमंत्री पद पर मुख्य रूप से दावा इन दलों का ही रहेगा.
यह भी मुमकिन है कि बड़े दलों का खेल बिगाड़ने के नाम पर तीसरे दल के नेता को प्रधानमंत्री बना दिया जाए. चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल और देवगौड़ा इस तरह के समीकरण से ही देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं.
मायावती को लगता है कि अगर अभी से कार्यकर्ता उन को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कहेंगे तो विरोधी सचेत हो जाएंगे और उन के खिलाफ रणनीति बनाने में कामयाब हो जाएंगे.
यह बात जरूर है कि 2009 के लोकसभा चुनाव से 2019 का लोकसभा चुनाव अलग होगा. मायावती इस बार पहले वाली गलती नहीं करना चाहती हैं. वे उत्तर प्रदेश से बाहर भी अपना जनाधार बढ़ाना चाहती हैं. ऐसे में वे कांग्रेस के साथ तालमेल का फैसला भी कर सकती हैं.
मायावती उत्तर प्रदेश में भले ही मजबूत हों पर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में बसपा का जनाधार नहीं है. यह बात जरूर है कि इन राज्यों में दलित वोट बैंक है. अब बसपा इस जनाधार को अपने कब्जे में कर संसद में अपनी तादाद को बढ़ाना चाहती है. संसद में संख्या बल ही प्रधानमंत्री बनने का उन का सपना पूरा कर सकता है.
दलित वोट बैंक का गणित
लोकसभा के पिछले चुनाव के आंकड़ों को देखें तो रिजर्व्ड सीटों पर सब से बेहतर प्रदर्शन भाजपा का रहा है. उत्तर प्रदेश में 17 रिजर्व्ड सीटों पर भाजपा ने कब्जा जमाया था. देशभर की 131 सीटों में से 65 सीटें भाजपा ने जीती थीं. बसपा को अब भाजपा से दलित वोट बैंक को वापस लेना है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दलित वोट निर्णायक हैं. ऐसे में अगर बसपा ने इन 3 राज्यों के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर लिया तो लोकसभा चुनाव में उस का भाव बढ़ जाएगा.
मध्य प्रदेश की 35 फीसदी आबादी दलित व आदिवासी है. यहां लोकसभा की 10 सीटें रिजर्व्ड हैं. छत्तीसगढ़ में 43 फीसदी आबादी दलित और आदिवासी है. यहां लोकसभा की 5 सीटें रिजर्व्ड हैं. राजस्थान में 29.8 फीसदी दलित व आदिवासी आबादी और 7 सीटें रिजर्व्ड हैं. ऐसे में इन 3 राज्यों में 22 सीटें रिजर्व्ड हैं. अगर कांग्रेस और बसपा यहां तालमेल कर बेहतर प्रदर्शन कर लेती हैं तो भाजपा को कड़ी चुनौती दी जा सकती है.
पत्रकार पारस अमरोही कहते हैं, ‘‘भाजपा गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में 72 लोकसभा की सीटें जीती थीं जो अब घट कर 69 रह गई हैं. लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में ही सब से ज्यादा 80 सीटें हैं. मोदीयोगी की खोती चमक और सपाबसपा गठबंधन की राजनीति से भाजपा को 30 से ज्यादा सीटें मिलना मुश्किल है. ऐसे में केवल उत्तर प्रदेश में भाजपा से 40 सीटों का सीधा नुकसान दिख रहा है.
‘‘उत्तर भारत के हिंदीं बोली वाले राज्यों में ही नहीं, बल्कि महाराष्ट्र और गुजरात में भी भाजपा को नुकसान होना तय है. इन राज्यों के नुकसान को पूरा करने के लिए किसी भी प्रदेश में कमी पूरी होती नहीं दिख रही है.
‘‘भाजपा कांग्रेस का मुकाबला तो भले ही कर ले पर क्षेत्रीय दलों को टक्कर देने में वह पीछे दिख रही है. यहीं से यह संभावना बनती है कि कर्नाटक की तरह कांग्रेस भाजपा केंद्र में सरकार बनाने से रोकने के लिए क्षेत्रीय नेता को प्रधानमंत्री बनाने में आगे आ सकती है. इस में मायावती की संभावना ज्यादा प्रबल दिखती है.’’