उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत को जहां एक ओर नए समीकरण के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर आम मुसलिमों के मन में इस पार्टी को ले कर डर और शक बढ़ता जा रहा है. सियासी तौर पर मुसलिमों की ताकत कैसे बढ़े, इस पर भी कोई गंभीर बहस होती नहीं दिखाई पड़ रही है. इस वजह से यह सवाल और भी अहम हो रहा है कि क्या आने वाले दिनों में भारत में मुसलिम सियासत का रोल न के बराबर हो जाएगा? क्या उन के बिना भी सियासी पार्टियां सत्ता तक पहुंच सकेंगी?
साल 2014 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के लैवल पर इस तरह का नमूना देखने को मिला था और साल 2017 के विधानसभा चुनावों में भी कुछ ऐसा ही नजारा दिखाई पड़ा है. यहां मुसलिम बहुल 140 सीटों में 20-30 फीसदी मुसलिम हैं, जिन में से महज 24 सीटों पर मुसलिम उम्मीदवार कामयाब हुए हैं, जबकि 82 सीटें मुसलिम वोटों के बंटने के चलते भारतीय जनता पार्टी के खाते में चली गईं.
यहां बुनियादी सवाल मुसलिम वोटों की ताकत का है. कहा जाता है कि ये जिस तरफ जाएंगे, जीत उसी की होगी, जो इन चुनावों में सचाई से परे साबित हुआ.
बाबरी मसजिद मामले के बाद मुसलिम कांग्रेस से नाराज थे. साथ ही, भाजपा से भी उन की दूरी थी. तीसरा मोरचा उन की पहली पसंद था, लेकिन तीसरे मोरचे की सियासत ज्यादा दिनों तक नहीं चली और मुसलिम वापस कांग्रेस में चले गए.
तब सवाल उठा था कि कांग्रेस में ऐसी क्या तबदीली आई है कि मुसलिम नेतृत्व द्वारा उस को माफ कर उस के हक में मुसलिमों को खड़ा किया जा रहा है?
उस समय ‘टैक्टिकल वोटिंग’ की शब्दावली सामने लाई गई, जिस का मतलब यह था कि जिस सैकुलर पार्टी का उम्मीदवार भाजपा को हराने की ताकत रखता हो, मुसलिम उस के हक में वोट करें. इसे कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा नेगेटिव सोच से ग्रसित वोटिंग कहा गया.
जब इस शब्दावली को मुसलिमों से परिचित कराया गया था, उस समय से ले कर आज तक इस सवाल का जवाब नहीं मिला है कि इस शब्दावली के इस्तेमाल से किस को कितना फायदा हुआ? क्या मुसलिमों की राजनीतिक ताकत बढ़ी या जिस के विरोध में यह मुहिम चलाई गई, उस के हक में माहौल बना? यह एजेंडा किस का था? अगर यह मुसलिम नेतृत्व का था, तो क्या वह इस की नाकामी पर विचार करने के लिए तैयार है? अगर ऐसा नहीं है, तो क्या यह आरोप सही है कि यह भाजपा का एजेंडा है, जिस का शिकार सीधेतौर पर मुसलिम नेतृत्व हुआ है?
जहां तक उत्तर प्रदेश में मुसलिम वोटों के बंटने या कोई असर न छोड़ पाने की बात है, तो यह बात सभी कह रहे हैं कि सैकुलर पार्टियों के चलते मुसलिम वोट बंटे हैं, क्योंकि इन सैकुलर पार्टियों ने मुसलिम बहुल इलाकों से मुसलिमों को अपना उम्मीदवार बनाया था. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों के मुसलिम उम्मीदवार एकदूसरे के खिलाफ चुनावी मैदान में थे और कई जगहों पर तो 4-4 मुसलिम उम्मीदवार मुकाबले में थे, जबकि भाजपा ने किसी भी मुसलिम को टिकट न दे कर अपनी नीति साफ कर दी थी.
इस सूरतेहाल से वोटर समझ नहीं पाए और भाजपा यही चाहती थी कि मुसलिम वोटर कुछ न समझें और उन के वोट बंट जाएं, जिस से उस की जीत पक्की हो सके.
भाजपा इस मिशन में पूरी तरह कामयाब रही. समाज के अलगअलग तबकों को अपने साथ जोड़ते हुए वह उन्हें यह समझाने में कामयाब रही कि अखिलेश मुसलिमपरस्त हैं, मुलायम सिंह यादव कारसेवकों पर गोली चलवा कर अपनी हिंदू विरोधी सोच का परिचय दे चुके हैं. मायावती को भी मुसलिमों का हमदर्द बताया, जिस का सुबूत उन के द्वारा इस चुनाव में एक सौ मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट दिया जाना है. भाजपा ही बहुसंख्यक तबके यानी हिंदुओं की रक्षक है, इसलिए उस को मजबूत करना समय की पुकार है.
आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलीमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी पर वोट काटने का आरोप तो नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि उन्होंने सिर्फ 38 उम्मीदवारों को ही टिकट दिया और वे सभी हार गए, जबकि उन्हें 2 हजार से 4 हजार वोट ही मिले. सिर्फ संभल में शफीकुर्रहमान बर्क के पोते को 60 हजार वोट मिले, लेकिन उस की वजह मजलिस नहीं, बल्कि उन के दादा और खुद उन का काम है.
असदुद्दीन ओवैसी इलैक्ट्रौनिक चैनलों पर जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह आपसी भाईचारा बढ़ाने के बजाय झगड़ेफसाद पैदा करने का काम करती है, जिस का फायदा भाजपा को हुआ.
मिसाल के तौर पर उन्होंने एक टैलीविजन चैनल पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए कहा था कि ‘नरेंद्र मोदी हमारे प्रधानमंत्री नहीं हैं.’
संघ परिवार ने इसे हिंदूमुसलिम धु्रवीकरण के लिए जम कर इस्तेमाल किया. इस बयान से बहुसंख्यक समाज में यह पैगाम गया कि मुसलिम अपने अलावा किसी दूसरे की अगुआई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. इस ने बहुसंख्यक समाज के वोटरों को भी भाजपा के पाले में आने पर मजबूर कर दिया.
वहीं आजम खां की भी भाजपा की ओर वोट खिसकाने में अहम भूमिका रही. उन्होंने किसी समस्या पर तथ्यों पर आधारित आंकड़ों से नीतिगत बातचीत करने के बजाय ‘बादशाह’ या ‘राजा’ कह कर नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया, जिस का वोटरों पर गलत असर पड़ा और लोगों में नरेंद्र मोदी के लिए हमदर्दी पैदा हो गई.
इन चुनावों को ले कर जहां एक ओर सियासी पार्टियां अपनी पूरी ताकत लगाए हुए थीं, वहीं दूसरी ओर मुसलिम संगठन भी इसे बहुत अहम मान रहे थे.
अखबारों में उन के बयान और भाजपा के सत्ता में आने पर संदेहों से लेख भरे थे, जिस से वोटरों को सचेत करते हुए उसे नाकाम करने की बात कही जा रही थी. लेकिन नाकाम करने का क्या तरीका हो, इस पर मुसलिम संगठन कुछ भी बोलने को तैयार नहीं थे, क्योंकि तब उन का सीधा मुकाबला सैकुलर पार्टियों से था.
यही वजह थी कि मुसलिम संगठनों के फैडरेशन ‘आल इंडिया मुसलिम मजलिस ए मुशावरत’ की 3 बैठकें दिल्ली में हुईं. इन में कई मुसलिम संगठनों के पदाधिकारी शामिल हुए थे, पर वे भी किसी एक नतीजे पर नहीं पहुंच सके कि वोटरों से वोट देने के लिए किस पार्टी के हक में अपील की जाए. जबकि इस के पहले जमायत ए इसलामी हिंद, मुशावरत और आल इंडिया मिल्ली काउंसिल सैकुलर पार्टियों के उम्मीदवारों के नामों की लिस्ट जारी कर उन्हें वोट देने की अपील करती थीं. लेकिन तब ये सभी संगठन अपनेअपने लैवल पर काम करते थे, संयुक्त रूप से किसी एक मामले पर सहमत न होने के चलते इस बार वोटरों के विवेक पर छोड़ दिया गया कि वे किसे वोट दें.
सवाल यह है कि अगर असलियत में इतना ही खतरा था, जितना इन संगठनों की ओर से बताया जा रहा था, तो इन संगठनों ने जमीनी लैवल पर कोई सर्वे कर वोटरों का मार्गदर्शन क्यों नहीं किया, जिस से मुसलिम वोटों की ताकत बनी रहती और वे बेअसर नहीं होते?
14वीं लोकसभा और हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में एक यही बात तो समान नजर आती है कि धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली पार्टियों ने भाजपा और संघ परिवार की नीतियों और देश पर पड़ने वाले असर पर ठोस रूप से बात नहीं की और नरेंद्र मोदी पर निशाना साधने में गुजार दिया.
केंद्र सरकार के 33 महीनों में मुसलिम नेतृत्व की भूमिका को भी देखना बहुत जरूरी है. परंपरा के उलट मुसलिम संगठनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दूरी बनाए रखी. यह दूरी गुजरात दंगों को ले कर थी. लेकिन क्या मुसलिम संगठनों का यह क्रियाकलाप असदुद्दीन ओवैसी की कही गई बात से मेल नहीं खाता है?
कुछ समय पहले मुसलिम संगठनों की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के लिए कुछ कोशिश की गई, लेकिन जब यह खबर आम हो गई, तो यह मिशन ठंडा पड़ गया. इस से इस बात की तसदीक होती है कि मुसलिम संगठनों में से कुछ प्रधानमंत्री से मिलने में कोईर् संकोच नहीं करते हैं और उन के सामने मुसलिम समस्याओं का उठाना वे अपना लोकतांत्रिक फर्ज समझते हैं.
इस के साथ ही पीस पार्टी और आल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुसलीमीन (एमआईएम) एकदूसरे को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंट साबित करने में जुटी थीं और उर्दू अखबरों में पूरे पन्ने पर इस बाबत इश्तिहार छपवाए जा रहे थे.
मुसलिमों को परवान चढ़ाने की बात सालों से हो रही थी, लेकिन हैरानी की बात यह थी कि कईर् जगहों पर पीस पार्टी और एमआईएम आपस में टकराती नजर आईं, जिस ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि कैसा मुसलिम नेतृत्व और कैसे इस को परवान चढ़ाना?
इस के अलावा दोनों पार्टियों के कर्ताधर्ता कई आरोपों के घेरे में रहे. एमआईएम पर संघ और भाजपा से निकट होने का आरोप लगता रहा है, वहीं पीस पार्टी के पदाधिकारियों पर यह आरोप लगता रहा है कि वे योगी आदित्य नाथ से हाथ मिलाए हुए हैं. दोनों पार्टियों ने कोई ऐसा बुनियादी मुद्दा नहीं उठाया, जो वोटरों पर खासा असर डाल सके. अब यह तय माना जा रहा है कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की अपनी थ्योरी को भाजपा और संघ परिवार बहुसंख्यक के एक बड़े हिस्से को मनवाने में कामयाब हो गया है.
जमायत ए इसलामी हिंद ने एक कदम आगे बढ़ कर यह फैसला लिया कि वह अपनी समस्याओं के लिए प्रधानमंत्री के बजाय राष्ट्रपति से मिलेगी. प्रधानमंत्री जनप्रतिनिधि होता है और इसी वजह से वह जनता के प्रति जवाबदेह होता है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी यही है, लेकिन जिस तरह से प्रधानमंत्री की अनदेखी की गई, उस ने बहुसंख्यक समाज को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि मुसलिम संगठन एक ही तरह से सोचते हैं. शब्द चाहे जो इस्तेमाल करें, लेकिन उन का मतलब एक ही है.
जमीयत उलेमा ए हिंद के दूसरे धड़े के अध्यक्ष ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की ओर अपना झुकाव दिखा कर भी एक खास तरह का माहौल बनाने में मदद की. इस से लगा कि सभी मुसलिम संगठन और उन के जिम्मेदार रहनुमा ‘भाजपा हटाओ’ की अघोषित राजनति पर काम कर रहे हैं. इस को बहाना बना कर संघ परिवार द्वारा बहुसंख्यकों के दलित और पिछड़े तबके को गोलबंद करने में आसानी हुई.
जो नतीजे आए हैं, उन के लिए क्या मुसलिम नेतृत्व अपनी जिम्मेदारी से बच सकता है? अगर मुसलिम नेतृत्व सच में गंभीर है, तो उसे चाहिए कि वह ‘भाजपा हटाओ’ एजेंडे पर खुली चर्चा कराए, वरना मुसलिम वोटों की ताकत कैसे बढ़ेगी, यह सवाल अधूरा ही रहेगा.
लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए प्रधानमंत्री से मुसलिम संगठनों द्वारा दूरी बनाए रखना किस ओर संकेत करता है? क्या इस से आम मुसलिम का भला हो पाना मुमकिन है?
पहले छोटे से छोटे मुद्दे को ले कर मुसलिम संगठन प्रधानमंत्री से मिलने को इतने उतावले रहते थे कि अकसर इस की खबरें अखबारों में आती थीं, जबकि सचाई यह थी कि आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार मुसलिम नौजवानों को ले कर जैसे ही मुसलिम जमायतों का प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से मिलता, उस के 2-3 दिन के अंदर और भी मुसलिम नौजवान गिरफ्तार कर लिए जाते, लेकिन इस आधार पर कभी किसी मुसलिम संगठन ने प्रधानमंत्री से मिलने में संकोच नहीं किया. ऐसे हालात में अब जो माहौल बना है, क्या मुसलिम संगठन उस पर भी कोई सोचविचार करेंगे?