राज कपूर ने साल 1985 में फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ बनाई थी, जो पहाड़ के गांव पर आधारित थी. इस में हीरोइन मंदाकिनी ने गंगा का किरदार निभाया था. फिल्म का सब से चर्चित सीन वह था, जिस में मंदाकिनी झरने के नीचे नहाती है. वह एक सफेद रंग की सूती धोती पहने होती है. पानी में भीगने के चलते उस के सुडौल अंग दिखने लगते हैं.
उस दौर में गांव की औरतों का पहनावा तकरीबन वैसा ही होता था. सूती कपड़े की धोती के नीचे ब्लाउज और पेटीकोट पहनने का रिवाज नहीं था. इस की वजह गांव की गरीबी थी, जहां एक कपड़े में ही काम चलाना पड़ता था.
गांव को ले कर तमाम दूसरी फिल्मों में भी ऐसे सीन देखने को मिल सकते हैं. ‘मदर इंडिया’, ‘शोले’, ‘नदिया के पार’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, ‘तीसरी कसम’, ‘लगान’ जैसी तमाम फिल्मों में गांव के सीन दिखते हैं.
इन फिल्मों को देखने के बाद आज के गांव देखेंगे तो लगेगा कि गांव बेहद बदल गए हैं. अब गांव की लड़कियों को जींस, स्कर्ट, टौप में देख सकते हैं.
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फिल्म ‘नदिया के पार’ जैसे सीन अब गांवों में नहीं दिखते हैं. न वैसा पहनावा दिखता है और न ही वैसी बोली. 21वीं सदी के गांव ऊपर से देखने में
बहुत बदले दिखते हैं, विकसित दिखते हैं, पर अब वहां के लोगों की सोच में कट्टरपन आ गया है, जिस की वजह से गांव पहले के मुकाबले आज ज्यादा पिछड़े दिखने लगे हैं.
सोच में बढ़ रहा कट्टरपन
देश के ज्यादातर गांवों में पिछले 20-25 साल के मुकाबले हालात बदले हुए दिख रहे हैं. गांव वालों के पहनने के कपड़े बदल गए हैं. पहले की तरह कच्चे मकान कम दिखते हैं. गांव की गलियों में खड़ंजे लग गए हैं, जिस की वजह से गांव की गलियां पक्की दिखने लगी हैं. गांव की दुकानों में पैकेटबंद सामान मिलने लगे हैं. चाय, छाछ और दूध की जगह कोल्डड्रिंक पीने का चलन बढ़ गया है.
गांव के करीब तक पक्की सड़कें पहुंच गई हैं. शादीब्याह और दूसरे मौकों पर होने वाली रौनक बढ़ गई है. गांव में सरकारी स्कूल हैं, पर उन में पढ़ने वाले बच्चे कम हैं. प्राइवेट स्कूलों का चलन बढ़ गया है.
पर अगर नहीं बदली है तो गांव के रहने वालों की सोच. इस सोच में जाति और धर्म के लैवल पर कट्टरपन और छुआछूत पहले के मुकाबले बढ़ गई है. एकदूसरे के प्रति सहयोग की भावना कम हो गई है.
गांव में चौपालें अब लगती नहीं दिखती हैं. एकएक गांव में कईकई गुट बन गए हैं. नई उम्र के लोग गांव में कम दिखते हैं. गांव की जगह कसबों के बाजारों और शहरों में लोग काम करने चले जाते हैं.
पहले के लोग कम पढ़ेलिखे होते थे, पर सम झदार और सहनशील होते थे. इस वजह से गांव में झगड़े कम होते थे और जब होते थे तो आपस में मिलबैठ कर लोग सुल झा लेते थे. पंचों का कहना सभी मानते थे. पर अब जब तक कोई मसला थाने और तहसील तक नहीं पहुंचता है, तब तक वह हल नहीं होता है.
इस की वजह से थाने और तहसील की नजर में गांव दुधारू पशु जैसे हो गए हैं. अगर गांव के झगड़े वहीं निबट जाएं तो पुलिस और वकील पर खर्च होने वाला इन का पैसा भी बचेगा.
गांवदेहात में दलित और ऊंचे तबके के लोगों के बीच आपसी दुश्मनी में दलित ऐक्ट का इस्तेमाल तेजी से बढ़ गया है. इस से समस्या का समाधान नहीं होता है. पुलिस जांच के नाम पर ज्यादा पैसा मांगती है. कई बार दलित ऐसे झगड़ों में मोहराभर होते हैं. दलित ऐक्ट लगने से जमानत जल्दी नहीं मिलती. आरोपी को ज्यादा दिन जेल में रहना पड़ता है.
एसपी रैंक के एक अफसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘‘गांव के झगड़ों में औरतें और दलित मोहरा बन कर रह गए हैं. लोग दलित और औरतों को आगे कर के दलित ऐक्ट और बलात्कार के झूठे मुकदमे लिखा कर अपने विरोधी को परेशान करने लगे हैं.’’
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पहनावा बदला, सोच नहीं
पुराने समय में गांव की ज्यादातर औरतें सूती धोती पहनती थीं. इस के नीचे वह पेटीकोट या ब्लाउज नहीं पहनती थीं. पैरों में चप्पल कम ही होती थीं. उम्र के साथ सफेद होते बाल दिखने लगते थे. साबुन, क्रीम, पाउडर का इस्तेमाल कम होता था. गांव की औरतें बाल नहीं कटाती थीं. वे हाटबाजार में खरीदारी करने नहीं जाती थीं. घर के बाहर कम निकलती थीं, परदा प्रथा ज्यादा थी.
अब हालात में बदलाव दिखता है. औरतें पहले से भी ज्यादा कट्टर हो गई हैं. करवाचौथ की पूजा पहले गांवदेहात में कम होती थी. अब ज्यादा होने लगी है. गांवगांव में देवी की पूजा ज्यादा होने लगी है. प्रवचन और भजन होने लगे हैं. गांव में ऐसे मौकों पर सब से ज्यादा औरतें ही वहां दिखती हैं.
गांव की औरतें पहले खेतों में काम और पशुओं की देखभाल करती थीं, पर अब वे यह नहीं करती हैं. हां, भजन और प्रवचन सुनने में समय जरूर गंवाने लगी हैं. पढ़ीलिखी लड़कियां भी पूजापाठ में लगी रहती हैं. अच्छा दूल्हा मिल जाए, अच्छी शादी हो जाए, इस के लिए सावन के 16 सोमवार का व्रत रखने लगती हैं.
धार्मिक कहानियों में बताया जाता है कि जो लड़की सावन के 16 सोमवार का व्रत रखेगी, उसे अच्छा दूल्हा यानी वर मिलेगा. पुराणवादियों ने यह सोच इसलिए फैलाई है, ताकि नौजवान पीढ़ी दिमागी तौर से उन की गुलाम बनी रहे.
गांव की लड़कियों के जागरूकता कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वाली शालिनी माथुर कहती हैं, ‘‘गांव की लड़कियों की सोच में कट्टरपन आ गया है. वे यह सोचती हैं कि पूजापाठ और धार्मिक कर्मकांड से ही उन का भला होगा. पिछले कुछ सालों में यह सोच तेजी से बढ़ रही है.
‘‘सब से ज्यादा कड़वाहट तो हिंदूमुसलिम को ले कर बढ़ी है. पहले गांव के लोग ईद हो या होलीदीवाली, सब साथ मिल कर मनाते थे, पर अब ये त्योहार भी आपसी दूरियों को कम नहीं कर पा रहे हैं.
‘‘परेशानी की बात यह है कि कट्टरपन का विरोध करने वालों की संख्या में कमी आती जा रही है. लव जिहाद जैसे मसले ये दूरियां और भी ज्यादा बढ़ा रहे हैं. हिंदूमुसलिम लड़केलड़की की दोस्ती को केवल लव जिहाद के रूप में देखना बेहद खतरनाक सोच बन गई है.’’
सेहत पर भारी पुरानी सोच
माहवारी को आज भी गंदगी से जोड़ कर देखा जाता है. आज भी माहवारी होने पर औरतें अछूत सी हो कर रह जाती हैं. उन्हें नहाने तक नहीं दिया जाता है. लोगों से मिलनेजुलने की भी मनाही होती है.
माहवारी के दिनों में औरतों को कहा जाता है कि वे अचार को न छुएं. उन के ऐसा करने से अचार के खराब हो जाने का खतरा हो जाता है. माहवारी में औरतों को खाना बनाने और रसोई में जाने से रोका जाता है.
महिलाओं में माहवारी सुरक्षा को ले कर जागरूकता अभियान में लगी अंजलि श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘गांव में माहवारी को ले कर पुरानी सोच अभी भी कायम है. गांव की 70 फीसदी औरतें माहवारी के दिनों में कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. बहुत सारी कोशिशों के बाद भी वे सैनेटरी पैड इस्तेमाल करने को तैयार नहीं हैं.
‘‘बहुत सारे ऐसे घर हैं, जो पक्के बने हैं. जिन की माली हालत अच्छी दिखती है. जिन घरों में पैसों को ले कर कोई परेशानी नहीं है, वहां की औरतें भी सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं.
‘‘पहले की औरतें इसलिए इस्तेमाल नहीं करती थीं, क्योंकि उन्हें जानकारी नहीं होती थी. आज की औरतों को टैलीविजन और दूसरे जरीयों से यह पता तो चल जाता है कि सैनेटरी पैड को इस्तेमाल न करना खराब होता है, इस के बाद भी वे कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. इस से उन के अंगों में इंफैक्शन का खतरा बढ़ जाता है. सफेद पानी की समस्या और खुजली भी होने लगती है.
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‘‘कई बार ऐसी औरतें इंफैक्शन होने के चलते बच्चे पैदा करने लायक नहीं रहती हैं. इस के बाद भी वे अपनी सेहत की चिंता नहीं करती हैं.’’
पढ़ाईलिखाई पर नहीं जोर
पहले गांव के लड़केलड़कियां इसलिए पढ़ते थे कि उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाएगी. पर आज के दौर में सरकारी और निजी दोनों ही किस्म की नौकरियां खत्म सी हो गई हैं. ऐसे में गांव के लड़केलड़कियां पढ़ाई की उम्र में ही मेहनतमजदूरी करने शहर चले जाते हैं, जहां वे घरेलू नौकर के रूप में भी काम करने लगते हैं.
कई बार पूरे के पूरे परिवार अपने गांव से दूर शहर में घरेलू नौकरी करने लगते हैं. लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में तमाम ऐसे अपार्टमैंट्स बने हैं, जहां सैकड़ों की तादाद में औरतें घरेलू काम करती मिल जाती हैं.
वे खाना बनाने और साफसफाई करने के एवज में हर घर से तकरीबन 1,500 रुपए से ले कर 2,500 रुपए तक हर महीना लेती हैं. ऐसे में बहुत सी तो 15,000 से 20,000 रुपए महीना कमा लेती हैं. वे अपनी छोटी उम्र की लड़कियों को भी स्कूल भेजने की जगह पर घरेलू काम पर लगा देती हैं.
35 साल उम्र की शिवानी अपनी 12 साल की बेटी के साथ यही काम करने जाती है. वह कहती है, ‘‘पति अब मजदूरी नहीं कर पाते. डाक्टर ने उन्हें बो झा उठाने के लिए मना किया है. ऐसे में अब हम मांबेटी ही काम कर के घर का खर्च चलाती हैं.’’
थोड़ाबहुत पैसा आने के बाद ये लोग अपने हालात को भूल कर बड़े लोगों की तरह रहने के लिए उन की बराबरी करने लगते हैं. बड़े लोगों की तरह ही पूजापाठ, व्रत, तीजत्योहार मनाने लगते हैं. पैसा बचाने के लिए कम ही कोशिश करते हैं. ज्यादातर मर्द नशे और जुए की लत के शिकार हो जाते हैं. फिर वे अपनी औरतों को पीटने से बाज नहीं आते हैं.
समाजसेवी इंदु सुभाष कहती हैं, ‘‘पढ़ीलिखी होने के बाद भी बहुत सी औरतें पति द्वारा की गई पिटाई को अपनी किस्मत मान कर चुप रहती हैं. उन्हें लगता है कि उन का पति ही उन का देवता है. जो पति कर रहा है, वह उचित ही होता है. कमाई करने के बाद भी ऐसी औरतें मर्द के पैर की जूती बने रहने में ही फख्र महसूस करती हैं, जिस की वजह से घरेलू हिंसा बढ़ती है. इस का बुरा असर बच्चों पर भी पड़ता है.
‘‘पढ़नेलिखने और नए कानूनों के बाद भी इस रूढि़वादी सोच में बदलाव नहीं आ रहा है. देखने में गांव के हालात और औरतों की जिंदगी भले ही बदली दिखती हो, पर सही माने में सोच वही पुरानी और दकियानूसी है.’’