हैडलाइनें जो देश के प्रमुख समाचारपत्रों के मुख्य पृष्ठों पर 2 फरवरी को प्रकाशित हुईं या 1 फरवरी को टीवी न्यूज चैनलों ने हल्ले में कहीं, बारबार कहीं और विशेषज्ञों के माध्यम से कहलवाईं, उन में जो कहा गया और बजट प्रस्तावों की सत्यता में कितना मेल है, जरा देखें और समझें :

टाइम्स औफ इंडिया : ‘वूविंग हैव-नौट्स’, हिटिंग हैव-नोट्स, यानी बजट ने उन्हें खुश किया जिन के पास कुछ नहीं है और उन पर प्रहार किया जिन के पास नोटों के भंडार हैं.

इंडियन ऐक्सप्रैस : ‘नो-नौनसैंस बजट’. यानी बिना खराबी वाला बजट.

इकोनौमिक टाइम्स : ‘नो फायरवर्क्स, एफएम शूट्स स्ट्रेट’. यानी आतिशबाजी नहीं, सीधा निशाना.

दैनिक जागरण : ‘सियासत में कालेधन पर चाबुक’, यानी नेताओं के कालेधन पर लगाम कसी और उन्हें पकड़ कर उन पर चाबुक चलेगा.

हिंदुस्तान टाइम्स :  ‘सेफ बजट, हाइक्स रूरल, इन्फ्रा स्पैंड’. यानी पूरी तरह से जनहित का सुरक्षित बजट.

नवभारत टाइम्स : ‘जेटली ने साधा टैक्स चोरों पर निशाना’, और ‘मितरो’… यानी अरुण जेटली इस बजट के जरिए  टैक्सचोरों को निशाने पर ले रहे हैं और मितरो का मतलब तो हर कोई जानता है ही.

अमर उजाला : ‘जेब में आई उम्मीदें.’ यानी इस बजट से आम जनता की जेबें भर जाएंगी.

जी न्यूज : ‘युवाओं पर फोकस’. यानी रोजगार का खजाना निकलेगा

और युवाओं के लिए रोजगार संबंधी ढेरों फायदे.

इंडिया टीवी और न्यूज 24 : ‘नया नोट नया बजट’. यानी इस बार बजट में जनता के लिए काफीकुछ नया है.

आज तक : ‘किसानों के लिए सरकार ने खोला पिटारा’. यानी बजट से अब किसानों की खस्ताहालत में सुधार होगा.

हिंदुस्तान : ‘जेटली का बजट दांव,  करोड़ों मतदाताओं पर करम’. यानी बजट के नाम पर आम जनता और राज्यों के चुनावों के करदाताओं पर कोई एहसान किया गया है.

हैडलाइन और खबर में फर्क

इन शीर्ष खबरों और बजट प्रस्तावों में क्या कोई तालमेल है? बिलकुल नहीं. कैसे? आइए जानते हैं. उदाहरण के तौर पर ‘वूविंग हैव-नौट्स’, हिटिंग हैव-नोट्स वाली हैडलाइन से लगता है कि उन्हें खुश किया जा रहा है जिन के पास पैसे नहीं हैं. यहां गरीबों की बात की जा रही है.

सवाल है कि इन के लिए बजट में ऐसी कौन सी घोषणा कर दी गई है जो आने वाले बजट साल यानी 2017-18 में इन लोगों को खुश कर देगी, जिन के पास पैसे नहीं हैं. यह एक तरह का फरेब है. वजह, इस अखबार ने जिस दिन यह खबर प्रकाशित की थी, उसी दिन घरेलू गैस यानी एलपीजी के 67 रुपए महंगी होने की खबर भी छपी थी. क्या इसी महंगाई से, जिन के पास कुछ नहीं है, उन्हें राहत मिल जाएगी?

बजट समाचार कुछ और ही सब्जबाग दिखा रहा है लेकिन बजट प्रस्तावना में गरीबों के लिए कोई खास तोहफा नहीं है. बजट भाषण या प्रस्तावों में वही बातें दोहराई गई हैं जो अरुण जेटली से पहले प्रणब मुखर्जी, मनमोहन सिंह, मोरारजी देसाई से ले कर पी चिदंबरम आदि कमबढ़ती दोहराते रहे हैं, जब वे देश के वित्त मंत्री थे.

अरुण जेटली ने 5 लाख रुपए सालाना तक की आय वाले करदाताओं के लिए कर की दर को मौजूदा 10 प्रतिशत से घटा कर 5 प्रतिशत कर दिया. यानी अब साढ़े 3 लाख रुपए के टैक्सयोग्य इनकम वाले व्यक्ति को सिर्फ 2,575 रुपए टैक्स देना होगा, जो पहले 5,150 रुपए देने पड़ते थे. यह तो ऊंट के मुंह में जीरा है.

एक तरफ एलपीजी महंगी कर दी गई और दूसरी तरफ केंद्र सरकार कहती है कि अगले वित्तवर्ष से राशन की दुकानों से बिकने वाली चीनी के लिए वह राज्यों को 18.50 रुपए प्रतिकिलो के हिसाब से सब्सिडी नहीं देगी. इस से जाहिर है कि चीनी के दाम बढ़ सकते हैं. यानी देश में राशन, पानी और गैस से ले कर हर सामान महंगा और टैक्स का बोझ डाल कर बेचा जाएगा. फिर भी बजट में जिन के पास नोट नहीं हैं, उन को खुश करने के झूठे दावे किए जा रहे हैं.

वित्त मंत्री इस गलतफहमी में हैं कि कैशलैस इकोनौमी से टैक्स की वसूली बढ़ेगी, लेकिन आखिर में यह भार आम जनता पर ही बढ़ेगा क्योंकि पहले आम लोग राशन की दुकानों से नकद माल खरीद कर जिस थोड़े से टैक्स से बचते थे अब उन्हें उस पर भी कई तरह के सर्विस व वैटनुमा टैक्स देने होंगे. इस से आम लोगों की जेब, जो पहले से ही खाली है, और खाली होगी. क्या सिर्फ टैक्स में 2,575 रुपए की राहत मिलने भर से इसे महान बजट बता कर इस का महिमामंडन करना जायज है?

यह बजट ‘नो-नौनसैंस’ कैसे हो सकता है? बजट में जिन योजनाओं व घोषणाओं को सौगात बता कर वित्त मंत्री और अखबार पेश कर रहे हैं, वे सौगातें क्या बजट साल 2017-18 के बीच जनता को मिल जाएंगी? बिलकुल नहीं. इस शीर्षक का मतलब निकालें,  तो आम बजट बहुत ही व्यावहारिक, अर्थपूर्ण व सटीक है. बजट की घोषणा के पहले दिन ही बिना किसी योजना के कार्यान्वयन के ढांचे या बजट में किए गए वादों की समयसीमा जाने बिना अखबार ने इसे रामायण की तर्ज पर संपूर्ण बजट होने के भरम की तरह रचा है.

शीर्षक ‘नौकरीपेशा की लौटरी’ और ‘युवाओं पर फोकस’ का ढोल बजा कर भरम फैलाया जा रहा है कि बजट की टैक्स नीतियों से रोजगार और नौकरियों के अवसर बढ़ेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होने वाला. नरेंद्र मोदी सरकार की 2 दर्जन से अधिक योजनाएं रोजगार व आमदनी बढ़ाने में विफल रही हैं. हमारी अर्थव्यवस्था सिर्फ खपत के इंजन पर चल रही है, जिस में नई नौकरियां पैदा नहीं हो रहीं. देश में एकतिहाई लोग बेरोजगार हैं, जबकि वर्ष 2015 में सिर्फ 1.35 लाख नौकरियों का ही सृजन हुआ. मिलीं कितनों को, यह बाद की बात है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, आटोमेशन (स्वचालन) की बदौलत भारत में 69 फीसदी नौकरियों पर तलवार लटक रही है. ऐसे में यह बजट देश के युवाओं को पर्याप्त रोजगार कैसे देगा?

एक करोड़ लोगों को रोजगार के हवाई सपने दिखा रहे इस बजट से क्या अगले साल तक इतने रोजगार मिलना संभव हैं? कहां से पैदा होंगी इतनी नौकरियां? वह भी तब जब भारतीय आईटी कंपनियों की 60 फीसदी आमदनी अमेरिका से होती है, जो नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेतुकी नीतियों की वजह से खतरे में हैं.

डिजिटल इकोनौमी से भारत में बेरोजगारी बढ़ने के साथ अमेरिकी इंटरनैट कंपनियों को अनुचित फायदा हो रहा है,  जिस के लिए बजट में समुचित प्रावधान नहीं किए गए. ऊपर से डोनाल्ड ट्रंप भारत में काम कर रही मल्टीनैशनल कंपनियों, जो माल यहां से बना कर अमेरिका भेजती हैं, पर भी चाबुक चलाने की फिराक में हैं. ऐसे में रोजगार के हालात बदतर ही होंगे. लेकिन बजट में सब हरा ही हरा बताया व दिखाया जा रहा है.

दावों की लौलीपौप

बजट प्रस्तावना में किसानों के लिए सिंचाई से ले कर तरहतरह के कर्ज और सुविधाओं के दावे हैं. ‘किसानों के लिए सरकार ने खोला पिटारा,’ ‘किसानों के लिए 10 लाख करोड़ रुपए का कर्ज’, ‘पूर्वोत्तर और जम्मूकश्मीर के किसानों को प्रमुखता’, ‘मनरेगा के लिए 48 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान’, ‘गांवों में

10 लाख तालाब’, ‘कोऔपरेटिव बैंकों में सेवाओं को डिजिटल बनाने के लिए 3 साल में 1,900 करोड़ रुपए का प्रस्ताव’ जैसी बड़ीबड़ी बातें कही गई हैं. इस के अलावा ‘नाबार्ड के अंतर्गत डेयरी प्रोसैसिंग इन्फ्रा फंड के तहत 8,000 करोड़ रुपए का प्रावधान’ और ‘फसल बीमा योजना की रकम 5,500 करोड़ रुपए से बढ़ा कर 13 हजार करोड़ रुपए’ जैसे लुभावने वादे हैं. ऐसे वादे हर साल किए जाते हैं. हकीकत से उन का कोई लेनादेना नहीं है.

किसानों के लिए बजट का भला क्या महत्त्व है. 5 वर्षों में उन की आय दोगुनी होने के बजाय आधी रह जाएगी. उन की समस्या है उत्पादन का उचित दाम न मिलना, बिचौलियों के चलते उन की मेहनत किसी और की जेबों में चली जाती है.

‘गुजरात व झारखंड में 2 नए एम्स’ खोलने की घोषणा ऐसे की गई है मानो दोनों अस्पताल अगले ही साल बन कर जनता के इलाज के लिए खोल दिए जाएंगे. ‘लंबी सड़कों का निर्माण होगा’, ‘स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होगा’, ‘रोजगार के मौके आएंगे’, ‘देश का हर गांव बिजली से संपन्न होगा’, और ‘शिक्षा का स्तर सुधरेगा’ जैसे तमाम अच्छे दिनों की तर्ज पर गढ़े गए जुमले मोदी सरकार ने बजट की फर्जी दूरदर्शिता वाली स्कीम में फिट कर दिए हैं, जिन को मीडिया ने हाइलाइट किया है. लंबी सड़कें कब बनेंगी? कौन इन्हें नापने जाएगा कि कितनी सड़कें बनी हैं?

सरकार देशभर में पहले से मौजूद सरकारी अस्पतालों की हालत तो दुरुस्त कर नहीं सकी और बातें नए एम्स बनाने की कर रही है. देश की प्रगति के लिए व स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के लिए नए बड़े अस्पताल बनाना ठीक है, पर ऐसा होने में सालों लग जाएंगे. इस से अच्छी पहल तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ‘महल्ला क्लिनिक’ बनाने की है, जो घोषणा करने के बाद न सिर्फ तुरंत बन गए, बल्कि राजधानी के तकरीबन हर महल्ले में सफलतापूर्वक चल भी रहे हैं. वहां मुफ्त इलाज और जांचें हो रही हैं. मरीज का हाथोंहाथ औनलाइन रिकौर्ड भी बन रहा है, ताकि अगली बार आने पर उस को ब्योरा दोबारा न देना पड़े और इलाज सुचारु रूप से चल सके.

सीधा निशाना किस पर?

‘नो फायर वर्क्स, एफएम शूट्स स्ट्रेट’ शीर्षक के हिसाब से जो सीधा निशाना साधा गया है, वह किस पर साधा गया है, पता नहीं. नोटबंदी के नाम पर कालेधन वालों को निशाना बताया गया लेकिन शिकार हो गया गरीब. जो चंद नोटों को बदलवाने के लिए हफ्तों बैंकों की लाइनों में धक्के खाता रहा. क्या ऐसा ही सीधा निशाना फिर से बजट के माध्यम से साधा गया है? अगर ऐसा है तो यह आम जनता के लिए चिंता की बात है. इस में टैक्स देने वाले लोग भी पिसे हैं.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने टैक्स देने वालों के आंकड़े पेश करते हुए बताया कि साल 2015-16 में कुल 3 करोड़, 70 लाख लोगों ने इनकम टैक्स रिटर्न फाइल किया. इन में से 99 लाख करदाताओं ने सालाना आय टैक्स छूट की लिमिट ढाई लाख रुपए से कम बताई. वहीं, 1 करोड़, 95 लाख लोगों ने अपनी इनकम ढाई लाख से 5 लाख रुपए सालाना घोषित की. 52 लाख करदाताओं ने 5 लाख से 10 लाख रुपए तक अपनी सालाना आमदनी बताई, जबकि महज 24 लाख लोगों ने अपनी सालाना आमदनी 10 लाख रुपए से ज्यादा घोषित की.

जब भी बजट पेश किया जाता है, तो टैक्स देने वालों से ज्यादा टैक्सचोरों की बात की जाती है कि वे किस तरह अपनी आमदनी कम दिखा कर सरकार को वाजिब टैक्स देने से बच जाते हैं. क्या सरकार ऐसे ‘टैक्स चोरों’ पर निशाना साधती है. लोगों की आमदनी, उपयोग और उन के टैक्स चुकाने में बड़ा अंतर है.

सवाल उठता है कि देश में ऐसे हालात ही क्यों बने हैं कि लोगों को टैक्स चोरी करनी पड़े? इस की सब से बड़ी वजह यह है कि खुद को मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं की अनदेखी के चलते देश की आजादी के इतने साल बाद भी लोग टैक्स देने से बचते हैं या उन्हें अपनी मेहनत की आमदनी पर टैक्स वसूला जाना सरकार का डाका डालना लगता है.

उदाहरण के तौर पर एक खबर लेते हैं. देश की राजधानी दिल्ली से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश राज्य में एक छोटा सा गांव मोतीपुर है. गांव में ‘मोती’ जैसा उजला शब्द जुड़ा होने के बावजूद इस गांव के लोग बिजली की राह देख रहे हैं. यकीन नहीं होता, लेकिन यहां के बाशिंदों का दावा है कि उन्होंने अपने गांव में पिछले तकरीबन 35 सालों से बिजली के दर्शन नहीं किए हैं. इतना ही नहीं, इस गांव में न कोई डिस्पैंसरी है, न स्कूल है और कई जगह तो रास्ता भी धूलभरा है.

मोतीपुर गांव के लिए बिजली की दिल्ली अभी दूर है, लेकिन भारत के दिल दिल्ली में कौन से हालात सुधर गए हैं. शर्म की बात है कि यहां की जितनी ट्रैफिक लाइटें हैं, वे सही माने में कभी भी दुरुस्त नहीं रहती हैं.

दिल्ली के भारी ट्रैफिक में ये लाइटें लोगों की जान और उन की गाडि़यों का ईंधन बचाने का काम करती हैं, पर हालात वही ढाक के तीन पात हैं. भारत की तमाम सरकारें जब बुनियादी सुविधाएं ही देने में नाकाम रही हैं, तो वे किस हक से लोगों से टैक्स की वसूली करना चाहती हैं?

‘अरुण जेटली का बजट दांव, करोड़ों मतदाताओं पर करम’ से साफ है कि अखबार ने बजट में पेश की गई राजनीति को सूंघ कर खबर लिखी कि वित्त मंत्री ने 21.47 लाख करोड़ रुपए का बजट पेश किया. यह रकम पिछले बजट से 1.69 लाख करोड़ रुपए ज्यादा है.

क्या कोई वक्त लिए बिना बता सकता है कि 21.47 लाख करोड़ रुपए में कितने जीरो होते हैं? सब से बड़ा एतराज तो इस बात का है कि इस बजट ने करोड़ों मतदाताओं पर करम कैसे कर दिया? करम तो कर्महीन पर किया जाता है. क्या सरकार बजट के नाम पर देने वाली सुविधाओं को जनता में खैरात के तौर पर बांटती है? बजट तोहफा है या टौर्चर, यह तो जनता को आने वाले समय में मालूम हो जाएगा. अखबारों द्वारा इसे तोहफा बताने की जल्दबाजी हजम नहीं होती.

नोटबंदी भी फेल

‘करदाताओं को नोटबंदी का तोहफा’ कहने वाले भूल गए हैं कि नोटबंदी के दौरान पेटीएम जैसी कंपनियां कमाई करती रहीं और आम आदमी डिजिटाइजेशन के नाम पर ठगा गया.

मीडिया अफोर्डेबल हाउसिंग सोसाइटी, रियल एस्टेट प्रोजैक्ट और लोगों को आशियाना मिलने में आसानी जैसे जुमले दोहराते हैं और यह भी बताते हैं कि प्रधानमंत्री आवास योजना की बजट राशि 15 हजार करोड़ रुपए से बढ़ा कर 23 हजार करोड़ रुपए कर दी गई है, लेकिन इन तथ्यों का कहीं जिक्र नहीं है कि विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) की रिपोर्ट के अनुसार, तकरीबन सवा अरब की आबादी वाले हमारे देश में 91 करोड़ (73 फीसदी) लोग गरीबी के चंगुल में हैं, जिन में से 23 करोड़ लोग घोर गरीब हैं. सरकारी योजनाएं गरीबों को दो वक्त का खाना मुहैया कराने में विफल रही हैं, फिर 1 करोड़ मकानों का सपना कैसे साकार होगा? क्या आम जनता ने अपने सिर पर जो छतें बनाई हैं, उन में कभी भी सरकार का योगदान रहा है? ये लोगों की कड़ी मेहनत और पाईपाई के जोड़ से बनी हैं.

मनरेगा की बजट राशि में बढ़ोतरी कर अपनी पीठ थपथपाने वाली सरकार पिछले बजट की मनरेगा पर खर्च की गई राशि का हिसाब देने में तो बगलें झांकती है, ऐसे में इस बढ़ाई गई राशि की क्या परिणीति होगी, बताने की आवश्यकता नहीं है. मनरेगा के लिए पिछले बजट में 38,500 करोड़ रुपए का प्रावधान था, जबकि वास्तविक खर्च 58,000 करोड़ रुपए हुआ. ऐसे में बजट राशि, जो कि जनता की जेब काट कर वसूली जाएगी, बढ़ाने से अच्छा पुरानी राशि को पारदर्शिता से खर्चने पर काम किया गया होता, तो बेहतर होता. वैसे भी बजट में मनरेगा हेतु सिर्फ जिस राशि का आवंटन किया गया है, वह ग्रामीण भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए नाकाफी है.

‘सेफ्टी अमेनिटीज टू पुट रेलवेज बैक औन द ट्रैक’ का राग आलाप रहे मीडिया को भारतीय रेलवे से जुड़े न तो दयनीय आंकड़े याद आते हैं और न ही रेल की खस्ताहाल व्यवस्था. आएदिन रेल के हादसे, ट्रेनों की लेटलतीफी और यात्रियों को मिलता सड़ागला खाना जैसी दिक्कतें जस की तस कायम हैं.

बजट को ‘प्रो पुअर’ यानी गरीबों के हित का भला कैसे बताया जा सकता है? आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, साल 2001 से 2011 के दौरान 10 वर्षों में 8 करोड़ मजदूर गांवों से पलायन कर शहर आ गए हैं. देश में गरीबीरेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या करीब साढ़े 5 करोड़ है. जबकि 23 करोड़ लोग घोर गरीबी का जीवन जी रहे हैं. उन वंचित वर्गों के अच्छे जीवन के लिए ढांचागत विकास हेतु बजट में पर्याप्त प्रावधान नहीं किए गए हैं.

कालेधन की गंगा

‘सियासत के कालेधन पर चाबुक’ कहने से कालेधन पर लगाम नहीं लगेगी. यह बात किसी से नहीं छिपी है कि कालेधन की गंगा निकलती कहां से है. अगर पिछले 70 वर्षों से राजनीतिक दलों की फंडिंग को पारदर्शी नहीं रखा गया, तो क्या इस में आम जनता की गलती है?

3 लाख रुपए से ज्यादा के लेनदेन पर नजर रखने का दावा करने से पहले यह किसी ने नहीं सोचा कि देश में ऐसे लेनदेन पर नजर रखना नामुमकिन है.

अगर कोई किसान किसी से ट्रैक्टर खरीदता है और सोना बेच कर लिए गए पैसे उस ट्रैक्टर मालिक को दे कर बिना कागजात ट्रांसफर किए उस गांव में उसे चलाता है तो भला इस लेनदेन की भनक सरकार को कैसे लगेगी? ऐसे कई लेनदेन सरकार की नाक के नीचे होते रहे हैं और होते रहेंगे.

कालेधन पर जो ‘डिजिटल नकेल’ कसने की बात की जा रही है, वह भी हवाहवाई लग रही है, क्योंकि डिजिटल तकनीक में साइबर क्राइम का खतरा बढ़ जाता है. ऐसा नहीं है कि कंप्यूटर इमरजैंसी रिस्पौंस टीम बनाने का प्रस्ताव पास नहीं हो सकता है, पर किसी भी सरकार ने अभी तक तो इस बारे में कोई गंभीर पहल नहीं की है.

सब से बड़ा सवाल तो यह है कि राजनीतिक दलों के पास पैसा कहां से आ रहा है, यह सवाल पूछने कौन जाएगा? आम आदमी तो सरकारी दफ्तर में घुसने तक से घबराता है कि कहीं किसी बात पर उस से घूस न मांग ली जाए. ऐसे में फिर कालेधन को चंदे के रूप में चबाने वाले राजनीतिक मगरमच्छों के तालाब में कौन उतरना चाहेगा?

मीडिया का दायित्व

बजट पेश करना सरकार का काम है. यह तो हर साल होता है. यह होता तो एक साल का है, पर सरकार की चतुराई और मीडिया के भरम से ऐसा दिखाया जाता है कि  आज से पहले ऐसा बजट मानो पहले कभी पेश ही नहीं किया गया, जबकि आम जनता तो महज इतना चाहती है कि उस की बुनियादी जरूरतें कैसे पूरी होंगी. इस के लिए ज्यादातर लोग तो सरकार का मुंह भी नहीं देखते हैं. लेकिन जब मीडिया बजट को संजीवनी बूटी की तरह पेश करता है तो देशवासी बजट को ही सबकुछ मान लेते हैं. क्या यही है मीडिया का दायित्व?

अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थौमस जेफरसन ने तो सरकार और अखबार में से अखबार चुनने की बात कही थी. मतलब सरकार का अस्तित्व भले ही न रहे, पर अखबार हमेशा जिंदा रहने चाहिए.

आमतौर पर इतने महत्त्वपूर्ण मीडिया को सरकार नियंत्रित नहीं करती, लेकिन क्या आज मीडिया सरकार और कौर्पोरेट जगत के स्वार्थ के लिए काम करता है? आखिर आम आदमी, खासकर ग्रामीण इलाकों के कमजोर तबकों के लोगों की आजीविका से जुड़े मुद्दे मीडिया में महत्त्वपूर्ण खबर क्यों नहीं बन पाते हैं? बजट को ले कर भी यह बात कही जा सकती है. मीडिया, आखिर, अपने नैतिक मूल्यों की जिम्मेदारियों से तो नहीं बच सकता. लेकिन आज वह इन सब की अवहेलना करता दिखता है, जो स्वस्थ समाज के लिए सही नहीं है.

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